RISHI/SEER 

Different types of interpretations are available for the meaning of word rishi/seer in vedic and puraanic literature. The word has acquired importance because every hymn of Vedas has got a particular rishi associated with it. At some places in braahmanic literature, rishis have been stated to be praanas/life forces. At other places, it has been stated that those who made efforts and made penances, that gave them the name rishis. On the other hand, the puraanic literature uniquely classifies rishis into 3 categories – those who acquired rishihood by truth, those who acquired by knowledge and those who acquired by penances. At other places, in puraanic texts, it has been stated that rishis composed the mantras for five reasons – for dissatisfaction, for fear, for sorrow, for happiness and for grief/deep sorrow. In Mahaabhaarata, at one place, rishis have been classified as those having tendency of indulgence in activity and those having tendency of abstinence from activity. Vasishtha, Bhardwaaja etc. fall into the first category, while, Sanah, Sanandana, Kapila etc. fall into the second category. But these statements do not satisfy us today because the meanings of words like truth, penances, knowledge etc. are not known today. There is a story in puraanas that a demon stole the vedic mantras and took these into ocean. The mantras got mixed with ocean. Then lord Vishnu ordained the rishis to collect the mantras from the water of the ocean. Then whosoever rishi collected whichever mantra or hymn, that became famous with his name. In this story, it is inherent that rishis collected the essence of water, the juice as has been called in the story. If one tries to translate the classical word juice in modern language, then it can be translated as lowering of entropy of a system. The meaning of lowering of entropy can be understood in the way that, according to the law of thermodynamics, the entropy of the universe is increasing with time. The energy is indestructible. It will remain the same. But it is going in a direction where it will be impossible to take any useful work from it. For example, when the steam is confined in the cylinder of a steam engine, any useful work can be taken from it. When it is release in air, it becomes useless for work. The fact of lowering of entropy by rishis is corroborated by one other anecdote in braahmanic literature. One type of rishis, called Angiras, could not see the sacrifice, the yagnas, but could only see a tortoise with its serpentine motion. These rishis invoked the tortoise to stop, but it did not. They invoked it in the name of Indra, Brihaspati, Ashvinau etc. but it did not stop. It stopped only with the name of Agni, the fire. Here the tortoise has been stated to be symbolic of juice. And it’s stoppage can be interpreted as the lowering of entropy by stoppage of motion, the disorder.

 

Relation of rishis with praanas : When it is stated in braahmanic literature that praanas are the rishis, then here it may be understood that only those pranas which have come into rhythm with mind and speech can be called the rishis ( These are the rishis with truth according to one vedic mantra). In outer world, the trio of sun, earth and moon forms an year. In spirituality, the trio of praana, speech and mind form an year. Those praanas which have not formed a triangle, can be called the manes, the pitris.

 

Gradual approach to rishihood : Skanda puraana provides 8 gradations of a braahmin, the first of which is Maatra and the last is Muni. The one but last is rishi. Moreover, in puraanic and vedic literature, a rishi has been called as higher than a Vipra. Who is a vipra, has been clarified in vedic mantras which desire for increase of wisdom of a vipra. After that may come the state which can be called a rishi.

 

Caste and rishi : There are universal references of warrior rishis – those who acquired rishihood from their career as a warrior. But it seems that it is very difficult for a warrior rishi to become a Brahma rishi, as in the story of Vishvaamitra and Vasishtha. There are also few personalities who got rishihood starting from a mean caste. And vedic literature universally refers to old and new rishis. What does it actually mean, is yet to be investigated.

 

Characteristics of rishis : Different rishis have been attributed special characteristics. For example, Vasishtha can see Indra, a feat which other rishis can not do. Bharadwaaja can make the trees produce fruits without season( the fruits may be symbolic of extrasensory perceptions, the super consciousness ) . The meaning of Bhardwaaja at grosser level is one who can provide food. Gotama has got the power of letting sunrays reach the lowest levels which is otherwise not possible. He has been stated to be able to dig a well which can provide water in famine. In yoga language, digging a well means to reach one's moolaadhaara, the base level.Our feet are the lowest part of moolaadhaara. Lord Raama elevates Ahalyaa , the wife of Gotama, with the toe of his foot.

 


 
 

ऋषि

ऋषि शब्द के बहुत से निर्वचन ब्राह्मणों, पुराणों, निरुक्त, धातु कोश आदि में मिल सकते हैं । उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.१ का कथन है कि प्राण ऋषि हो सकते हैं । श्रम व तप से क्रोध किया( श्रमेण तपसा अरिषन् ), इसलिए ऋषि नाम पडा । लेकिन व्यवहार में यह कथन ऋषि शब्द को समझने के लिए पर्याप्त नहीं है । शब्दों का अर्थ लगाने के लिए धातु कोश का आश्रय लिया जाता है । ऋषि धातु गत्यर्थक है जिसे अप्रत्यक्ष रूप से ज्ञानार्थक समझा जाता है ( गम् - ज्ञाने ) । वायु पुराण अध्याय ५९ में तो ऋषि धातु को गति, तप, सत्य आदि सभी अर्थों में लिया गया है । पुराणों में ऋष् हिंसायाम द्वारा भी ऋषि को समझाने की चेष्टा की गई है । एक कथा में ऋषि यज्ञ में पशु हिंसा का समर्थन नहीं करते, जबकि उपरिचर वसु करता है । अतः ऋषि उसे शाप दे देते हैं । पुराणों में ऋषियों का वर्गीकरण ३ श्रेणियों में किया गया है - सत्य से ऋषिता प्राप्त करने वाले, ज्ञान से ऋषिता प्राप्त करने वाले और तप से ऋषिता प्राप्त करने वाले । पुराणों में इनमें से प्रत्येक वर्ग के ऋषियों के नाम भी दिए गए हैं । पुराणों के इस वर्गीकरण की पुष्टि अथर्ववेद २.६.१( सत्य ऋषि ), २.३५.४( घोर ऋषि ), ११.१.२६( तप से उत्पन्न ऋषि ) द्वारा होती है । ब्रह्माण्ड पुराण १.२.३२.६८ आदि में कहा गया है कि तपोरत ऋषियों ने मन्त्रों की रचना ५ कारणों से की - असंतोष, भय, दुःख, सुख व शोक से । लेकिन ब्राह्मणों व पुराणों के उपरोक्त कथन हमें संतुष्ट नहीं करते । इसका एक कारण यह भी है कि आज सामान्य रूप से सत्य, ज्ञान, तप शब्दों का अर्थ भी पता नहीं है । वर्तमान प्रपत्र में ऋषि शब्द को ऋषियों के संदर्भ में आए अन्य कथनों के आधार पर समझने का प्रयास किया गया है । शतपथ ब्राह्मण १.६.२.३, तैत्तिरीय संहिता २.६.३.२ आदि में वर्णन आता है कि ऋषियों ने देखा कि देवताओं ने स्वर्ग जाने के पश्चात् यज्ञ में यूप को उल्टा करके गाड दिया जिससे अन्य लोग स्वर्ग न जाने पाएं । तब उन्होंने वहां यज्ञवास्तु रूप कूर्म को देखा जो सर्पण कर रहा था । उन्होंने कूर्म से कहा कि ठहर जा । वह न हिरा । वह सर्पण ही करता रहा । ऋषियों ने उससे कहा - इन्द्र के लिए ठहर, बृहस्पति के लिए ठहर, अश्विनौ देवताओं के लिए ठहर, अग्नि के लिए ठहर आदि । अग्नि के नाम से वह ठहर गया । कूर्म में ऋषि शब्द का रहस्य छिपा है । एक अन्य संदर्भ में कहा गया है कि यह जो कूर्म है, यह आङ्गिरस ऋषि प्राणों द्वारा एकत्र किया गया अङ्ग - अङ्ग का रस है । यज्ञ में कूर्म पुरोडाश का रूप भी होता है और पुरोडाश मस्तिष्क का । जैसे मस्तिष्क अङ्ग - अङ्ग के रस से बना है, सब अङ्गों का सार रूप है, वैसे ही कूर्म भी है । और इस रस को एकत्र करने का, रस निकालने का कार्य प्राण रूपी ऋषि करते हैं । जहां भ{ कहीं रस निकालने का, सार भाग ग्रहण करने का काम हो, वहां कोई न कोई प्राण रूप ऋषि प्रकट हो जाता है । पुराणों में आता है कि प्राचीन काल में किसी कारण से वेद समुद्र के जल में मिल गए । विष्णु ने ऋषियों को आदेश दिया कि इन्हें एकत्र करो । तब जिस - जिस ऋषि ने जो - जो मन्त्र जल से प्राप्त किए, उनकी ख्याति उन्हीं के नाम से हो गई । इस कथा में भी अप्रत्यक्ष रूप से जल से सार को, रस को ग्रहण करने की बात कही गई है । रस को ग्रहण करने में क्या कठिनाई है ? हमारी जिह्वा सारे रसों का आस्वादन करती ही है । सारे प्राण रूपी ऋषि इस पर विराजमान हैं । लेकिन हमारी जिह्वा घास के रस का आस्वादन नहीं कर पाती जिसका आस्वादन अन्य पशुओं की जिह्वा कर लेती है । आधुनिक विज्ञान का कहना है कि यह प्रत्येक प्राणी की जिह्वा में उपलब्ध एन्जाईम के कारण है । एन्जाइम को इस प्रकार समझा जा सकता है कि सामान्य परिस्थिति में कोई भी प्राणी किसी रस का आस्वादन नहीं कर सकता । इसका कारण यह है कि थोथे पदार्थ के अणुओं को तोडकर उनसे रस का आस्वादन करने में बहुत शक्ति की आवश्यकता होती है जो पशुओं की जिह्वा के रस में नहीं है । लेकिन प्रकृति ने जिह्वा के रस में एक रासायनिक पदार्थ मिलाया है जो इस भारी भरकम कार्य को सरल बना देता है । इस रासायनिक पदार्थ को एन्जाइम कहते हैं । उदाहरण के लिए यदि कोई दीवार ८ फुट ऊंची खडी है जिसे कूद कर पार करना कठिन है तो एन्जाइम उसे २ - ३ फुट ऊंची ही कर देता है । यह एन्जाइम प्रत्येक पशु में अलग - अलग होता है । सामान्य रूप से तृण या फाइबर का रस लेने की शक्ति दीमक के सिवाय और किसी प्राणी में नहीं है । केवल दीमक में ही वह एन्जाइम होता है जो लकडी या किसी अन्य तन्तु के अणु को तोडकर उसका रसास्वादन कर सकता है । और वैदिक साहित्य ने इस उदाहरण का भरपूर प्रयोग किया है । यज्ञ में दीमक की बांबी की मिट्टी को लाकर प्रयोग किया जाता है और कहा गया है कि यह जो दीमक द्वारा पृथिवी की मिट्टी को बाहर फेंकने से छिद्र बने हैं, यह हमारे कान या श्रोत्र हैं । ऋग्वेद में एक ऋषि का नाम वमि| वैखानस है । वमि| दीमक को कहते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि रस विशेष का आस्वादन करने के लिए, ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु का रसास्वादन करने के लिए हमें अपने प्राणों को, ऋषियों को जाग्रत करना पडेगा, उन्हें सबल बनाना होगा । यह कार्य पुराणों में तीन प्रकार से संभव बताया गया है ।

ऋषि शब्द की एक निरुक्ति का प्रयास ऋक्ष के आधार पर भी किया जा सकता है । ऋक्ष या नक्षत्र भी रस का आदान करते हैं ।

ऋषियों द्वारा रस के सम्भरण का संदर्भ वैदिक साहित्य में केवल आङ्गिरस ऋषियों द्वारा कूर्म के रूप में रस के सम्भरण तक ही सीमित नहीं है । ऋग्वेद ९.६७.३२ , तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.८.४ आदि में पावमानी ऋचाओं को ऋषियों द्वारा सम्भृत रस कहा गया है ।

ऋषियों द्वारा रस के सम्भरण को एक अन्य दृष्टिकोण से भी समझा जा सकता है । आधुनिक भौतिक विज्ञान में तापगतिकी के दूसरे सिद्धान्त के अनुसार इस संसार में प्रत्येक तन्त्र की अव्यवस्था की माप में वृद्धि हो रही है । इसका अर्थ यह है कि इस संसार में जितनी ऊर्जा हमारे पास है, उसे उपयोगी कार्य में परिणत करना धीरे - धीरे कठिन होता जा रहा है । इसको इस प्रकार समझ सकते हैं कि एक वाष्प इंजन में जब तक वाष्प उसके सिलिण्डर में बंद है, उससे कोई भी कार्य लिया जा सकता है क्योंकि सीमित स्थान में बद्ध होने के कारण उसकी एण्ट्रांपी कम है । यदि उस वाष्प को वायुमण्डल में मुक्त कर दिया जाए तो वह फैल जाएगी, उसकी एण्ट्रांपी, अव्यवस्था में वृद्धि हो जाएगी । तब उससे कोई कार्य नहीं लिया जा सकता । रस के सम्भरण से तात्पर्य एक तन्त्र को उच्च अव्यवस्था की स्थिति या उच्च एण्ट्रांपी की स्थिति से निम्न अव्यवस्था की स्थिति या निम्न एण्ट्रांपी की स्थिति तक लाना भी हो सकता है । रस के सम्भरण का कार्य करने के लिए लगता है कि ऋषि रूपी इंजन के चालक को ७ छन्द रूपी ७ कुंजियां दी गई हैं । लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या जड वस्तुओं के संदर्भ में बने आधुनिक भौतिक विज्ञान के नियमों को उच्चतर चेतना से सम्बन्ध रखने वाले वैदिक साहित्य की घटनाओं पर लागू किया जा सकता है ? इस प्रपत्र की विषय वस्तु इस प्रश्न का एक सीमा तक उत्तर खोजने में सहायक होगी । ऊपर ऋषियों द्वारा द्रष्ट कूर्म के संदर्भ में भी कूर्म में जब तक सर्पण विद्यमान है, वह उच्चतर अव्यवस्था का प्रतीक है । जब सर्पण या चञ्चलता समाप्त हो जाएगी तो वह निम्न अव्यवस्था या निम्न एण्ट्रांपी की स्थिति होगी । वैदिक साहित्य के अनुसार अहोरात्र सर्पण करते हैं ।

प्राणों व ऋषियों में सम्बन्ध : वैदिक साहित्य में ऋषियों को सार्वत्रिक रूप से प्राण कहा गया है (उदाहरण के लिए, ऐतरेय ब्राह्मण २.२७, शतपथ ब्राह्मण ७.२.३.५, ९.१.२.२१) । शतपथ ब्राह्मण ८.४.१.५ का कथन है कि प्राण ही स्तोम हैं । और कि संभवतः प्राण ही ऋषि हैं । जैसा कि छन्दों के संदर्भ में आगे कहा जाएगा, ऐसा अनुमान है कि भौतिक पृथिवी तो सूर्य की परिक्रमा करती है, लेकिन चेतन पृथिवी चेतन सूर्य की परिक्रमा नहीं करती । वैदिक साहित्य में यह अपेक्षित है कि ऐसा हो, संवत्सर का निर्माण हो । वैदिक साहित्य में मन, प्राण और वाक् को क्रमशः चन्द्रमा, सूर्य व पृथिवी माना गया है । यदि मन, प्राण और वाक् में परस्पर कोई सम्पर्क हो जाए तो वह श्रेष्ठ स्थिति होगी । जैमिनीय ब्राह्मण २.४०९ तथा ३.३३४ में उल्लेख आता है कि सब देव प्रजापति से दूर चले गए लेकिन इन्द्र नहीं गया । तब प्रजापति ने इन्द्र से कहा कि स्तो मे, मेरी स्तुति करो । ऐसा करने से प्रजापति की प्रजा पुनः प्रजापति के पास आ गई और उनके साथ में सर्वश्रेष्ठ अन्न या अन्नाद्य भी प्रजापति के पास आ गए । यह स्तो - मे ही स्तोम कहलाया । इसका निहितार्थ यही हो सकता है कि किसी प्रकार चेतन स्तर पर मन, प्राण और वाक् का परस्पर सम्बन्ध जुड जाए, वह एक दूसरे की परिक्रमा करने लगें तो स्तोम उत्पन्न हो सकता है । स्तुति से तात्पर्य परिक्रमा होना चाहिए । अतः शतपथ के उपरोक्त कथन से निष्कर्ष यह निकलता है कि केवल वही प्राण प्राण कहलाने योग्य हैं जो संवत्सर से एकाकार हो गए हों । और वही ऋषि हैं । जो प्राण संवत्सर से एकाकार नहीं हुए हैं, वे कौन हैं ? ऋग्वेद ४.४२.८ से लगता है कि उनकी पितर संज्ञा है ।

ऋषि व विप्र में सम्बन्ध : ऋग्वेद ३.५३.१०, ४.२६.१, ४.५०.१, ५.५४.१४, ७.२२.९, ८.३.१४, ८.७९.१, ९.८७.३, ९.९२.२, ९.९६.६, ९.१०७.७, १०.१०८.११ आदि में ऋषि व विप्र शब्द साथ - साथ आए हैं । यह संकेत करता है कि ऋषि और विप्र में कुछ गहरा सम्बन्ध है । जैसे पुराणों में ऋषि को विप्रों में श्रेष्ठ कहा गया है, ऐसे ही ऋग्वेद ९.९६.६, तैत्तिरीय आरण्यक १०.१०, १०.५० आदि में भी । इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि ऋषि की ऊंचाई पर पंहुचने से पहले की प्रारम्भिक अवस्था विप्र शब्द में निहित है । विप्र शब्द ऋग्वेद के बहुप्रयुक्त शब्दों में से एक है । विप्र शब्द को पुराणों में ब्राह्मण शब्द द्वारा समझने का प्रयास किया जा सकता है । स्कन्द पुराण १.२.५.१०९ में ब्राह्मण के ८ भेद गिनाएं गए हैं और उन्हें परिभाषित किया गया है । यह हैं - मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनूचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि व मुनि । इनमें से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । श्रोत्रिय वह होता है जिसने वेद की एक शाखा का अध्ययन उसके उपाङ्गों सहित कर लिया हो । ऐसे ही अनूचान वह होता है जिसने सम्पूर्ण वेद - वेदाङ्गों का अध्ययन कर लिया हो । ऋषि वह होता है जो ऊर्ध्वरेता हो, अग्र्य हो, नियताशी हो, संशयरहित हो, शाप व अनुग्रह में समर्थ हो व सत्यसन्ध हो । ऋषि से उच्चतर स्थिति मुनि की कही गई है जो द्वन्द्वों से परे होता है । शतपथ ब्राह्मण ३.५.३.१२ में विप्र की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जो ब्राह्मण शुश्रुवान् हैं, अनूचान हैं, वे विप्र हैं । यह कथन स्कन्द पुराण के कथन की पुष्टि करता है । इसके अतिरिक्त, चूंकि विप्र शब्द ऋग्वेद का एक बहुप्रयुक्त शब्द है, अतः ऋग्वेद की ऋचाओं से विप्र के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होनी चाहिए । ऋग्वेद की ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से विप्र की मति के वर्धन की कामना की गई है ( उदाहरण के लिए, ऋग्वेद ७.९३.४, १०.२५.१०, १०.६४.१६, १०.१४८.३, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.५.४.१ आदि ) । मति का वर्धन विप्र गिरा से, विज्ञानमय कोश की वाक् से करते हैं । छान्दोग्य उपनिषद ७.१८.१ के अनुसार यदि सत्य बोलना हो तो विज्ञान का साक्षात्कार आवश्यक है, मति से विज्ञान आता है, श्रद्धा से मति आती है, जब श्रद्धा उत्पन्न होती है, तभी व्यक्ति मनन करता है, तभी मति उत्पन्न होती है, निष्ठा से श्रद्धा उत्पन्न होती है, कृति से निष्ठा उत्पन्न होती है, सुख से कृति और भूमा से सुख । अतः भूमानन्द की अनुभूति करना ही अभीष्ट है । तैत्तिरीय संहिता ५.७.५.७ के अनुसार भूमा द्वारा ऋषियों ने आदित्य व परमेष्ठी को प्राप्त किया । शाण्डिल्योपनिषद १.२१ का कथन है कि वेदविहित कर्म मार्गों में श्रद्धा होने का नाम ही मति है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो भी कार्य किया जाए, उसे पूरी समझ के साथ, उसके पीछे जो विज्ञान छिपा है उसके साथ, किया जाए, यही मति है । वैदिक साहित्य की एक सार्वत्रिक ऋचा है - युञ्जते मन उत युञ्जते धियः विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः ( ऋग्वेद ५.८१.१) । इसकी व्याख्या में शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.१६ में कहा गया है कि मन और प्राण को ही कर्म में युक्त करते हैं । यह विप्रों के लिए, विप्र शब्द के बहुवचन के लिए स्थिति है । इससे एकवचन का विप्र उत्पन्न होता है जिसे प्रजापति कहा गया है तथा शतपथ ब्राह्मण ३.५.३.१२ में यज्ञ कहा गया है । अनुमान कर सकते हैं कि इससे आगे फिर ऋक् की स्थिति हो सकती है जिसके बारे में ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि यत् कर्म क्रियमाणमृगभिवदति - कर्म करने से पूर्व ही आभास हो जाता है । वह ऋषि की स्थिति हो सकती है । श्रद्धा से मति उत्पन्न होने के संदर्भ में, ब्राह्मण ग्रन्थों का कथन है कि अश्रद्धा से शूद्र होता है और जब शूद्र में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है तो वह ब्राह्मण बन जाता है । ऐतरेय ब्राह्मण २.४० में स यन्ता विप्र एषाम् इति की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि अपान ही यन्ता है, अपान द्वारा ही प्राण यत है, दूर नहीं जाता है । ऐतरेय ब्राह्मण २.४१ के अनुसार वायु ही यन्ता है, वायु के कारण ही अन्तरिक्ष यत है । इससे तात्पर्य निकलता है कि जहां प्राणों को ऋषियों की संज्ञा दी गई है, वहीं अपान को विप्र की संज्ञा दी गई है ।

राजर्षि व विप्रर्षि : पुराणों में राजर्षि और ब्रह्मर्षि के उल्लेख आते हैं । पुराणों की कथा में राजर्षि विश्वामित्र की कथा प्रसिद्ध है जिन्हें ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने ब्रह्मर्षि की उपाधि बहुत समय तक नहीं दी थी । यह भेद लगता है वैदिक साहित्य में नहीं है । लेकिन परोक्ष रूप से ऋषि के साथ विप्र शब्द जोडकर लगता है यह संकेत किया गया है । ऋग्वेद ४.२६.१ में कक्षीवान् स्वयं को विप्र कहता है । इसका कारण यह है कि पुराणों की कथाओं में कक्षीवान् पहले शूद्र था जिसने तप से ऋषित्व व ब्राह्मणत्व प्राप्त किया । ऐसे ही ऋग्वेद ३.३३.४ व १२ में विश्वामित्र स्वयं को विप्र कहता है ।

यह उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद ६.११.३ में विप्र को अङ्गिरसों में वेपिष्ठ कहा गया है । ऋग्वेद ६.३५.५ में विप्र ब्रह्म द्वारा अङ्गिरसों का उद्धार करता है ।

पूर्व व नूतन ऋषि : वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से पूर्व व नूतन ऋषियों का उल्लेख आता है (उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १.१.२, १.४८.१४, ४.२०.५, ७.२२.९, ७.२९.४,अथर्ववेद ११.३.३२, १८.२.२, १८.२.१५, १८.३.४८, तैत्तिरीय संहिता ४.४.२.३( प्रथमजा ), ४.७.१३.१, ५.७.७.१ आदि । यह पूर्व और नूतन ऋषि कौन से हैं, यह अन्वेषणीय है ।

विभिन्न ऋषियों की विशेषताएं : वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से वसिष्ठ, भरद्वाज, जमदग्नि आदि ७ ऋषियों की विशेषताओं का वर्णन मिलता है जिसे भविष्य में समझने की आवश्यकता है । उदाहरण के लिए, तैत्तिरीय संहिता ३.५.२.१ के अनुसार ऋषि इन्द्र( आत्मा ?) को प्रत्यक्ष रूप में नहीं देख पाए, लेकिन वसिष्ठ ने इन्द्र को देखा । भरद्वाज के विषय में लक्ष्मीनारायण संहिता आदि में उल्लेख आता है कि भरत के अयोध्या से वनगमन के संदर्भ में भरद्वाज - पत्नी त्रिवेणी ने भरत की सेना का सत्कार एक नए स्वर्ग की सृष्टि के द्वारा किया, उन्हें सभी भोज्य पदार्थ प्रस्तुत किए । वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम के वन से अयोध्या लौटते समय भरद्वाज ने राम को वर दिया कि राम के मार्ग में जितने भी वृक्ष आएंगे, वह असमय ही फलित हो जाएंगे ( इसके अतिरिक्त भरद्वाज के प्रवृत्तिपरक व निवृत्तिपरक शिष्यों का भी उल्लेख आता है ) । ज्योतिष विज्ञान तथा इन्टरनेट पर श्री स्टीनर की व्याख्याओं के आधार पर यह संकेत मिलता है कि वृक्षों के लिए जो पका फल है, वह मनुष्य के लिए उसकी परामानसिक चेतना है । भरद्वाज का नाम भी भरद्वाज की उपरोक्त विशेषता को सार्थक करता है ( भरति वाजं अन्नं इति ) । लेकिन जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार भरद्वाज की कामना अपनी प्रजा के लिए ओज, बल प्राप्त करने की है और इस कारण उसकी प्रजा राज्यदण्ड भी देती है । इस कथन की उपरोक्त विशेषताओं के साथ संगति भविष्य में अन्वेषणीय है । बंगलौर के विद्वान् श्री शेषाद्रि का कथन है कि भरद्वाज के नाम में भ भोजन का, र किरणों का बोधक है । जमदग्नि के विषय में तैत्तिरीय संहिता ३.३.५.२ का कथन है कि भूत और भव्य ऋषियों से तिरोहित हो गए । जमदग्नि ने तप द्वारा उनका दर्शन किया और पृश्नि कामों का सृजन किया ( जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार जमदग्नि की कामना अपनी प्रजा को भूमानन्द प्राप्त कराने की है ) । गोतम के विषय में पुराणों में वर्णन आता है कि दुर्भिक्ष में जल का अभाव हो जाने पर गोतम ने कूप का खनन करके स्वयं व अन्य ब्राह्मणों के लिए जल को प्राप्त किया । जैमिनीय ब्राह्मण में गोतम की कामना अपनी प्रजा के लिए श्रद्धा प्राप्त करने की है । जब तक श्रद्धा प्राप्त नहीं होती, अश्रद्धा रहती है, तब तक व्यक्ति शूद्र रहता है । लगता है कि गोतम की विशेषता यही है कि वह जड प्रकृति को भी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करने में समर्थ बना देना चाहता है । गोतम के नाम की सार्थकता भी यही है ( गो - तम: - जो अधिकतम सूर्य की किरण प्राप्त करने में समर्थ हो ) । गोतम गो रूपी ऊर्जा प्राप्त करके उससे व्यक्तित्व के मूलाधार में प्रवेश करना चाहता है । यही कूप का खनन है । इससे बहुत से लाभ होते हैं । गोतम की पत्नी अहल्या है जिसका उद्धार अन्त में राम द्वारा पादाङ्गुष्ठ के स्पर्श से होता है । योग में पादाङ्गुष्ठ का स्पर्श महत्त्वपूर्ण है ।

तैत्तिरीय संहिता २.५.८.३ के अनुसार आर्द्र दारु में भी अग्नि उत्पन्न करना परुच्छेप ऋषि की विशेषता है ।

प्रथम लेखन : २५-१२-२००६ई.

ऋषि

संदर्भ
*अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति ॥ - ऋग्वेद १.१.२

*आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्रमामृषिम् ॥ - ऋ. १.१०.११

*सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात् सह ऋषिभिः ॥ - ऋ.१.२३.२४

*त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा। - ऋ. १.३१.१

*इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात्। आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन् मर्त्यानाम् ॥ - ऋ. १.३१.१६

*ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम् ॥ - ऋ. १.३९.१०

*ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि। सा नः स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा ॥ - ऋ. १.४८.१४

*ऋषिर्न स्तुभ्वा, विक्षु प्रशस्तो वाजी न प्रीतो, वयो दधाति। - ऋ. १.६६.२

*इन्द्रमिद्धरी वहतो ऽप्रतिधृष्टशवसम्। ऋषीणां च स्तुतीरुप यज्ञं च मानुषाणाम् ॥ - ऋ. १.८४.२

*इन्द्रं कुत्सो वृत्रहणं शचीपतिं काटे निबाह्ड ऋषिरह्वदूतये। रथं न दुर्गाद् वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥ - ऋ. १.१०६.६

*ऋषिं नरावंहसः पाञ्चजन्यमृबीसादत्रिं मुञ्चथो गणेन। मिनन्ता दस्योरशिवस्य माया अनुपूर्वं वृषणा चोदयन्ता ॥ अश्वं न गूह्डमश्विना दुरेवैर्ऋषिं नरा वृषणा रेभमप्सु। सं तं रिणीथो विप्रुतं दंसोभिर्न वां जूर्यन्ति पूर्व्या कृतानि ॥ - ऋ. १.११७.३-४

*अन्वेनं विप्रा ऋषयो मदन्ति देवानां पुष्टे चकृमा सुबन्धुम् ॥ - ऋ. १.१६२.७

*साकंजानां सप्तथमाहुरेकजं षळिद् यमा ऋषयो देवजा इति। तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः ॥ - ऋ. १.१६४.१५

*अगस्त्यः खनमानः खनित्रैः प्रजामपत्यं बलमिच्छमानः। उभौ वर्णावृषिरुग्रः पुपोष सत्या देवेष्वाशिषो जगाम ॥ - ऋ. १.१७९.६

*अवोचाम निवचनान्यस्मिन् मानस्य सूनुः सहसाने अग्नौ। वयं सहस्रमृषिभिः सनेम विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥ - ऋ. १.१८९.८

*तुभ्यं स्तोका घृतश्चुतो ऽग्ने विप्राय सन्त्य। ऋषिः श्रेष्ठः समिध्यसे यज्ञस्य प्राविता भव ॥ - ऋ.३.२१.३

*कुविन्म ऋषिं पपिवांसं सुतस्य कुविन्मे वस्वो अमृतस्य शिक्षाः ॥ - ऋ. ३.४३.५

*महाँ ऋषिर्देवजा देवजूतो ऽस्तभ्नात् सिन्धुमर्णवं नृचक्षाः। - ऋ. ३.५३.९

*देवेभिर्विप्रा ऋषयो नृचक्षसो वि पिबध्वं कुशिकाः सोम्यं मधु ॥ - ऋ.३.५३.१०

*वि यो ररप्श ऋषिभिर्नवेभिर्वृक्षो न पक्वः सृण्यो न जेता। - ऋ. ४.२०.५

*अहं मनुरभवं सूर्यश्चाऽहं कक्षीवाँ ऋषिरस्मि विप्रः। - ऋ. ४.२६.१

*स वाज्यर्वा स ऋषिर्वचस्यया स शूरो अस्ता पृतनासु दुष्टरः। स रायस्पोषं स सुवीर्यं दधे यं वाजो विभ्वाf ऋभवो यमाविषुः ॥ - ऋ. ४.३६.६

*अस्माकमत्र पितरस्त आसन् त्सप्त ऋषयो दोर्गहे बध्यमाने। - ऋ. ४.४२.८

*तं प्रत्नास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम् ॥ - ऋ. ४.५०.१

*अर्चन्ति त्वा मरुतः पूतदक्षास्त्वमेषामृषिरिन्द्रासि धीरः ॥ - ऋ. ५.२९.१

*मह्ना रायः संवरणस्य ऋषेर्व्रजं न गावः प्रयता अपि ग्मन् ॥ - ऋ. ५.३३.१०

*ज्यायांसमस्य यतुनस्य केतुन ऋषिस्वरं चरति यासु नाम ते। - ऋ. ५.४४.८

*य ऋष्वा ऋष्टिविद्युतः कवयः सन्ति वेधसः। तमृषे मारुतं गणं नमस्या रमया गिरा ॥ - ऋ. ५.५२.१३

*अच्छ ऋषे मारुतं गणं दाना मित्रं न योषणा। दिवो वा धृष्णव ओजसा स्तुता धीभिरिषण्यत ॥ - ऋ. ५.५२.१४

*न स जीयतो मरुतो न हन्यते न स्रेधति न व्यथते न रिष्यति। नास्य राय उप दस्यन्ति नोतय ऋषिं वा यं राजानं वा सुषूदथ ॥ - ऋ. ५.५४.७

*यूयं रयिं मरुतः स्पार्हवीरं यूयमृषिमवथ सामविप्रम्। - ऋ. ५.५४.१४

*आचुच्युवुर्दिव्यं कोशमेत ऋषे रुद्रस्य मरुतो गृणानाः ॥ - ऋ. ५.५९.८

*मा मघोनः परि ख्यतं मो अस्माकमृषीणां गोपीथे न उरुष्यतम् ॥ - ऋ. ५.६५.६

*तदृतं पृथिवि बृहच्छ्रवएष ऋषीणाम्। ज्रयसानावरं पृथ्वति क्षरन्ति यामभिः ॥ - ऋ. ५.६६.५

*स्तोता वामश्विनावृषिः स्तोमेन प्रति भूषति माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥ - ऋ. ५.७५.१

*भीताय नाधमानाय ऋषये सप्तवध्रये। मायाभिरश्विना युवं वृक्षं सं च वि चाचथः ॥ - ऋ. ५.७८.६

*अग्निरिद्धि प्रचेता अग्निर्वेधस्तम ऋषिः। अग्निं होतारमीळते यज्ञेषु मनुषो विशः ॥ - ऋ. ६.१४.२

*तमु त्वा दध्यङ्ङृषिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरंदरम् ॥ - ऋ. ६.१६.१४

*पुरा नूनं च स्तुतय ऋषीणां पस्पृध्र इन्द्रे अध्युक्थार्का ॥ - ऋ. ६.३४.१

*यः पूर्व्याभिरुत नूतनाभिर्गीर्भिर्वावृधे गृणतामृषीणाम् ॥ - ऋ. ६.४४.१३

* ये च पूर्व ऋषयो ये च नूत्ना इन्द्र ब्रह्माणि जनयन्त विप्राः। - ऋ. ७.२२.९

*हवं त इन्द्र महिमा व्यानड् ब्रह्म यत् पासि शवसिन्नृषीणाम्। - ऋ. ७.२८.२

*उतो घा ते पुरुष्या इदासन् येषां पूर्वेषामशृणोर्ऋषीणाम्। - ऋ. ७.२९.४

*सत्रे ह जाताविषिता नमोभिः कुम्भे रेतः सिषिचतुः समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम् ॥ - ऋ. ७.३३.१३

*चनिष्टं देवा ओषधीष्वप्सु यद्योग्या अश्नवैथे ऋषीणाम्। पुरूणि रत्ना दधतौ न्यस्मे अनु पूर्वाणि चख्यथुर्युगानि ॥ शुश्रुवांसा चिदश्विना पुरूण्यभि ब्रह्माणि चक्षाथे ऋषीणाम्। प्रति प्र यातं वरमा जनायाऽस्मे वामस्तु सुमतिश्चनिष्ठा ॥ - ऋ. ७.७०.४-५

*ऋषिष्टुता जरयन्ती मघोन्युषा उच्छति वह्निभिर्गृणाना ॥ - ऋ. ७.७५.५

*वसिष्ठं ह वरुणो नाव्याधादृषिं चकार स्वपा महोभिः। स्तोतारं विप्रः सुदिनत्वे अह्नां यान्नु द्यावस्ततनन् यादुषासः ॥ - ऋ. ७.८८.४

*शिप्रिन्नृषीवः शचीवो नायमच्छा सधमादम् ॥ - ऋ. ८.२.२८

*अयं सहस्रमृषिभिः सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे। सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये ॥ - ऋ. ८.३.४

*कदु स्तुवन्त ऋतयन्त देवत ऋषिः को विप्र ओहते। कदा हवं मघवन्निन्द्र सुन्वतः कदु स्तुवन्त आ गमः ॥ - ऋ. ८.३.१४

*षष्टिं सहस्रानु निर्मजामजे निर्यूथानि गवामृषिः ॥ - ऋ. ८.४.२०

*ये त्वामिन्द्र न तुष्टुवुर्ऋषयो ये च तुष्टुवुः। ममेद् वर्धस्व सुष्टुतः ॥ - ऋ. ८.६.१२

*ऋषिर्हि पूर्वजा अस्येक ईशान ओजसा। इन्द्र चोष्कूयसे वसु ॥ - ऋ. ८.६.४१

*यच्चिद्धि वां पुर ऋषयो जुहूरऽवसे नरा। आ यातमश्विना गतमुपेमां सुष्टुतिं मम ॥ - ऋ. ८.८.६

*किमन्ये पर्यासते ऽस्मत् स्तोमेभिरश्विना। पुत्रः कण्वस्य वामृषिर्गीर्भिर्वत्सो अवीवृधत् ॥ - ऋ. ८.८.८

*यो वां नासत्यावृषिर्गीर्भिर्वत्सो अवीवृधत्। तस्मै सहस्रनिर्णिजमिषं धत्तं घृतश्चुतम् ॥ - ऋ. ८.८.१५

*आ नूनमश्विनोर्ऋषिः स्तोमं चिकेत वामया। आ सोमं मधुमत्तमं घर्मं सिञ्चादथर्वणि ॥ - ऋ. ८.९.७

*यद् वां कक्षीवाँ उत यद्व्यश्व ऋषिर्यद् वां दीर्घतमा जुहाव। पृथी यद् वां वैन्यः सादनेष्वेवेदतोv अश्विना चेतयेथाम् ॥ - ऋ. ८.९.१०

*वर्धस्वा सु पुरुष्टुत ऋषिष्टुताभिरूतिभिः। धुक्षस्व पिप्युषीमिषमवा च नः ॥ - ऋ. ८.१३.२५

*इन्द्रो ब्रह्मेन्द्र ऋषिरिन्द्रः पुरू पुरुहूतः। महान् महीभिः शचीभिः ॥ - ऋ. ८.१६.७

*व्यश्वस्त्वा वसुविदमुक्षण्युरप्रीणादृषिः। महो राये तमु त्वा समिधीमहि ॥ - ऋ. ८.२३.१६

*नूनमर्च विहायसे स्तोमेभिः स्थूरयूपवत्। ऋषे वैयश्व दम्यायाग्नये ॥ - ऋ. ८.२३.२४

*अश्विना स्वृषे स्तुहि कुवित्ते श्रवतो हवम्। नेदीयसः कूळयातः पणीfरुत ॥ - ऋ. ८.२६.१०

*सहस्राण्यसिषासद् गवामृषिस्त्वोतो दस्यवे वृकः ॥ - ऋ. ८.५१.२

*य उक्थेभिर्न विन्धते चिकिद्य ऋषिचोदनः। इन्द्रं तमच्छा वद नव्यस्या मत्यरिष्यन्तं न भोजसे ॥ - ऋ.८.५१.३

*इन्द्रावरुणा यदृषिभ्यो मनीषां वाचो मतिं श्रुतमदत्तमग्रे। - ऋ. ८.५९.६

*भूरिभिः समह ऋषिभिर्बर्हिष्मद्भिः स्तविष्यसे। यदित्थमेकमेकमिच्छर वत्सान् पराददः ॥ - ऋ. ८.७०.१४

*अयं कृत्नुरगृभीतो विश्वजिदुद्भिदित् सोमः। ऋषिर्विप्रः काव्येन ॥ - ऋ. ८.७९.१

*पारावतं यत् पुरुसंभृतं वस्वपावृणोः शरभाय ऋषिबन्धवे ॥ - ऋ. ८.१००.६

*प्र वाजमिन्दुरिष्यति सिषासन् वाजसा ऋषिः। व्रता विदान आयुधा ॥ - ऋ. ९.३५.४

*अस्य प्रत्नामनु द्युतं शुक्रं दुदुह्रे अह्रयः। पयः सहस्रसामृषिम् ॥ - ऋ. ९.५४.१

*तं त्रिपृष्ठे त्रिवन्धुरे रथे युञ्जन्ति यातवे। ऋषीणां सप्त धीतिभिः ॥ - ऋ. ९.६२.१७

*अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः। तमीमहे महागयम् ॥ - ऋ.९.६६.२०

*यः पावमानीरध्येत्यृषिभिः संभृतं रसम्। सर्वं स पूतमश्नाति स्वदितं मातरिश्वना ॥ पावमानीर्यो अध्येत्यृषिभिः संभृतं रसम्। तस्मै सरस्वती दुहे क्षीरं सर्पिर्मधूदकम् ॥ - ऋ. ९.६७.३१-३२

*त्वां मृजन्ति दश योषणः सुतं सोम ऋषिभिर्मतिभिर्धीतिभिर्हितम्। अव्यो वारेभिरुत देवहूतिभिर्नृभिर्यतो वाजमा दर्षि सातये ॥ - ऋ. ९.६८.७

*विश्वस्य राजा पवते स्वर्दृश ऋतस्य धीतिमृषिषाळवीवशत्। यः सूर्यस्यासिरेण मृज्यते पिता मतीनामसमष्टकाव्यः ॥ - ऋ. ९.७६.४

*प्रान्तर्ऋषयः स्थाविरीरसृक्षत ये त्वा मृजन्त्यृषिषाण वेधसः ॥ - ऋ. ९.८६.४

*ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन। स चिद्विवेद निहितं यदासामपीच्यं गुह्यं नाम गोनाम् ॥ - ऋ. ९.८७.३

*अच्छा नृचक्षा असरत् पवित्रे नाम दधानः कविरस्य योनौ। सीदन् होतेव सदने चमूषूपेमग्मन्नृषयः सप्त विप्राः ॥ - ऋ. ९.९२.२

*ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम्। श्येनो गृध्राणां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेभन् ॥ - ऋ. ९.९६.६

*ऋषिमना य ऋषिकृत् स्वर्षाः सहस्रणीथः पदवीः कवीनाम्। तृतीयं धाम महिषः सिषासन् त्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप् ॥ - ऋ. ९.९६.१८

*अभी नो अर्ष दिव्या वसून्यभि विश्वा पार्थिवा पूयमानः। अभि येन द्रविणमश्नवामाऽभ्यार्षेयं जमदग्निवन्नः ॥ - ऋ. ९.९७.५१

*परि कोशं मधुश्चुतमव्यये वारे अर्षति। अभि वाणीर्ऋषीणां सप्त नूषत ॥ - ऋ. ९.१०३.३

*सोमो मीढ्वान् पवते गातुवित्तम ऋषिर्विप्रो विचक्षणः। त्वं कविरभवो देववीतम आ सूर्यं रोहयो दिवि ॥ - ऋ. ९.१०७.७

*ऋषे मन्त्रकृतां स्तोमैः कश्यपोद्वर्धयन् गिरः। सोमं नमस्य राजानं यो जज्ञे वीरुधां पतिरिन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ - ऋ. ९.११४.२

*देवेभ्यः कमवृणीत मृत्युं प्रजायै कममृतं नावृणीत। बृहस्पतिं यज्ञमकृण्वत ऋषिं प्रियां यमस्तन्वं प्रारिरेचीत् ॥ - ऋ. १०.१३.४

*कुह श्रुत इन्द्रः कस्मिन्नद्य जने मित्रो न श्रूयते। ऋषीणां वा यः क्षये गुहा वा चर्कृùषे गिरा ॥ - ऋ. १०.२२.१

*माकिर्न एना सख्या वि यौषुस्तव चेन्द्र विमदस्य च ऋषेः। विद्मा हि ते प्रमतिं देव जामिवदस्मे ते सन्तु सख्या शिवानि ॥ - ऋ. १०.२३.७

*प्रत्यर्धिर्यज्ञानामश्वहयो रथानाम्। ऋषिः स यो मनुर्हितो विप्रस्य यावयत्सखः ॥ - ऋ. १०.२६.५

*वृक्षेवृक्षे नियता मीमयद्गौस्ततो वयः प्र पतान् पूरुषादः। अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वदृषये च शिक्षत् ॥ - ऋ. १०.२७.२२

*आववर्तततीरध नु द्विधारा गोषुयुधो न नियवं चरन्तीः। ऋषे जनित्रीर्भुवनस्य पत्नीरपो वन्दस्व सुवृधः सयोनीः ॥ - ऋ. १०.३०.१०

*कुरुश्रवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम्। मंहिष्ठं वाघतामृषिः। - ऋ. १०.३३.४

*अस्ताव्यग्निर्नरां सुशेवो वैश्वानर ऋषिभिः सोमगोपाः। अद्वेषे द्यावापृथिवी हुवेम देवा धत्त रयिमस्मे सुवीरम् ॥ - ऋ. १०.४५.१२

*क उ नु ते महिमनः समस्याऽस्मत् पूर्व ऋषियोऽन्तमापुः। यन्मातरं च पितरं च साकमजनयथास्तन्वः स्वायाः ॥ - ऋ. १०.५४.३

*अयं नाभा वदति वल्गु वो गृहे देवपुत्रा ऋषयस्तच्छृणोतन। सुब्रह्मण्यमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥ विरूपास इदृषयस्त इद्गम्भीरवेपसः। ते अङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परि जज्ञिरे ॥ - ऋ. १०.६२.४-५

*वसिष्ठासः पितृवद्वाचमक्रत देवाँ ईळाना ऋषिवत्स्वस्तये। प्रीता इव ज्ञातयः काममेत्याऽस्मे देवासोऽव धूनुता वसु ॥ - ऋ. १०.६६.१४

*त्वं जघन्थ नमुचिं मखस्युं दासं कृण्वान ऋषये विमायम्। त्वं चकर्थ मनवे स्योनान् पथो देवत्राञ्जसेव यानान् ॥ - ऋ. १०.७३.७

*वयः सुपर्णा उप सेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः। अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुमुग्ध्यस्मान् निधयेव बद्धान् ॥ - ऋ. १०.७३.११

*अग्निर्दाद् द्रविणं वीरपेशा अग्निर्ऋषिं यः सहस्रा सनोति। अग्निर्दिवि हव्यमा ततानाऽग्नेर्धामानि विभृता पुरुत्रा ॥ अग्निमुक्थैर्ऋषयो वि ह्वयन्ते ऽग्निं नरो यामनि बाधितासः। अग्निं वयो अन्तरिक्षे पतन्तो ऽग्निः सहस्रा परि याति गोनाम् ॥ - ऋ. १०.८०.४-५

*य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिर्होता न्यसीदत् पिता नः। स आशिषा द्रविणमिच्छमानः प्रथमच्छदवराँ आ विवेश ॥ - ऋ. १०.८१.१

*त आयजन्त द्रविणं समस्मा ऋषयः पूर्वे जरितारो न भूना। असूर्ते सूर्ते रजसि निषत्ते ये भूतानि समकृण्वन्निमानि ॥ - ऋ. १०.८२.४

*पुरूणि हि त्वा सवना जनानां ब्रह्माणि मन्दन् गृणतामृषीणाम्। इमामाघोषन्नवसा सहूतिं तिरो विश्वाँ अर्चतोv याह्यर्वाङ् ॥ - ऋ. १०.८९.१६

*तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ - ऋ. १०.९०.७

*आर्ष्टिषेणो होत्रमृषिर्निषीदन् देवापिर्देवसुमतिं चिकित्वान्। स उत्तरस्मादधरं समुद्रमपो दिव्या असृजद्वर्ष्या अभि ॥ - ऋ. १०.९८.५

*त्वां पूर्व ऋषयो गीर्भिरायन् त्वामध्वरेषु पुरुहूत विश्वे। सहस्राण्यधिरथान्यस्मे आ नो यज्ञं रोहिदश्वोप याहि ॥ - ऋ. १०.९८.९

*तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणमाहुर्यज्ञन्यं सामगामुक्थशासम्। स शुक्रस्य तन्वो वेद तिस्रो यः प्रथमो दक्षिणया रराध ॥ - ऋ. १०.१०७.६

*एह गमन्नृषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः। त एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वचः पणयो वमन्नित् ॥ - ऋ. १०.१०८.८

*दूरमित् पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीर्ऋतेन। बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळ्हाः सोमो ग्रावाण ऋषयश्च विप्राः ॥ - ऋ. १०.१०८.११

*इति त्वाग्ने वृष्टिहव्यस्य पुत्रा उपस्तुतास ऋषयोऽवोचन्। ताँश्च पाहि गृणतश्च सूरीन् वषड्वषळित्यूर्ध्वासो अनक्षन् नमो नम इत्यूर्ध्वासो अनक्षन् ॥ - ऋ. १०.११५.९

*अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः। यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥ - ऋ. १०.१२५.५

*अर्यो वा गिरो अभ्यर्च विद्वानृषीणां विप्रः सुमतिं चकानः। ते स्याम ये रणयन्त सोमैरेनोत तुभ्यं रथोळ्ह भक्षैः ॥ - ऋ. १०.१४८.३

*अग्निर्देवो देवानामभवत्~ पुरोहितो ऽग्निं मनुष्या ऋषयः समीधिरे। अग्निं महो धनसातावहं हुवे मृळीकं धनसातये ॥ - ऋ. १०.१५०.४

*सहस्रणीथाः कवयो ये गोपायन्ति सूर्यम्। ऋषीन् तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात् ॥ - ऋ. १०.१५४.५

*समास्त्वाग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयो यानि सत्या। सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्वा आ भाहि प्रदिशश्चतस्रः ॥ - अथर्ववेद २.६.१

*यज्ञपतिमृषय एनसाहुर्निर्भक्तं प्रजा अनुतप्यमानम्। मथव्यान्त्स्तोकानप यान् रराध सं नष्टेभिः सृजतु विश्वकर्मा ॥ - अ. २.३५.२

*घोरा ऋषयो नमो अस्त्वेभ्यश्चक्षुर्यदेषां मनसश्च सत्यम्। बृहस्पतये महिष द्युमन्नमो विश्वकर्मन् नमस्ते पाह्यस्मान् ॥ - अ. २.३५.४

*येन ऋषयो बलमद्योतयन् युजा येनासुराणामयुवन्त मायाः। येनाग्निना पणीनिन्द्रो जिगाय स नो मुञ्चत्वंहसः ॥ - अ. ४.२३.५

*अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवानामुत मानुषाणाम्। यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥ - अ. ४.३०.३

*अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट ऋषीणां पुत्रो अभिशस्तिपा उ। नमस्कारेण नमसा ते जुहोमि मा देवानां मिथुया कर्म भागन् ॥ - अ. ४.३९.९

*ऋषी बोधप्रतीबोधावस्वप्नो यश्च जागृविः। तौ ते प्राणस्य गोप्तारौ दिवा नक्तं च जागृताम् ॥ - अ. ५.३०.१०

*यद्ब्रह्मभिर्यदृषिभिर्यद् देवैर्विदितं पुरा। यद्भूतं भव्यमासन्वत् तेना ते वारये विषम् ॥ - अ. ६.१२.२

*मा नो हासिषुर्ऋषयो दैव्या ये तनूपा ये नस्तन्वस्तनूजाः। अमर्त्या मर्त्याf अभि नः सचध्वमायुर्धत्त प्रतरं जीवसे नः ॥ - अ. ६.४१.३

*मेधामहं प्रथमां ब्रह्मण्वतीं ब्रह्मजूतामृषिष्टुताम्। प्रपीतां ब्रह्मचारिभिर्देवानामवसे हुवे ॥ - अ. ६.१०८.२

*यां मेधामृभवो विदुर्यां मेधामसुरा विदुः। ऋषयो भद्रां मेधां यां विदुस्तां मय्या वेशयामसि ॥ यामृषयो भूतकृतो मेधां मेधाविनो विदुः। तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कृणु ॥ - अ. ६.१०८.३-४

*आहुतास्यभिहुत ऋषीणामस्यायुधम्। पूर्वा व्रतस्य प्राश्नती वीरघ्नी भव मेखले ॥ अ. ६.१३३.२

*श्रद्धाया दुहिता तपसोऽधि जाता स्वस ऋषीणां भूतकृतां बभूव। सा नो मेखले मतिमा धेहि मेधामथो नो धेहि तप इन्द्रियं च ॥ यां त्वा पूर्वे भूतकृत ऋषयः परिबेधिरे। सा त्वं परि ष्वजस्व मां दीर्घायुत्वाय मेखले ॥ - अ. ६.१३३.४-५

*सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात् सह ऋषिभिः ॥ - अ. ७.९४.२

*स्राक्त्येन मणिन ऋषिणेव मनीषिणा। अजैषं सर्वाः पृतना वि मृधो हन्मि रक्षसः ॥ - अ. ८.५.८

*अस्मै मणिं वर्म बध्नन्तु देवा इन्द्रो विष्णुः सविता रुद्रो अग्निः। प्रजापतिः परमेष्ठी विराड् वैश्वानर ऋषयश्च सर्वे ॥ - अ. ८.५.१०

*षट् त्वा पृच्छाम ऋषयः कश्यपेमे त्वं हि युक्तं युयुक्षे योग्यं च। विराजमाहुर्ब्रह्मणः पितरं तां नो वि धेहि यतिधा सखिभ्यः ॥ यां प्रच्युतामनु यज्ञाः प्रच्यवन्त उपतिष्ठन्त उपतिष्ठमानाम्। यस्या व्रते प्रसवे यक्षमेजति सा विराड्ऋषयः परमे व्योमन् ॥ - अ. ८.९.७-८


*अग्नीषोमावदधुर्या तुरीयासीद् यज्ञस्य पक्षावृषयः कल्पयन्तः। गायत्रीं त्रिष्टुभं जगतीमनुष्टुभं बृहदर्कीं यजमानाय स्वराभरन्तीम् ॥ - अ. ८.९.१४

*अष्टेन्द्रस्य षड् यमस्य ऋषीणां सप्त सप्तधा। अपो मनुष्यानोषधीस्ताँ उ पञ्चानु सेचिरे ॥ केवलीन्द्राय दुदुहे हि गृष्टिर्वशं पीयूषं प्रथमं दुहाना। अथातर्पयच्चतुरश्चतुर्धा देवान् मनुष्याँ असुरानुत ऋषीन् ॥ को नु गौः क एकऋषिः किमु धाम का आशिषः। यक्षं पृथिव्यामेकवृदेकर्तुः कतमो नु सः ॥ एको गौरेक एकऋषिरेकं धामैकधाशिषः। यक्षं पृथिव्यामेकवृदेकर्तुनाति रिच्यते ॥ - अ. ८.९.२३-२६

*सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात् सह ऋषिभिः ॥ - अ. ९.१.१५

*साकंजानां सप्तथमाहुरेकजं षडिद् यमा ऋषयो देवजा इति। तेषामिष्टानि विहितानि धामश स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः ॥ - अ. ९.९.१६

*देवैनसात् पित्र्यान्नामग्राहात् संदेश्यादभिनिष्कृतात्। मुञ्चन्तु त्वा वीरुधो वीर्येण ब्रह्मण ऋग्भिः पयस ऋषीणाम् ॥ - अ. १०.१.१२

*सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात् सह ऋषिभिः ॥ - अ. १०.५.४७

*यत्र ऋषयः प्रथमजा ऋचः साम यजुर्मही। एकर्षिर्यस्मिन्नार्पितः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ - अ. १०.७.१४

*तिर्यग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम्। तदासत ऋषयः सप्त साकं ये अस्य गोपा महतो बभूवुः ॥ - अ. १०.८.९

*वशामेवामृतमाहुर्वशां मृत्युमुपासते। वशेदं सर्वमभवद् देवा मनुष्या असुराः पितर ऋषयः ॥ - अ. १०.१०.२६

*ऊर्जो भागो निहितो यः पुरा व ऋषिप्रशिष्टाप आ भरैताः। अयं यज्ञो गातुविन्नाथवित्प्रजाविदुग्रःपशुविद् वीरविद् वो अस्तु ॥ अग्ने चरुर्यज्ञियस्त्वाध्यरुक्षत् शुचिस्तपिष्ठस्तपसा तपैनम्। आर्षेया दैवा अभिसंगत्य भागमिमं तपिष्ठा ऋतुभिस्तपन्तु ॥ - अ. ११.१.१५-१६

*शृतं त्वा हव्यमुप सीदन्तु दैवा निःसृप्याग्ने पुनरेनान् प्र सीद। सोमेन पूतो जठरे सीद ब्रह्मणामार्षेयास्ते मा रिषन् प्राशितारः ॥ सोम राजन्त्संज्ञानमा वपैभ्यः सुब्राह्मणा यतमे त्वोपसीदान्। ऋषीनार्षेयांस्तपसोऽधि जातान् ब्रह्मौदने सुहवा जोहवीमि ॥ - अ. ११.१.२५-२६

*बभ्रे रक्षः समदमा वपैभ्योऽब्राह्मणा यतमे त्वोपसीदान्। पुरीषिणः प्रथमानाः पुरस्तादार्षेयास्ते मा रिषन् प्राशितारः ॥ आर्षेयेषु नि दध ओदन त्वा नानार्षेयाणामप्यस्त्यत्र। अग्निर्मे गोप्ता मरुतश्च सर्वे विश्वे देवा अभि रक्षन्तु पक्वम् ॥ - अ. ११.१.३२-३३

*वृषभोऽसि स्वर्ग ऋषीनार्षेयान् गच्छ। सुकृतां लोके सीद तत्र नौ संस्कृतम् ॥ - अ. ११.१.३५

*ततश्चैनमन्येन शीर्ष्णा प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। ज्येष्ठतस्ते प्रजा मरिष्यतीत्येनमाह। - - - - - ततश्चैनमन्याभ्यां श्रोत्राभ्यां प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। बधिरो भविष्यसीत्येनमाह। - - - -- - ततश्चैनमन्याभ्यामक्षीभ्याम् प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। अन्धो भविष्यसीत्येनमाह। - - - - - ततश्चैनमन्येन मुखेन प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। मुखतस्ते प्रजा मरिष्यतीत्येनमाह। - - - -ततश्चैनमन्यया जिह्वया प्राशीर्यया चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। जिह्वा ते मरिष्यतीत्येनमाह। - - - -ततश्चैनमन्यैर्दन्तैः प्राशीर्यैश्चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। दन्तास्ते शत्स्यन्तीत्येनमाह। - - - - ततश्चैनमन्यैः प्राणापानैः प्राशीर्यैश्चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। प्राणापानास्त्वा हास्यन्तीत्येनमाह। - - - - ततश्चैनमन्येन व्यचसा प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। राजयक्ष्मस्त्वा हनिष्यतीत्येनमाह। - - - - ततश्चैनमन्येन पृष्ठेन प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। विद्युत् त्वा हनिष्यतीत्येनमाह। - - - - -ततश्चैनमन्येनोरसा प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। कृष्या न रात्स्यसीत्येनमाह। - - - -ततश्चैनमन्येनोदरेण प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। उदरदारस्त्वा हनिष्यतीत्येनमाह। - - - - - ततश्चैनमन्येन वस्तिना प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। अप्सु मरिष्यसीत्येनमाह। - - - - - ततश्चैनमन्याभ्यामूरुभ्यां प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। ऊरू ते मरिष्यत इत्येनमाह। - - - ततश्चैनमन्याभ्यामष्ठीवद्भ्यां प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। स्रामो भविष्यसीत्येनमाह। - - - - -ततश्चैनमन्याभ्यां पादाभ्यां प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। बहुचारी भविष्यसीत्येनमाह। - - - - - ततश्चैनमन्याभ्यां प्रपदाभ्यां प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। सर्पस्त्वा हनिष्यतीत्येनमाह। - - - - ततश्चैनमन्याभ्यां हस्ताभ्यां प्राशीर्याभ्यां चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। ब्राह्मणं हनिष्यसीत्येनमाह। - - - - ततश्चैनमन्यया प्रतिष्ठया प्राशीर्यया चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। अप्रतिष्ठानो अनायतनो मरिष्यसीत्येनमाह। - - - - - - अ. ११.२.१- ११.४.७

*ईशां वो मरुतो देव आदित्यो ब्रह्मणस्पतिः। ईशां व इन्द्रश्चाग्निश्च धाता मित्रः प्रजापतिः। ईशां व ऋषयश्चक्रुरमित्रेषु समीक्षयन् रदिते अर्बुदे तव ॥ - अ. ११.९.२५

*बृहस्पतिराङ्गिरस ऋषयो ब्रह्मसंशिताः। असुरक्षयणं वधं त्रिषंधिं दिव्याश्रयन् ॥ - अ. ११.१२.१०

*यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो गा उदानृचुः। सप्त सत्रेण वेधसो यज्ञेन तपसा सह ॥ - अ. १२.१.३९

*उदीचीनैः पथिभिर्वायुमद्भिरतिक्रामन्तोऽवरान् परेभिः। त्रिः सप्त कृत्व ऋषयः परेता मृत्युं प्रत्यौहन् पदयोपनेन ॥ - अ. १२.२.२९

*ऊरू पादावष्ठीवन्तौ शिरौ हस्तावथो मुखम्। पृष्ठीर्बर्जह्ये पार्श्वे कस्तत् समदधादृषिः ॥ - अ. ११.१०.१४

*प्रजया स वि क्रीणीते पशुभिश्चोप दस्यति। य आर्षेयेभ्यो याचद्भ्यो देवानां गां न दित्सति ॥ - अ. १२.४.२

*य आर्षेयेभ्यो याचद्भ्यो देवानां गां न दित्सति। आ स देवेषु वृश्चते ब्राह्मणानां च मन्यवे ॥ - अ. १२.४.१२

*स यज्ञः प्रथमो भूतो भव्यो अजायत। तस्माद्ध जज्ञ इदं सर्वं यत् किं चेदं विरोचते रोहितेन ऋषिणाभृतम् ॥ - अ. १३.१.५५

*ऋषीणां प्रस्तरोऽसि नमोऽस्तु दैवाय प्रस्तराय ॥ - अ. १६.२.६

*तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः। स ऋषीणां पाशान्मा मोचि। - अ. १६.८.१२

*तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः। स आर्षेयाणां पाशान्मा मोचि। - अ. १६.८.१३

*त्वामिन्द्र ब्रह्मणा वर्धयन्तः सत्रं नि षेदुर्ऋषयो नाधमानास्तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि। - अ. १७.१.१४

*यमाय मधुमत्तमं जुहोता प्र च तिष्ठत। इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः ॥ - अ. १८.२.२

*ये चित् पूर्व ऋतसाता ऋतजाता ऋतावृधः। ऋषीन् तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात् ॥ - अ. १८.२.१५

*सहस्रणीथाः कवयो ये गोपायन्ति सूर्यम्। ऋषीन् तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात् ॥ - अ. १८.२.१८

*देवेभ्यः कमवृणीत मृत्युं प्रजायै किममृतं नावृणीत। बृहस्पतिर्यज्ञमतनुत ऋषिः प्रियां यमस्तन्वमा रिरेच ॥ - अ. १८.३.४१

*ते तातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कैः। अग्ने याहि सहस्रं देववन्दैः सत्यैः कविभिर्ऋषिभिर्घर्मसद्भिः ॥ ये सत्यासो हविरदो हविष्पा इन्द्रेण देवैः सरथं तुरेण। आग्ने याहि सुविदत्रेभिरर्वाङ् परैः पूर्वैर्ऋषिभिर्घर्मसद्भिः ॥ - अ. १८.३.४७-४८

*आ रोहत दिवमुत्तमामृषयो मा बिभीतन। सोमपाः सोमपायिन इदं वः क्रियते हविरगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥ - अ. १८.३.६४

*उत्तरेभ्यः स्वाहा। ऋषिभ्यः स्वाहा ॥ - अ. १९.२२.१४

*त्वं भूमिमत्येष्योजसा त्वं वेद्यां सीदसि चारुरध्वरे। त्वां पवित्रमृषयोऽभरन्त त्वं पुनीहि दुरितान्यस्मत् ॥ - अ. १९.३३.३

*इन्द्रस्य नाम गृह्णन्त ऋषयो जङ्गिडं ददुः। देवा यं चक्रुर्भेषजमग्रे विष्कन्धदूषणम् ॥ - अ. १९.३५.१

*भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥ - अ. १९.४१.१

*कदु स्तुवन्त ऋतयन्त देवत ऋषिः को विप्र ओहते। कदा हवं मघवन्निन्द्र सुन्वतः कदु स्तुवत आ गमः॥ - अ. २०.५०.२

*यस्तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान् बृहस्पतिस्त्रिषधस्थो रवेण। तं प्रत्नास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम् ॥ - अ. २०.८८.१

*अयं सहस्रमृषिभिः सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे। सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये ॥ - अ. २०.१०४.२

*ये त्वामिन्द्र न तुष्टुवुर्ऋषयो ये च तुष्टुवुः। ममेद् वर्धस्व सुष्टुतः ॥ - अ. २०.११५.३

*आ नूनमश्विनोर्ऋषि स्तोमं चिकेत वामया। आ सोमं मधुमत्तमं घर्मं सिञ्चादथर्वणि ॥ - अ. २०.१४०.२

*यत्र कक्षीवाँ उत यद्व्यश्व ऋषिर्यद्वां दीर्घतमा जुहाव। पृथी यद्वां वैन्यः सादनेष्वेवेदतोv अश्विना चेतयेथाम् ॥ - अ. २०.१४०.५

*न कौष्ठस्य न कुम्भ्यै। भस्त्रायै ह स्मर्षयो गृह्णन्ति। तद्वृषीन् प्रति भस्त्रायै यजूंष्यासुः। तान्येतर्हि प्राकृतानि - यज्ञाद्यज्ञं निर्मिमा इति। - शतपथ ब्राह्मण १.१.२.७

*अथो अपि प्रबर्ह स्तृणीयात् - स्तृणन्ति बर्हिरानुषगिति ह्यृषिणाभ्यनूक्तम्। - शतपथ १.३.३.१०

*घृताच्या इति। विदेघो ह माथवोऽग्निं वैश्वानरं मुखे बभार। तस्य गोतमो राहूगण ऋषिः पुरोहित आस । तस्मै ह स्मामन्त्र्यमाणो न प्रतिशृणोति - नेन्मेऽग्निर्वैश्वानरो मुखान्निष्पद्याता इति। तमृग्भिर्ह्वयितुं दध्रे - वीतिहोत्रं त्वा कवे द्युमन्तं समिधीमहि। अग्ने बृहन्तमध्वरे - विदेघ इति- - - -शतपथ १.४.१.१०

*आर्षेयानुवचनम् : अथार्षेयं प्रवृणीते। ऋषिभ्यश्चैवैनमेतद्देवभ्यश्च निवेदयति - अयं महावीर्यो यो यज्ञं प्रापदिति। तस्मादार्षेयं प्रवृणीते - शतपथ १.४.२.३

*निवित्पाठ: - स आर्षेयमुक्त्वाह - देवेद्धो मन्विद्धः इति। देवा ह्येतमग्र ऐन्धत। - - - - - ऋषिष्टुतःइति। ऋषयो ह्येतमग्रेऽस्तुवन्। तस्मादाह - ऋषिष्टुत इति। विप्रानुमदितः इति। एते वै विप्राः - यदृषयः। एते ह्येतमन्वमदन्। तस्मादाह - विप्रानुमदित इति। - मा.श. १.४.२.५-७

*ते(देवाः) यज्ञस्य रसं धीत्वा - यथा मधु मधुकृतो निर्धयेयुः - विदुह्य यज्ञं, यूपेन योपयित्वा तिरोऽभवन्। अथ यदेनेनायोपयन् - तस्माद् यूपो नाम। तद्वा ऋषीणामनुश्रुतमास। - मा.श. १.६.२.१

*तेऽर्चन्तः श्राम्यन्तश्चेरुः। श्रमेण ह स्म वै तद्देवा जयन्ति - यदेषां जय्यमास - ऋषयश्च। - - - - - मा.श. १.६.२.३

*अस्य प्रत्नामनुद्युतम् शुक्रं दुदुह्रे अह्रयः। पयः सहस्रसामृषिम् इति। परमा वा एषा सनीनां यत् - सहस्रसनिः। तदेतस्यैवावरुध्यै तस्मादाह पयः सहस्रसामृषिमिति। - मा.श. २.३.४.१५

*तस्मादेतदृषिणाऽभ्यनूक्तम् - मनसा संकल्पयति तद् वातमपि गच्छति। वातो देवेभ्य आचष्टे यथा पुरुष ते मनः इति - मा.श. ३.४.२.७

*ऐन्द्रवायव ग्रहः : तस्मादेतदृषिणाऽभ्यनूक्तम् - चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः। गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति इति। - मा.श. ४.१.३.१७

*आश्विन् ग्रहः - स रथं युक्त्वा सुकन्यां शार्यातीमुपाधाय प्रसिष्यन्द। स आजगाम यत्रऽर्षिरास - तत्। स होवाच - ऋषे ! नमस्ते, यन्नावेदिषम् - तेनाहिंसिषम्। इयं सुकन्या, तया तेऽपह्नुवे, संजानीतां मे ग्राम इति - - - मा.श. ४.१.५.७

*तौ होचतुः - सुकन्ये! कमिमं जीर्णिं कृत्यारूपमुपशेषे। आवामनुप्रेहीति। सा होवाच - यस्मै मां पिताऽदात्, नैवाहं तं जीवन्तं हास्यामीति। तद्धायमृषिराजज्ञौ। स होवाच - - - - - मा.श. ४.१.५.९

*तौ होचतुः - सुकन्ये केनावमसर्वौ स्वः, केनासमृद्धावति। तौ हर्षिरेव प्रत्युवाच - कुरुक्षेत्रऽमी देवा यज्ञं तन्वते, ते वां यज्ञादन्तर्यन्ति - तेनासर्वौ स्थः, तेनासमृद्धाविति। -- - - - मा.श. ४.१.५.१३

*क्रतुग्रहाः - तस्मादैन्द्राग्नोऽच्छावाकः। स एतेन च हविषा यदस्माऽएतत्पुरोडाशबृगलं पाणावादधाति, एतेन चार्षेयेण - यदेतदन्वाह - तेनानुसमश्नुते। - मा.श. ४.३.१.२

*दाक्षिणहोमो दक्षिणादानञ्च : ऋषिमार्षेयम् इति। यो वै ज्ञातोऽनूचानः स ऋषिरार्षेयः। सुधातुदक्षिणम् इति। स हि सुधातुदक्षिणः। - मा.श. ४.३.४.१९

*अथैवमेवोपसद्य आत्रेयाय हिरण्यं ददाति। यत्र वाऽअदः प्रातरनुवाकमन्वाहुः - तद्ध स्मैतत् पुरा शंसन्ति। अत्रिर्वाऽऋषीणां होतास। अथैतत्सदोऽसुरतमसमभिपुप्रुवे। तऽऋषयोऽत्रिमब्रुवन् - एहि प्रत्यङ्ङिदं तमोऽपजहीति। स एतत्तमोऽपाहन्। - - - - मा.श. ४.३.४.२१

*अथाग्निचित्याब्राह्मणम् : असद्वाऽइदमग्रऽआसीत्। तदाहुः - किं तदसदासीदिति। ऋषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत्। तदाहुः - के ते ऽऋषय इति। प्राणा वाऽऋषयः। ते यत्पुराऽऽस्मा त्सर्वस्मादिदमिच्छन्तःश्रमेण तपसारिषन् - तस्मादृषयः। - मा.श. ६.१.१.१

*समास्त्वाऽग्न ऋतवो वर्द्धयन्तु इति - - - संवत्सरा ऋषयो यानि सत्या इति। संवत्सराश्च त्वर्षयश्च सत्यानि च वर्द्धयंतु - इत्येतत्। - मा.श. ६.२.१.२६

*तदेता वाव षड् देवता इदं सर्वमभूवन् - यदिदं किंच। ते देवाश्चऽर्षयश्चाब्रुवन् - इमा वाव षड् देवता इदं सर्वमभूवन्। - - - - तेषां चेतयमानानां देवा द्वितीयां चितिमपश्यन्, ऋषयश्चतुर्थीम्। - मा.श. ६.२.३.७

*अत यदूर्ध्वमन्तरिक्षात्, अर्वाचीनं दिवः - तेनऽर्षय उपायन्। तदेषा चतुर्थी चितिः। - मा.श. ६.२.३.८

*प्रजापतिः प्रथमां चितिमपश्यत्। प्रजापतिरेव तस्या आर्षेयम्। देवा द्वितीयां चितिमपश्यन्। देवा एव तस्या आर्षेयम्। इन्द्राग्नी च विश्वकर्मा च तृतीयां चितिमपश्यन्। तऽएव तस्या आर्षेयम्। ऋषयश्चतुर्थीं चितिमपश्यन्। ऋषय एव तस्या आर्षेयम्। परमेष्ठी पञ्चमीं चितिमपश्यत्। परमेष्ठ्येव तस्या आर्षेयम्। स यो हैतदेवं चितीनामार्षेयं वेद - आर्षेयवत्यो हास्य बन्धुमत्यश्चितयो भवन्ति। - मा.श. ६.२.३.१०

*तमु त्वा दध्यङ्ङृषिः पुत्र ईधेऽअथर्वणः इति। वाग्वै दध्यङ्ङाथर्वणः। - मा.श. ६.४.२.३

*यद्वेवैनमभिजुहोति। एतद्वै यत्रैतं प्राणा ऋषयोऽग्रेऽग्निं समस्कुर्वन् - तदस्मिन्नेतं पुरस्ताद्भागमकुर्वत। - - - - - तद्यदभिजुहोति - यऽएवास्मिंस्ते प्राणा ऋषयः पुरस्ताद्भागमकुर्वत - तानेवैतत्प्रीणाति। - मा.श. ७.२.३.५

*वसिष्ठ ऋषिः इति। प्राणो वै वसिष्ठ ऋषिः। यद्वै नु श्रेष्ठः - तेन वसिष्ठः। अथो यद्वस्तृतमो वसति - तेनोऽएव वसिष्ठः। - मा.श. ८.१.१.६

*भरद्वाज ऋषिः इति। मनो वै भरद्वाज ऋषिः। अन्नं वाजः। यो वै मनो बिभर्ति सो ऽन्नं वाजं भरति। तस्मान्मनो भरद्वाज ऋषिः। - मा.श. ८.१.१.९

*जमदग्निर्ऋषिः इति। चक्षुर्वै जमदग्निर्ऋषिः। यदेनेन जगत्पश्यति, अथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्निर्ऋषिः। - मा.श. ८.१.२.३

*विश्वामित्र ऋषिः इति। श्रोत्रं वै विश्वामित्र ऋषिः। यदेनेन सर्वतः शृणोति। अथो यदस्मै सर्वतोv मित्रं भवति - तस्माच्छ्रोत्रं विश्वामित्र ऋषिः। - मा.श. ८.१.२.६

*विश्वकर्मऽऋषिः इति। वाग्वै विश्वकर्मर्षिः। वाचा हीदं सर्वं कृतम्। तस्माद्वाग्विश्वकर्मर्षिः। - मा.श. ८.१.२.९

*यद्वेव स्तोमानुपदधाति। ये वै ते प्राणा ऋषय एतां चतुर्थीं चितिमपश्यन्, ये तऽएतेन रसेनोपायन् - तऽएते। तानेवैतदुपदधाति। प्राणा वै स्तोमाः। प्राणा उ वा ऋषयः। ऋषीनेवैतदुपदधाति। - मा.श. ८.४.१.५

*- - - - यत्प्रजापतिमुपादधत - तस्मात्प्रजापतिचितिः। सऽर्षिचितिः। यदृषीनुपादधत - तस्मादृषिचितिः। - - - - मा.श. ८.४.४.१२

*परिषेकधेनूकरणावकर्षणादिकं कर्म : यद्वेवैनं विकर्षति। एतद्वै यत्रैतं प्राणा ऋषयोऽग्रेऽग्निं समस्कुर्वन्। तमद्भिरवोक्षन् - ता आपः समस्कन्दन् - ते मण्डूका अभवन्। - मा.श. ९.१.२.२१

*वैश्वानरमारुतयोर्होमविध्यादि : अथ यं द्वितीयमुत्तरतो जुहोति - सप्त ऋषयः सः। स सप्तकपालो भवति। सप्त हि सप्तर्षयः। तमनन्तर्हितं पूर्वस्माज्जुहोति - ऋतुषु तदृषीन्प्रतिष्ठापयति। - मा.श. ९.३.१.२१

*अथ यं तृतीयमुत्तरतो जुहोति - छन्दांसि सः। स सप्तकपालो भवति। सप्त हि चतुरुत्तराणिच्छन्दांसि। तमनन्तर्हितं पूर्वस्माज्जुहोति। अनन्तर्हितानि तदृषिभ्यश्छन्दांसि दधाति - मा.श. ९.३.१.२३

*दक्षिणाऽन्नं वनुते यो न आत्मा इति ह्यप्यृषिणाऽभ्युक्तम्। - मा.श. १०.१.१.१०

*प्रजापतेर्भोक्तृत्वमाहवनीयरूपत्वम् : तद्धैतत्पश्यन्नृषिरभ्यनूवाद - भूतं भविष्यत्प्रस्तौमि महद्ब्रह्मैकमक्षरम् - बहु ब्रह्मैकमक्षरम् इति। - मा.श. १०.४.१.९

*तस्मादेतदृषिणाऽभ्यनूक्तम् - न त्वं युयुत्से कतमच्च नाहर्न्न तेऽमित्रो मघवन् कश्चनास्ति। मायेत्सा ते यानि युद्धान्याहुर्न्नाद्य शत्रून्ननु पुरा युयुत्से इति। - मा.श. ११.१.६.१०

*तद्वा अद आग्नेय्यामिष्टा उद्यते। यथा तत् ऋषिभ्यो यज्ञः प्रारोचत। तं यथाऽतन्वत। तद्यज्ञं तन्वानानृषीन् गंधर्वा उपनिषेदुः। ते ह स्म सन्निधति। इदं वा अत्यरीरिचन्, इदमूनमक्रन्निति। - - - मा.श. ११.२.३.७

*अथेध्ममादीप्य प्राञ्चं हर्तवै ब्रूयात्। ब्राह्मण आर्षेय उद्धरेत्। ब्राह्मणो वा आर्षेयः सर्वा देवताः। - मा.श. १२.४.४.६

*अथेध्ममादीप्य अन्वञ्चं हर्तवै ब्रूयात्। ब्राह्मण आर्षेय उद्धरेत्। ब्राह्मणो वा आर्षेयः सर्वा देवताः। - मा.श. १२.४.४.७

*तस्मादपि एतत् ऋषिणाऽभ्यनूक्तम् - यो अग्निरग्नेरध्यजायत शोकात्पृथिव्या उत वा दिवस्परि। येन प्रजा विश्वकर्मा जजान तमग्ने हेडः परि ते वृणक्तु इति। यथा ऋक् तथा ब्राह्मणम्। - मा.श. १२.५.२.४

*स होवाच - ऋषे विराजं ह वै वेत्थ। तां मे ब्रूहीति। स होवाच - किं मे ततः स्यादिति। - - - - - ततो हैतामृषिरिन्द्राय विराजमुवाच। इयं वै विराडिति। - - - - अथ हैतामिन्द्र ऋषये प्रायश्चित्तिमुवाच। अग्निहोत्रादग्र आ महत उक्थात्। ता ह स्मैताः पुरा व्याहृतीर्वसिष्ठा एव विदुः। तस्माद्ध स्म पुरा वासिष्ठ एव ब्रह्मा भवति। - मा.श. १२.६.१.४१

*तस्मादेतदृषिणाभ्यनूक्तम् - अस्माकमत्र पितरस्त आसन् सप्त ऋषयो दौर्ग्रहे बध्यमाने इति। - मा.श.१३.५.४.५

*तस्मादेतदृषिणाऽभ्यनूक्तम् - दध्यङ् ह यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्ष्णा प्र यदीमुवाच इति। - मा.श.१४.१.१.२५

*ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्। तदात्मानमेवावेत् - अहं ब्रह्मास्मि इति। तस्मात् तत्सर्वमभवत्~। तत् यो यो देवानां प्रत्यबुnध्यत। स स एव तदभवत्~। तथा ऋषीणाम्। तथा मनुष्याणाम्। - मा.श. १४.४.२.२१

*तद्धैतत्पश्यन्नृषिर्वामदेवः प्रतिपेदे - अहं मनुरभवं सूर्यश्च इति। तदिदमप्येतर्हि य एवं वेद। - मा.श. १४.४.२.२२

*तदेष श्लोको भवति - अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम्। तस्यासत ऋषयः सप्त तीरे वागष्टमी ब्रह्मणा संविदाना इति। - - - - - तस्यासत ऋषयः सप्त तीर इति। प्राणा वा ऋषयः। प्राणानेतदाह। - मा.श. १४.५.२.५

*अपि हि नः ऋषेर्वचः श्रुतम् - द्वे सृती अशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानाम्। ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदंतरा पितरं मातरं च इति। - मा.श. १४.९.१.४

*आनूनमश्विनोर्ऋषिः इति - ऐतरेय ब्राह्मण १.२२

*सोमो वै राजा गन्धर्वेष्वासीत्तं देवाश्च ऋषयश्चाभ्यध्यायन्कथमयमस्मान्सोमो राजाऽऽगच्छेदिति सा वागब्रवीत्स्त्रीकामा वै गन्धर्वा - - - ऐ.ब्रा. १.२७

*यज्ञेन वै देवा ऊर्ध्वाः स्वर्गं लोकमायंस्तेऽबिभयुरिमं नो दृष्ट्वा मनुष्याश्च ऋषयश्चानुप्रज्ञास्यन्तीति तं वै यूपेनैवायोपयंस्तं यद्यूपेनैवायोपयंस्तद्यूपस्य यूपत्वं तमवाचीनाग्रं निमित्योर्ध्वा उदायंस्ततो वै मनुष्याश्च ऋषयश्च देवानां यज्ञवास्त्वभ्यायन्यज्ञस्य किंचिदेषिष्यामः प्रज्ञात्या इति - - - - - ऐ.ब्रा. १.३०

*ऋषिः श्रेष्ठः समिध्यसे यज्ञस्य प्राविता भवेति यज्ञसमृद्धिमाशास्ते - ऐ.ब्रा. २.१२

*ऋषिः श्रेष्ठः समिध्यसे यज्ञस्य प्राविता भवेति यज्ञसमृद्धिमाशास्ते - ऐ.ब्रा. २.१२

*ते(देवाः) वपामेव हुत्वाऽनादृत्येतराणि कर्माण्यूर्ध्वाः स्वर्गं लोकमायंस्ततो वै मनुष्याश्च ऋषयश्च देवानां यज्ञवास्त्वभ्यायन्यज्ञस्य किंचिदेषिष्यामः प्रज्ञात्या इति तेऽभितः परिचरन्त ऐत्पशुमेव निरान्त्रं शयानं ते विदुरियान्वाव किल पशुर्यावती वपेति - ऐ.ब्रा. २.१३

*ऋषयो वै सरस्वत्यां सत्रमासत ते कवषमैलूषं सोमादनयन्दास्याः पुत्रः कितवोऽब्राह्मणः कथं नो मध्येऽदीक्षिष्टेति - - - - - - ऐ.ब्रा. २.१८

*उपहूता वाक्सह प्राणेनोप मां वाक्सह प्राणेन ह्वयतामुपहूता ऋषयो दैव्यासस्तनूपावानस्तन्वस्तपोजा उप मामृषयो दैव्यासो ह्वयन्तां तनूपावानस्तन्वस्तपोजा इति। प्राणा वा ऋषयो दैव्यासस्तनूपावानस्तन्वस्तपोजास्तानेव तदुपह्वयते - ऐ.ब्रा. २.२७

*उपहूता ऋषयो दैव्यासस्तनूपावानस्तन्वस्तपोजा उप मामृषयो दैव्यासो ह्वयन्ता तनूपावानस्तन्वस्तपोजा इति प्राणा वा ऋषयो दैव्यासस्तनूपावानस्तन्वस्तपोजास्तानेव तदुपह्वयते। - ऐ.ब्रा. २.२७

*तदप्येतदृषिणोक्तमग्निर्ऋषिः पवमान इति। एवमु हास्याऽऽग्नेयीभिरेव प्रतिपद्यमानस्य पावमान्योऽनुशस्ता भवन्ति। - ऐ.ब्रा. २.३७

*तदेतदृषिः पश्यन्नभ्यनूवाच इति। यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद्वा त्रैष्टुभं निरतक्षत। यत्र जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुरिति। - ऐ.ब्रा. ३.१२

*प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः इति - ऐ.ब्रा. ३.१९

*सोमो वै राजाऽमुष्मिfल्लोक आसीत्तं देवाश्च ऋषयश्चाभ्यध्यायन्कथमयमस्मात्सोमो राजाऽऽगच्छेदिति तेऽब्रुवंश्छन्दांसि यूयं न इमं सोमं राजानमाहरतेति तथेति - - - - ऐ.ब्रा. ३.२५

*अग्निष्टोमं वै देवा अश्रयन्तोक्थान्यसुरास्ते समावद्वीर्या एवाऽऽसन्न व्यवर्तन्त तान्भरद्वाज ऋषीणामपश्यदिमे वा असुरा उक्थेषु श्रितास्तानेषां न कश्चन पश्यतीति सोऽग्निमुदह्वयत् इति। - - - ऐ.ब्रा. ३.४९

*तदाहुर्यदन्येषु पशुषु यथ ऋष्याप्रियो भवन्त्यथ कस्मादस्मिन्सर्वेषां जामदग्न्य एवेति। - ऐ.ब्रा. ४.२६

*तदुक्तमृषिणा पवमानः प्रजापतिरिति - ऐ.ब्रा. ४.२६

*तदाहुरथ कस्मादुत्करे तिष्ठन्सुब्रह्मण्यामाह्वयतीत्यृषयो वै सत्रमासत तेषां यो वर्षिष्ठ आसीत्तमब्रुवन्सुब्रह्मण्यामाह्वय त्वं नो नेदिष्ठाद्देवान्ह्वयिष्यसीति वर्षिष्ठमेवैनं तत्कुर्वन्त्यथो वेदिमेव तत्सर्वां प्रीणाति - ऐ.ब्रा. ६.३

*माध्यन्दिनीयशस्त्रक्लृप्तिं विधातुमाख्यायिका : ते वै देवाश्च ऋषयश्चाऽऽद्रियन्त समानेन यज्ञं संतनवामेति त एतत्समानं यज्ञस्यापश्यन्समानान्प्रगाथान्समानीः प्रतिपदः समानानि सूक्तानि। - - - - ऐ.ब्रा. ६.१८

*आवपनीयानि सूक्तानि : एतानि वा आवपनान्येतैर्वा आवपनैर्देवाः स्वर्गं लोकमजयन्नेतैर्ऋषयस्तथैवैतद्यजमाना एतैरावपनैः स्वर्गं लोकं जयन्ति। - ऐ.ब्रा. ६.१९

*सद्यो ह जातो वृषभः कनीन इति - - - तदेत्सूक्तं स्वर्ग्यमेतेन सूक्तेन देवाः स्वर्गं लोकमजयन्नेतेन ऋषयस्तथैवैतद्यजमाना एतेन सूक्तेन स्वर्गं लोकं जयन्ति - ऐ.ब्रा. ६.२०

*कवींरिच्छामि संदृशे सुमेधा इति। ये वै ते न ऋषयः पूर्वे प्रेतास्ते वै कवयस्तानेव तदभ्येति वदति। तदु वैश्वामित्रं विश्वस्य ह वै मित्रं विश्वामित्र आस विश्वं हास्मै मित्रं भवति य एवं वेद - ऐ.ब्रा. ६.२०

*यो वा अग्निः स वरुणस्तदप्येतदृषिणोक्तं त्वमग्ने वरुणो जायसे यदिति तद्यदेवैन्द्रावरुण्या यजति तेनाग्निरनन्तरितोऽनन्तरितः - ऐ.ब्रा. ६.२६

*नाराशंसीः शंसति - - - - शंसन्तो वै देवाश्च ऋषयश्च स्वर्गं लोकमायंस्तथैवैतद्यजमानाः शंसन्त एव स्वर्गं लोकं यन्ति - ऐ.ब्रा. ६.३२

*रैभीः शंसति। रेभन्तो वै देवाश्च ऋषयश्च स्वर्गं लोकमायंस्तथैवैतद्यजमाना रेभन्त स्वर्गं लोकं यन्ति। - ऐ.ब्रा. ६.३२

*देवाश्चैतामृषयश्च तेजः समभरन्महत्। देवा मनुष्यानब्रुवन्नेषा वो जननी पुनः - ऐ.ब्रा. ७.१३

*शुनःशेप आख्यानम् : चरैवेति वै मा ब्राह्मणोऽवोचदिति ह षष्ठं संवत्सरमरण्ये चचार सोऽजीगर्तं सौयवसिमृषिमशनया परीतमरण्य उपेयाय। तस्य ह त्रयः पुत्रा आसुः - - - - - ऐ.ब्रा. ७.१५

*अथ ह शुनःशेपो विश्वामित्रस्याङ्कमाससाद स होवाचाजीगर्तः सौयवसिर्ऋषे पुनर्मे पुत्रं देहीति नेति होवाच विश्वामित्रो - - - -ऐ.ब्रा. ७.१७

*अधीयत देवरातो रिक्थयोरुभयोर्ऋषिः। जह्नूनां चाऽऽधिपत्ये दैवे वेदे च गाथिनाम्। - ऐ.ब्रा. ७.१८

*निधाय वा एष स्वान्यायुधानि ब्रह्मण एवाऽऽयुधैर्ब्रह्मणो रूपेण ब्रह्म भूत्वा यज्ञमुपावर्तत तस्मात्तस्य पुरोहितस्याऽऽर्षेयेण दीक्षामावेदयेयुः पुरोहितस्याऽऽर्षेयेण प्रवरं प्रवृणीरनु - ऐ.ब्रा. ७.२५

*तत्पञ्चदशर्चं भवत्योजो वा इन्द्रियं वीर्यं पञ्चदश ओजः क्षत्त्रं वीर्यं राजन्यस्तदेनमोजसा क्षत्त्रेण वीर्येण समर्धयति। तद्भारद्वाजं भवति भारद्वाजं वै बृहदार्षेयेण सलोमा - ऐ.ब्रा. ८.३

*एतं ह वा ऐन्द्रं महाभिषेकं बृहदुक्थ ऋषिर्दुर्मुखाय पाञ्चालाय प्रोवाच तस्मादु दुर्मुखः पाञ्चालो राजा सन्विद्यया समन्तं पृथिवीं जयन्परीयाय - ऐ.ब्रा. ८.२३

*पुरोहित महिमा : तदप्येतदृषिणोक्तम्। स इद्राजा प्रतिजन्यानि विश्वा शुष्मेण तस्थावभि वीर्येणेति - ऐ.ब्रा. ८.२६

*यूपे पशुनियोजनार्थमुपाकरणाभिधानम् : अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट ऋषीणां पुत्रो अधिराज एषः। - तैत्तिरीय संहिता १.३.७.३

*इन्द्रमिद्धरी वहतोऽप्रतिधृष्टशवसमृषीणां स्तुतीरुप यज्ञं च मानुषाणाम् - तै.सं. १.४.३८.१

*पुनराधानमन्त्राः :- सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वाः सप्त ऋषयः सप्त धाम प्रियाणि। - तै.सं. १.५.३.२

*अग्न्युपस्थानम् : सं त्वमग्ने सूर्यस्य वर्चसाऽगथाः समृषीणां स्तुतेन सं प्रियेण धाम्ना। - तै.सं. १.५.५.४

*याज्यापुरोनुवाक्याभिधानम् : आ यस्मिन्त्सप्त वासवास्तिष्ठन्ति स्वारुहो यथा। ऋषिर्ह दीर्घश्रुत्तम इन्द्रस्य घर्मो अतिथि: - तै.सं. १.६.१२.२

*हौत्रविवक्षयाऽवशिष्टसामिधेनीमन्त्रव्याख्यानम् : नृमेधश्च परुच्छेपश्च ब्रह्मवाद्यमवदेतामस्मिन्दारावार्द्रेऽग्निं जनयाव यतरो नौ ब्रह्मीयानिति नृमेधोऽभ्यवदत्स धूममजनयत्परुच्छेपोऽभ्यवदत्सोऽग्निमजनयदृष इत्यब्रवीत् - - - तै.सं. २.५.८.३

*प्रवरमन्त्रस्य निगदस्य स्रुगादापन : ऋषिष्टुत इत्याहर्षयो ह्येतमस्तुवन्विप्रानुमदित इत्याह विप्रा ह्येते यच्छुश्रुवांसः कविशस्त इत्याह कवयो ह्येते यच्छुश्रुवांसो - - - तै.सं. २.५.९.१

*अङ्गिरसो वा इत उत्तमाः सुवर्गं लोकमायन्तदृषयो यज्ञवास्त्वभ्यवायन्ते अपश्यन्पुरोडाशं कूर्मं भूतं सर्पन्तं तमब्रुवन्निन्द्राय ध्रियस्व बृहस्पतये ध्रियस्व विश्वेभ्यो देवेभ्यो ध्रियस्वेति स नाध्रियत तमब्रुवन्नग्नये ध्रियस्वेति सोऽग्नयेऽध्रियत - तै.सं. २.६.३.३

*तृतीयसवनमाध्यंदिनसवनगतहोमविशेष मन्त्राभिधानम् : यज्ञपतिमृषय एनसा आहुः। प्रजा निर्भक्ता अनुतप्यमाना मधव्यौ स्तोकावच तौ रराध। सं नस्ताभ्यां सृजतु विश्वकर्मा घोरा ऋषयो नमो अस्त्वेभ्यः - तै.सं. ३.२.८.१

*विकृतिरूपद्वादशाहशेषपृश्निग्रहाभिधानम् : प्रजापतिर्विराजमपश्यत्तया भूतं च भव्यं चासृजत तामृषिभ्यस्तिरोऽदधात्तां जमदग्निस्तपसाऽपश्यत्तया वै स पृश्नीन्कामानसृजत - तै.सं.३.३.५.२

*अवभृथाङ्गहोमाद्याभिधानम् : एतेन ह स्म वा ऋषयः पुरा विज्ञानेन दीर्घसत्रमुप यन्ति यो वा उपद्रष्टारमुपश्रोतारमनुख्यातारं विद्वान्यजते सममुष्मिंल्लोक इष्टापूर्तेन गच्छते - - - तै.सं. ३.३.८.५

*राष्ट्रभृन्मन्त्राणां काम्यप्रयोगाभिधानम् : चत्वार आर्षेयाः प्राश्नन्ति दिशामेव ज्योतिषि जुहोति - तै.सं. ३.४.८.७

*काम्ययाज्यापुरोनुवाक्याभिधानम् : ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम्। श्येनो गृध्राणां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेभन्। - तै.सं. ३.४.११.१

*सौमिकब्रह्मत्वविधिः :- ऋषयो वा इन्द्रं प्रत्यक्षं नापश्यन्तं वसिष्ठः प्रत्यक्षमपश्यत्सोऽब्रवीद्ब्राह्मणं ते वक्ष्यामि यथा त्वत्पुरोहिताः प्रजाः प्रजनिष्यन्तेऽथ मेतरेभ्य ऋषिभ्यो मा प्र वोच इति - तै.सं. ३.५.२.१

*पाशुकहोत्रोपयोगिमन्त्राभिधानम् : तमु त्वा दध्यङ्ङृषिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरंदरम्। - तै.सं.३.५.११.४

*खननाभिधानम् : तमु त्वा दध्यङ्ङृषिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरंदरम्। - तै.सं. ४.१.३.२

*पञ्चपश्वङ्गभूताग्निकसामिधेन्यभिधानम् : समास्त्वाऽग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयो यानि सत्या। - तै.सं. ४.१.७.१

*प्राणभृदिष्टकाभिधानम् : - - - - - गायत्रादुपांशु उपांशोस्त्रिवृत्त्रिवृतो रथंतरं रथंतराद्वसिष्ठ ऋषिःप्रजापतिगृहीतया त्वया प्राणं गृह्णामि प्रजाभ्यो - तै.सं. ४.३.२.१

*- - - अन्तर्यामात्पञ्चदशः पञ्चदशाद्बृहद्बृहतो भरद्वाज ऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया मनःगृह्णामि प्रजाभ्यो - तै.सं. ४.३.२.१

*सप्तदशाद्वैरूपं वैरूपाद्विश्वामित्र ऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया चक्षुर्गृह्णामि प्रजाभ्य - तै.सं. ४.३.२.२

*एकविंशाद्वैराजं वैराजाज्जमदग्निर्ऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया श्रोत्रं गृहणामि प्रजाभ्य - तै.सं. ४.३.२.२

*त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्यां शाक्वररैवते शाक्वररैवताभ्यां विश्वकर्मर्षिः प्रजापतिगृहीतया त्वया वाचं गृह्णामि प्रजाभ्यः - तै.सं. ४.३.२.३

*प्राणभृदिष्टकाभिधानम् : अयं पुरो भुवः - - - - - रथंतराद्वसिष्ठ ऋषिः - - - - - - - अयं दक्षिणा विश्वकर्मा तस्य - - - - - पञ्चदशाद्बृहद्बृहतो भरद्वाज ऋषिः - - - - - - -ऽयं पश्चाद्विश्वव्यचास्तस्य - - - - - - सप्तदशाद्वैरूपं वैरूपाद्विश्वामित्र ऋषिः - - - - -एकविंशाद्वैराजं वैराजाज्जमदग्निर्ऋषिः - - - - -इयमुपरि मतिः तस्यै - - - - त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्यां शाक्वररैवते शाक्वररैवताभ्यां विश्वकर्मर्षिः - तै.सं. ४.३.२.१-३

*अपानभृदिष्टकाभिधानम् : प्राची दिशां - - - सानग ऋषिर्दक्षिणा दिशां ग्रीष्म ऋतूनाम् सनातन ऋषिःप्रतीची दिशां - - - - ऽहभून ऋषिरुदीची दिशां - - - प्रत्न ऋषिरूर्ध्वा दिशां - - - सुपर्ण ऋषिः - तै.सं.४.३.३.२

*द्वितीयचितावश्विन्याख्येष्टकाभिधानम् : ऊर्मिर्द्रप्सो अपामसि विश्वकर्मा त ऋषिरश्विनाऽध्वर्यू सादयतामिह त्वा - तै.सं. ४.३.४.३

*नाकसदाख्येष्टकाभिधानम् : - - - - शाक्वररैवते सामनी प्रतिष्ठित्या अन्तरिक्षायर्षयस्त्वा प्रथमजा देवेषु दिवो मात्रया वरिणा प्रथन्तु - - - - तै.सं. ४.४.२.३

*विश्वज्योतिराद्या इष्टकाभिधानम् : - - - द्रविणोदां त्वा द्रविणे सादयामि तेनर्षिणा तेन ब्रह्मणा तया देवतयाऽङ्गिरस्वद्ध्रुवा सीद - तै.सं. ४.४.६.२

*सूक्ताभ्यां होमाभिधानम् : य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिर्होता निषसादा पिता नः - तै.सं. ४.६.२.१

*तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्र सप्तर्षीन्पर एकमाहुः। - तै.सं. ४.६.२.१

*त आऽयजन्त द्रविणं समस्मा ऋषयः पूर्वे चरितारो न भूना। - तै.सं. ४.६.२.२

*अग्निस्थापनाभिधानम् : सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वाः सप्तर्षयः सप्त धाम प्रियाणि - तै.सं. ४.६.५.५

*केषांचिदश्वस्तोमीयमन्त्राणामभिधानम् : उपप्रागात्सुमन्मेऽधायि मन्म देवानामाशा उपवीतपृष्ठः। अन्वेनं विप्रा ऋषयो मदन्ति देवानां पुष्टे चकृमा सुबन्धुम् - तै.सं. ४.६.८.३

*अग्नियोगाभिधानम् : इमौ ते पक्षावजरौ पतत्रिणो याभ्यां रक्षांस्यपहंस्यग्ने। ताभ्यां पतेम सुकृतामु लोकं यत्रर्षयः प्रथमजा ये पुराणाः। - तै.सं. ४.७.१३.१

*अग्नियोगाभिधानम् : येनर्षयस्तपसा सत्र आसतेन्धाना अग्निं सुवराभरन्तः। तस्मिन्नहं नि दधे नाके अग्निमेतं यमाहुर्मनवः स्तीर्णबर्हिषम् ॥ - तै.सं. ४.७.१३.३

*मृदः खननपूर्वकं चर्मपत्रयोः संभरणम् : तमु त्वा दध्यङ्ऋषिरित्याह दध्यङ्वा आथर्वणस्तेजस्व्यासीत्तेज एवास्मिन्दधाति - तै.सं. ५.१.४.४

*संभृतमृदो यज्ञभूमौ समाहरणम् : रासभः पत्वेति आह रासभ इति ह्येतमृषयोऽवदन् - तै.सं. ५.१.५.७

*उख्यधारणम् : न ह स्म वै पुराऽग्निरपरशुवृक्णं दहति तदस्मै प्रयोग एवर्षिरस्वदयद्यदग्ने यानि कानि चेति समिधमा दधात्यपरशुवृक्णमेवास्मै स्वदयति - तै.सं. ५.१.१०.१

*असपत्नविराडाख्येष्टकाभिधानम् : यानि वै छन्दांसि सुवर्ग्याण्यासन्तैर्देवाः सुवर्गं लोकमायन्तेनर्षयःअश्राम्यन्ते तपोऽतप्यन्त तानि तपसाऽपश्यन्तेभ्य एता इष्टका निरमिमत - तै.सं. ५.३.५.३

*ऋतव्यादीष्टकात्रयप्रोक्षणयोरभिधानम् : अङ्गिरसः सुवर्गं लोकं यन्तो या यज्ञस्य निष्कृतिरासीत्तामृषिभ्यः प्रत्यौहन्तद्धिरण्यमभवद् - तै.सं. ५.४.२.३

*प्रजापतिर्वा अथर्वाऽग्निरेव दध्यङ्ङाथर्वणस्तस्येष्टका अस्थान्येतं ह वाव तदृषिरभ्यनूवाचेन्द्रो दधीचो अस्थभिरिति - तै.सं. ५.६.६.३

*होमविशेषाणां राष्ट्रभृदिष्टकानां चाभिधानम् : भद्रं पश्यन्त उप सेदुरग्रे तपो दीक्षामृषयः सुवर्विदः। - तै.सं. ५.७.४.३

*पुनः परीन्धनाद्यभिधानम् : तस्मादयातयाम्नी लोकंपृणाऽयातयामा ह्यसौ आदित्यस्तानृषयोऽब्रुवन्नुप व आऽयामेति - - - - तै.सं. ५.७.५.७

*आकूतिमन्त्राभिधानम् : तमनु प्रेहि सुकृतस्य लोकं यत्रर्षयः प्रथमजा ये पुराणाः - तै.सं. ५.७.७.१

*यूपस्थापनाभिधानम् : यज्ञेन वै देवाः सुवर्गं लोकमायन्तेऽमन्यन्त मनुष्या नोऽन्वाभविष्यन्तीति ते यूपेन योपयित्वा सुवर्गं लोकमायन्तमृषयो यूपेनैवानु प्राजानन्तद्यूपस्य यूपत्वम् - तै.सं. ६.३.४.७

*अवदानाभिधानम् : जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्य - तै.सं. ६.३.१०.५

*ऋतुग्रहकथनम् : यज्ञेन वै देवाः सुवर्गं लोकमायन्तेऽमन्यन्त मनुष्या नोऽन्वाभविष्यन्तीति ते संवत्सरेण योपयित्वा सुवर्गं लोकमायन्तमृषय ऋतुग्रहैरेवानु प्राजानन् - तै.सं. ६.५.३.१

*दक्षिणाहोमकथनम् : ऋषिमार्षेयमित्याहैष वै ब्राह्मण ऋषिरार्षेयो यः शुश्रुवान्तस्मादेवमाह - तै.सं. ६.६.१.४

*अश्वमेधगतमन्त्रकथनम् : अर्वाङ्यज्ञः सं क्रामत्वमुष्मादधि मामभि। ऋषीणां यः पुरोहितः। - तै.सं. ७.३.११.१

*ऋषिकृतं च वा एते देवकृतं च पूर्वैर्मासैरव रुन्धते यद्भूतेच्छदां सामानि भवन्ति - तै.सं. ७.५.९.३

*चत्वार आर्षेयाः प्राश्नन्ति। दिशामेव ज्योतिषि जुहोति। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.६.६

*अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपाय यमृषयस्त्रयिविदा विदुः। ऋचः सामानि यजूंषि। सा हि श्रीरमृता सताम् - तै.ब्रा. १.२.१.२६

*यः पावमानीरध्येति। ऋषिभिः संभृतं रसम्। सर्वं स पूतमश्नाति। स्वदितं मातरिश्वना। - तै.ब्रा. १.४.८.४

*पावमानीः स्वस्त्ययनीः। सुदुघा हि पयस्वतीः। ऋषिभिः संभृतो रसः। ब्राह्मणेष्वमृतं हितम्। - तै.ब्रा. १.४.८.५

*आघारावाघारयति। यज्ञपरुषोरनन्तरित्यै। नाऽऽर्षेयं वृणीते। न होतारम्। यदार्षेयमं वृणीते। यद्धोतारम्। प्रमायुको यजमानः स्यात्। प्रमायुको होता। - तै.ब्रा. १.६.९.१

*अयं कृत्नुरगृभीतः। विश्वजिदुद्भिदित्सोमः। ऋषिर्विप्रः काव्येन - तै.ब्रा. २.४.७.६

*वयः सुपर्णा उपसेदुरिन्द्रम्। प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः। अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुः। मुमुग्ध्यस्मान्निधयेव बद्धान् - तै.ब्रा. २.५.८.३

*त्वामद्यर्ष आर्षेयर्षीणां नपादवृणीत - तै.ब्रा. २.६.१५.२

*राजाभिषेकः :-व्याघ्रोऽयमग्नौ चरति प्रविष्टः। ऋषीणां पुत्रो अभिशस्तिपा अयम्। नमस्कारेण नमसा ते जुहोमि। मा देवानां मिथुया कर्म भागम्। - तै.ब्रा. २.७.१५.१

*नमस्त ऋषे गद। अव्यधायै त्वा स्वधायै त्वा। (इति पुरोहितमभिमन्त्रयते) - तै.ब्रा. २.७.१६.१

*अग्ने महां असि ब्राह्मणभारत। असावसौ। देवेद्धो मन्विद्धः। ऋषिष्टुतो विप्रानुमदितः। - - तै.ब्रा. ३.५.३.१

*तुभ्यं स्तोका घृतश्चुतः। अग्ने विप्राय सन्त्य। ऋषिः श्रेष्ठः समिध्यसे। यज्ञस्य प्राविता भव। - तै.ब्रा. ३.६.७.२

*सूक्तवाकविषयो मैत्रावरुणप्रैषः : - - - - अवीवृधेता पुरोडाशेन त्वामद्यर्ष आर्षेयर्षीणां नपादवृणीत - तै.ब्रा. ३.६.१५.१

*प्रस्तरे साद्यमानाया जुह्वा अनुमन्त्रम् : आरोह पथो जुहु देवयानान्। यत्रर्षयः प्रथमजा ये पुराणाः। हिरण्यपक्षाऽजिरा संभृताङ्गा। वहासि मा सुकृतां यत्र लोकाः। - तै.ब्रा. ३.७.६.८

*पात्र्यां राजतं रुक्मं निधाय तस्मिन्ब्रह्मौदनमुद्धृत्य - - - - : सर्पिष्वान्भवति मेध्यत्वाय। चत्वार आर्षेयाः प्राश्नन्ति। दिशामेव ज्योतिषि जुहोति। - तै.ब्रा. ३.८.२.२

*वैश्वसृजचयनम् : - - - सर्वास्ता इष्टकाः कृत्वा। उप कामदुघा दधे। तेनर्षिणा तेन ब्रह्मणा। तया देवतयावङ्गिरस्वद्ध्रुवा सीद। - तै.ब्रा. ३.१२.६.१

*सर्वं सुवर्णं हरितम्। देवत्रा यच्च मानुषम्। सर्वास्ता इष्टकाः कृत्वा। उप कामदुघा दधे। तेनर्षिणा तेन ब्रह्मणा। तया देवतयाऽङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद। - तै.ब्रा. ३.१२.६.६

*सर्वा दिशो दिक्षु। यच्चान्तर्भूतं प्रतिष्ठितम्। सर्वास्ता इष्टकाः कृत्वा। उप कामदुघा दधे। तेनर्षिणा तेन ब्रह्मणा। तया देवतयाऽङ्गिरस्वद्ध्रुवा सीद। - तै.ब्रा. ३.१२.७.१

*अभ्यन्तरलेखायामुपधानमन्त्राः :- सर्वान्दिवं सर्वान्देवान्दिवि। यच्चान्तर्भूतं प्रतिष्ठितम्। सर्वास्ता इष्टकाः कृत्वा। उप कामदुघा दधे। तेनर्षिणा तेन ब्रह्मणा। तया देवतयाऽङ्गिरस्वद्ध्रुवा सीद। - तै.ब्रा. ३.१२.८.१

*सर्वं भूतं सर्वं भव्यम्। यच्चातोऽधिभविष्यति। सर्वास्ता इष्टकाः कृत्वा। उप कामदुघा दधे। तेनर्षिणा तेन ब्रह्मणा। तया देवतयाऽङ्गिरस्वद्ध्रुवा सीद। - तै.ब्रा. ३.१२.८.३

*साकंजानां सप्तथमाहुरेकजम्। षडुद्यमा ऋषयो देवजा इति। (साकंजानामित्येकादश पुरस्तात्) - तैत्तिरीय आरण्यक १.३.१

*आ यस्मिन्त्सप्त वासवाः। रोहन्ति पूर्व्या रुहः। ऋषिर्ह दीर्घश्रुत्तमः। इन्द्रस्य घर्मो अतिथिरिति - तै.आ. १.८.८

*नैतमृषिं विदित्वा नगरं प्रविशेत्। यदि प्रविशेत्। मिथौ चरित्वा प्रविशेत्। तत्संभवस्य व्रतम्। - तै.आ. १.११.७

*केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठां शतधा हि। (आपमापामिति नवोपरिष्टात्) - तै.आ. १.२१.३

*तं वा एतमरुणाः केतवो वातरशना ऋषयोऽचिन्वन्। तस्मादारुणकेतुकः। तदेषाऽभ्यनूक्ता। केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठां शतधा हि। समाहितासो सहस्रधायसमिति - तै.आ. १.२४.४

*सप्तदश क्षपण्यः :- सिकता इव संयन्ति। रश्मिभिः समुदीरिताः। अस्माल्लोकादमुष्माच्च। ऋषिभिरदात्पृश्निभिः। - तै.आ. १.२७.५

*उपस्थानमन्त्रम् : केतवो अरुणासश्च। ऋषयो वातरशनाः। प्रतिष्ठां शतधा हि। समाहितासो सहस्रधायसम्। - तै.आ. १.३१.६

*कूष्माण्डहोमगत मन्त्राः :- अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः। तमीमहे महागयम्। - तै.आ. २.५.२

*वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवुस्तानृषयोऽर्थमायँस्ते निलायमचरंस्तेऽनुप्रविशुःकूश्माण्डानि तांस्तेष्वन्वविन्दञ्छ|द्धया च तपसा च। तानृषयोऽब्रुवन्कथा निलायं चरथेति स ऋषीनब्रुवन्नमो वोऽस्तु भगवन्तोऽस्मिन्धाम्नि केन वः सपर्यामेति तानृषयोऽब्रुवन्पवित्रं नो ब्रूत येनारेपसःस्यामेति त एतानि सूक्तान्यपश्यन् - तै.आ. २.७.१

*अजान्ह वै पृश्नींस्तपस्यमानान्ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानर्षत्त ऋषयोऽभवन्तदृषीणामृषित्वं तां देवतामुपातिष्ठन्त यज्ञकामास्त एतं ब्रह्मयज्ञमपश्यत् - तै.आ. २.९.१

*अपहतपाप्मानो देवाः स्वर्गं लोकमायन्ब्रह्मणः सायुज्यमृषयोऽगच्छन् - तै.आ. २.९.१

*- - - चन्द्रमसो रोहिणी। ऋषीणामरुन्धती। - - तै.आ. ३.९.२

*भद्रं पश्यन्त उपसेदुरग्रे। तपो दीक्षामृषयः सुवर्विदः। ततः क्षत्रं बलमोजश्च जातम्। तदस्मै देवा अभिसंनमन्तु - तै.आ. ३.११.९

*तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्। पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त। साध्या ऋषयश्च ये। - तै.आ. ३.१२.३

*नमो वाचस्पतये नम ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यो मा मामृषयो मन्त्रकृतो मन्त्रपतयः। परादुर्माऽहमृषीन्मन्त्रकृतो मन्त्रपतीन्परादाम्। - तै.आ. ४.१.१

*यमाय मधुमत्तमं राज्ञे हव्यं जुहोतन। इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः। - तै.आ. ६.५.१

*यथा पञ्च यथा षड् यथा पञ्चदशर्षयः। यमं यो विद्यात्स ब्रूयाद्यथैक ऋषिर्विजानते। - तै.आ. ६.५.२

*एतदधिविधाय ऋषिरवोचत्। पाङ्क्तं वा इदं सर्वम्। पाङ्क्तेनैव पाङ्क्तं स्पृणोति - तै.आ. ७.७.१

*- - - -सता शिक्यः प्रोवाचोपनिषदिन्द्रो ज्येष्ठ इन्द्रियाय ऋषिभ्यो नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यो भूर्भुवः सुवरोम्। - तै.आ. १०.६.१

*ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम् - तै.आ. १०.१०.१

*त्वया जुष्ट ऋषिर्भवति देवि त्वया ब्रह्माऽऽगतश्रीरुत त्वया। त्वया जुष्टश्चित्रं विन्दते वसु नो जुषस्व द्रविणेन मेधे - तै.आ. १०.३९.१

*ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम्। - तै.आ. १०.५०.१

*मानसा ऋषयः प्रजा असृजन्त मानसे सर्वं प्रतिष्ठितं तस्मान्मानसं परमं वदन्ति - तै.आ. १०.६३.१

*ओं गायत्रीमावाहयामि सावित्रीमावाहयामि सरस्वतीमावाहयामि छन्दर्षीनावाहयामि - - - गायत्री च्छन्दो विश्वामित्र ऋषिः सविता देवता - - - - - तै.आ. १०.३५.१परिशिष्ट

*वयः सुपर्णा उपसेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः। अपध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुमुग्ध्यस्मान्निधयेऽवबद्धान् - तै.आ. १०.७३.१परिशिष्ट

*द्वादशाहं प्रजापतिर् द्वादशाहं देवाश् चर्षयश् च। - जैमिनीय ब्राह्मण १.३७

*अन्नस्य मा तेजसा स्वर्गं लोकं गमय। यत्र देवानाम् ऋषीणां प्रियं धाम तत्र म इदम् अग्निहोत्रं गमय इति। - जै.ब्रा. १.४०

*स यां प्रथमां जुहोति देवांस् तयाप्नोति। अथ यां द्वितीयां जुहोत्य् ऋषींस् तयाप्नोति। - जै.ब्रा. १.४०

*अथ या एतास् स्रुचो निर्णिज्योदीचीर् अप उत्सिञ्चति तेन ऋषीन् प्रीणाति। - जै.ब्रा. १.४१

*तं ह वै मनोजवसः पितरश् च पितामहाश् च प्रत्यागच्छन्ति ततः किं न आहार्षीर् इति। - जै.ब्रा. १.५०

*स्वर्भानुर् वा आसुर आदित्यं तमसाविध्यत्। तं देवाश् चर्षयश् चाभिषज्यन्। ते ऽत्रिम् अब्रुवन्न् ऋषि त्वम् इदम् अपजहीति। तथेति। - जै.ब्रा. १.८०

*पयस् सहस्रसाम् ऋषिम् इति। पयस्वान् एव भवत्य् आस्य सहस्रसा वीरो जायते। - जै.ब्रा. १.९३

*स(इन्द्रः) होवाचर्षे कम् इमं जनं वर्धयस्य् अस्माकं वै त्वम् असि वयं वा तवास्मान् अभ्युपावर्तस्वेति। - - - - - स होवाचर्षे ऽनु वै नाव् इमे ऽसुरा अग्मन्न् इति। स वै तथा कुर्व् इति होवाच यथा नाव् एतेनान्वागच्छान् इति। - जै.ब्रा. १.१२६

*तै हागतौ महयांचक्रे - ऋषिर् विप्रः पुरएता जनानाम् ऋभुर् धीर उशना काव्येन। स चिद् विवेद निहितं यद् आसाम् अपीच्यं गुह्यं नाम गोनाम् ॥ इति - जै.ब्रा. १.१२७

*स होवाचर्षिर् अस्मि मन्त्रकृत् स ज्योग् अप्रतिष्ठितो ऽचार्षं तस्मै म एतद् दत्त येन प्रतितिष्ठेयम् इति। तस्मै ह ब्रह्मणो रसस्य ददुः। तद् एव नौधसम् अभवत्~। - जै.ब्रा. १.१४७

*अष्टादंष्ट्रो वै वैरूपः पश्चेवान्येभ्य ऋषिभ्य एते सामनी अपश्यत्। सो ऽबिभेद् अस्तोत्रीये मे सामनी भविष्यत इति। - जै.ब्रा. १.१९१

*दिवोदासो वै वाध्र्यश्विर् अकामयतोभयं ब्रह्म च क्षत्रं चावरुन्धीय राजा सन्न् ऋषिस् स्याम् इति। स एतत् सामापश्यत्। तेनास्तुत। ततो वै स उभयं ब्रह्म च क्षत्रं चावारुन्द्ध राजा सन्न् ऋषिर् अभवत्~ - जै.ब्रा. १.२२२

*सप्तर्षयः प्रतिहितास् सुभूते सप्त पश्यन्ति बहुधा निविष्टौ। सप्तैतं लोकं उपयन्त्य् आपो ऽस्वप्नजौ सत्त्रसदौ यत्र देवा ॥ इति। सप्तर्षयः प्रतिहितास् सुभूत इति पुरुषो वै सुभूतम्। त इमे सप्तर्षयःप्रतिहिताः प्राणा एव। - जै.ब्रा. २.२७

*अथ ह वै त्रयः पूर्व ऋषय आसुश् शूर्पयवम् अध्वाना अन्तर्वान् कृषिस् सोल्वालाः। ते ह यज्ञस्य कृन्तत्राणि ददृशुः। तस्यैताः प्रायश्चित्तीर् ददृशुः - - - - - जै.ब्रा. २.४१

*अथैष पुनस्तोमः। स हायम् ऋषिर् आगत्य न शशाकोत्थातुम् असुराशनेन। गरो हैनम् आविवेश, यद् वा मित्राय दुद्रोह, यद्वा विद्विषाणानाम् अशनम् आश। स हेन्द्रम् उवाच - - - - - -जै.ब्रा. २.८३

*तान् देवाश् चर्षयश् चोपसमेत्याब्रुवन् - विच्छेत्स्यन्ते वा अदक्षिणा यज्ञाः, प्रतिगृह्णीतेति। - - - - जै.ब्रा. २.११६

*अथैत ऋषिष्टोमाः। ऋषयो ह वै स्वर्गं लोकं जिग्युः श्रमेण तपसा व्रतचर्येण। ते ऽकामयन्त - प्रजा अस्मिन् लोके विधाय स्वर्गं लोकं गच्छेमेति। स वसिष्ठो ऽकामयत - - - - - जै.ब्रा. २.२१७

*अथाकामयतात्रिर् भूयिष्ठा म ऋषयः प्रजायाम् आजायेरन्न् इति। स एतं त्रिणवं स्तोमम् अपश्यत् - जै.ब्रा. २.२१९

*तद् उ वावागस्त्यः पश्चेवानुबुबुध - ऋषयो ह वा इमे प्रजा अस्मिन् लोके विधाय स्वर्गं लोकम् अग्मन्न् इति। सो ऽकामयताहम् अपि प्रजा अस्मिन् लोके विधाय - - - - - जै.ब्रा. २.२२०

*यर्हि वा एतेन पुरेजिरे, सर्वम् एव वीर्यवद् आस - ऋषिर् ह स्म मन्त्रकृद् ब्राह्मण आजायते, ऽतिव्याधी राजन्यश् शूरः, - - - - जै.ब्रा. २.२६६

*तम् (गौरिवीतम्) तार्क्ष्यस् सुपर्ण उपरिष्टाद् अभ्यवापतत्। तस्मा उपप्रत्यधत्त। तम् अब्रवीद् - ऋषे, मा मे ऽस्थः। श्वस्तनं ते वक्ष्यामि। - जै.ब्रा. ३.१८

*पवस्व वाचो अगि|य इति प्रतिपदो भवन्ति। प्रेत्य् अन्य ऋषयो ऽपश्यन्न् एत्य् अन्ये। अथैतन् न प्रेति नेति स्थितम्। वाचो बार्हतं रूपं भरद्वाज ऋषिर् अपश्यत्। भरद्वाजस्य वा एतद् आर्षेयं यद्बृहत्। - जैमिनीय ब्राह्मण ३.२०

*अग्निं दूतं वृणीमह इत्य् आग्नेयम् आज्यम् भवति। प्रेत्य् अन्य ऋषयो ऽपश्यन्न् एत्य् अन्ये। अथैतन् न प्रेति नेति स्थितम्। वाचो बार्हतं रूपं भरद्वाज ऋषिर् अपश्यत्। भरद्वाजस्य वा एतद् आर्षेयं यद्बृहत्। - जै.ब्रा. ३.२२

*तद् यत् पुरस्ताद् यौक्ताश्वं भवति वासिष्ठम् उपरिष्टाद् ऋषिसामनी ब्रह्मण एव स विवधतायै। - जै.ब्रा.३.२६

*तद् ये च ह वै गोतमाद् ऋषयः पराञ्चो ये चार्वाञ्चस् ते गोतमम् एवर्षिम् उभय उपासते। - जै.ब्रा. ३.४४

*ये त्वा मृजन्त्य् ऋषिषाण वेधस इति मृजन्तीव वै जातम्। - जै.ब्रा. ३.५८

*स होवाच - च्यवनो वै स भार्गवो ऽभूत्। स वास्तुपस्य ब्राह्मणं वेद। तं नूनं पुत्रा वास्तौ हित्वा प्रायासिषुर् इति। तम् आद्रुत्याब्रवीद् ऋषि, नमस् ते ऽस्तु - जै.ब्रा. ३.१२२

*तं होचतुर् - ऋषे ऽपिसोमौ नौ भगवः कुर्व् इति। तथेति होवाच। - - - जै.ब्रा. ३.१२५

*तौ ह दध्यञ्चम् आथर्वणम् आजग्मतुः। तं होचतुर् ऋष उप त्वायावेति। कस्मै कामायेति - जै.ब्रा. ३.१२६

*ऋषीणां वा अग्रे मन्त्रश् चैव प्रजा चासीन् न पशवः। ते ऽकामयन्ताव पशून् रुन्धीमहीति। ते संवत्सरे पशून् पर्यपश्यन्। - जै.ब्रा. ३.१३०

*इन्द्रो वै वृत्रम् अजिघांसत्। स विश्वामित्रम् उपाधावद् - ऋष उप त्वा धावाम, इह नो ऽधिब्रूहीति। स एतद् विश्वामित्रस् सामापश्यत् - जै.ब्रा. ३.१३४

*अथ ह वै वैखानसा इत्य् ऋषिका इन्द्रस्य प्रिया आसुः। तान् ह रहस्युर् मारिम्लवो मारयांचकार - जै.ब्रा. ३.१९०

*ऋषिमना य ऋषिकृत् स्वर्षास् सहस्रनीथः पदवीः कवीनाम् इति सहस्ररूपं छन्दोमानाम् उपगच्छन्ति। पशवो वै छन्दोमाः - जै.ब्रा. ३.२०५

*अथ प्रमंहिष्ठीयम्। ऋषीणां वै सत्रम् आसीनानां पशव उपादस्यन्। ते ऽकामयन्ताव पशून् रुन्धीमहीति। ते होचुर् - एताग्निम् एव पशून् याचाम। - जै.ब्रा. ३.२२५

*तद् व् एवाचक्षते ऽङ्गिरस्यानां सामेति। आङ्गिरस्या ह वै नामर्षीणां पुत्रा आसुः। ते ऽकामयन्त स्वर्गं लोकम् अश्नुवीमहीति। त एतत् सामापश्यन्। - जै.ब्रा. ३.२३७

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