RIBHU word in Rigveda is important because there are few hymns or suktas in praise of Ribhus. What ribhu word means, puranic texts do not seem to be of much help in this regard, though vedic texts attribute their story about ribhus to puraansa. Ribhus have been said to be three brothers who are sons of Sudhanvaa and disciples of Twashta, the carpenter of gods. In the stories, they have been called humans, not gods, and they still exist as gods of rigvedic hymns. The authority on vedic words, Yaaska, says that they are connected with Ritam, apparent truth, and not with satyam, direct truth.

 The other source from which a guess about ribhus can be made is the evening or third session in Somayaga This session has got the name Aarbhava Pavamaana. Inside description and comment page illustrate in brief the main functions being performed in Aarbhav pavamaana. The most important aspect of this session is that no soma is left in this session for offering oblations to gods. Therefore, ‘rijeesha’ or the squeezed - out part of soma herb is mixed with water and some curd which has been churned by the wife of Yajmaana is mixed in it. It has been said that as milk contains soma, so this mixing makes up the lost contents.


Origin of Ribhu etc. from union of Eem and U(by Dr. Tomar) 

Comments on Ribhu Suukta in Rigveda

टिप्पणी : ऋभु शब्द का अत्यधिक महत्त्व इसलिए है कि सोमयाग में सायं सवन या तृतीय सवन को आर्भव पवमान कहा जाता है । यह विचित्र है कि आर्भव पवमान में सामवेद के स्तोत्रों में ऋभुओं की स्तुति कहीं नहीं की जाती, यद्यपि ऋग्वैदिक शस्त्रों में ऋभुओं के सूक्तों को स्थान मिला है । ऐतरेय ब्राह्मण ६.१२ में यही प्रश्न उठाया गया है । इस प्रश्न का उत्तर इस टिप्पणी में बाद में खोजने का प्रयास किया जाएगा । ऋभु शब्द को समझने से पूर्व ऋभुओं की पृष्ठभूमि को समझ लेना उपयोगी होगा । यह पृष्ठभूमि पुराणों के अतिरिक्त वैदिक साहित्य में यत्र - तत्र दी गई है और वे इस पृष्ठभूमि का आधार पुराणों को बताते हैं । लेकिन पुराणों में यह कहां उपलब्ध है, यह अज्ञात है । बृहद्देवता ३.८३ तथा सायण द्वारा यत्र - तत्र किए गए उल्लेखों के अनुसार ऋभु, विभु व वाज यह तीन सुधन्वा आङ्गिरस के पुत्र हैं, नर हैं और त्वष्टा के शिष्य बनकर तक्षण की शिक्षा ग्रहण करते हैं । लेकिन वैदिक सूक्तों के ऋभु केवल नर नहीं रह गए हैं, वह सूक्तों के देवता बन गए हैं जिनकी ऋषि स्तुति करते हैं । ऋग्वेद के सूक्त १.२०, १.११०-१११, १.१६१, ३.६०, ४.३३-३७, ७.४८, १०.७६.१ ऋभुओं की स्तुति में हैं । ऐतरेय ब्राह्मण ३.३० में उल्लेख आता है कि देवताओं ने ऋभुओं के साथ सोमपान करने को घृणित कर्म माना लेकिन फिर वह इस शर्त पर राजी हो गए कि ऋभुओं के दोनों ओर प्रजापति बैठेंगे, तभी देवता उनके साथ सोमपान करेंगे । चूंकि ऋभुगण नर से देव बने हैं, अतः इनका आचरण, यदि उसका रहस्योद्घाटन हो सके, मनुष्यों के लिए अधिक उपयोगी हो सकता है ।

यास्क के निरुक्त ११.१५ में ऋभुओं की निरुक्ति उरु भान्ति या ऋतेन भान्ति या ऋतेन भवन्ति के रूप में की गई है । इसी स्थान पर आदित्य रश्मियों को भी ऋभव: कहा गया है । इस निरुक्ति से संकेत मिलता है कि ऋभुओं का अधिकार ऋत् पर है, सत्य पर नहीं । किसी सत्य का मर्त्य स्तर पर साक्षात्कार करना ऋत् कहलाता है, जैसे जैन तीर्थङ्कर महावीर ने अपनी प्रज्ञा को विकसित किया कि आज का भोजन कहां प्राप्त करना है आदि । अथर्ववेद २०.१२७.४ के आधार पर इसे शकुन विद्या कहा जा सकता है । सामान्य जीवन में सभी को विभिन्न रूपों में शकुन - अपशकुन होते हैं । लेकिन अथर्ववेद के उपरोक्त संदर्भ में उल्लेख है कि जिस प्रकार पके हुए वृक्ष पर शकुन/पक्षी बोलता है, उसी प्रकार रेभ का वाचन करो । यह संकेत करता है कि शकुन के सत्य होने के लिए यह आवश्यक है कि वृक्ष पका हुआ हो । रेभ वैदिक साहित्य का सार्वत्रिक शब्द है और यह ऋभु से सम्बन्धित हो सकता है । रिभि धातु धारणे अर्थ में कही गई है और टीकाकार ने इसे घर्षणे रूप में माना है जो धारण का उल्टा प्रतीत होता है । धारण तभी हो सकता है जब घर्षण न हो, परस्पर विरोध न हो ।

अब हम इस प्रश्न पर ध्यान देते हैं कि सोमयाग में तृतीय सवन को आर्भव पवमान क्यों कहा गया है, जबकि सामवेद के स्तोत्रों में ऋभुओं का तो कहीं नाम ही नहीं आता । हो सकता है कि पूरे तृतीय सवन की क्रियाएं ऋभुओं के चरित्र पर प्रकाश डालती हों , ऋभु स्थिति को कैसे प्राप्त किया जा सकता है, यह दर्शाती हों । तृतीय सवन से पूर्व प्रातः और माध्यन्दिन सवन में जो सोमरस देवों को प्रस्तुत किया जाता है, वह सोमलता को कूट - पीस कर निकाला जाता है । तृतीय सवन तक आते - आते सोमरस तो समाप्त हो जाता है, केवल सोमलता का अवशिष्ट भाग, जिसे ऋजीष कहते हैं, शेष रह जाता है । इस ऋजीष को जल में डालते हैं और फिर उसमें मथी हुई दधि मिलाते हैं । इस संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि ओषधियां पहले सोम का सम्पादन करती हैं, फिर पशु उन ओषधियों का भक्षण कर अपने दुग्ध में उस सोम का सम्पादन करते हैं । अतः उस दुग्ध से निर्मित दधि को मिलाने से सोम की, रस की कमी पूरी हो जाती है ( अभी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि दधि ही क्यों लेते हैं, दुग्ध क्यों नहीं ? वैसे जैमिनीय ब्राह्मण १.३५५ के अनुसार प्रातः सवन में ताजा दुहा दुग्ध, माध्यन्दिन सवन में पकाया हुआ दुग्ध और सायं सवन में दधि का प्रयोग देवताओं को हवि प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है )। दधि का अर्थ होता है दधाति इति, अर्थात् जो धारण करे । दधि घृत रूपी तेज को धारण करती है, यदि दधि को मथा जाएगा तो वह तेज प्रकट हो जाएगा । पुराणों में तो दधीचि ऋषि देवताओं के अस्त्रों के सारे तेज को अपनी अस्थियों में धारण कर लेते हैं (तैत्तिरीय संहिता ५.६.६.३ का कथन है कि अग्नि ही दध्यङ् अथर्वण ऋषि है और इष्टकाएं ही उसकी अस्थियां हैं । इष्टकाओं की चिति बनाने से अग्नि का चयन किया जाता है । चिति का महत्त्व संभवतः उषा शब्द की टिप्पणी में भौतिक विज्ञान के एण्ट्रांपी पद द्वारा स्पष्ट किया गया है । दधि को समझने के लिए हमें दधि पर व्यापक रूप से विचार करना होगा । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के कारण हम सभी जानते हैं कि हमारे भोजन के पाचन से जो रस या शर्करा उत्पन्न होती है, उसे हमारे शरीर से निःसतृ होने वाला इन्सुलिन नामक रस एक ऐसे रूप में बदल देता है जिसका शरीर में भण्डारण हो सकता है और जब चाहे उससे ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है । इस प्रक्रिया को भी दधि बनाने की एक प्रक्रिया कह सकते हैं । जो ऊर्जा अवशिष्ट थी, इन्सुलिन ने उसका भण्डारण कर दिया । दुग्ध को दधि बनाने के लिए उसमें आतञ्चन करना पडता है । इन्सुलिन यहां आतञ्चन का कार्य करते हुए माना जा सकता है, यद्यपि यहां अन्तर यह है कि दुग्ध को दधि बनाने के लिए बहुत कम मात्रा में आतञ्चन की आवश्यकता पडती है, जबकि इन्सुलिन की पर्याप्त मात्रा में आवश्यकता पडती है । केवल इन्सुलिन ही नहीं, हमारे शरीर में अन्य बहुत से रस हो सकते हैं जिनकी दधि रूपी भण्डारण में आवश्यकता पडती है । यदि हम उन रसों की उपेक्षा कर देते हैं तो भण्डारण की क्षमता उतनी ही कम होती जाती है । यज्ञ में दधि का प्रयोग यह इंगित करता है कि अब नया रस मिलना बन्द हो चुका है और पहले जिस दधि रूपी ऊर्जा का भण्डारण हो चुका है, उसी से अब काम चलाना है । भौतिक रूप में तो दुग्ध का आतञ्चन करने से दधि प्राप्त हो जाती है तथा उसके मन्थन से नवनीत प्राप्त हो जाता है । लेकिन आध्यात्मिक रूप में आतञ्चन तथा मन्थन के लिए क्या करना होगा जिससे दधि में सञ्चित ऊर्जा मिलनी प्रारंभ हो जाए, यह एक विचारणीय विषय है ।

पहली शंका तो यह उठती है कि सोम है क्या जिसका पान देवता करते हैं? यह अभी तक अनुत्तरित ही है, लेकिन कुछ अनुमान लगाया जा सकता है । देवताओं में मल की उत्पत्ति नहीं होती । मनुष्यों के पास अभी तक ऐसा कोई भोजन नहीं है । यदि अन्य संदर्भों में सोचें तो पुरुष सूक्त के अनुसार मन से चन्द्रमा का जन्म हुआ और चन्द्रमा को सोम माना जाता है । ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्रमा और पृथिवी की परस्पर गति से संवत्सर का जन्म होता है । चन्द्रमा पृथिवी के परितः परिक्रमा कर रहा है , लेकिन सूर्य के साथ भी उसका सम्बन्ध पौराणिक साहित्य में कहा जाता है और कहा जाता है कि सूर्य चन्द्रमा/सोम का भक्षण करता रहता है, अतः चन्द्रमा की कलाएं प्रकट होती हैं । अमावास्या के दिन चन्द्रमा आकाश में पूर्णतः समाप्त होकर पृथिवी में ओषधि - वनस्पतियों में पूर्ण रूप से प्रवेश कर जाता है । जैसा कि टिप्पणियों में अन्यत्र भी वैदिक साहित्य के आधार पर उल्लेख किया गया है, ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्र व पृथिवी को पिण्ड में प्राण, मन व वाक् मान सकते हैं । सूर्य रूपी प्राण मन रूपी चन्द्रमा का भक्षण करता है । मन प्राण का अन्न है । लेकिन एक स्थिति में यह मन प्राण से स्वतन्त्र होकर केवल वाक् रूपी पृथिवी से सम्बद्ध हो जाता है । ओषधि - वनस्पतियों को पुराणों में शरीर में लोमों का प्रतीक माना है । अतः यह संभव है कि अमावास्या को चन्द्रमा के पृथिवी में विलीन होने से तात्पर्य मन के वाक् में विलीन होने पर किसी आह्लाद विशेष से हो । लेकिन क्या यह मन वही मन होगा जिसका सूर्य रूपी प्राण भक्षण करता है? चूंकि वर्तमान युग में मन के चेतन और अचेतन नाम से दो विभाग सार्वत्रिक रूप से ज्ञात हैं, अतः यह अधिक संभव लगता है कि पृथिवी में विलीन होने वाला चन्द्रमा अचेतन मन होगा । यदि इसे सूर्य रूपी प्राण का भक्ष्य बनाना है, देवों की हवि रूपी सोम बनाना है, तो इसे चेतन मन में विकसित करना होगा । और जब ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं कि पहले चन्द्रमा ओषधियों में विलीन होता है, फिर पशु उनका भक्षण कर उसे पयः में परिवर्तित करते हैं तो उसका अभिप्राय यही होगा कि अचेतन मन को क्रमिक रूप से चेतन में ले जाना है । हमारे भोजन का जो भाग मल रूप में परिवर्तित होता है, उसे अचेतन भाग कह सकते हैं ।

सोमयाग में दधि को ऋजीष के साथ मिलाने से पूर्व यजमान - पत्नी आग्नीध्र ऋत्विज की शाला में मथानी से दधि का मन्थन करती है और ब्राह्मण ग्रन्थों में मथानी को विवस्वान् सूर्य कहा गया है । मन्थन की आवश्यकता दधि से नवनीत रूपी तेज को प्रकट करने के लिए होती है । शतपथ ब्राह्मण के पांचवें काण्ड में उल्लेख आता है कि ऐसा भी होता है कि नवनीत स्वयं दधि से अलग हो जाए । इसे स्वयं उदित अवस्था कहा गया है और इसे मित्र के साथ सम्बद्ध किया गया है । दूसरी अवस्था वह है जहां नवनीत को प्रकट करने के लिए मन्थन की आवश्यकता पडती है । यह वरुण की अवस्था है । हमें यज्ञ की प्रत्येक क्रिया पर बहुत पैनी दृष्टि रखनी होगी, इसलिए यह उल्लेख किया जा रहा है ।

तृतीय सवन की प्रकृति को उसमें प्रयुक्त ग्रहों के माध्यम से भी समझा जा सकता है । सबसे पहले आदित्य ग्रह है जो एक प्रकार से तृतीय सवन का मुख्य अङ्ग होते हुए भी तृतीय सवन से पूर्व ग्रहण किया जाता है । तृतीय सवन आरम्भ होने के पश्चात् दधि ग्रह, सावित्र ग्रह, वैश्वदेव ग्रह, पात्नीवत् ग्रह, हारियोजन ग्रह, समिष्टयजु आदि कृत्य सम्पन्न किए जाते हैं । सावित्र ग्रह को शतपथ ब्राह्मण ४.३.५.२३ में एक प्रकार से आदित्य ग्रह का अनुवषट्कार कहा गया है । सोमयाग में ओ श्रावय आदि का उच्चारण करके अन्त में वौषट् बोलकर देवों के लिए अग्नि में सोम की आहुति दी जाती है । कुछ स्थितियों में वषट्कार का उच्चारण करने व आहुति देने के पश्चात् सोमस्याग्ने वीहि वौषट् कह कर पुनः आहुति दी जाती है । ब्राह्मण ग्रन्थों का कथन है कि यह आहुति मर्त्य स्तर के लिए है । यद्यपि सावित्र ग्रह का ग्रहण करते समय अनुवषट्कार का निषेध है, फिर भी सावित्र ग्रह पूरा ही मर्त्य स्तर को पुष्ट करने की प्रक्रिया है, यह स्वाभाविक रूप से आदित्य ग्रह का अनुवषट्कार है । शतपथ ब्राह्मण १४.२.२.९, तैत्तिरीय आरण्यक ४.९.२, ५.७.११ में सविता के साथ ऋभुओं का तादात्म्य कहा गया है ।

तृतीय सवन का एक अत्यन्त विशिष्ट कृत्य यज्ञायज्ञीय स्तोत्र होता है जिसके अन्त में कहा जाता है कि यजमान में वर देने की सामर्थ्य आ जाती है । यह वाक् का चरम रूप है । अग्निष्टोम साम कहे जाने वाले इस कृत्य के पश्चात् हारियोजन ग्रह का ग्रहण किया जाता है । हारियोजन ग्रह को समझना इसलिए रोचक है क्योंकि ऋभुओं ने जिन वस्तुओं का तक्षण किया, उनमें से इन्द्र के वाहन के रूप में हरियों का तक्षण करने का उल्लेख ऋग्वेद के मन्त्रों ( ऋ. ३.६०.२, ४.३३.१०) में आता है । हरि अथवा हरि अश्व क्या हैं, यह रहस्यमय ही है लेकिन हारियोजन ग्रह के माध्यम से इनकी प्रकृति को कुछ सीमा तक समझा जा सकता है । सोमयाग में तृतीय सवन के अन्त में उन्नेता ऋत्विज यज्ञ के शेष बचे हुए सोम को द्रोणकलश नामक काष्ठ पात्र में भरकर, उसे अपने सिर पर रखकर वषट्कार तथा अनुवषट्कार के साथ अग्नि में आहुति देता है । इसके पश्चात् उस द्रोणकलश में धान/तण्डुल डाले जाते हैं जिनका सभी ऋत्विज ( प्राणों से, दांतों से नहीं ) भक्षण करते हैं । कहा गया है कि यह जो द्रोण कलश है, यह वृत्र की मूर्द्धा है जिसका ग्रहण वृत्र के वध के पश्चात् कर लिया गया । जो धान हैं, उन्हें नक्षत्र कहा गया है । लेकिन इसका हारियोजन नाम क्यों है, यह नहीं बताया गया है । यह अवश्य बताया गया है कि जो धान हैं, वह हरियों के लिए हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि उन्नेता सहित जितने ऋत्विज हैं, वह सब हरी बनते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों ऐतरेय ब्राह्मण २.२४, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.३.९ में कहा गया है कि ऋक् व साम ही इन्द्र के हरि - द्वय हैं । जैमिनीय ब्राह्मण २.७९ में प्राणापानौ को इन्द्र के हरी कहा गया है । यह हो सकता है कि ऋत्विजों की चरम परिणति ऋक् व साम के रूप में होती हो ।

गर्ग संहिता में ऋभु द्वारा तप करके कृष्ण में विलीन होने तथा फिर एक रूप में भूतल पर प्रवाह रूप में पुनः प्रकट होने की कथा अत्यन्त विलक्षण है और पूरे वैदिक साहित्य का निष्कर्ष प्रस्तुत करती है । सोमयाग में धिष्ण्य अग्नियों के नाम आते हैं ( वाजसनेयी संहिता ५.३१, तैत्तिरीय संहिता १.३.३.१ आदि ) । यह धिष्ण्य अग्नियां २ नामों वाली हैं जिनमें प्रथम नाम मर्त्य स्तर के लिए तथा दूसरा अमर्त्य स्तर के लिए तो नहीं, लेकिन उच्च स्तर के लिए अवश्य कहा जा सकता है । इनमें आग्नीध्र ऋत्विज की धिष्ण्य अग्नि का नाम विभु प्रवाहण है । फिर होता की धिष्ण्य अग्नि का नाम वह्नि हव्यवाहन, मैत्रावरुण की धिष्ण्य अग्नि का नाम श्वात्रः प्रचेता, ब्राह्मणाच्छंसी की धिष्ण्य अग्नि का नाम तुथ विश्ववेदा आदि हैं । कहा गया है कि केवल आग्नीध्र की धिष्ण्य अग्नि विभु प्रवाहण ही अमर्त्य स्तर की है, शेष मर्त्य हैं और उन्हें यज्ञ में सोम का भाग नहीं मिलता, केवल घृत की बूंदें मिलती हैं । जैसा कि अन्यत्र टिप्पणियों में भी बार - बार उल्लेख किया जा रहा है, इस प्रकृति में द्यूत की क्रिया को, चांस को निष्प्रभावी बनाने का एकमात्र उपाय प्रवाह रूप, धारा रूप होना है । इस प्रवाह को प्राप्त करने के लिए क्या करना होगा, यह विचारणीय विषय है ।

वैदिक मन्त्रों में ऋभुओं द्वारा एक चमस के चार कर देने के उल्लेख आते हैं । इसका क्या निहितार्थ हो सकता है, यह विचारणीय है । पौराणिक साहित्य में हयमेध के अन्त में अवभृथ स्नान के पश्चात् जल से तेज से पूर्ण एक चन्दन वृक्ष प्रकट होता है जिसके तक्षण से चतुर्व्यूहात्मक मूर्तियों का निर्माण किया जाता है । चतुर्व्यूह को जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति व तुरीय अवस्थाओं का प्रतीक कहा जाता है ।

नारद पुराण आदि में ऋभु द्वारा शिष्य निदाघ को शिक्षा देने की कथा आती है । यह विचित्र है कि उपनिषदों को छोडकर ऋभु के निदाघ के साथ सम्बन्ध का उल्लेख कहीं नहीं आता ( केवल तैत्तिरीय आरण्यक में उल्लेख आता है कि ऋभु का सम्बन्ध शरद ऋतु से है जिसमें पहली ऋतुओं से प्राप्त कष्टों का अन्त हो जाता है । निदाघ ग्रीष्म का, तपन का नाम है । जब हमारी इन्द्रियों को उनका स्वाभाविक भोजन प्राप्त न हो, अथवा यदि समरसता न हो, घर्षण हो तो वे तपने लगती हैं । यह अनृत की अवस्था हो सकती है जिसमें ऋत् का भरण ऋभु के माध्यम से हो सकता है । कथा में ऋभु द्वारा निदाघ से मिष्ट भोजन की मांग को सोम रूप अन्न की मांग के रूप में देखा जा सकता है । पुनः वाहन और वाहक के माध्यम से निदाघ को शिक्षा देने का वैदिक मूल क्या हो सकता है, यह विचारणीय है । यह महत्त्वपूर्ण है कि ऋभु व निदाघ की इस कथा का वाचन सौवीरराज की शिबिका को ढो रहे भरत कर रहे हैं । भरत बेगार कर रहे हैं, उन्हें कर्म के बदले वेतन प्राप्त नहीं होगा । ऋभुओं के बारे में भी ऋग्वेद १.२०.४ में ऐसा ही उल्लेख है । ऋभु हमारी शिबिका का कैसे बेगार में वहन कर रहे हैं, यह विचारणीय है । महोपनिषद, वराहोपनिषद, अन्नपूर्णोपनिषद, तेजोबिन्दु उपनिषद ऋभु और निदाघ के वार्तालाप पर आधारित हैं ।

वैदिक निघण्टु में ऋभव: की परिगणना पद नामानि तथा ऋभु की परिगणना मेधावि नामों के अन्तर्गत की गई है । दोनों ही शब्दों में ऋ अनुदात्त और भ उदात्त है । वैदिक मन्त्रों में इसका अपवाद शार्य ही कोई मिले । एक अन्य शब्द ऋभुक्षा को वैदिक निघण्टु में महन्नामों में रखा गया है जिसमें ऋ तथा भ अनुदात्त हैं तथा क्ष उदात्त है । लेकिन वैदिक मन्त्रों में प्रकट होने वाले एक शब्द ऋभ्व: में ऋ उदात्त है ।

प्रथम लेखन : २९-१२-२००४ ई.


Comments on Ribhu Suukta in Rigveda by Dr. Fatah Singh

ऋभु

टिप्पणी :(क) ऋभु - विभु - वाज तीनों भाई सुधन्वा के पुत्र हैं और त्वष्टा के शिष्य हैं । एक महाचमस, बडा प्याला था जिसमें देवता लोग सोम पान करते थे । इन भाइयों ने उस महाचमस के तीन टुकडे करके उसके तीन चमस बना दिए। इस कार्य से इनके गुरु त्वष्टा इन पर अत्यन्त क्रोधित हुए ।

(ख) ऋग्वेद १.१६१ सूक्त इस प्रकार आरम्भ होता है - तीनों भाई परस्पर पूछ रहे हैं - यह जो हमारे पास आया है, यह कौन है? क्या यह श्रेष्ठ ओंकार है, क्या सबसे छोटा है? क्या यह रहस्य जानने के लिए दूत बनकर आया है? अन्त में पता लग गया कि यह तो दूत है और अग्नि है । हे भ्राता अग्ने, यह जो चमस है, जो महाकुल का है, हमने इसकी निन्दा नहीं की । हमने तो इसकी भूति/उत्पत्ति बताई है । यह द्रुण, लकडी( द्रु - द्रुत गति से चलने वाला, न - नय, ले जाना) से बना है ( अथवा यह सदा परिवर्तनशील प्रकृति से बना है ) । हमारा शरीर ही चमस या प्याला है । यह महाकुल का, प्रकृति के कुल का है । अग्नि कहता है - देवता कहते थे कि तुम लोगों ने एक प्याले के चार कर दिए, यह तो एक का एक बना हुआ है । इस बात को जानने के लिए हम आए हैं । यदि तुमने यह कमाल कर दिया तो हे सुधन्वा के पुत्रों, तुम देवताओं के साथ यज्ञ में भाग पाने वाले हो जाओगे, यह निन्दा की बात नहीं है ।

(ग) ऋभु, विभु, वाज क्रमशः ज्ञान शक्ति, भावना शक्ति और क्रिया शक्ति के द्योतक हैं । तीनों आत्मा के त्रिविध रूप हैं जो मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों में व्यक्त होते हैं । इससे परे विज्ञानमय कोश है । इससे भी परे हिरण्यय कोश है जहां इनका पिता सुधन्वा( सु है धनुष जिसका )रहता है । सुधन्वा आत्मा का वह रूप है जो परमात्मा का साक्षात्कार कर रहा है, जिसके पास सुन्दर, प्रणव का धनुष है । जब यह सुधन्वा - पुत्र उत्पन्न हो जाते हैं तो साधारण तीन शक्तियों को चार में बांट देते हैं - जब इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्ति में ब्राह्मी शक्ति आ जाती है तो यह तीनों मिलकर पराशक्ति बनती हैं । उसे ही अदिति, अखण्ड शक्ति कहते हैं ।

(घ) तीनों भाईयों ने अग्नि से कहा - चार करना पर्याप्त नहीं, एक अश्व, एक धेनु, एक रथ बनाएंगे । अपने माता - पिता को जवान बनाएंगे । हम सफल कारीगर होना चाहते हैं । अश्व - जिसका कल नहीं है, आज है । जो सदा वर्तमान है, ऐसा अश्व है । एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि अश्व में से अश्व बनाया । पहला अश्व परमात्मा है । उस परमात्मा की शक्ति को लेकर जीवात्मा को अजर अमर कर देना है, उसे याद दिला देना है कि तुम अजर अमर हो । यह दूसरा अश्व है । रथ भी यहीं बनाना है । रथ के तीन पहिए हैं - एक स्थूल शरीर में, एक सूक्ष्म शरीर में और एक कारण शरीर में । तीनों में एक ही चेतना एक साथ चलेगी । जब तक जीवात्मा अश्व नहीं बनता तब तक वह अधिक से अधिक मन तक पहुंच सकता है । तब तक रथ के दो ही पहिए हैं - स्थूल और सूक्ष्म शरीर । मन ऊर्ध्वमुखी होने पर तीन पहिए का रथ बन जाता है । तीनों भाई एक धेनु बनाते हैं । धेनु - गाय जो दूध देती है, प्रसन्न करती है । वाक् वै धेनु: । आत्मा परमात्मा से जुडने पर वाक् शक्ति धेनु बन जाती है, आत्मा की आवाज बन कर निर्देश देती है । अथर्ववेद की विराज वाक् बनती है जो जहां जाती है, वहां लोग उसे दुहकर इच्छानुसार फल प्राप्त करते हैं । तीनों भाई माता - पिता को जवान कर देते हैं । माता के गर्भ से प्राप्त व्यक्तित्व पूर्व या पुराना व्यक्तित्व कहलाता है । साधना द्वारा इसे नया बनाना है । माता के गर्भ से तन और मन प्राप्त होते हैं । यही दोनों पुराने माता - पिता हैं ।

(ङ) अरे, वह दूत कहां चला गया, अग्नि । जब त्वष्टा ने देखा कि एक के चार चमस हो गए तो त्वष्टा स्त्रियों( ग्नासु ) के भीतर विशेष रूप से प्रकाशित हो गया, छिप गया । अग्नि ब्रह्माग्नि है । वह ऋभु, विभु और वाज, तीनों को प्रेरित करता है । तीनों शक्तियां ब्रह्माग्नि से प्रेरित होने पर एक चमस के चार कर देती हैं । त्वष्टा अर्थात् प्रकृति, वाक्, विश्वकर्मा जिसने पांच भूतों का निर्माण किया, वह इन्द्रिय शक्तियों या किरण रूपी स्त्रियों ( ग्नासु ) में छिप गया । योरोपियन भाषा का शब्द गाइनाकोलोजी ग्नासु से बना है । त्वष्टा कहता है कि मैं इन्हें मार डालूंगा जिन्होंने देवपान चमस की निन्दा की है । मनुष्य व्यक्तित्व देवताओं का प्याला है जिसमें वे सोमपान करेंगे । तब इन तीनों भाइयों ने भी छिपने के लिए कन्या नाम कर लिए । अब इनके नाम ऋक्, साम और यजु या ज्ञान, इच्छा और क्रिया शक्ति हो गए ।

(च) अन्नमय कोश प्रथम चमस है, उसके कण - कण में छिपा शक्ति का कोश स्थूल प्राणमय कोश है जो द्वितीय चमस है, प्राणमय के कण - कण में छिपा शक्ति का कोश मनोमय कोश है जो तीसरा चमस है । मनोमय के भी कण - कण में छिपा शक्ति का कोश विज्ञानमय कोश है जो चतुर्थ चमस है । इनके गुरु त्वष्टा के कुपित होने का कारण यह है कि चार चमस होने पर व्यक्तित्व में विष बढने की संभावनाएं अधिक हो जाती हैं । व्यक्तित्व एक इकाई बना रहे तभी उसमें सोम रूपी अमृत रह सकता है ।

इन तीनों भाइयों ने अपने माता - पिता को पूर्णतया युवा बना दिया । इनके माता - पिता हैं - व्यष्टि भावना और समष्टि भावना । यह अपने पुराने ढर्रे पर चलते रहें तो इन माता पिता का वृद्ध होना है । लेकिन जब आनन्दमय कोश की प्राप्ति के पश्चात् अश्विनौ के अचक्र रथ में बैठकर वहां से लौटते हैं तब पुराने विचारों को यह व्यष्टि और समष्टि छोड देते हैं । तब एक नया व्यक्तित्व उत्पन्न होता है जिसे कहते हैं नवीन ऋषि ।

(छ) त्वष्टा मूलतः आत्मा की वाक् शक्ति है । वही प्रकृति का रूप धारण करती है । ज्ञानाग्नि के प्रभाव से त्वष्टा, प्रकृति में तेज की किरणें फैल गई, वह किरण रूपी स्त्रियों में देदीप्यमान हो गया । देवपान चमस के तीन से चार होने पर, ध्यान करने पर मनोमय से ऊपर जाने पर त्वष्टा गुरु समाधि में जाकर जगमगाने लगता है ।

(ज) समाधि अवस्था में जब देवपान चमस बनाया तो चर्म में से गाय निकल पडती है । चर्म का अर्थ है चरम अवस्था, पराकाष्ठा । जब आत्मा को ज्योतिर्मय शक्ति मिलने लगी, उससे ज्ञान शक्ति रूपी गाय निकाल ली ध्यान के द्वारा । ज्ञान शक्ति रूपी गाय ऋतम्भरा प्रज्ञा है ।

(झ) हे सौधन्वनो, तुम जल पिओ । और जो मुञ्ज को पवित्र करने वाला सोम है उसे पिओ । अगर तुमको यह पसन्द नहीं है तो तीसरे सवन में आनन्द से पीना । उदक - जो ऊपर को चले । कण - कण में छिपी शक्ति ध्यान बढने पर ऊपर को उठती जाती है । यह प्रथम सवन है । दूसरा सवन - यह शक्ति चलकर जब हमारे शीर्ष स्थान में पहुंचती है तो उस आनन्द का नाम मुञ्जवान पर्वत का सोम है । मुञ्ज घास से मेखला बनती है । ऐसे ही रेशे मस्तिष्क में भी फैले हैं । इनसे तरंगित आनन्द का नाम मुञ्जवान है । तीसरे सवन में शीर्ष स्थान में आनन्द नया रूप धारण करके नीचे को अवतरण करता है , सबको सबल करता हुआ ।

(ट) अब तीनों ने तीन अलग - अलग सत्य कहे । एक ने कहा हम तो आपः - चारों ओर व्याप्त सोम पिएंगे । दूसरे ने कहा हमारा तो अग्नि ही सबसे श्रेष्ठ है । उसे लेना चाहता हूं । तीसरे ने कहा - वह रूप लेना चाहता हूं जो बहुतों का वर्धन करे । इस प्रकार सबने चमसों को अलंकृत कर दिया । तीसरा भाई कर्म को व्यापक रूप में निखारना चाहता है । इसका अर्थ है कि साधक ने न केवल अपने को अलंकृत किया, अपितु अपने सम्पर्क में आने वाले सबको सुशोभित कर दिया ।

(ठ) ऋभुगण तीन काम करते हैं । शब्दार्थ के अनुसार, रक्तवर्णा गाय के लिए उदक लाते हैं, मांस को सजाते संवारते/छुरी से काटते हैं, सूर्यास्त होने पर गाय का गोबर हटाते हैं । गाय के लिए उदक लाने का अर्थ है कि ऋतम्भरा बुद्धि, परमेश्वर से प्राप्त बुद्धि के लिए एक भाई आचरणजन्य अनुभव को प्रस्तुत करता है जिससे बुद्धि अलंकृत होती है । छुरी द्वारा मांस काटने ( सूनया स्वधिति ) के शब्दों का रूपान्तर सु - सुन्दर, न नीति । व्यवहार अर्थ लेने पर, दूसरा भाई सुन्दर व्यवहार से भाव लोक रूपी मांस को सजाता है । सूर्यास्त होने पर गोबर हटाने का तात्पर्य आत्मज्ञान समाप्त होने के कारण फैले अन्धकार को दूर करना है ।

(ड) मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोश रूपी तीन पुत्रों की माता - पिता रक्षा करते हैं । कैसे? अगोह्य घर में पहुंच कर ऋभुगण फिर वापस नहीं आते । अगोह्य घर, जीवात्मा का वह स्वरूप जो छिपाया नहीं जा सकता, समाधि में होता है । जब तक समाधि लगी रहती है, ऋभुगण वापस नहीं आते । इसके अतिरिक्त दो स्थितियां और हैं - आरोहण और अवरोहण । पहली अवस्था में इस जीवात्मा को भोजन मिलता है । वह इसका तृण है, अन्न है, आनन्द है । व्युत्थान की अवस्था में इसे आपः, शुद्ध आपः मिलता है ।

- फतहसिंह

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संदर्भ

ऋभु

*अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया। अकारि रत्नधातमः ॥ - - - -युवाना पितरः पुनः सत्यमन्त्रा ऋजूयवः। ऋभवो विष्ट्यक्रत ॥(देवता : ऋभवः) - ऋग्वेद १.२०.१

*अभीमवन्वन्त्स्वभिष्टिमूतयो ऽन्तरिक्षप्रां तविषीभिरावृतम्। इन्द्रं दक्षास ऋभवो मदच्युतं शतक्रतुं जवनी सूनृतारुहत् ॥ - ऋ. १.५१.२

*एष प्र पूर्वीरव तस्य चमि|षो ऽत्यो न योषामुदयंस्त भुर्वणिः। दक्षं महे पाययते हिरण्ययं रथमावृत्या हरियोगमृभ्वसम् ॥ - ऋ. १.५६.१

*त्वं सत्य इन्द्र धृष्णुरेतान् त्वमृभुक्षा नर्यस्त्वं षाट्। त्वं शुष्णं वृजने पृक्ष आणौ यूने कुत्साय द्युमते सचाहन् ॥। - ऋ. १.६३.३

*स सूनुभिर्न रुद्रेभिर्ऋभ्वा नृषाह्ये सासह्वाँ अमित्रान्। सनीळेभिः श्रवस्यानि तूर्वन् मरुत्वान् नो भवत्विन्द्र ऊती ॥ - ऋ. १.१००.५

*स वज्रभृद् दस्युहा भीम उग्रः सहस्रचेताः शतनीथ ऋभ्वा। चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान् नो भवत्विन्द्र ऊती ॥ - ऋ. १.१००.१२

*ततं मे अपस्तदु तायते पुनः स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते। अयं समुद्र इह विश्वदेव्यः स्वाहाकृतस्य समु तृप्णुत ऋभवः।। (दे. ऋभवः) - ऋ. १.११०.१

*विष्ट्वी शमी तरणित्वेन वाघतो मर्तासः सन्तो अमृतत्वमानशुः। सौधन्वना ऋभवः सूरचक्षसः संवत्सरे समपृच्यन्त धीतिभिः ॥ क्षेत्रमिव वि ममुस्तेजनेनँ एकं पात्रमृभवो जेहमानम्। उपस्तुता उपमं नाधमाना अमर्त्येषु श्रव इच्छमानाः ॥ आ मनीषामन्तरिक्षस्य नृभ्यः स्रुचेव घृतं जुहवाम विद्मना। तरणित्वा ये पितुरस्य सश्चिर ऋभवो वाजमरुहन् दिवो रजः ॥ ऋभुर्न इन्द्रः शवसा नवीयानृभुर्वाजेभिर्वसुभिर्वसुर्ददिः। युष्माकं देवा अवसाहनि प्रिये ऽभि तिष्ठेम पृत्सुतीरसुन्वताम् ॥ निश्चर्मण ऋभवो गामपिंशत सं वत्सेनासृजता मातरं पुनः। सौधन्वनासः स्वपस्यया नरो जिव्री युवाना पितराकृणोतन ॥ वाजेभिर्नो वाजसातावविड्ढ्यृभुमाँ इन्द्र चित्रमा दर्षि राधः। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः। - ऋ. १.११०.४-९

*तक्षन् रथं सुवृतं विद्मनापसस्तक्षन् हरी इन्द्रवाहा वृषण्वसू। तक्षन् पितृभ्यामृभवो युवद् वयस्तक्षन् वत्साय मातरं सचाभुवम् ॥ आ नो यज्ञाय तक्षत ऋभुमद्वयः क्रत्वे दक्षाय सुप्रजावतीमिषम्। यथा क्षयाम सर्ववीरया विशा तन्नः शर्धाय धासथा स्विन्द्रियम् ॥ आ तक्षत सातिमस्मभ्यमृभवः सातिं रथाय सातिमर्वते नरः। सातिं नो जैत्रीं सं महेत विश्वहा जामिमजामिं पृतनासु सक्षणिम् ॥ ऋभुक्षणमिन्द्रमा हुव ऊतय ऋभून् वाजान् मरुतः सोमपीतये। उभा मित्रावरुणा नूनमश्विना ते नो हिन्वन्तु सातये धिये जिषे ॥ ऋभुर्भराय सं शिशातु सातिं समर्यजिद्वाजो अस्माँ अविष्टु। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः

पृथिवी उत द्यौः ॥ (दे. ऋभवः) - ऋ. १.१११.१-५

*स्तमभीद्ध द्यां स धरुणं प्रुषायदृभुर्वाजाय द्रविणं नरो गोः। अनु स्वजां महिषश्चक्षत व्रां मेनामश्वस्य परि मातरं गोः ॥ - ऋ. १.१२१.२

*त्वमायसं प्रति वर्तयो गोर्दिवो अश्मानमुपनीतमृभ्वा। कुत्साय यत्र पुरुहूत वन्वञ्छुष्णमनन्तै परियासि वधैः ॥ - ऋ. १.१२१.९

*किमु श्रेष्ठः किं यविष्ठो न आजगन् किमीयते दूत्यं कद् यदूचिम। न निन्दिम चमसं यो महाकुलो ऽग्ने भ्रातर्द्रुण इद् भूतिमूदिम ॥ (दे. ऋभवः) - ऋ. १.१६१.१-१४

*मा नो मित्रो वरुणो अर्यमायुरिन्द्र ऋभुक्षा मरुतः परि ख्यन्। यद्वाजिनो देवजातस्य सप्तेः प्रवक्ष्यामो विदथे वीर्याणि ॥ - ऋ. १.१६२.१

*चकृवांस ऋभवस्तदपृच्छत क्वेदभूद् यः स्य दूतो न आजगन्। यदावास्यच्चमसाञ्चतुरः कृतानादित् त्वष्टा ग्नास्वन्तर्न्यानजे ॥ - ऋ. १.१६१.४

*इन्द्रो हरी युयुजे अश्विना रथं बृहस्पतिर्विश्वरूपामुपाजत। ऋभुर्विभ्वा वाजो देवाँ अगच्छत स्वपसो यज्ञियं भागमैतन ॥ - ऋ. १.१६१.६

*उद्वत्स्वस्मा अकृणोतना तृणं निवत्स्वपः स्वपस्यया नरः। अगोह्यस्य यदसस्तना गृहे तदद्येदमृभवो नानु गच्छथ ॥ - ऋ. १.१६१.११

*सुषुप्वांस ऋभवस्तदपृच्छतागोह्य क इदं नो अबूबुधत्। श्वानं बस्तो बोधयितारमब्रवीत् संवत्सर इदमद्या व्यख्यत ॥ - ऋ. १.१६१.१३

*मा नो मित्रो वरुणो अर्यमायुरिन्द्र ऋभुक्षा मरुतः परि ख्यन्। यद्वाजिनो देवजातस्य सप्तेः प्रवक्ष्यामो विदथे वीर्याणि ॥ - ऋ. १.१६२.२

*वयमद्येन्द्रस्य प्रेष्ठा वयं श्वो वोचेमहि समर्ये। वयं पुरा महि च नो अनु द्यून् तन्न ऋभुक्षा नरामनु ष्यात् ॥ - ऋ. १.१६७.१०

*प्रो अश्विनाववसे कृणुध्वं प्र पूषणं स्वतवसो हि सन्ति। अद्वेषो विष्णुर्वात ऋभुक्षा अच्छा सुम्नाय ववृतीय देवान् ॥ - ऋ. १.१८६.१०

*त्वमग्न ऋभुराके नमस्यस्त्वं वाजस्य क्षुमतो राय ईशिषे। त्वं वि भास्यनु दक्षि दावने त्वं विशिक्षुरसि यज्ञमातनिः ॥ - ऋ. २.१.१०

*उत वः शंसमुशिजामिव श्मस्यहिर्बुध्न्योऽज एकपादुत। त्रित ऋभुक्षाः सविता चनो दधे ऽपां नपादाशुहेमा धिया शमि ॥ - ऋ. २.२१.६

*ऋभुश्चक्र ईड्यं चारु नाम विश्वानि देवो वयुनानि विद्वान्। ससस्य चर्म घृतवत्पदं वेस्तदिदग्नी रक्षत्यप्रयुच्छन् ॥ - ऋ. ३.५.६

*इन्द्राय सोमाः प्रदिवो विदाना ऋभुर्येभिर्वृषपर्वा विहायाः। प्रयम्यमानान् प्रति षू गृभायेन्द्र पिब वृषधूतस्य वृष्णः ॥ - ऋ. ३.३६.२

*तृतीये धानाः सवने पुरुष्टुत पुरोळाशमाहुतं मामहस्व नः। ऋभुमन्तं वाजवन्तं त्वा कवे प्रयस्वन्त उप शिक्षेम धीतिभिः ॥ - ऋ. ३.५२.६

*सुकृत् सुपाणिः स्ववाँ ऋतावा देवस्त्वष्टावसे तानि नो धात्। पूषण्वन्त ऋभवो मादयध्वमूर्ध्वग्रावाणो अध्वरमतष्ट ॥ - ऋ. ३.५४.१२

*महत् तद् वः कवयश्चारु नाम यद्ध देवा भवथ विश्व इन्द्रे। सख ऋभुभिः पुरुहूत प्रियेभिरिमां धियं सातये तक्षता नः।। - ऋ. ३.५४.१७

*इहेह वो मनसा बन्धुता नर उशिजो जग्मुरभि तानि वेदसा। याभिर्मायाभिः प्रतिजूतिवर्पसः सौधन्वना यज्ञियं भागमानश ॥ याभिः शचीभिश्चमसाँ अपिंशत यया धिया गामरिणीत चर्मणः। येन हरी मनसा निरतक्षत तेन देवत्वमृभवः समानश ॥ इन्द्रस्य सख्यमृभवः समानशुर्मनोर्नपातो अपसो दधन्विरे। सौधन्वनासो अमृतत्वमेरिरे विष्ट्वी शमीभिः सुकृतः सुकृत्यया ॥ इन्द्रेण याथ सरथं सुते सचाf अथो वशानां भवथा सह श्रिया। न वः प्रतिमै सुकृतानि वाघतः सौधन्वना ऋभवो वीर्याणि च ॥ इन्द्र ऋभुभिर्वाजवद्भिः समुक्षितं सुतं सोममा वृषस्वा गभस्त्यो:। धेयेषितो मघवन् दाशुषो गृहे सौधन्वनेभिः सह मत्स्वा नृभिः ॥ इन्द्र ऋभुमान् वाजवान् मत्स्वेह नो ऽस्मिन् त्सवने शच्या पुरुष्टुत। इमानि तुभ्यं स्वसराणि येमिरे व्रता देवानां मनुषश्च धर्मभिः ॥ इन्द्र ऋभुभिर्वाजिभिर्वाजयन्निह स्तोमं जरितुरुप याहि यज्ञियम्। शतं केतेभिरिषिरेभिरायवे सहस्रणीथो अध्वरस्य होमनि ॥ (दे. ऋभवः) - ऋ. ३.६०.१-७

*प्र ऋभुभ्यो दूतमिव वाचमिष्य उपस्तिरे श्वैतरीं धेनुमीळे। ये वातजूतास्तरणिभिरेवैः परि द्यां सद्यो अपसो बभूवुः ॥ यदारमक्रन्नृभवः पितृभ्यां परिविष्टी वेषणा दंसनाभिः। आदिद् देवानामुप सख्यमायन् धीरासः पुष्टिमवहन् मनायै। पुनर्ये चक्रुः पितरा युवाना सना यूपेव जरणा शयाना। ते वाजो विभ्वाf ऋभुरिन्द्रवन्तो मधुप्सरसो नोऽवन्तु यज्ञम् ॥ यत् संवत्समृभवो गामरक्षन् यत् संवत्समृभवो मा अपिंशन्। यत् संवत्समभरन् भासो अस्यास्ताभिः शमीभिरमृतत्वमाशुः ॥ ज्येष्ठ आह चमसा द्वा करेति कनीयान् त्रीन् कृणवामेत्याह। कनिष्ठ आह चतुरस्करेति त्वष्ट ऋभवस्तत् पनयद्वचो वः ॥ सत्यमूचुर्नर एवा हि चक्रुरनु स्वधामृभवो जग्मुरेताम्। विभ्राजमानांश्चमसाँ अहेवाऽवेनत् त्वष्टा चतुरो ददृश्वान् ॥ द्वादश द्यून् यदगोह्यस्याऽऽतिथ्ये रणन्नृभवः ससन्तः। सुक्षेत्राकृणवन्ननयन्त सिन्धून् धन्वातिष्ठन्नोषधीर्निम्नमापः ॥ रथं ये चक्रुः सुवृतं नरेष्ठां ये धेनुं विश्वजुवं विश्वरूपाम्। त आ तक्षन्त्वृभवो रयिं नः स्ववसः स्वपसः

सुहस्ताः ॥ अपो ह्येषामजुषन्त देवा अभि क्रत्वा मनसा दीध्यानाः। वाजो देवानामभवत्~ सुकर्मेन्द्रस्य ऋभुक्षा वरुणस्य विभ्वा ॥ ये हरी मेधयोक्था मदन्त इन्द्राय चक्रुः सुयुजा ये अश्वा। ते रायस्पोषं द्रविणान्यस्मे धत्त ऋभवः क्षेमयन्तो न मित्रम् ॥ इदाह्नः पीतिमुत वो मदं धुर्न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः। ते नूनमस्मे ऋभवो वसूनि तृतीये अस्मिन् त्सवने दधात ॥ - ऋ. ४.३३.१-९

*ऋभुर्विभ्वा वाज इन्द्रो नो अच्छेमं यज्ञं रत्नधेयोप यात। इदा हि वो धिषणा देव्यह्नामधात् पीतिं सं मदा अग्मता वः। विदानासो जन्मनो वाजरत्ना उत ऋतुभिर्ऋभवो मादयध्वम्। सं वो मदा अग्मत सं पुरंधिः सुवीरामस्मे रयिमेरयध्वम् ॥ अयं वो यज्ञ ऋभवोऽकारि यमा मनुष्वत् प्रदिवो दधिध्वे। प्र वोऽच्छा जुजुषाणासो अस्थुरभूत विश्वे अगि|योत वाजाः ॥ अभूदु वो विधते रत्नधेयमिदा नरो दाशुषे मर्त्याय। पिबत वाजा ऋभवो ददे वो महि तृतीयं सवनं मदाय ॥ आ वाजा यातोप न ऋभुक्षा महो नरो द्रविणसो गृणानाः। आ वः पीतयोऽभिपित्वे अह्नामिमा अस्तं नवस्व इव ग्मन् ॥ - - - - - - -सजोषस आदित्यैमार्दयध्वं सजोषस ऋभवः पर्वतेभिः। सजोषसो दैव्येना सवित्रा सजोषसः सिन्धुभी रत्नधेभिः ॥ ये अश्विना ये पितरा य ऊती धेनुं ततक्षुर्ऋभवो ये अश्वा। ये अंसत्रा य ऋधग्रोदसी ये विभ्वो नरः

स्वपत्यानि चक्रुः ॥ ये गोमन्तं वाजवन्तं सुवीरं रयिं धत्थ वसुमन्तं पुरुक्षुम्। ते अग्रेपा ऋभवो मन्दसाना अस्मे धत्त ये च रातिं गृणन्ति ॥ नापाभूत न वोऽतीतृषामाऽनिःशस्ता ऋभवो यज्ञे अस्मिन्। समिन्द्रेण मदथ सं मरुद्भिः सं राजभी रत्नधेयाय देवाः ॥ - ऋ. ४.३४.१-११

*इहोप यात शवसो नपातः सौधन्वना ऋभवो माप भूत। अस्मिन् हि वः सवने रत्नधेयं गमन्त्विन्द्रमनु वो मदासः ॥ आगन्नृभूणामिह रत्नधेयमभूत् सोमस्य सुषुतस्य पीतिः। सुकृत्यया यत् स्वपस्यया चँ एकं विचक्र चमसं चतुर्धा ॥ व्यकृणोत चमसं चतुर्धा सखे वि शिक्षेत्यब्रवीत। अथैत वाजा अमृतस्य पन्थां गणं देवानामृभवः सुहस्ताः।। किंमयः स्विच्चमस एष आस यं काव्येन चतुरो विचक्र। अथा सुनुध्वं सवनं मदाय पात ऋभवो मधुनः सोम्यस्य। शच्याकर्त पितरा युवाना शच्याकर्त चमसं देवपानम्। शच्या हरी धनुतरावतष्टेन्द्रवाहावृभवो वाजरत्नाः ॥ यो वः सुनोत्यभिपित्वे अह्नां तीव्रं वाजासः सवनं मदाय। तस्मै रयिमृभवः सर्ववीरमा तक्षत वृषणो मन्दसानाः ॥ प्रातः सुतमपिबो हर्यश्व माध्यंदिनं सवनं केवलं ते। समृभुभिः पिबस्व रत्नधेभिः सखीर्यां इन्द्र चकृषे सुकृत्या ॥ - - - - -यत् तृतीयं सवनं रत्नधेयमकृणुध्वं स्वपस्या सुहस्ताः। तदृभवः परिषिक्तं व एतत् सं मदेभिरिन्द्रियेभिः पिबध्वम् ॥ - ऋ. ४.३५.१-९

*अनश्वो जातो अनभीशुरुक्थ्यो रथस्त्रिचक्रः परि वर्तते रजः। महत् तद् वो देवस्यस्य प्रवाचनं द्यामृभवः पृथिवीं यच्च पुष्यथ ॥ रथं ये चक्रुः सुवृतं सुचेतसो ऽविह्वरन्तं मनसस्परि ध्यया। ताँ ऊ न्वस्य सवनस्य पीतय आ वो वाजा ऋभवो वेदयामसि ॥ तद् वो वाजा ऋभवः सुप्रवाचनं देवेषु विभ्वो अभवन्महित्वनम्। जिव्री यत् सन्ता पितरा सनाजुरा पुनर्युवाना चरथाय तक्षथ ॥ एकं वि चक्र चमसं चतुर्वयं निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिः। अथा देवेष्वमृतत्वमानश श्रुष्टी वाजा ऋभवस्तद् व उक्थ्यम् ॥ ऋभुतो रयिः प्रथमश्रवस्तमो वाजश्रुतासो यमजीजनन् नरः। विभ्वतष्टो विदथेषु प्रवाच्यो यं देवासोऽवथा स विचर्षणिः ॥ स वाज्यर्वा स ऋषिर्वचस्यया स शूरो अस्ता पृतनासु दुष्टरः। स रायस्पोषं स सुवीर्यं दधे यं वाजो विभ्वाf ऋभवो यमाविषुः ॥ श्रेष्ठं वः पेशो अधि धायि दर्शतं स्तोमो वाजा ऋभवस्तं जुजुष्टन। धीरासो हि ष्ठा कवयो विपश्चितस्तान् व एना ब्रह्मणा वेदयामसि। यूयमस्मभ्यं धिषणाभ्यस्परि विद्वांसो विश्वा नर्याणि भोजना। द्युमन्तं वाजं वृषशुष्ममुत्तममा नो रयिमृभवस्तक्षता वयः ॥ इह प्रजामिह रयिं रराणा इह श्रवो वीरवत्तक्षता नः। येन वयं चितयेमात्यन्यान् तं वाजं चित्रमृभवो ददा नः ॥ - ऋ. ४.३६.१-९

*उप नो वाजा अध्वरमृभुक्षा देवा यात पथिभिर्देवयानैः। यथा यज्ञं मनुषो विक्ष्वासु दधिध्वे रण्वाः सुदिनेष्वह्नाम् ॥ - - - -त्र्युदायं देवहितं यथा वः स्तोमो वाजा ऋभुक्षणो ददे वः। जुह्वे मनुष्वदुपरासु विक्षु युष्मे सचा बृहद्दिवेषु सोमम् ॥ - - - - - ऋभुमृभुक्षणो रयिं वाजे वाजिन्तमं युजम्। इन्द्रस्वन्तं हवामहे सदासातममश्विनम् ॥ सेदृभवो यमवथ यूयमिन्द्रश्च मर्त्यम्। स धीभिरस्तु सनिता मेधसाता नो अर्वता ॥ वि नो वाजा ऋभुक्षणः पथश्चितन यष्टवे। अस्मभ्यं सूरयः स्तुता विश्वा आशास्तरीषणि ॥ तं नो वाजा ऋभुक्षण इन्द्र नासत्या रयिम्। समश्वं चर्षणिभ्य आ पुरु शस्त मघत्तये ॥ - ऋ. ४.३७.१-८

*क्व स्विदासां कतमा पुराणी यया विधाना विदधुर्ऋभूणाम्। शुभं यच्छुभ्रा उषसश्चरन्ति न वि ज्ञायन्ते सदृशीरजुर्याः ॥ - ऋ. ४.५१.६

*स हि ष्मा धन्वाक्षितं दाता न दात्या पशुः। हिरिश्मश्रुः शुचिदन्नृभुरनिभृष्टतविषिः ॥ - ऋ. ५.७.७

*ते नो मित्रो वरुणो अर्यमायुरिन्द्र ऋभुक्षा मरुतो जुषन्त। नमोभिर्वा ये दधते सुवृक्तिं स्तोमं रुद्राय मीळ्हुषे सजोषाः ॥ - ऋ. ५.४१.२

*देवो भगः सविता रायो अंश इन्द्रो वृत्रस्य संजितो धनानाम्। ऋभुक्षा वाज उत वा पुरंधिरवन्तु नो अमृतासस्तुरासः ॥ - ऋ. ५.४२.५

* उत नो विष्णुरुत वातो अस्रिधो द्रविणोदा उत सोमो मयस्करत्। उत ऋभव उत राये नो अश्विनोत त्वष्टोत विभ्वानु मंसते ॥ - ऋ. ५.४६.४

*विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये। देवा अवनत्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः ॥ - ऋ. ५.५१.१३

*शर्धो मारुतमुच्छंस सत्यशवसमृभ्वसम्। उत स्म ते शुभे नरः प्र स्पन्द्रा युजत त्मना ॥ - ऋ. ५.५२.८

*धायोभिर्वा यो युज्येभिरर्कैर्विद्युन्न दविद्योत् स्वेभिः शुष्मैः। शर्धो वा यो मरुतां ततक्ष ऋभुर्न त्वेषो रभसानो अद्यौत् ॥ - ऋ. ६.३.८

*पुरुहूतो यः पुरुगूर्त ऋभ्वाf एकः पुरुप्रशस्तो अस्ति यज्ञैः। रथो न महे शवसे युजानो ऽस्माभिरिन्द्रो अनुमाद्यो भूत् ॥ - ऋ. ६.३४.२

*प्रथमभाजं यशसं वयोधां सुपाणिं देवं सुगभस्तिमृभ्वम्। होता यक्षद् यजतं पस्त्यानामग्निस्त्वष्टारं सुहवं विभावा ॥ - ऋ. ६.४९.९

*ते नो रुद्रः सरस्वती सजोषा मीळ्हुष्मन्तो विष्णुर्मृळन्तु वायुः। ऋभुक्षा वाजो दैव्यो विधाता पर्जन्यावाता पिप्यतामिषं नः ॥ - ऋ. ६.५०.१२

*शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः। शं न ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु ॥ - ऋ. ७.३५.१२

*आ वो वाहिष्ठो वहतु स्तवध्यै रथो वाजा ऋभुक्षणो अमृक्तः। अभि त्रिपृष्ठैः सवनेषु सोमैर्मदे सुशिप्रा महभिः पृणध्वम् ॥ यूयं ह रत्नं मघवत्सु धत्थ स्वर्दृश ऋभुक्षणो अमृक्तम्। सं यज्ञेषु स्वधावन्तः पिबध्वं वि नो राधांसि मतिभिर्दयध्वम् ॥ - - - - - -त्वमिन्द्र स्वयशा ऋभुक्षा वाजो न साधुरस्तमेष्यृक्वा। वयं नु ते दाश्वांसः स्याम ब्रह्म कृण्वन्तो हरिवो वसिष्ठाः ॥ - ऋ. ७.३७.१-४

*ऋभुक्षणो वाजा मादयध्वमस्मे नरो मघवानः सुतस्य। आ वोऽर्वाचः क्रतवो न यातां विभ्वो रथं नर्यं वर्तयन्तु ॥ ऋभुर्ऋभुभिरभि वः स्याम विभ्वो विभुभिः शवसा शवांसि। वाजो अस्माँ अवतु वाजसाताविन्द्रेण युजा तरुषेम वृत्रम् ॥ ते चिद्धि पूर्वीरभि सन्ति शासा विश्वाँ अर्य उपरताति वन्वन्। इन्द्रो विभ्वाf ऋभुक्षा वाजो अर्यः शत्रोर्मिथत्या कृणवन् वि नृम्णम् ॥ नू देवासो वरिवः कर्तना नो भूत नो विश्वेऽवसे सजोषाः। समस्मे इषं वसवो ददीरन् यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥ - ऋ. ७.४८.१-४

*आदित्या विश्वे मरुतश्च विश्वे देवाश्च विश्व ऋभवश्च विश्वे। इन्द्रो अग्निरश्विना तुष्टुवाना यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥ - ऋ. ७.५१.३

*अभि त्वा पूर्वपीतय इन्द्र स्तोमेभिरायवः। समीचीनास ऋभवः समस्वरन् रुद्रा गृणन्त पूर्व्यम् ॥ - ऋ. ८.३.७

*इमां मे मरुतो गिरमिमं स्तोममृभुक्षणः। इमं मे वनता हवम् ॥ - ऋ. ८.७.९

*यूयं हि ष्ठा सुदानवो रुद्रा ऋभुक्षणो दमे। उत प्रचेतसो मदे ॥ - ऋ. ८.७.१२

*यदिन्द्रेण सरथं याथो अश्विना यद्वा वायुना भवथः समोकसा। यदादित्येभिर्ऋभुभिः सजोषसा यद्वा विष्णोर्विक्रमणेषु तिष्ठथः ॥ - ऋ. ८.९.१२

*वीळुपविभिर्मरुत ऋभुक्षण आ रुद्रासः सुदीतिभिः। इषा नो अद्या गता पुरुस्पृहो यज्ञमा सोभरीयवः ॥ - ऋ. ८.२०.२

*ऋभुमन्ता वृषणा वाजवन्ता मरुत्वन्ता जरितुर्गच्छथो हवम्। सजोषसा उषसा सूर्येण चाऽऽदित्यैर्यातमश्विना ॥ - ऋ. ८.३५.१५

*ऋभुक्षणं न वर्तव उक्थेषु तुग्र्यावृधम्। इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥ - ऋ. ८.४५.२९

*नकिष्ट कर्मणा नशद्यश्चकार सदावृधम्। इन्द्रं न यज्ञैर्विश्वगूर्तमृभ्वसमधृष्टं धृष्ण्वोजसम् ॥ - ऋ. ८.७०.३

*तं नेमिमृभवो यथा ऽऽनमस्व सहूतिभिः। नेदीयो यज्ञमङ्गिरः ॥ - ऋ. ८.७५.५

*तेन स्तोतृभ्य आ भर नृभ्यो नारिभ्यो अत्तवे। सद्यो जात ऋभुष्ठिर ॥ - ऋ. ८.७७.८

*इन्द्र इषे ददातु न ऋभुक्षणमृभुं रयिम्। वाजी ददातु वाजिनम् ॥ - ऋ. ८.९३.३४

*स वृत्रहेन्द्र ऋभुक्षाः सद्यो जज्ञानो हव्यो बभूव। कृण्वन्नपांसि नर्या पुरूणि सोमो न पीतो हव्यः

सखिभ्यः ॥ - ऋ. ८.९६.२१

*ऋभुर्न रथ्यं नवं दधाता केतमादिशे। शुक्राः पवध्वमर्णसा ॥ - ऋ. ९.२१.६

*विश्वा धामानि विश्वचक्ष ऋभ्वसः प्रभोस्ते सतः परि यन्ति केतवः। व्यानशि: पवसे सोम धर्मभिः पतिर्विश्वस्य भुवनस्य राजसि ॥ - ऋ. ९.८६.५

*ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन। स चिद्विवेद निहितं यदासामपीच्यं गुह्यं नाम गोनाम् ॥ - ऋ. ९.८७.३

*हरी न्वस्य या वने विदे वस्विन्द्रो मघैर्मघवा वृत्रहा भुवत्। ऋभुर्वाज ऋभुक्षाः पत्यते शवो ऽव क्ष्णौमि दासस्य नाम चित् ॥ - ऋ. १०.२३.२

*जुषद्धव्या मानुषस्योर्ध्वस्तस्थावृभ्वा यज्ञे। मिन्वन् त्सद्म पुर एति ॥ - ऋ. १०.२०.५

*आ तेन यातं मनसो जवीयसा रथं यं वामृभवश्चक्रुरश्विना। यस्य योगे दुहिता जायते दिव उभे अग्नी सुदिने विवस्वतः ॥ - ऋ. १०.३९.१२

*उत माता बृहद्दिवा शृणोतु नस्त्वष्टा देवेभिर्जनिभिः पिता वचः। ऋभुक्षा वाजो रथस्पतिर्भगो रण्वः शंसः शशमानस्य पातु नः ॥ - ऋ. १०.६४.१०

*त्वष्टारं वायुमृभवो य ओहते दैव्या होतारा उषसं स्वस्तये। बृहस्पतिं वृत्रखादं सुमेधसमिन्द्रियं सोमं धनसा उ ईमहे ॥ - ऋ. १०.६५.१०

*धर्तारो दिव ऋभवः सुहस्ता वातापर्जन्या महिषस्य तन्यतोः। आप ओषधीः प्र तिरन्तु नो गिरो भगो रातिर्वाजिनो यन्तु मे हवम् ॥ - ऋ. १०.६६.१०

*दीर्घतन्तुर्बृहदुक्षायमग्निः सहस्रस्तरीः शतनीथ ऋभ्वा। द्युमान् द्युमत्सु नृभिर्मृज्यमानः सुमित्रेषु दीदयो देवयत्सु ॥ - ऋ. १०.६९.७

*शचीव इन्द्रमवसे कृणुध्वमनानतं दमयन्तं पृतन्यून्। ऋभुक्षणं मघवानं सुवृक्तिं भर्ता यो वज्रं नर्यं पुरुक्षुः ॥ - ऋ. १०.७४.५

*अग्नये ब्रह्म ऋभवस्ततक्षुरग्निं महामवोचामा सुवृक्तिम्। अग्ने प्राव जरितारं यविष्ठा ऽग्ने महि द्रविणमा यजस्व ॥ - ऋ. १०.८०.७

*ते हि द्यावापृथिवी भूरिरेतसा नराशंसश्चतुरङ्गो यमोऽदितिः। देवस्त्वष्टा द्रविणोदा ऋभुक्षणः प्र रोदसी मरुतो विष्णुरर्हिरे ॥ - ऋ. १०.९२.११

*उत नो रुद्रा चिन्मृळतामश्विना विश्वे देवासो रथस्पतिर्भगः। ऋभुर्वाज ऋभुक्षणः परिज्मा विश्ववेदसः ॥ ऋभुर्ऋभुक्षा ऋभुर्विधतो मद आ ते हरी जूजुवानस्य वाजिना। दुष्टरं यस्य सामचिदृधग्यज्ञो न मानुषः॥ - ऋ. १०.९३.७-८

*स रुद्रेभिरशस्तवार ऋभ्वा हित्वी गयमारेअवद्य आगात्। वम्रस्य मन्ये मिथुना विवव्री अन्नमभीत्यारोदयन्मुषायन् ॥ - ऋ. १०.९९.५

*प्रास्तौदृष्वौजा ऋष्वेभिस्ततक्ष शूरः शवसा। ऋभुर्न क्रतुभिर्मातरिश्वा ॥ - ऋ. १०.१०५.६

*पज्रेव चर्चरे जारं मरायु क्षद्मेवार्थेषु तर्तरीथ उग्रा। ऋभू नापत् खरमज्रा खरज्रुर्वायुर्न पर्फरत् क्षयद्रयीणाम् ॥ - ऋ. १०.१०६.७

*स्तुषेय्यं पुरुवर्पसमृभ्वमिनतममाप्त्यमाप्त्यानाम्। आ दर्षते शवसा सप्त दानून् प्र साक्षते प्रतिमानानि भूरि ॥ - ऋ. १०.१२०.६

*अयमस्मासु काव्य ऋभुर्वज्रो दास्वते। अयं बिभर्त्यूर्ध्वकृशनं मदमृभुर्न कृत्व्यं मदम् ॥ - ऋ. १०.१४४.२

*प्र सूनव ऋभूणां बृहन्नवन्त वृजना। क्षामा ये विश्वधायसो ऽश्नन् धेनुं न मातरम् ॥ - ऋ. १०.१७६.१

*वृक्षं यद्गावः परिषस्वजाना अनुस्फुरं शरमर्चन्त्यृभुम्। शरुमस्मद्यावय दिद्युमिन्द्र ॥ - अथर्ववेद १.२.३

*यदि कर्तं पतित्वा संशश्रे यदि वाश्मा प्रहृतो जघान। ऋभू रथस्येवाङ्गानि सं दधत् परुषा परुः ॥ - अ. ४.१२.७

*स्तुष्व वर्ष्मन् पुरुवर्त्मानं समृभ्वाणमिनतमाप्तमाप्त्यानाम्। आ दर्शति शवसा भूर्योजाः प्र सक्षति प्रतिमानं पृथिव्याः ॥ - अ. ५.२.७

*ऋभुरसि जगच्छन्दा अनु त्वा रभे। स्वस्ति मा सं वहास्य यज्ञस्योदृचि स्वाहा ॥ - अ. ६.४८.२

*यां मेधामृभवो विदुर्यां मेधामसुरा विदुः। ऋषयो भद्रां मेधां यां विदुस्तां मय्या वेशयामसि ॥ - अ. ६.१०८.३

*यथा सोमस्तृतीये सवन ऋभूणां भवति प्रियः। एवा म इन्द्राग्नी वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥ - अ. ९.१.१३

*यस्ते परूंषि संदधौ रथस्येवर्भुर्धिया। तं गच्छ तत्र तेऽयनमज्ञातस्तेऽयं जनः ॥ - अ. १०.१.८

*शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः। शं न ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु ॥ - अ. १९.११.१

*नकिष्ट कर्मणा नशद् यश्चकार सदावृधम्। इन्द्रं न यज्ञैर्विश्वगूर्तमृभ्वसमधृष्टं धृष्ण्वोजसम् ॥ - अ. २०.९२.१८

*अभि त्वा पूर्वपीतय इन्द्र स्तोमेभिरायवः। समीचीनास ऋभवः समस्वरन् रुद्रा गृणन्त पूर्व्यम् ॥ - अ. २०.९९.१

*स्तुष्व वर्ष्मन् पुरुवर्त्मानं समृभ्वाणमिनतममाप्तमाप्त्यानाम्। आ दर्शति शवसा भूर्योजाः प्र सक्षति प्रतिमानं पृथिव्याः ॥ - अ. २०.१०७.१०

*यदिन्द्रेण सरथं याथो अश्विना यत्र वायुना भवथः समोकसा। यदादित्येभिर्ऋभुभिः सजोषसा यत्र विष्णोर्विक्रमणेषु तिष्ठथः ॥ - अ. २०.१४१.२

*निगदरूपेण मन्त्रेण होतुः प्रत्युथानं :- तास्वध्वर्यो इन्द्राय सोमं सोता मधुमन्तं वृष्टिवनिं तीव्रान्तं बहुरमध्यं वसुमते रुद्रवत आदित्यवत ऋभुमते विभुमते वाजवते बृहस्पतिवते विश्वदेव्यावते। यस्येन्द्रः पीत्वा वृत्राणि जङ्घनत्प्र स जन्यानि तारिषोमिति प्रत्युत्तिष्ठति - ऐतरेय ब्राह्मण २.२०

*धाय्ये विधातुमाख्यायिका :- ऋभवो वै देवेषु तपसा सोमपीथमभ्यजयंस्तेभ्यः प्रातःसवने वाचि कल्पयिषंस्तानग्निर्वसुभिः प्रातःसवने वाचि कल्पयिषंस्तानग्निर्वसुभिः प्रातःसवनादनुदत तेभ्यो माध्यंदिने सवने वाचि कल्पयिषंस्तानिन्द्रो रुद्रैर्माध्यंदिनात्सवनादनुदत तेभ्यस्तृतीयसवने वाचि कल्पयिषंस्तान्विश्वे देवा अनोनुद्यन्त नेह पास्यन्ति नेहेति स प्रजापतिरब्रवीत्सवितारं तव वा इमेऽन्तेवासास्त्वमेवैभिः

संपिबस्वेति स तथेत्यब्रवीत्सविता तान्वै त्वमुभयतः परिपिबेति तान्प्रजापतिरुभयतः पर्यपिबत्। ते ते धाय्ये अनिरुक्ते प्राजापत्ये शस्येते अभित आर्भवं सुरूपकृत्नुमूतयेऽयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा इति प्रजापतिरेवैनांस्तदुभयतः परिपिबति तस्मादु श्रेष्ठी पात्रे रोचयत्येव यं कामयते तम्। तेभ्यो वै देवा अपैवाबीभत्सन्त मनुष्यगन्धात्त एते धाय्ये अन्तरदधत येभ्यो मातैवा पित्र इति। - ऐ.ब्रा. ३.३०

*प्र ऋभुभ्यो दूतमिव वाचमिष्य इत्यार्भवं प्रेति च वाचमिष्य इति च चतुर्थेऽहनि चतुर्थस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा. ५.५

*ऋभुर्विभ्वा वाज इन्द्रो नो अच्छेत्यार्भवं वाजो वै पशवः पशुरूपं पञ्चमेऽहनि पञ्चमस्याह्नो रूपम् - ऐ.ब्रा. ५.८

*किमु श्रेष्ठः किं यविष्ठो न आजगन्नुप नो वाजा अध्वरमृभुक्षा इत्यार्भवं नाराशंसं त्रिवत्षष्ठेऽहनि षष्ठस्याह्नो रूपम् - ऐ.ब्रा. ५.१३

*तदाहुर्यन्नाऽऽर्भवीषु स्तुवतेऽथ कस्मादार्भवः पवमान इत्याचक्षत। प्रजापतिर्वै पित ऋभून्मर्त्यान्सतोऽमर्त्यान्कृत्वा तृतीयसवन आभजत्तस्मान्नाऽऽर्भवीषु स्तुवतेऽथाऽऽर्भवः पवमान इत्याचक्षते। - ऐ.ब्रा. ६.१२

*ब्राह्मणाच्छंसिनो याज्यायामार्भवत्वं संपादयति :- इन्द्रश्च सोमं पिबतं बृहस्पति इति ब्राह्मणाच्छंसी यजत्या वां विशन्त्विन्दवः स्वाभुव इति बहूनि वाऽऽह तदृभूणां रूपं। - ऐ.ब्रा. ६.१२

*पोतुर्याज्यायामार्भवत्वं :- आ वो वहन्तु सप्तयो रघुष्यद इति पोता यजति रघुपत्वानः प्र जिगात बाहुभिरिति बहूनि वाऽऽह तदृभूणां रूपम् - ऐ.ब्रा. ६.१२

*नेष्टुर्याज्यायामार्भवत्वं :- अमेव नः सुहवा आ हि गन्तनेति नेष्टा यजति गन्तनेति बहूनि वाऽऽह तदृभूणां रूपम् - ऐ.ब्रा. ६.१२

*अच्छावाकस्य याज्यायामार्भवत्वं :- इन्द्राविष्णू पिबतं मध्वो अस्येत्यच्छावाको यजत्यावामन्धांसि मदिराण्यग्मन्निति बहूनि वाऽऽह तदृभूणां रूपम् - ऐ.ब्रा. ६.१२

*आग्नीध्रस्य याज्यायामार्भवत्वं :- इमं स्तोममर्हते जातवेदस इत्याग्नीध्रो यजति रथमिव सं महेमा मनीषयेति बहूनि वाऽऽह तदृभूणां रूपम्। एवमु हैता ऐन्द्रार्भव्यो भवन्ति - ऐ.ब्रा. ६.१२

*शरद ऋतु वर्णनम् : अक्षिदुःखोत्थितस्यैव। विप्रसन्ने कनीनिके। आङ्क्ते चाद्गणं नास्ति। ऋभूणां तन्निबोधत। कनकाभानि वासांसि। अहतानि निबोधत। अन्नमश्नीत मृज्मीत। अहं वो जीवनप्रदः। एता वाचः प्रयुज्यन्ते। शरद्यत्रोपदृश्यते। अभिधून्वन्तोऽभिघ्नन्त इव। वातवन्तो मरुद्गणाः। - तैत्तिरीय आरण्यक १.४.१

*ऋभूणामादित्यानां स्थाने स्वतेजसा भानि - तैत्तिरीय आरण्यक १.१५.१

*प्रवर्ग्यद्रव्यस्याऽऽहवनीये यागः :- - - - - सवित्रे त्वर्भुमते विभुमते प्रभुमते वाजवते स्वाहा। - तै.आ. ४.९.१

*सवित्रे त्वर्भुमते विभुमते प्रभुमते वाजवते स्वाहेत्याह। संवत्सरो वै सवितर्भुमान्विभुमान्प्रभुमान्वाजवान्। तस्मा एवैनं जुहोति। - तै.आ. ५.७.११

*अधिकारिभेदेनाऽऽधानमन्त्रविशेषाः :- ऋभूणां त्वा देवानां व्रतपते व्रतेनाऽऽदधामीति रथकारस्य। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.८

*पुरोडाशस्य याज्या :- शारदेनर्तुना देवाः। एकविँश ऋभवः स्तुतम्। वैराजेन श्रिया श्रियम्। हविरिन्द्रे वयो दधुः ॥ हेमन्तेनर्तुना देवाः - - - - - तै.ब्रा. २.६.१९.२

*ऋभुभ्यो/ऋतुभ्योऽजिनसंधायम् - तै.ब्रा. ३.४.१३.१

*ततं म आऽपस्तदु तायते पुनः। स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते। अयं समुद्र उत विश्वभेषजः। स्वाहाकृतस्य समुतृप्णुतर्भुवः। - तै.ब्रा. ३.७.११.२

*अथ तृतीयसवन आर्भवे पवमाने उद्गातारमन्वारभासै। ऋभुरसि जगच्छन्दा अनु त्वाऽऽरभे स्वस्ति मा संपारयेति। - शतपथ ब्राह्मण १२.३.४.५

*विंशत्यामार्भवः पवमानः। - मा.श. १३.४.४.१

*ऋभुर्विभ्वा वाज इन्द्रो नो अच्छ इत्यार्भवं शस्त्वा ऐकाहिके निविदं दधाति - मा.श. १३.५.१.११

*घर्म प्रचरणम् :- सवित्रे त्वा - ऋभुमते विभुमते वाजवते स्वाहा इति। अयं वै सविता। योऽयं पवते। तस्मा एवैनं जुहोति। तस्मादाह - सवित्रे त्वा इति। ऋभुमते विभुमते वाजवते इति। तदस्मिन् विश्वान्देवानन्वाभजति। - मा.श. १४.२.२.९

*ऋषिर् विप्रः पुरएता जनानाम् ऋभुर् धीर उशना काव्येन। स चिद् विवेद निहितं यद् आसाम् अपीच्यं गुह्यं नाम गोनाम् - जैमिनीय ब्राह्मण १.१२७

*अथान्धीगवम्। मध्येनिधनं भवति प्रतिष्ठायै। समुद्रं वा एते ऽनारम्भणं प्रप्लवन्ते य आर्भवं पवमानम् उपयन्ति। तद् यन् मध्येनिधनं भवति प्रतिष्ठित्या एव। - जै.ब्रा. १.१६५

*पञ्चैतानि छन्दांस्य् आर्भवे पवमाने भवन्ति सप्त सामानि। तद् द्वादश संपद्यन्ते। द्वादश मासास् संवत्सरः। पञ्चो वा एवामूनि सामानि माध्यंदिने पवमाने भवन्ति। ऋतव एव मासा एवार्भवे पवमाने कल्पन्ते ऋतवो माध्यंदिने। स हैष संवत्सर एव व्यूढो यद्यज्ञः। - जै.ब्रा. १.१६६

*अथार्भवस्य पवमानस्य गायत्री। यो ऽयं प्राण एष एव सः। तस्यां द्वे सामनी। तस्माद् द्वयं प्राणेन करोति प्राण्यापानिति। - - - - - - - जै.ब्रा. १.२५४

*स एष यज्ञ ऊर्ध्व एव पुरुषम् अन्वायत्तः। - - - - पृष्ठान्य् एव पृष्ठानि। अयम् आर्भव इदम् अग्निष्टोमसाम। - जै.ब्रा. १.२५७

*अथार्भवस्य पवमानस्य गायत्र्य~ उक्तब्राह्मणा। - - - - जै.ब्रा. १.३०५

*मद्वद् अन्धस्वद् आर्भवान् नान्तर्यात्। तेन हि स रूपी तेन वीर्यवान्। - जै.ब्रा. १.३१०

*अथार्भवः पवमानः। स ह सो ऽसित एव स्तोमः। दिश एव ताः। दिशो ह वै व्युत्क्रामन्ति पाप्मा न सिषाय। - जै.ब्रा. १.३१३

*इलान्दं तद् आर्भवस्य पवमानस्यानुष्टुभि कार्यं, यद् अभ्युदितं तन् नेद् अन्तरयामेति। - - - - - -तद् आर्भवस्यैव पवमानस्य गायत्र्यां कार्यं, यद् अभ्युदितं तन् नेद् अन्तरयामेति। - जै.ब्रा. २.२२

*यत् सप्तदशानि पृष्ठानि सप्तदश आर्भवो ये सप्तदशा स्तोमास् तेन ते ऽपियन्ति। - जै.ब्रा. २.४९

*अथो आहुर् - अष्टादशम् एवाच्छावाकस्य कृत्वा सविंशम् आर्भवम् एकविंशम् अग्निष्टोमसाम कुर्याद् इति। - जै.ब्रा. २.८२

*तस्येन्दुस् समुद्रम् उर्विया विभातीत्य् एतद् आदिष्टसामार्भवे पवमाने न भवतीति दिवस् सामैकारवद् भवति। - जै.ब्रा. २.८६

*- - - व्योम्ना व्योमानं साम व्योम्ना व्योमानं लोकं गच्छामेति। तस्यैकविंश आर्भवः पवमानो भवत्य् अग्निष्टोमसाम वा। द्वादश मासाः पञ्चर्तवस् त्रय इमे लोका असाव् आदित्य एकविंशः। - जै.ब्रा. २.८८

*तस्य विराट् - स्वराजम् आर्भवस्य पवमानस्यानुष्टुभि कुर्वन्ति। - जै.ब्रा. २.९६

*तस्य बृहद् बार्हस्पत्यम् आदिष्टसामार्भवे पवमाने भवति। - जै.ब्रा. २.१३१

*तस्य रथन्तरं पृष्ठं भवति, वामदेव्यं मैत्रावरुणसाम, बृहद् आर्भवे पवमाने। - जै.ब्रा. २.१७९

*समुद्रं वा एतेनारम्भणं प्रप्लवन्ते य आर्भवं पवमानम् उपयन्ति। तद् यन् मध्येनिधनं भवति प्रतिष्ठित्या एव। - जै.ब्रा. ३.१९

*स साहतुर्वृत्रहत्येषु शत्रूनृभुर्विगाह एषः। - ऐतरेय आरण्यक ५.२.१

*अथ ऋभुर्वै महामुनिर्देवमानेन द्वादशवत्सरं तपश्चचार। तदवसाने वराहरूपी भगवान्प्रादुरभूत्। - - - वराहोपनिषद १.१

*ऋभुर्नाम महायोगी क्रोडरूपं रमापतिम्। वरिष्ठां ब्रह्मविद्यां त्वमधीहि भगवन्मम। एवं स पृष्टो भगवान्प्राह भक्तार्तिभञ्जनः। - - - - वराहोपनिषद २.१

*अथ ह ऋभुं भगवन्तं निदाघः पप्रच्छ जीवन्मुक्तिलक्षणमनुब्रूहीति। - - - - - वराहोपनिषद ४.१

*निदाघो नाम योगीन्द्र ऋभुं ब्रह्मविदां वरम्। प्रणम्य दण्डवद्भूमावुत्थाय स पुनर्मुनिः। आत्मतत्त्वमनुब्रूहीत्येवं पप्रच्छ सादरम्। - - - - अन्नपूर्णोपनिषद १.१

*निदाघो नाम मुनिराट् प्राप्तविद्यश्च बालकः। विहृतस्तीर्थयात्रार्थं पित्रानुज्ञातवान्स्वयम्। सार्धत्रिकोटितीर्थेषु स्नात्वा गृहमुपागतः। स्वोदन्तं कथयामास ऋभुं नत्वा महायशाः। - - - - - - महोपनिषद ३.१

*निदाघो नाम वै मुनिः पप्रच्छ ऋभुं भगवन्तमात्मानात्मविवेकमनुब्रूहीति। स होवाच ऋभुः। - - - - - तेजोबिन्दूपनिषद ५.१



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