ऋतु

टिप्पणी : उणादि कोश १.७२/१.७१ में ऋतु की परिभाषा अर्तेश्च तु:, अर्थात् पुनः - पुनः ऋच्छति गच्छति - आगच्छति इति ऋतु के रूप में की गई है । यह संकेत करता है कि ऋतु इस संसार में पुनः - पुनः आवागमन का मार्ग है । इसके विपरीत मोक्ष का सीधा मार्ग भी है और वैदिक साहित्य में यह दोनों मार्ग साथ - साथ मिलते हैं । उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण  १०.२.५.७ में प्रवर्ग्य याग के साथ उपसद इष्टि का उल्लेख है । प्रवर्ग्य को आदित्य कहा गया है जबकि उपसद को ऋतुएं । इन यागों को एक साथ करने का अभिप्राय यह दिया गया है कि आदित्य की ऋतुओं में प्रतिष्ठा करते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण  १.२३ में देवगण उपसदों की सहायता से विभिन्न लोकों, ऋतुओं, मासों, अर्धमासों, अहोरात्रों आदि से असुरों को भगाते हैं । तैत्तिरीय आरण्यक  ५.६.१ में प्रवर्ग्य को यज्ञ का शिर और उपसद को ग्रीवा कहा गया है । वायु पुराण अध्याय  ३०.२२ में ऋत् से ऋतु के जन्म का उल्लेख है । ऋत् शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि ऋत् शब्द को अंग्रेजी भाषा के शब्द रिदम या हार्मोनी, जगत की व्यवस्था में सामञ्जस्य के आधार पर समझा जा सकता है । ऋत् शब्द का मूल शृत् , पका हुआ हो सकता है । भौतिक जगत में संवत्सर ऋतुओं द्वारा फलों, अन्नों, ओषधियों आदि को पकाने का कार्य करता है । आन्तरिक जगत में ऋतु हमारे इस व्यक्तित्व का पाक करेगी जिसका वर्णन सारे वैदिक और पौराणिक साहित्य में किया गया है । शतपथ ब्राह्मण  ६.४.४.१७ में गर्भ के ऋतुओं द्वारा पकने का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण  ७.१.१.२८ में योनि को ऋतव्या बनाने का निर्देश है । लेकिन कठिनाई यह है कि वैदिक सूत्र का वर्णन बहुत संक्षिप्त, सूत्र रूप में है जिसे समझना बहुत कठिन है । दूसरी ओर पुराणों की कथाएं रहस्यगर्भित हैं जिनके रहस्य समझ में नहीं आते । लेकिन वैदिक साहित्य को आधार बनाकर पुराणों की कथाओं से ऋतुओं के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । उदाहरण के रूप में इसका एक प्रयास यहां किया गया है ।

काल की टिप्पणी में यह उल्लेख किया गया है कि काल का अस्तित्व सूर्य, पृथिवी और चन्द्रमा की परस्पर गतियों से है । यदि पृथिवी सूर्य की परिक्रमा न करे तो अकाल की स्थिति होगी, काल से रहित । अध्यात्म में सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा का रूपान्तर क्रमशः प्राण, वाक् व मन के रूप में किया जा सकता है । भौतिक जगत में तो पृथिवी और सूर्य आदि के बीच स्वाभाविक आकर्षण है, लेकिन लगता है कि अध्यात्म में इस आकर्षण को उत्पन्न करना पडेगा । भौतिक विज्ञान की दृष्टि से आकर्षण उत्पन्न होना ऋतुओं को समझने की कुञ्जी प्रतीत होती है । भौतिक विज्ञान में २ प्रकार के कण होते हैं - एक तो वह जिनके बीच आकर्षण - विकर्षण होता है । उन्हें फर्मी कण नाम दिया गया है । दूसरे वह होते हैं जिनके बीज आकर्षण - विकर्षण नहीं होता । उन्हें बोस कण नाम दिया गया है । ऊर्जा की कोई किरण किसी स्थूल कण से कितने अंशों में टकराएगी, यह उस कण की प्रकृति पर निर्भर करता है । अभी स्थिति यह है कि जैव रूप में सक्रिय द्रव्यों को एक साथ मिलाकर सूर्य की किरणों में रखा जाता है और सूर्य की किरणों द्वारा फोटोसंश्लेषण आदि क्रियाएं होने के पश्चात् उस द्रव्य में सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं । लेकिन कठिनाई यह है कि सूक्ष्म जीव उत्पन्न होने की आपेक्षिक संभावना बहुत कम होती है । यदि एक किलोग्राम द्रव्य को मिलाकर सूर्य की किरणों में रखा गया है तो हो सकता है कि संख्या में गिने चुने कणों में ही जीव उत्पन्न हो । इसी प्रक्रिया को ऋतुओं द्वारा पकाने के संदर्भ में भी सोचा जा सकता है । ऋतुओं के प्राप्त वर्णनों से ऐसा लगता है कि वाक् में प्राण और मन की प्रतिष्ठा करना, उनका विकास करना ही ऋतुओं का कार्य है । लेकिन विशेष बात यह है कि ऋतुएं केवल मन, प्राण और वाक् के त्रिक् तक ही सीमित नहीं हैं । इनके साथ कम से कम पर्जन्य, आपः, पयः, चक्षु, श्रोत्र आदि को स्वतन्त्र रूप में और जोडा गया है ।

वैदिक साहित्य में पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग को ऋतुएं कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण  १२.१.३.११(गवामयन),  १३.३.२.१, जैमिनीय ब्राह्मण  २.१०८,  २.१०९,  २.१६२,  २.३५६,  २.३७५,  ३.१५४, तैत्तिरीय संहिता  ७.२.१.१,  ७.४.७.२, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.९.१, ऐतरेय ब्राह्मण  ४.१६ ) और इसके ६ दिनों के कृत्यों की व्याख्या ६ ऋतुओं के आधार पर की गई है । प्रत्येक ऋतु को समझने में हम इस वर्णन में दिए गए ऋतुओं के लक्षणों की सहायता लेंगे । यहां यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि यद्यपि ऋतुओं के लक्षण वैदिक साहित्य में कईं स्थानों पर मिलते हैं ( शतपथ ब्राह्मण  ५.२.१.४,  ५.४.१.३,  ८.१.१.५, जैमिनीय ब्राह्मण २.५१, तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१, ४.४.७.२, ४.४.१२.१, ७.३.१०.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१, तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.५ ), लेकिन मैत्रायण्युपनिषद  ७.१ में दिए गए लक्षण सबसे अधिक स्पष्ट हैं । ऐसा लगता है कि पृष्ठ्य षडह के ६ दिनों के लक्षणों के आधार पर ही भागवत पुराण के ६ आरम्भिक स्कन्धों की रचना हुई है । अतः वर्तमान लेखन में भागवत के ६ स्कन्धों की कथाओं का मुक्त रूप से उल्लेख किया जाएगा । जैसा कि सर्वविदित है, वसन्त ऋतु में प्रकृति में पुष्प खिलते हैं । अध्यात्म में इसका तात्पर्य यह लिया गया है कि वसन्त के माध्यम से जड प्रकृति में, जिसे वाक् कहा जा सकता है, प्राणों का, सूर्य का प्रवेश कराना है, वाक् में प्राणों की प्रतिष्ठा करनी है । वैदिक साहित्य में प्राणों की प्रतिष्ठा का कार्य वसिष्ठ ऋषि को सौंपा गया है । पृष्ठ्य षडह याग का यह प्रथम दिन है जिसके लक्षण रथन्तर साम, गायत्री छन्द, अज पशु आदि होते हैं । भागवत प्रथम स्कन्ध में परीक्षित् का जन्म अश्वत्थामा के बाण से मृत गर्भ के कृष्ण द्वारा पुनरुज्जीवित किए जाने से हुआ है । यह वाक् में प्राणों को प्रतिष्ठित करने के वैदिक कथन का पौराणिक रूपान्तर हो सकता है । फिर पुष्पित होने के रूपान्तर में परीक्षित् शृङ्गी ऋषि के दर्शन करता है । शृङ्ग का अर्थ सूर्य की किरणें, अतिमानसिक चेतना आदि हो सकते हैं । लेकिन परीक्षित् इस शृङ्गी को समुचित आदर देने में असमर्थ है क्योंकि उसके सिर पर मुकुट में कलि का वास है । कलि का अर्थ हो सकता है काल के साथ क्षय को प्राप्त होने वाली स्थिति । अतः इस स्थिति से बाहर निकलने का उपाय है अज, आज्य स्थिति को प्राप्त होना । अज का शाब्दिक अर्थ है कि जहां कोई जन्म न हो, जहां से कोई ऊर्जा बाहर भी न निकले । आधुनिक विज्ञान में ऊर्जा को धारण करने के लिए केविटी बनाने का प्रयास किया जाता है । यदि हम सूर्य की किरणों को संधारित करना चाहें तो हमें आमने - सामने २ दर्पण लगाने होंगे । ऋग्वेद पुरुष सूक्त  १०.९०.६ में वसन्त ऋतु को आज्य कहा गया है । कर्मकाण्ड में आज्य में बन्द चक्षुओं से अपनी छाया का दर्शन किया जाता है । अतः यह आज्य अन्तर्मुखी होने की अवस्था है जिसे परीक्षित् द्वारा शुक ऋषि को प्राप्त कर लेने के रूप में दिखाया गया है । सोमयाग में यजमान - पत्नी रथ के पहिए के धुरे में आज्य लगाती है जिससे नाभि पर पहिए के घर्षण से आसुरी वाक् न निकले ।

वैदिक साहित्य ( शतपथ ब्राह्मण  १.३.२.८,  १.५.३.१, तैत्तिरीय संहिता  १.६.११.५,  २.६.१.१ ) में ५ प्रयाजों को ५ ऋतुएं कहा गया है । इनमें प्रथम प्रयाज का लक्षण समित् या समिधा है ( तैत्तिरीय संहिता  २.६.१.१) । ऐसा कहा जा सकता है कि सारे जड जगत में एक काम, विकसित होने की कामना विद्यमान है । हो सकता है कि वसन्त को समित् कहने से तात्पर्य इस बिखरे हुए काम को समित् का, समिति का रूप देने से हो । डा. फतहसिंह का विचार है कि एक सभा होती है जहां प्रत्येक सदस्य के विचार भिन्न हो सकते हैं । लेकिन समिति में सभी के समान विचार होते हैं । अतः बिखरे हुए काम को एक इकाई बनाना है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.६ से इसकी पुष्टि होती है । शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.८ में प्रयाजकृत्य में वर्षण करने की जो प्रक्रिया है – जैसे पुरोवात का उत्पन्न करना, मेघों का प्लावयन, स्तनयन्, विद्योतन आदि, इन सब प्रक्रियाओं को एक – एक ऋतु का नाम दे दिया गया है।

शतपथ ब्राह्मण  ५.२.१.४ में परोक्ष रूप में वसन्त को आयु कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में प्राण को वसन्त कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में वसन्त को यावा कहा गया है तथा ७.३.१०.१ में वसन्त रस प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ के अनुसार वसन्त में वसुओं की स्तुति का निर्देश है । तैत्तिरीय आरण्यक १.३.२ में वसन्त में साराग वस्त्रों का उल्लेख है ।

ग्रीष्म ऋतु के संदर्भ में, ग्रीष्म शब्द ग्रसन से बना है । ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथिवी के रस को ग्रस लेता है । द्वितीय प्रयाज का नाम तनूनपात् है, तनु की रक्षा करने वाला । पृष्ठ्य षडह के द्वितीय दिन को ग्रीष्म कहा गया है । इस दिन के लक्षण बृहत् साम, पञ्चदश स्तोम, त्रिष्टुप् छन्द, भरद्वाज ऋषि, रुद्र देवता ( शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.७) आदि हैं । भरद्वाज ऋषि मन से सम्बन्धित है और भरद्वाज का कार्य बल, वीर्य का सम्पादन करना, दोषियों को दण्ड देना आदि है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८) । शरीर से स्तर पर हमें पता है कि क्रोध से हमारे अन्दर गर्मी उत्पन्न हो जाती है । अतः हो सकता है कि क्रोध में व्यय होने वाली ऊर्जा को ही सम्यक् रूप से नियन्त्रित करके मन के विकास में लगाना पडता हो । वैसे शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार क्रोध रक्त में उत्पन्न होता है, मन्यु अण्डों या वीर्य में । क्रोध हमें जलाता है जबकि तनूनपात् प्रयाज कहता है कि तनु की रक्षा करनी है । पुराणों में ग्रीष्म ऋतु में कृष्ण द्वारा कालिय नाग के दमन की कथा आती है जिसको उपरोक्त आधार पर समझा जा सकता है । भागवत पुराण का द्वितीय स्कन्ध सृष्टि से सम्बन्धित है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.८ में ग्रीष्म का स्तनयन/गर्जन से तादात्म्य कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.९ में ग्रीष्म के संदर्भ में मन को एक इकाई बनाने का निर्देश है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में वाक् या अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में ग्रीष्म को अयावा कहा गया है, ४.४.१२.२ में सगर वात द्वारा ग्रीष्म से रक्षा का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता में ग्रीष्म ऋतु यव प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ में ग्रीष्म में रुद्रों की स्तुति का निर्देश है ।

वर्षा ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह याग के तृतीय अह के लक्षणों में वैरूप साम, सप्तदश स्तोम, जगती छन्द, चक्षु, पर्जन्य ( शतपथ ब्राह्मण  ८.१.२.१ ) आदि हैं । प्रयाजों में तृतीय प्रयाज का नाम इड है । यह विचित्र है कि चक्षु वर्षा से सम्बन्धित है ( शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४) । कहा गया है कि जैसे वर्षा आर्द्र है, वैसे ही चक्षु भी आर्द्र है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में सप्तदश स्तोम के साथ जमदग्नि ऋषि को सम्बद्ध किया गया है जिसका कार्य भूमा बनना, भूमानन्द प्राप्त करना है । भागवत पुराण के तृतीय स्कन्ध में कर्दम ऋषि व उसकी पत्नी देवहूति विष्णु के अवतार कपिल को पुत्र रूप में प्राप्त करते हैं तथा कपिल उन्हें मोक्ष की शिक्षा देते हैं । इस कथा के संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि वैदिक साहित्य में यह प्रसिद्ध है कि वर्षा मण्डूक आदि की अभीप्सा के फलस्वरूप होती है, वैसे ही जैसे भौतिक जगत में वर्षा जलती हुई पृथिवी और वृक्षों की अभीप्सा के फलस्वरूप होती है । भागवत पुराण में इस अभीप्सा को कर्दम - पत्नी देवहूति, देवों का आह्वान करने वाली के रूप में दिखाया गया है, ऐसा प्रतीत होता है । यह ध्यान देने योग्य है कि पृष्ठ्य षडह के केवल तृतीय दिन के ही नहीं, अपितु कईं दिनों के कईं मन्त्रों में देवहूति शब्द प्रकट होता है । आनन्द की वर्षा से कम्पन उत्पन्न होता है लेकिन इस कथा में कपिल के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि इस कम्पन को, कपि को नियन्त्रित करना है । अन्य कथा में कपिल के सामने अश्व स्थिर हो जाता है, लेकिन कपिल अपने क्रोध की अग्नि से, तृतीय चक्षु से सगर - पुत्रों को भस्म कर देते हैं । दूसरी ओर सहस्रबाहु अर्जुन द्वारा जमदग्नि की कामधेनु गौ को मांगने की कथा है जिसमें जमदग्नि सहस्रबाहु को कामधेनु देना अस्वीकार कर देते हैं लेकिन स्वयं सहस्रबाहु का प्रतिरोध नहीं करते, अपने क्रोध चक्षु का प्रयोग नहीं करते । तृतीय दिन के लक्षणों में जगती छन्द है जिसका चिह्न शतवत् सहस्रवत् होता है , किसी बडी शक्ति का शतवत्, सहस्रवत् होकर व्यक्तित्व के निचल स्तरों में बिखरना । वर्षा भी शतवत् सहस्रवत् होती है । लेकिन यह विचित्र है कि इस दिन का यह लक्षण होते हुए भी जमदग्नि सहस्रबाहु को यह अवसर नहीं देते । इस दिन के साम का नाम भी वैरूप है और यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि चक्षु का वैदिक साहित्य में क्या तात्पर्य हो सकता है । एक अर्थ तो सम्यक् दर्शन, सुदर्शन हो सकता है । सामान्य चक्षु बाहर से प्राप्त प्रकाश से देखते हैं, लेकिन आन्तरिक चक्षु स्वयं अपने अन्दर से उत्पन्न प्रकाश से देखता है । लेकिन यह चक्षु शतवत् सहस्रवत् क्यों नहीं बना, यह अन्वेषणीय है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.७ में वर्षा ऋतु में अन्य सब ऋतुओं के समावेश को दिखाया गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में पर्जन्य को या चक्षु को वर्षा कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में वर्षा ऋतु को एवा कहा गया है, ४.४.१२.२ में सलिल वात द्वारा वर्षा ऋतु की रक्षा का उल्लेख है, ७.३.१०.२ में वर्षा ओषधि प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ में वर्षा ऋतु में आदित्यों की स्तुति का निर्देश है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से तथा हेमन्त मद से सम्बन्धित हो सकती है । इस क्रम से वर्षा या शरद् ऋतु लोभ से सम्बन्धित होनी चाहिए । हो सकता है कि सहस्रबाहु द्वारा जमदग्नि की कामधेनु मांगने में लोभ निहित हो ।

शरद ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह के चतुर्थ अह के लक्षणों में वैराज साम, एकविंश स्तोम, अनुष्टुप् छन्द, अक्षर, श्रोत्र आदि हैं ( शतपथ ब्राह्मण  ८.१.२.४ ) । चतुर्थ प्रयाज का लक्षण बर्हि है । इस ऋतु के ऋषि के संदर्भ में मतभेद हो सकता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में एकविंश स्तोम से गोतम ऋषि को सम्बद्ध किया गया है जिसकी कामना प्रजा के लिए श्रद्धा प्राप्त करने की है । श्रद्धा का अर्थ है शृत, पके हुए को धारण करने वाला, अन्य शब्दों में सबसे अधिक पका हुआ अन्न, सोम । भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में पृथु द्वारा पृथिवी को नियन्त्रित करके उसे गौ का रूप धारण करने तथा सारी प्रजा, देव, ऋषि, गन्धर्व, सर्प आदि के लिए दुग्ध देने का वर्णन है । अन्य संदर्भों में कृष्ण द्वारा इन्द्रयष्टि याग को रोककर गौ व गोवर्धन पूजा और इन्द्र द्वारा क्रोध से अतिवृष्टि करने आदि का वर्णन है । इन सभी कथाओं में अन्नाद्य प्राप्ति का वैदिक और पौराणिक वर्णन स्पष्ट रूप से समान है । इसके अतिरिक्त चतुर्थ स्कन्ध में ध्रुव की कथा है । पृष्ठ्य षडह के चतुर्थ दिवस के कृत्यों में तृतीय सवन में षोडशी ग्रह की प्रतिष्ठा की जाती है । षोडशी ग्रह अक्षर होता है । हो सकता है कि षोडशी ग्रह का ध्रुव से सम्बन्ध हो । शरद ऋतु के लक्षणों में श्रोत्र ( शतपथ ब्राह्मण  ५.२.१.४) का सम्मिलित होना उतना ही विचित्र है जितना वर्षा ऋतु में चक्षु का । जाबालदर्शनोपनिषद  २.६ का कथन है कि श्रौत और स्मार्त से उत्पन्न विश्वास को आस्तिक्य कहा जाता है । शरद ऋतु में केवल श्रोत्र का उल्लेख है । श्रोत्र का अर्थ हो सकता है कि यदि हमारे व्यक्तित्व में आनन्द का कोई छोटा सा भी स्पन्दन उत्पन्न हो तो हम उसे सुरक्षित रखने में, उसका परिवर्धन करने में समर्थ हों, वैदिक साहित्य के अनुसार श्रोत्र दिशाओं में बदल जाएं । पौराणिक रूप में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई लगती है कि कार्तिक माहात्म्य में जालन्धर के आख्यान में पहले शिव के क्रोध की ज्वाला से ज्वालन्धर या जालन्धर की उत्पत्ति होती है और उसके पश्चात् शङ्खचूड की कथा आती है जिसके पास शिव का एक रक्षा कवच है जिससे वह अजेय है । कवच का अर्थ होता है चेतना के एक भाग का विशेष रूप से विकसित होकर सारे शरीर के अङ्गों की रक्षा में संलग्न होना । लगता है वैदिक साहित्य का श्रोत्र पौराणिक साहित्य में शङ्खचूड के रूप में प्रकट हुआ है ।

भागवत पुराण आदि में शरद ऋतु में कृष्ण के गोपियों से रास के संदर्भ में, शरद ऋतु के मासों का नाम इष व ऊर्ज है । सोमयाग में सदोमण्डप के मध्य में उदुम्बर काष्ठ के औदुम्बरी नामक स्तम्भ की स्थापना की जाती है जो पृथिवी के ऊर्क् का प्रतीक है । वैदिक साहित्य में उदुम्बर शब्द की निरुक्ति इस रूप में की जाती है कि जो सब पापों से मुक्त कर दे ( अयं में सर्वस्मात् पापात् उदभार्षीद् इति ) । औदुम्बरी स्तम्भ के नीचे बैठकर सामवेदी ऋत्विज स्तोत्र गान करते हैं । अतः वैदिक साहित्य के अनुसार यह स्थिति गान की, रास की है । औदुम्बरी के पाप को दूर करने का तथ्य इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मैत्रायणी उपनिषद  ७.४ आदि में शरद ऋतु के लक्षणों में पवित्र का उल्लेख है । वाल्मीकि रामायण व तुलसीदास के रामचरितमानस में भी शरद् ऋतु में पाप से पवित्र होने, वर्षा ऋतु के जल के स्वच्छ होने आदि का वर्णन आता है ( वर्षा विगत शरद ऋतु आई । लक्ष्मण देखहु परम सुहाई । उदित अगस्त्य पन्थ जल सोखा । आदि ) । दीपावली पर्व पर गणेश और लक्ष्मी की साथ - साथ अर्चना भी यहां रहस्यपूर्ण है । लगता है पवित्र करने का कार्य गणेश का और आनन्द की स्थिति उत्पन्न करने का कार्य श्री का है । इस संदर्भ में चातुर्मास याग के अन्तिम चतुर्थ पर्व शुनासीर याग का भी उल्लेख यहां महत्त्वपूर्ण है । वैदिक साहित्य में शुनः का अर्थ शुनम् या शून्य और सीर का अर्थ श्री किया गया है । शरद् ऋतु से सम्बन्धित चतुर्थ प्रयाज के बर्हि लक्षण के संदर्भ में, जैसा कि अन्यत्र भी कहा जा चुका है, वैदिक साहित्य में एक प्रस्तर होता है, एक बर्हि । प्रस्तर को सीमित रोमांच और बर्हि को सार्वत्रिक रोमांच कहा जा सकता है । तैत्तिरीय संहिता  २.६.१.२ से इसकी पुष्टि होती प्रतीत होती है । इसके अनुसार बर्हि से देवयान पथ की प्राप्ति होती है । यह आगे देखना होगा कि क्या पितरों से सम्बन्धित स्वधा का बर्हि से कोई सम्बन्ध है ? क्योंकि हेमन्त ऋतु के प्रयाज का लक्षण देवों से सम्बन्धित स्वाहा है । दूसरी ओर शरद को बर्हि कहा गया है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.८ में विद्योतन को शरद कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.२.६ में विश्वामित्र ऋषि को श्रोत्र व शरद के साथ सम्बद्ध किया गया है । तैत्तिरीय संहिता  ४.४.७.१ में शरद को ऊमा कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ७.३.१०.२ में शरद व्रीहि प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण  २.६.१९.२ के अनुसार शरद् में ऋभुओं की स्तुति की जाती है । तैत्तिरीय आरण्यक  १.४.१ में शरद ऋतु के संदर्भ में ऋभुओं के कनक समान वर्ण वाले वस्त्रों का उल्लेख है । शरद ऋतु में दु:खित नेत्रों के प्रसन्न हो जाने, शरद द्वारा अन्न प्रदान करने, जीवन प्रदान करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय आरण्यक  ५.६.६ में शरद ऋतु के लिए हृदे त्वा मनसे त्वा का उल्लेख है । ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं में पूर्वी शरद: का उल्लेख आता है । यह पूर्वी शरद: कौन सी हैं, यह अन्वेषणीय है । इसके अतिरिक्त कई ऋचाओं में १०० शरदों द्वारा आयु प्राप्त करने के भी उल्लेख आते हैं ।

पञ्चम हेमन्त ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह के पञ्चम दिन के लक्षणों में महानाम्नी साम, त्रिणव स्तोम, पंक्ति छन्द आदि हैं ( शतपथ ब्राह्मण  ८.१.२.८ ) । वैदिक साहित्य में कहीं - कहीं हेमन्त व शिशिर ऋतुओं को मिला दिया गया है । मैत्रायणी उपनिषद में इस ऋतु के लक्षणों में विगत निद्रा, विजर, विमृत्यु, विशोक आदि भी हैं । पृष्ठ्य षडह में पंचम दिन महानाम्नी साम का गान होता है जिसके संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण में व्याख्या की गई है कि प्राण उत्पन्न होकर प्रजापति से नाम और अन्न की मांग करते हैं और प्रजापति उन्हें ५ बार नाम आदि प्रदान करते हैं । इस ऋतु का रहस्य विष्णुधर्मोत्तर पुराण में हेमन्त में वास्तु प्रतिष्ठा करने और शिशिर में नगर प्रवेश के निर्देश से खुलता है । शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि वास्तु रूप रौद्र प्राणों को स्विष्टकृत् बनाना है, वह अग्नि जो केवल इष्ट ही करे, अनिष्ट नहीं । नाम देने के संदर्भ में कहा गया है कि नाम वह है जिसे सुनकर सोए हुए प्राण जाग उठते हैं । भागवत के पञ्चम स्कन्ध में भरत के जन्मान्तरों का तथा अन्तिम जन्म में जड भरत द्वारा सौवीरराज की शिबिका का वहन व उसे शिक्षा देने का वर्णन है । भरत का अर्थ है, दिव्य ज्योति का, आनन्द का भरण करने वाला । लेकिन विशेष बात यह है कि जहां कपिल कम्पन को केवल नियन्त्रित करता है, जड भरत तो आनन्द से भी जड अवस्था में ही रहता है ।

भागवत के दशम स्कन्ध में हेमन्त ऋतु के संदर्भ में कृष्ण द्वारा गोपियों के चीर हरण की कथा है । इस कथा की एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि गोपियां नग्न होकर आनन्द के जल में स्नान कर रहीं हैं । विद्या प्राप्ति रूपी वस्त्र इस आनन्द को नियन्त्रित कर सकता है । भागवत के पांचवें स्कन्ध में च्यवन व सुकन्या का आख्यान भी है और जैमिनीय ब्राह्मण में इस आख्यान को च्यवन के वास्तु में स्थित होने के रूप में वर्णन किया गया है । आख्यान में च्यवन इन्द्र पर नियन्त्रण करने के लिए मद असुर को उत्पन्न करता है । जैसा कि पहले कहा गया है, वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से सम्बन्धित हो सकती है । अतः इस ऋतु के संदर्भ में मद का उल्लेख विचारणीय है ।

शतपथ ब्राह्मण  ५.२.१.४ में हेमन्त को पृष्ठ कहा गया है । पृष्ठ दृष्टि से परे होता है। हो सकता है कि वर्तमान काल में प्रचलित अचेतन मन की प्राचीन संज्ञा पृष्ठ हो। जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में हेमन्त को मन कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में हेमन्त को सब्दा: कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ७.३.१०.२ में हेमन्त व शिशिर माष व तिल प्राप्त करती हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.२ में हेमन्त में मरुतों की स्तुति का निर्देश है । तैत्तिरीय आरण्यक १.४.२ में हेमन्त में अक्रुद्ध योद्धा की क्रुद्ध लोहित वर्ण की अक्षियों का उल्लेख है ।

शिशिर ऋतु के संदर्भ में, पृष्ठ्य षडह के छठे दिन के लक्षणों में रैवत वारवन्तीयं साम, त्रयस्त्रिंशत् स्तोम आदि हैं । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इस ऋतु में नगर में प्रवेश का निर्देश है । स्कन्द पुराण का नागर खण्ड ( या षष्ठम् स्कन्ध ) नगर शब्द की निरुक्ति न - गर, गर से रहित के रूप में करता है । इस खण्ड के वर्णन के अनुसार नगर में सर्पों के विष से उपद्रव उत्पन्न नहीं होना चाहिए, सर्प पाताल में चले जाने चाहिएं । इसके अतिरिक्त इस खण्ड में तक्षक - पत्नी रेवती के जन्मान्तरों का भी वर्णन है । हानि पहुंचाने वाली तक्षक - पत्नी रेवती जन्मान्तर में क्षेमङ्करी बनी । इसके अतिरिक्त पुराणों में रेवती की विभिन्न कथाएं आती हैं । एक कथा में रेवती बहुत ऊंची थी, बलराम ने उसे हल की नोक से खींच कर छोटी बना लिया । व्यावहारिक रूप में रेवती क्या है, उसका नियन्त्रण कैसे करना है, यह अन्वेषणीय है । नागर खण्ड में पिप्पलाद आदि की उत्पत्ति के जो अन्य आख्यान हैं, उनकी भी सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । भागवत पुराण दशम स्कन्ध में हेमन्त ऋतु तक की तो कथा आती है, उससे आगे अक्रूर के व्रज गमन और कृष्ण के मथुरा आगमन का वृत्तान्त आरम्भ हो जाता है । तैत्तिरीय आरण्यक के आधार पर ऐसा लगता है कि यहां अक्रूर का उल्लेख शिशिर ऋतु से ही सम्बन्धित है तथा कृष्ण का मथुरा नगर में प्रवेश भी शिशिर ऋतु के संदर्भ में ही सोचा जाना चाहिए । शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४ में शिशिर को यज्ञ कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में दिव्य आपः को शिशिर कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में शिशिर को सगर ( तुलनीय पुराणों का नगर ) कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.१२.४ में शिशिर के संदर्भ में विवस्वत् वात का उल्लेख है । तैत्तिरीय आरण्यक १.४.३ में शिशिर ऋतु में देवलोक में दुर्भिक्ष, मनुओं के गृहों में उदक की उपलब्धि तथा वैद्युत प्रकृति का उल्लेख है । इस ऋतु में अक्षि अति ऊर्ध्व, अतिरश्ची रहती है । न रूप दिखाई देता है, न वस्त्र, न चक्षु ।

वैदिक साहित्य में बहुत से स्थानों ( शतपथ ब्राह्मण  २.४.४.२४, ५.४.१.३, ८.१.१.५, ८.६.१.१६, जैमिनीय ब्राह्मण २.५२, तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१, ४.४.१२.१ ) पर ऋतुओं का वर्णन दिशाओं के सापेक्ष किया गया है - वसन्त ऋतु पूर्व में, ग्रीष्म दक्षिण, वर्षा पश्चिम, शरद् उत्तर, हेमन्त व शिशिर मध्य में या ऊर्ध्व - अधो दिशाओं में । शतपथ ब्राह्मण १०.४.५.२ में ऋतुओं की कल्पना संवत्सर अग्नि के अङ्गों के रूप में की गई है । लेकिन शतपथ ब्राह्मण  ६.१.२.१८,  ७.४.२.२९(वसन्त),  ८.२.१.१६(ग्रीष्म),  ८.३.२.५(वर्षा, शरद),  ८.४.२.१४(हेमन्त),  ८.७.१.५(शिशिर),  १०.४.३.१५,  १३.६.१.१०(५ चितियां), तैत्तिरीय संहिता ४.४.११.१, ५.३.१.१, ५.३.११.३, ५.४.२.१ आदि में चिति निर्माण के संदर्भ में चितियों का चयन ऊर्ध्वमुखी दिशा में करते हैं जिसमें वसन्त ऋतु प्रथम चिति में होती है और हेमन्त व शिशिर सबसे ऊपर की चिति में । इन्हें ऋतव्येष्टका नाम दिया गया है । यह अन्वेषणीय है कि क्या दिशाओं के सापेक्ष ऋतुओं का वर्णन तिर्यक दिशा में प्रगति को और ऊर्ध्व दिशा में ऋतव्येष्टकाओं का चयन ऊर्ध्वमुखी प्रगति को निर्दिष्ट करता है ? ऊर्ध्व दिशा में इष्टका चयन का अर्थ होगा कि जड तत्त्व में चेतन तत्त्व को लगातार प्रबल बनाया जा रहा है । जड तत्त्व में चेतन तत्त्व के प्रवेश के रूप में उषा को सर्वप्रथम लिया जाता है (तैत्तिरीय संहिता  ४.३.११.५ में उषा को ऋतुओं की पत्नी कहा गया है ) । फिर जैसे - जैसे दिन का विकास होता है, चेतन तत्त्व प्रबल होता जाता है । शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.९ में दिन के विकास का विभाजन ऋतुओं में किया गया है । वसन्त ऋतु प्रातःकाल, संगव ग्रीष्म, मध्यन्दिन वर्षा, अपराह्न शरत् और अस्त को हेमन्त कहा गया है । सोमयाग के एक दिन में स्तोमों का विभाजन भी इसी प्रकार है ।

ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रायः ऋतुथा शब्द प्रकट हुआ है ( उदाहरणार्थ ऋग्वेद २.४३.१, ५.३२.१२, ६.९.३ आदि ) । तैत्तिरीय संहिता में संभवतः ऋतुस्था शब्द के द्वारा ऋतुथा शब्द की व्याख्या की गई है । शतपथ ब्राह्मण २.२.३.८ आदि में वर्षा ऋतु में अन्य सब ऋतुओं का समावेश दिखाया गया है और यह विचारणीय है कि इस आधार पर ऋतुथा का रूप क्या हो सकता है । तैत्तिरीय संहिता २.१.११.२ में इन्द्र द्वारा मरुतों की सहायता से ऋतुधा करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ४.६.९.३ में अश्व के ऋतुथा बनाए गए अङ्गों का ही अग्नि में हवन करने का निर्देश है । तैत्तिरीय संहिता ५.२.१२.१ में शमिता द्वारा पशु के अङ्गों को ऋतुधा काटने का निर्देश है । तैत्तिरीय संहिता ५.५.८.१ में यज्ञायज्ञीय साम द्वारा ऋतुस्था स्थिति की प्राप्ति का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ५.७.६.५ व तैत्तिरीय आरण्यक ४.१९.१ में ऋतुस्था अग्नि के रूप के कल्पन में उसके शिर आदि अङ्गों में वसन्त आदि ऋतुओं की प्रतिष्ठा की गई है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.२.२ में स्वधिति/छुरी द्वारा वनस्पति से यूप के तक्षण के संदर्भ में ऋतुथा होकर स्वाद ग्रहण करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.३.४ में वनस्पति रूपी अग्नि द्वारा स्वयं ऋतुथा होकर हवि के आस्वादन का निर्देश है । अथर्ववेद १३.३.२ में वातों को ऋतुथा बनाने का निर्देश है । अथर्ववेद २०.१२५.३ में स्थूल के ऋतुथा बनने की संभावना को नकारा गया है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.४.४.२५,  ११.२.७.२,  ११.२.७.३२ आदि में ५ ऋतुओं का तादात्म्य ५ ऋत्विजों से स्थापित किया गया है । शतपथ  ११.२.७.३२ में ऋतुओं का ऋत्विजों से जो तादात्म्य है, वह ऋग्वेद  २.३६ के क्रम से भिन्न है। शतपथ ब्राह्मण  ४.२.५.९ के अनुसार यजमान सूर्य है और ऋत्विज ऋतुएं । ऋतु रूपी ऋत्विज सूर्य रूपी यजमान को द्युलोक में स्थापित करते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.९.४ में वैश्वसृज दक्षिणा के संदर्भ में ऋतुओं के सदस्य बनने का उल्लेख है ।

यज्ञ कर्म में ऋतुओं के प्रयोग के संदर्भ में, सोमयाग में प्रातःकाल सर्वप्रथम ऋतुयाज नामक कृत्य होता है जिसमें विभिन्न ऋत्विज ऋतुग्रहों द्वारा सोम की आहुति देते हैं । इस संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण  ४.३.१.३, तैत्तिरीय संहिता  ६.५.३.१, ऋग्वेद १.१५, २.३७ द्रष्टव्य हैं । विशेष बात यह है कि ऋतु ग्रहों के पाद अश्व के खुर जैसे होते हैं और उन्हें द्विमुखी कहा गया है । यह प्रसिद्ध है कि अश्व अपने खुरों से सोम का, सुरा का सम्पादन, सिञ्चन करता है । शतपथ ब्राह्मण  ४.३.१.७ में ऋतुग्रहों को द्विमुखी बताया गया है । पुराणों में द्विमुखी गौ के दान के निर्देश आते हैं । कहा जाता है कि प्रसूत काला गौ, जिसकी योनि से वत्स का सिर बाहर निकल रहा हो, वह द्विमुखी गौ है । ऋतुओं के संदर्भ में इस तथ्य की सम्यक व्याख्या अपेक्षित है । ऋतु याज में वौषट् उच्चारण के संदर्भ में ऐतरेय ब्राह्मण  ३.६ का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि वौषट् शब्द के उच्चारण में असौ तो वौ हो सकता है और षट् ६ ऋतुएं । इस प्रकार संवत्सर को ऋतुओं में प्रतिष्ठित करते हैं । यज्ञ में वौषट् कहकर असुरों का नाश किया जाता है । ऋतुयाज में अनुवषट्कार ( सोमस्याग्ने वीहि वौषट् ) के उच्चारण का निषेध है ( शतपथ ब्राह्मण  ४.३.१.८, ऐतरेय ब्राह्मण  २.२९ ) । शतपथ ब्राह्मण  ४.५.५. ८ में ऋतुग्रहों का सम्बन्ध एकशफ पशुओं से जोडा गया है, अन्य प्रकार के पशुओं का अन्य पात्रों से । जैमिनीय ब्राह्मण  १.२४६ में ऋतुओं को मृत्यु - रूप संवत्सर के मुख कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता  २.६.९.१ व ६.६.१.५ में अग्नि को ऋतुओं के मुख कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ६.५.५.१ के अनुसार वृत्र का वध करते समय इन्द्र से ऋतुएं दूर भाग गई । तब ऋतुपात्र द्वारा मरुत्वतीय ग्रहण करने पर उसने ऋतुओं को जाना । ऐतरेय ब्राह्मण  २.२९ में ऋतुयाज के संदर्भ में ऋतुना को प्राण से और ऋतुभि: को अपान व व्यान से सम्बद्ध किया गया है ।

शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.२८ में अश्वमेध के संदर्भ में प्रत्येक ऋतु में आलभन किए जाने वाले पशुओं के देवता आदि दिए गए हैं । तैत्तिरीय संहिता ५.५.१८.१ में ऋतुओं के पशु जहका का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.९.३ में अश्वमेध में ऋतुओं की पुनः प्राप्ति के लिए ३ पिशङ्ग वासन्त पशुओं के आलभन का निर्देश है ।

तैत्तिरीय आरण्यक  ५.६.५ आदि में प्रवर्ग्य के संदर्भ में ऋतुओं के लक्षणों का कथन है । प्रवर्ग्य इष्टि घर्म के विकास से सम्बन्धित होती है । अतः इसमें ऋतुओं सम्बन्धी कथन भी घर्म द्वारा उत्पन्न ऋतुओं से सम्बन्धित होने चाहिएं । ऐसा लगता है कि ऋतुएं स्थूल भौतिक स्तर से लेकर ऊपर के सूक्ष्म होते जाते स्तरों के विषय में भी ठीक बैठती हैं । अथर्ववेद  ९.५.३१ में ऋतुओं के नाम क्रमशः निदाघ, संयन्त, पिन्वन्त, उद्यन्त, अभिभू हैं । यह नाम अज पञ्चौदन को पकाने के संदर्भ में हैं । अथर्ववेद  ११.३.१७ में बार्हस्पत्य ओदन को पकाने के संदर्भ में ऋतुओं को पकाने वाली, आर्त्तवों को समिन्धन करने वाले तथा घर्म को अभीन्धन करने वाला कहा गया है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.१.३.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.१०.५ आदि में वसन्त, ग्रीष्म व वर्षा को देव ऋतुएं व शरद, हेमन्त व शिशिर को पितर ऋतुएं कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण  २.६.१.२ के अनुसार वसन्त, ग्रीष्म व वर्षा वृत्र से लडने में जीत गई, लेकिन शरद्, हेमन्त व शिशिर की मृत्यु हो गई । उन्हें पितृयज्ञ द्वारा पुनः जीवित करना पडता है । शतपथ ब्राह्मण  २.६.१.४ में ६ ऋतुओं को ही पितर कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण  ७.१.१.४३ में उखा के संदर्भ में ऋतुओं को विश्वेदेवा कहा गया है (विश्वेदेवा पितरों का समष्टिरूप होते हैं) । तैत्तिरीय संहिता में षड्-वा ऋतव: वाक्य की अत्यधिक पुनरावृत्ति की गई है जो इस वाक्य के अन्तर्निहित महत्त्व की ओर इंगित करता है ।

यह विचारणीय विषय है कि ऋतुओं की व्याख्या में सरस्वती रहस्योपनिषद का परिचित सूत्र अस्ति, भाति, प्रिय, नाम व रूप कितना सहायक हो सकता है । अन्य चिर परिचित सूत्र अन्नमय, प्राणमय आदि ५ कोशों का है । अन्य सूत्र मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का हो सकता है ।


प्रथम लेखन : २१-१२-२००४ ई.

All of us face ritus or seasons which change every year. Apparently it is so simple. But mystically, the whole Indian mythology has been woven around ritu and year. In mythology, ritus are supposed apparently to ripen the food. A deeper meaning of this statement can be sought from sacred vedic and puranic texts. Sun is the donor and ritus/seasons are the acceptors of energy.This way, cereals or foods are prepared in nature. One can extend this statement even further. The combination of sun, moon and seasons can be considered as soul, mind and body. Consciousness has to be firmly established in body. And the level of consciousness goes from lower to higher and still higer stages. This is the ripening of food about which sacred texts may be talking of(for details,one can read websites related to Steiner's work on astrology. He has attributed different stages of consciousness to different planets).Let this human being be fully ripe with supermental powers. An attempt will be made here to unravel the mystry of ritu - what it may signify in vedic, sacrificial and puranic literature. There seems to be no direct revelation either in puranic or vedic literature of what ritu/season can be. Only guess can be made. The best picture can be formed when we know the nature of different chhandas or meters.

संदर्भ

ऋतु

*वेदे: परिग्रहः :- स वै त्रिः पूर्वं परिग्रहं परिगृह्णाति, त्रिरुत्तरम्। तत् षट्कृत्वः, षड् वा ऋतवः संवत्सरस्य। संवत्सरो यज्ञः प्रजापतिः - - - शतपथ ब्राह्मण १.२.५.१२

*यज्ञस्य पुरुषतादात्म्येन स्तुतिः :- अथ यान्याज्यानि गृह्यन्ते - ऋतुभ्यस्तद् गृह्णाति, प्रयाजेभ्यो हि तद् गृह्णाति। ऋतवो हि प्रयाजाः , तत्तदनादिश्य - आज्यस्यैव रूपेण गृह्णाति - अजामितायै। जामि ह कुर्याद् - यद्वसन्ताय त्वा ग्रीष्माय त्वेति गृह्णीयात् तस्मादनादिश्य - आज्यस्यैव रूपेण गृह्णाति। - श.ब्रा.  १.३.२.७

*परिधि परिधानम् : अथ यां द्वितीयां समिधमभ्यादधाति वसन्तमेव तया समिन्धे। स वसन्तः समिद्धोऽन्यानृतून् समिन्धे। ऋतवः समिद्धाः प्रजाश्च प्रजनयन्ति, ओषधीश्च पचन्ति। सोऽभ्यादधाति - समिदसि इति। समिद्धि वसन्तः। - श.ब्रा.  १.३.४.७

*प्रयाज ब्राह्मणम् : अथ स्वाहा - स्वाहा इति यजति। अन्तो वै यज्ञस्य स्वाहाकारः, अन्त ऋतूनां हेमन्तः - वसन्ताद्धि परार्द्ध्यः। - - - - - - - तद्वा एतद् - वसन्त एव हेमन्तात् पुनरसुः, एतस्माद्ध्येष पुनर्भवति। - श.ब्रा.  १.५.३.१३

प्रयाजानामिष्टौ प्राथम्यम् : ऋतवो ह वै देवेषु यज्ञे भागमीषिरे, आ नो यज्ञे भजत, मा नो यज्ञादन्तर्गत, अस्त्वेव नोऽपि यज्ञे भाग इति। तद्वै देवा न जज्ञुः। त ऋतवो देवेष्वजानत्स्वसुरानुपावर्तन्त - अप्रियान् देवानां द्विषतो भ्रातृव्यान्। - - - - - - - - ते (देवाः) होचुः - ऋतूनेवानुमन्त्रयामहै इति। केनेति। प्रथमानेवैनान् यज्ञे यजाम इति। - - - - - - - ते देवा अग्निमब्रुवन् - परेहि, एनांस्त्वमेवानुमन्त्रयस्व इति। स हेत्याग्निरुवाच - ऋतवः, अविंद वै वो देवेषु यज्ञे भागमिति। कथं नोऽविदः इति, प्रथमानेव वो यज्ञे यक्ष्यन्ति इति। त ऋतवोऽग्निमब्रुवन् आ वयं त्वामस्मासु भजामो यो नो देवेषु यज्ञे भागमविद इति। स एषोऽग्निर्ऋतुष्वाभक्तः - समिधोऽअग्ने - तनूनपादग्ने - इडोऽअग्ने, बर्हिरग्ने, स्वाहाग्निम् इति। - - - - - अग्निमते ह वा अस्मा अग्निमन्त ऋतव ओषधीः पचन्तीदं सर्वम् , य एवमेतमग्निमृतुष्वाभक्तं वेद। - श.ब्रा.  १.६.१.५-८

*पूर्णमासोपचारः :- स वै संवत्सर एव प्रजापतिः, तस्यैतानि पर्वाणि - अहोरात्रयोः सन्धी, पौर्णमासी च अमावास्या च ऋतुमुखानि। - - - - - - - - चातुर्मास्यैरेवर्तुमुखानि तत्पर्वाभिषज्यन् - तत् समदधुः। - श.ब्रा. १.६.३.३५

*अग्न्याधाने सम्भरण ब्राह्मणम् : तान्वा एतान् पञ्च सम्भारान् सम्भरति। पाङ्क्तो यज्ञः। पाङ्क्तः पशुः। पञ्चर्तवः संवत्सरस्य। तदाहुः - षडेवर्त्तवः संवत्सरस्य इति। न्यूनमु तर्हि मिथुनं प्रजननं क्रियते। न्यूनाद्वा इमाः प्रजाः प्रजायन्ते। - - - - - यद्यु षडेवर्तवः संवत्सरस्येति। अग्निरेवैतेषां षष्ठः, तथो एवैतदन्यूनं भवति। - श.ब्रा.  २.१.१.१३

*पुनराधानम् : (अग्नयेऽनुब्रूहि , हविषोऽग्निं यज, अग्नये स्विष्टकृतेऽनुब्रूहि, अग्निं स्विष्टकृतं यज , देवान् यज, अग्नीन् यजेत्येवैतदाह) ता वा एताः षड् विभक्तीर्यजति। चतस्रः प्रयाजेषु, द्वे अनुयाजेषु। षड् वा ऋतवः। ऋतून् प्राविशत्। ऋतुभ्य एवैनमेतन्निर्मिमीते। - - - - - सम्वत्सरमृतून् प्राविशत्। ऋतुभ्य एवैनमेतत् संवत्सरान्निर्म्मिमीते - श.ब्रा.  २.२.३.२६

*दाक्षायण यज्ञो वसिष्ठ यज्ञः :- अथ दिशो व्याघारयति। दिशः प्रदिश आदिशो विदिश उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा इति। पञ्ज दिशः। पञ्चर्तवः। तदृतुभिरेवैतद्दिशो मिथुनीकरोति। - श.ब्रा.  २.४.४.२४

*तद्वै पञ्चैव भक्षयन्ति - होता च, अध्वर्युश्च, ब्रह्मा च, अग्नीच्च, यजमानः। पञ्च वा ऋतवः। तदृतूनामेवैतद्रूपं क्रियते। तदृतुष्वेवैतद्रेतः सिक्तं प्रतिष्ठापयति। प्रथमो यजमानो भक्षयति। प्रथमो रेतः परिगृह्णानीति। - -- - - - - - श.ब्रा.  २.४.४.२५

*सर्वशेषः :- स यस्मिन् ह ऋतावमुं लोकमेति। स एनमृतुः परस्मा ऋतवे प्रयच्छति। पर उ परस्मा ऋतवे प्रयच्छति। स परममेव स्थानं, परमां गतिं गच्छति, चातुर्मास्ययाजी - श.ब्रा.  २.६.४.९

*आग्नावैष्णवीष्टिः :- तद्यत्पञ्चकृत्व आनक्ति। संवत्सरसंमितो वै यज्ञः। पञ्च वा ऋतवः संवत्सरस्य तं पञ्चभिराप्नोति। - श.ब्रा.  ३.१.३.१७

*ग्रहयागाः :- तमंशुभिः पावयति - पूतोऽसदिति। षड्भिः पावयति। षड् वाऽऋतवः। - श.ब्रा. ४.१.१.३

*अथ यदत्र बहिष्पवमानेन स्तुवते। अत्र ह वाऽअसावग्रऽआदित्य आस। तमृतवः परिगृह्यैवात ऊर्ध्वाः स्वर्गं लोकमुपोदक्रामन्। स एष ऋतुषु प्रतिष्ठितस्तपति। तथोऽएवैतदृत्विजो यजमानं परिगृह्यैवात ऊर्ध्वाः स्वर्गं लोकमुपोत्क्रामन्ति। - श.ब्रा. ४.२.५.९

*ऋतुग्रहा: :- स वै सन्नेऽच्छावाके ऋतुग्रहैश्चरति। तद् यत्सन्नेऽच्छावाकऽऋतुग्रहैश्चरति। मिथुनं वाऽअच्छावाकः। ऐन्द्राग्नो ह्यच्छावाकः। द्वौ हीन्द्राग्नी। द्वंद्वं हि मिथुनं प्रजननम्। - - - - - यद्वेव सन्नेऽच्छावाके ऋतुग्रहैश्चरति। सर्वं वाऽऋतवः संवत्सरः। सर्वमेवैतत्प्रजनयति। तस्मात्सन्नेऽच्छावाकऽऋतुग्रहैश्चरति। - श.ब्रा.  ४.३.१.३

*द्रोणकलशाद् गृह्णाति। प्रजापतिर्वै द्रोणकलशः। स एतस्मात्प्रजापतेर~ऋतून् संवत्सरं प्रजनयति। उभयतोमुखाभ्यां पात्राभ्यां गृह्णाति। कुतस्तयोरतो - येऽउभयतोमुखे। तस्मादयमनन्तः संवत्सरः परिप्लवते। तं गृहीत्वा न सादयति। तस्मादयमसन्नः संवत्सरः। - श.ब्रा.  ४.३.१.६

*नानुवाक्यामन्वाह। ह्वयति वाऽअनुवाक्यया। आगतो ह्येवायमृतुः। यदि दिवा। यदि नक्तम्। नानु वषट् करोति - नेदृतूनपवृणजाऽइति। - श.ब्रा. ४.३.१.८

*तौ वाऽऋतुनेति षट् प्रचरतः। तद् देवा अहरसृजन्त। ऋतुभिरिति चतुः। तद्रात्रिमसृजन्त। - - - - - - - - तौ वाऽऋतुनेत्युपरिष्टाद्द्विश्चरतः। तद् देवाः परस्तादहरददुः। तस्मात् इदम् अद्याहः। - श.ब्रा.  ४.३.१.११

*ऋतुनेति वै देवा मनुष्यानसृजन्त, ऋतुभिरिति पशून्। स यत्तन्मध्ये - येन पशूनसृजन्त। तस्मादिमे पशव उभयतः परिगृहीता वशमुपेता मनुष्याणाम्। तौ वाऽऋतुनेति षट् प्रचर्य्य, इतरथा पात्रे विपर्यस्येते। ऋतुभिरिति चतुश्चरित्वा - इतरथा पात्रे विपर्यस्येते। - - - -श.ब्रा.  ४.३.१.१२

*अथातो गृह्णात्येव - उपयामगृहीतोऽसि मधवे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि माधवाय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव वासन्तिकौ। स यद्वसन्तऽओषधयो जायन्ते, वनस्पतयः पच्यन्ते। - - - - उपयामगृहीतोऽसि शुक्राय त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि शुचये त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव ग्रैष्मौ। स यदेतयोर्बलिष्ठं तपति - तेनो हैतौ शुक्रश्च शुचिश्च। उपयामगृहीतोऽसि नभसे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि नभस्याय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव वार्षिकौ, अमुतो वै दिवो वर्षति - तेनो हैतौ नभश्च नभस्यश्च। उपयामगृहीतोऽसि इषे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽस्यूर्जे त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव शारदौ। स यच्छरद्यूर्ग्रस ओषधयः पच्यन्ते - तेनो हैताविषश्चोर्जश्च। उपयाम गृहीतोऽसि सहसे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि सहस्याय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव हैमन्तिकौ। स यद्धेमन्त इमाः प्रजाः सहसेव स्वं वशमुपनयते। तेनो हैतौ सहश्च सहस्यश्च। उपयामगृहीतोऽसि तपसे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि तपस्याय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव शैशिरौ। स यदेतयोर्बलिष्ठं श्यायति - तेनो हैतौ तपश्च तपस्यश्च। उपयाम गृहीतोऽसि अंहसस्पतये त्वा। इति त्रयोदशं ग्रहं गृहणाति - यदि त्रयोदशं गृह्णीयात् - - - - -। न वाऽऋतुग्रहाणामनुवषट्कुर्वन्ति। एतेभ्यो वाऽऐन्द्राग्नं ग्रहं ग्रहीष्यन्भवति। - श.ब्रा.  ४.३.१.१४-२१

*यद्वेवैन्द्राग्नं ग्रहं गृह्णाति। सर्वं वाऽइदं प्राजीजनत् - य ऋतुग्रहानग्रहीत्। - - - - - श.ब्रा. ४.३.१.२२

*क्षत्रं वाऽइन्द्रः, विशो मरुतः। विशा वै क्षत्रियो बलवान्भवति। तस्मादाश्वत्थेऽऋतुपात्रे स्याताम्। कार्ष्मर्यमये त्वेव भवतः। - श.ब्रा. ४.३.३.६

*यद्वेवैन्द्राग्नं ग्रहं गृह्णाति। सर्वं वाऽइदं प्राजीजनत् - य ऋतुग्रहानग्रहीत्। - - - - - श.ब्रा. ४.३.१.२२

*क्षत्रं वाऽइन्द्रः, विशो मरुतः। विशा वै क्षत्रियो बलवान्भवति। तस्मादाश्वत्थेऽऋतुपात्रे स्याताम्। कार्ष्मर्यमये त्वेव भवतः। - श.ब्रा.  ४.३.३.६

*सावित्रग्रहः :- ऋतवो वै संवत्सरो यज्ञः। तेऽदः प्रातःसवने प्रत्यक्षमवकल्प्यन्ते - यदृतुग्रहान्गृह्णाति। अथैतत्परोऽक्षं माध्यन्दिने सवनेऽवकल्प्यन्ते - यदृतुपात्राभ्यां मरुत्वतीयान्गृह्णाति। न वाऽअत्रऽर्तुभ्य इति कञ्चन ग्रहं गृह्णन्ति। नऽर्तुपात्राभ्यां कश्चन ग्रहो गृह्यते। - श.ब्रा.  ४.४.१.२

*एष वै सविता य एष तपति। एष उऽएव सर्वऽऋतवः। तद् ऋतवः संवत्सरस्तृतीयसवने प्रत्यक्षमवकल्प्यन्ते। तस्मात्सावित्रं गृह्णाति। - श.ब्रा. ४.४.१.३

*यज्ञात्मक प्रजापतिः :- ऋतुपात्रमेवान्वेकशफं प्रजायते। तद्वै तत् पुनर्यज्ञे प्रयुज्यते। - - - - -इतीव वाऽऋतुपात्रम्। इति वैकशफस्य शिरः - श.ब्रा. ४.५.५.८

*पञ्च ह त्वेव तानि पात्राणि - यानीमाः प्रजा अनु प्रजायन्ते - समानमुपांश्वन्तर्यामयोः, शुक्रपात्रम्, ऋतुपात्रम्, आग्रयणपात्रम्, उक्थ्यपात्रम्। पञ्च वाऽऋतवः संवत्सरस्य। सम्वत्सरः प्रजापतिः। प्रजापतिर्यज्ञः। यद्यु षडेवऽर्तवः संवत्सरस्य - इत्यादित्यपात्रमेवैतेषां षष्ठम्। - श.ब्रा. ४.५.५.१२

*यूपारोहणम् : आयुर्यज्ञेन कल्पताम्, प्राणो यज्ञेन कल्पताम्, चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्, श्रोत्रं यज्ञेन कल्पताम्, पृष्ठं यज्ञेन कल्पताम्, यज्ञो यज्ञेन कल्पताम् इति। एताः षट् क्लृप्तीर्वाचयति। षड्वाऽऋतवः संवत्सरस्य। - श.ब्रा.  ५.२.१.४

*केशवपुरुषस्य प्रसंगः :- अथैनं दिशः समारोहयति - प्राचीमारोह गायत्री त्वाऽवतु रथन्तरं साम त्रिवृत्स्तोमो वसन्त ऋतुर्ब्रह्म द्रविणम्। दक्षिणामारोह त्रिष्टुप्त्वाऽवतु बृहत्साम पञ्चदश स्तोमो ग्रीष्म ऋतुः क्षत्रं द्रविणम्। प्रतीचीमारोह जगती त्वाऽवतु वैरूपं साम सप्तदश स्तोमो वर्षा ऋतुः, विड् द्रविणम्। उदीचीमारोहानुष्टुप्त्वाऽवतु। वैराजं साम, एकविंश स्तोमः, शरदृतुः, फलं द्रविणम्। ऊर्ध्वामारोह पङ्क्तिस्त्वाऽवतु शाक्वररैवते सामनी त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ हेमन्तशिशिरावृतू वर्चो द्रविणम् इति। तद्यदेनं दिशः समारोहयति। ऋतूनामेवैतद्रूपम्। - - - - श.ब्रा.  ५.४.१.३

*प्रजापतेश्चित्याग्निरूपता : तदेता वाऽअस्य ताः पञ्च तन्वो व्यस्रंसन्त - लोम, त्वक्, मांसम्, अस्थि, मज्जा। ता एवैताः पञ्च चितयः। - - - - - - - -अथ या अस्यैताः पञ्च तन्वो व्यस्रंसन्त - ऋतवस्ते। पञ्च वाऽऋतवः। पञ्चैताश्चितयः। तद्यत्पञ्च चितीश्चिनोति - ऋतुभिरेवैनं तच्चिनोति। - - - - - - - - अथ या अस्य ता ऋतवः पञ्च तन्वो व्यस्रंसन्त - दिशस्ताः। पञ्च वै दिशः। - - - - अथ यश्चितेऽग्निर्निधीयते - असौ स आदित्यः। स एष एवैषोऽग्निश्चितः। - श.ब्रा.  ६.१.२.१७

*प्राजापत्य पश्वनुष्ठानम् : मास आप्त ऋतुमाप्नोति। ऋतुः संवत्सरम्। तत्संवत्सरमग्निमाप्नोति। - श.ब्रा. ६.२.२.३५

*उखासम्भरणे पश्वभिमन्त्रणविधानं : अयं वो गर्भ ऋत्वियः प्रत्नं सधस्थमासदत् इति। अयं वो गर्भ ऋतव्यः सनातनं सधस्थमासददित्येतत्। - श.ब्रा. ६.४.४.१७

*वात्सप्रेण सूक्तेन उपस्थानम् : विष्णुक्रमैर्वै प्रजापतिर्ऋतूनसृजत। वात्सप्रेण संवत्सरम्। - श.ब्रा.  ६.७.४.७

*गार्हपत्याग्निचयनम् : अयं ते योनिर्ऋत्वियो यतो जातोऽअरोचथाः इति। अयं ते योनिर्ऋतव्यः सनातनो यतो जातोऽदीप्यथा इत्येतत्। - श.ब्रा.  ७.१.१.२८

*गार्हपत्याग्निचयनं : ता उभय्य एकविंशतिः सम्पद्यन्ते - द्वादश मासाः, पञ्चर्तवः, त्रय इमे लोकाः, असावादित्य एकविंशः। अमुं तदादित्यमस्मिन्नग्नौ प्रतिष्ठापयति। - श.ब्रा.  ७.१.१.३४

*मातेव पुत्रं पृथिवी पुरीष्यम् इति। - - - -अग्निं स्वे योनावभारुखा इति अग्निं स्वे योनावभार्षीदुखेत्येतत्। तां विश्वैर्देवैर्ऋतुभिः संविदानः प्रजापतिर्विश्वकर्मा विमुञ्चतु इति। ऋतवो वै विश्वे देवाः। तदेनां विश्वैर्देवैर्ऋतुभिः संविदानः प्रजापतिर्विश्वकर्मा विमुञ्चति। - श.ब्रा.  ७.१.१.४३

*ऋतव्येष्टकाद्वयोपधानम् : अथऽर्तव्येऽउपदधाति। ऋतव एते यदृतव्ये। ऋतूनेवैतदुपदधाति। मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू इति। - - - - -तस्यायमेव लोकः प्रथमा चितिः। अयमस्य लोको वसन्त ऋतुः। - श.ब्रा.  ७.४.२.३०

*प्रजा वै विश्वज्योतिः। अनन्तर्हितास्तत्प्रजा ऋतुभ्यो दधाति। तस्मात्प्रजा ऋतूनेवानुप्रजायन्ते। ऋतुभिर्ह्येव गर्भे सन्तं पश्यन्ति - ऋतुभिर्जातम्। - श.ब्रा.  ७.४.२.३१

*यद्वपस्याः पञ्च पुरस्तादुपदधाति। अन्नं वाऽआपः। अनपिहिता वाऽअन्नेन प्राणाः। तामनन्तर्हितामृतव्याभ्यामुपदधाति। ऋतुषु तद्वाचं प्रतिष्ठापयति। सेयं वागृतुषु प्रतिष्ठिता वदति। तदाहुः - यत्प्रजा विश्वज्योतिः, वागषाढा, अथ कस्मादन्तरेणऽर्तव्येऽउपदधातीति। संवत्सरो वाऽऋतव्ये। - - - - - - - श.ब्रा.  ७.४.२.३८

*पञ्चाशत्प्राणभृदिष्टकोपधानम् : तस्य प्राणो भौवायनः इति। प्राणं तस्माद्रूपादग्नेर्निरमिमीत। वसन्तः प्राणायनः इति। वसन्तमृतुं प्राणान्निरमिमीत। गायत्री वासन्ती इति - - - - - - - - - तस्य मनो वैश्वकर्मणम् इति। - - - - ग्रीष्मो मानसः इति। ग्रीष्ममृतुं मनसो निरमिमीत। त्रिष्टुब् ग्रैष्मी इति। - - - - - - - श.ब्रा.  ८.१.१.५

*पञ्चचितिकायां प्रथमा चितिः :- - - - - - अर्धमासास्ते कल्पन्ताम्। मासास्ते कल्पन्ताम्। ऋतवस्ते कल्पन्ताम्। संवत्सरस्ते कल्पताम्। - - - - सुपर्णचिदसि तया देवतयाऽङ्गिरस्वद्ध्रुवः सीद इति। - श.ब्रा.  ८.१.४.८

*ऋतव्येष्टकोपधानम् : अथऽर्तव्येऽउपदधाति। ऋतव एते - यदृतव्ये। ऋतूनेवैतदुपदधाति। शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू इति। नामनीऽएनयोरेते। नामभ्यामेवैनेऽएतदुपदधाति। द्वेऽइष्टके भवतः। द्वौ हि मासावृतुः । सकृत्सादयति। एकं तदृतुं करोति। - - - - - संवत्सर एषोऽग्निः। इम उ लोकाः संवत्सरः। तस्य यदूर्ध्वं पृथिव्याः, अर्वाचीनमन्तरिक्षात् - तदस्यैषा द्वितीया चितिः। तद्वस्य ग्रीष्म ऋतुः। तद्यदेते अत्रोपदधाति। यदेवास्यैतेऽआत्मनः - तदस्मिन्नेतत्प्रतिदधाति। श.ब्रा.  ८.२.१.१६

*एतद्वै प्रजापतिरेतस्मिन्नात्मनः प्रतिहितेऽकामयत - प्रजाः सृजेय, प्रजायेयेति। स ऋतुभिः – अद्भिः - प्राणैः - संवत्सरेण - अश्विभ्यां सयुग्भूत्वैताः प्रजाः प्राजनयत्। - - - - - - सजूर्ऋतुभिः इति। तद्ऋतून्प्राजनयत्। ऋतुभिर्वै सयुग्भूत्वा प्राजनयत्। - श.ब्रा.  ८.२.२.८

*चतुर्ऋतव्येष्टकोपधानम् : अथऽर्तव्या उपदधाति। ऋतव एते यदृतव्याः। ऋतूनेवैतदुपदधाति। नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू इति। - - - - - - - - - -एकं तदृतुं करोति। अवकासूपदधाति। अवकाभिः प्रच्छादयति। आपो वाऽअवकाः। अपस्तदेतस्मिन्नृतौ दधाति। तस्मादेतस्मिन्नृतौ भूयिष्ठं वर्षति। अथोत्तरे - इषश्चोर्जश्च शारदावृतू इति। - - - - - तस्मादेतस्यऽर्तोः पुरस्ताद्वर्षति। नोपरिष्टात्प्रच्छादयति। तस्मान्न तथेवोपरिष्टाद्वर्षति। - - - - - -संवत्सर उ प्रजापतिः। तस्य मध्यमेव मध्यमा चितिः। मध्यमस्य वर्षाशरदावृतू। - श.ब्रा.  ८.३.२.५-८

*ता वाऽएताश्चतस्र ऋतव्या मध्यमायां चिताऽउपदधाति, द्वे द्वे इतरासु चितिषु। - - - - - श.ब्रा.  ८.३.२.९

* ता वाऽएताश्चतस्र ऋतव्याः। तासां विश्वज्योतिः पञ्चमी। पञ्च दिश्याः। तद्दश। दशाक्षरा विराट्। - श.ब्रा. ८.३.२.१३

*तं यत्र देवाः समस्कुर्वन् - तदस्मिन्नेतानि भूतानि मध्यतोऽदधुः। तथैवास्मिन्नयमेतद्दधाति। ता अनन्तर्हिता ऋतव्याभ्य उपदधाति। ऋतुषु तत्सर्वाणि भूतानि प्रतिष्ठापयति। - श.ब्रा. ८.३.३.१२

*ऋतव्येष्टकोपधानम् : अथऽर्तव्ये उपदधाति। ऋतव एते - यदृतव्ये। ऋतूनेवैतदुपदधाति। सहश्च सहस्यश्च हैमन्तिकावृतू इति। - - - - - - सकृत्सादयति। एकं तदृतुं करोति। - - - - इम उ लोकाः संवत्सरः। तस्य यदूर्ध्वमन्तरिक्षाद्, अर्वाचीनं दिवः - तदस्यैषा चतुर्थी चितिः। तद्वस्य हेमन्त ऋतुः। - - - - संवत्सर उ प्रजापतिः। तस्य यदूर्ध्वं मध्याद्, अवाचीनं शीर्ष्णः - तदस्यैषा चतुर्थी चितिः। तद्वस्य हेमन्त ऋतुः। - - - - श.ब्रा.  ८.४.२.१५

*सृष्टीष्टकाः :- एकादशभिरस्तुवत इति। दश प्राणाः, आत्मैकादशः। तेनैव तदस्तुवत। ऋतवोऽसृज्यन्त इति। ऋतवोऽत्रासृज्यन्त। आर्तवा अधिपतय आसन् इति। आर्तवा अत्राधिपतय आसन्। - श.ब्रा. ८.४.३.८

*सम्वत्सरो वा ऋतव्याः। सम्वत्सरः स्वर्गो लोकः। - श.ब्रा. ८.६.१.४

*द्वयोर~ऋतव्येष्टकयोरुपधानम् : ऋतव एते - यदृतव्याः, ऋतूनेवैतदुपदधाति। तदेतत्सर्वं - यदृतव्याः। संवत्सरो वा ऋतव्याः। संवत्सर इदं सर्वम्। - - - - -यद्वेवर्तव्या उपदधाति। क्षत्रं वा ऋतव्याः, विश इमा इतरा इष्टकाः। क्षत्त्रं तद्विश्यत्तारं दधाति। - - - - -यद्वेवर्तव्या उपदधाति। संवत्सर एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। संवत्सरमेवैतदृतुभिः संतनोति सन्दधाति। ता वै नानाप्रभृतयः समानोदर्काः। ऋतवो वा असृज्यन्त। ते सृष्टा नानैवासन्। - श.ब्रा.  ८.७.१.१

*तेऽब्रुवन् - न वा इत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनयितुम्, रूपैः समायामेति। त एकैकम् ऋतुं रूपैः समायन्। तस्मादेकैकस्मिन्नृतौ सर्वेषामृतूनां रूपम्। ता यन्नानाप्रभृतयो - नाना ह्यसृज्यन्त। - श.ब्रा.  ८.७.१.४

*स उपदधाति। तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू इति। नामनी एनयोरेते। - - - - असौ वा आदित्यस्तपः। तस्मादेतावृतू अनन्तर्हितौ। तत् यदेतस्मादेतावृतू अनन्तर्हितौ। तस्मादेतौ तपश्च तपस्यश्च। - श.ब्रा.  ८.७.१.५

*अग्नेरन्तःश्लेषोऽसि इति। संवत्सर एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। संवत्सरमेवैतदृतुभिः संतनोति, सन्दधाति। कल्पेतां द्यावापृथिवी, कल्पन्तामाप ओषधयः इति। इदमेवैतत्सर्वमृतुभिः कल्पयति। -- - - - - - - - - शैशिरावृतू अभिकल्पमाना इन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु इति। यथेन्द्रं देवा अभिसंविष्टाः, एवमिमावृतू ज्यैष्ठ्यायाभिसंविशन्त्वित्येतत्। द्वे इष्टके भवतः। द्वौ हि मासावृतुः। सकृत्सादयति। एकं तदृतुं करोति। - श.ब्रा. ८.७.१.६

*संवत्सर एषोऽग्निः। इम उ लोकाः संवत्सरः। तस्य द्यौरेव पञ्चमी चितिः। द्यौरस्य शिशिर ऋतुः। - - - - - - - - -- संवत्सर उ प्रजापतिः। तस्य शिर एव पञ्चमी चितिः। शिरोऽस्य शिशिर ऋतुः। - श.ब्रा. ८.७.१.७

*स पुरस्तात्स्वयमातृण्णायै च विश्वज्योतिषश्चऽर्तव्येऽउपदधाति। द्यौर्वा उत्तमा स्वयमातृण्णा। आदित्य उत्तमा विश्वज्योतिः। अर्वाचीनं तद्दिवश्चादित्याच्चर्तून्दधाति। तस्मादर्वाचीनमेवातः ऋतवः।- - - - - श.ब्रा.  ८.७.१.९

*इयं वै प्रथमा स्वयमातृण्णा। अग्निः प्रथमा विश्वज्योतिः। तदूर्ध्वानृतून्दधाति। तस्मादित ऊर्ध्वा ऋतवः। - - - - ता न व्यूहेत्। नेदृतून्व्यूहानीति। यो वै मि|यते - ऋतवो ह तस्मै व्युह्यन्ते। - श.ब्रा. ८.७.१.१०

*अथो इमे वै लोका ऋतव्याः। इमांस्तल्लोकानूर्ध्वांश्चितिभिश्चिनोति। अथो क्षत्रं वा ऋतव्याः। क्षत्त्रं तदूर्ध्वै चितिभिश्चिनोति। अथो संवत्सरो वा ऋतव्याः। संवत्सरं तदूर्ध्वं चितिभिश्चिनोति। - श.ब्रा. ८.७.१.१२

*ता हैता एव संयान्यः। एतद्वै देवा ऋतव्याभिरेवेमांल्लोकान्त्समयुः। इतश्चोर्ध्वान्, अमुतश्चार्वाचः। तथैवैतद्यजमान ऋतव्याभिरेवेमांल्लोकान्त्संयाति - इतश्चोर्ध्वान्, अमुतश्चार्वाचः। - श.ब्रा. ८.७.१.१३

*शतरुद्रियं : द्वादश मासाः, पञ्चर्तवः, त्रय इमे लोकाः, असावादित्य एकविंशः - एतामभिसम्पदम्। - श.ब्रा. ९.१.१.२६

*परिषेकधेनूकरणावकर्षणादिकं : ऋतव स्थ इति। ऋतवो ह्येताः। ऋतावृधः इति। सत्यवृध इत्येतत्। ऋतुष्ठा स्थ ऋतावृधः इति। अहोरात्राणि वा इष्टकाः। ऋतुषु वा अहोरात्राणि तिष्ठन्ति। - श.ब्रा. ९.१.२.१८

*अथ यानि षट्। षड्वा ऋतवः। तदृतूनां रात्रीराप्नोति। - - - -श.ब्रा. ९.३.३.१८

*अभिषेकः :- षट्पुरस्ताज्जुहोति, षडुपरिष्टात्। षड्वाऽऋतवः। ऋतुभिरेवैनमेतत् सुषुवाणमुभयतः परिगृह्णाति। बृहस्पतिः पूर्वेषामुत्तमो भवति, इन्द्र उत्तरेषां प्रथमः। ब्रह्म वै बृहस्पतिः, क्षत्रमिन्द्रः। - श.ब्रा. ९.३.४.१८

*मैत्रावरुणी पयस्या : इमे वै लोकाः स्वयमातृण्णाः। इम उ लोका एषो ऽग्निश्चितः। ऋतव्या एवोपदधीत। संवत्सरो वा ऋतव्याः। संवत्सर एषोऽग्निश्चितः। - श.ब्रा. ९.५.१.५८

*एकशतधा वा असावादित्यो विहितः - सप्तस्वृतुषु, सप्तसु स्तोमेषु, सप्तसु पृष्ठेषु, सप्तसु छन्दःसु, सप्तसु प्राणेषु, सप्तसु दिक्षु प्रतिष्ठितः। तथैवैतद्यजमान एकशतधाऽऽत्मानं विधायैतस्मिन्त्सर्वस्मिन्प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १०.२.४.५

*चयनमीमांसा : अथ यदि षट्। षड्वाऽऋतवः। ऋतव उपसदः, आदित्यः प्रवर्ग्यः। अमुं तदादित्यमृतुषु प्रतिष्ठापयति। तस्मादेष ऋतुषु प्रतिष्ठितः। - - - - - - मासं प्रथमा चितिः। मासं पुरीषम्। एतावान्वासन्तिक ऋतौ कामः। तद् यावान्वासन्तिक ऋतौ कामः - तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। - श.ब्रा. १०.२.५.७

*मासं द्वितीया। मासं पुरीषम्। एतावान् ग्रैष्म ऋतौ कामः। तद् यावान्ग्रैष्म ऋतौ कामः- तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। - श.ब्रा. १०.२.५.१०

*मासं तृतीया। मासं पुरीषम्। एतावान्वार्षिक ऋतौ कामः। तद्यावान्वार्षिक ऋतौ कामः - तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। मासं चतुर्थी। मासं पुरीषम्। एतावाञ्छारद ऋतौ कामः। तद् यावाञ्छारद ऋतौ कामः - तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। - - - - -तूष्णीं मासं स्तोमभागापुरीषमभिहरन्ति। एतावान्हैमन्तिक ऋतौ कामः। तद्यावान्हैमन्तिक ऋतौ कामः - तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। मासं षष्ठी। मासं पुरीषम्। एतावाञ्छैशिर ऋतौ कामः। तद् यावाञ्छैशिर ऋतौ कामः - तं तत्सर्वामात्मानमभिसञ्चिनुते। एतावान्वै द्वादशसु मासेषु कामः षट्स्वृतुषु। तद् यावान्द्वादशसु मासेषु कामः षट्स्वततुषु। तं तत् सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। - श.ब्रा.  १०.२.५.११-१४

*अथ यत्प्रवर्ग्येण, तदु तस्मिन्नृतावादित्यं प्रतिष्ठापयति। एतावान्वै त्रयोदशसु मासेषु कामः सप्तस्वृतुषु। - श.ब्रा. १०.२.५.१५

*संवत्सरो वै प्रजापतिरेकशतविधः। तस्याहोरात्राणि अर्धमासाः, मासाः, ऋतवः। - - - - - चतुर्विंशतिरर्धमासाः, त्रयोदश मासाः, त्रयः ऋतवः। ताः शतं विधाः। संवत्सर एवैकशततमी विधा। -श.ब्रा. १०.२.६.१

*स ऋतुभिरेव सप्तविधः - षडृतवः, संवत्सर एव सप्तमी विधा। तस्यैतस्य संवत्सरस्यैतत्तेजो - य एष तपति। तस्य रश्मयः शतं विधाः। - - - - - - - - श.ब्रा. १०.२.६.२

*परिश्रिद्भिरेवास्य रात्रीराप्नोति। यजुष्मतीभिरहानि। अर्धमासान्, मासान्, ऋतून्। लोकंपृणाभिर्मुहूर्तान्। - - - - - अथ यजुष्मत्यः - दर्भस्तम्बः, लोगेष्टकाः, - - - - - - विश्वज्योतिः, ऋतव्ये, अषाढा, - - - - - श.ब्रा. १०.४.३.१२

*अथ द्वितीया - पञ्चाश्विन्यः, द्वे ऋतव्ये, पञ्च वैश्वदेव्यः, पञ्च प्राणभृतः, पञ्चापस्याः। - - - - - -

अथ तृतीया - स्वयमातृण्णा, पञ्च दिश्याः, विश्वज्योतिः, चतस्र ऋतव्याः, दश प्राणभृतः, षट्त्रिंशच्छन्दस्याः, चतुर्दश वालखिल्याः। - - - - अथ चतुर्थी - - - - - -। अथ पञ्चमी - - - - - - अष्टौ पुनश्चितिः, ऋतव्ये, विश्वज्योतिः, - - - - -। - श.ब्रा. १०.५.३.१५

*ता उ द्वे द्वे ह ऋतुलोकाः ऋतूनामशून्यतायै। - श.ब्रा. १०.४.३.१९

*सम्वत्सर एवाग्निः - तस्य वसन्तः शिरः , ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षः, वर्षा उत्तरः, शरदृतुर्मध्यम्, आत्मा हेमन्तशिशिरावृतू। - - - - - - - श.ब्रा.  १०.४.५.२

*तस्मिन् (चन्द्रमसि) सर्वे देवा वसन्ति। सर्वाणि भूतानि। सर्वा देवताः। सर्व ऋतवः। सर्वे स्तोमाः। सर्वाणि पृष्ठानि। सर्वाणि छन्दांसि। - श.ब्रा. ११.१.१.५

*सर्वेषु ह वा अस्य देवेषु। सर्वेषु भूतेषु। सर्वासु देवतासु। सर्वेषु ऋतुषु। - - - - - अग्नी आहितौ भवतः। - श.ब्रा. ११.१.१.६

*तानि वा एतानि पंचाक्षराणि। तान्पंच ऋतूनकुरुत। त इमे पंच ऋतवः। स एवमिमान् लोकान् जातान् संवत्सरे प्रजापतिरभ्युदतिष्ट्त्। तस्मादु संवत्सर एव कुमार उत्तिष्ठासति। - श.ब्रा. ११.१.६.५

*ऋतव ऋत्विजः। स यो ह वा ऋतव ऋत्विज इति वेद। अंते हैवास्यर्तूनामिष्टं भवति। अथो यत्किंचर्तुषु क्रियते। सर्वं हैवास्य तदाप्तमवरुद्धमभिजितं भवति। - श.ब्रा. ११.२.७.२

*देवविद्याब्राह्मणम् : अथ यत्पृष्ठ्यं षडहमुपयन्ति। ऋतूनेव देवता यजन्ते। ऋतवो देवता भवन्ति। ऋतूनां सायुज्यं सलोकतां जयन्ति। - श.ब्रा.  १२.१.३.११

*द्वौ द्वौ समासं हुत्वा। सते संस्रवान् समवनयति। अहोरात्राण्येवैतदर्धमासान् ऋतून् संवत्सरे प्रतिष्ठापयति। - श.ब्रा. १२.८.३.१४

*अथर्त्विक्षूपहवमिष्ट्वा भक्षयति। ऋतवो वा ऋत्विजः। ऋतुष्वेवैतदुपहवमिच्छते। - श.ब्रा. १२.८.३.३०

*ऋषभो वा एष ऋतूनां यत्संवत्सरः। तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपम्। ऋषभ एष यज्ञानां यदश्वमेधः। - श.ब्रा.  १३.१.२.२

*तिस्रो ऽन्यो गाथा गायति। तिस्रोऽन्यः। षट् संपद्यन्ते। षट् ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १३.१.५.६

*एकविंशतिः संपद्यन्ते। द्वादश मासाः। पञ्चर्तवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविंशः। तद्दैवं क्षत्त्रं। सा श्रीः। - श.ब्रा. १३.१.७.३

*- - - - - अथो धुवत एवैनम् त्रिः परियन्ति। त्रयो वा इमे लोकाः। एभिरेवैनं तल्लोकैर्धुवते। त्रिः पुनः परियन्ति। षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभिरेवैनं धुवते। - श.ब्रा. १३.२.८.घ्४

*अश्वस्य प्राजापत्याक्षिप्रभवत्वं, ब्रह्महत्याप्रायश्चित्तिश्च : एकविंशात्प्रतिष्ठाया उत्तरमहर~ऋतूनन्वारोहति। ऋतवो वै पृष्ठानि। ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १३.३.२.१

*अश्वमेधस्य फलाधिकारिकालादिकम् : तदाहुः - कस्मिन् ऋतौ अभ्यारंभ इति। ग्रीष्मेऽभ्यारभेत - इत्यु हैक आहुः। ग्रीष्मो वै क्षत्रियस्यर्तुः। क्षत्रिययज्ञ उ वा एषः। यदश्वमेधः। - श.ब्रा. १३.४.१.२

*द्वादश मासाः। पंच ऋतवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविंशः। सोऽश्वमेधः। एष प्रजापतिः। - श.ब्रा. १३.४.४.११

*एकविंशो वा एषः। य एष तपति। द्वादश मासाः। पंचर्तवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविंशः। - श.ब्रा. १३.५.४.२६

*अथोत्तरं संवत्सरमृतुपशुभिर्यजते। षड्भिराग्नेयैर्वसंते। षड्भ~भिरैन्द्रैर्ग्रीष्मे। षड्भिः पार्जन्यैर्वा मारुतैर्वा वर्षासु। षड्भिर्मैत्रावरुणैः शरदि। षड्भिरैन्द्रावैष्णवैर्हेमन्ते। षड्भिरैन्द्राबार्हस्पत्यैः शिशिरे। षड् ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १३.५.४.२८

*स वा एष पुरुषमेधः पंचरात्रो यज्ञक्रतुर्भवति। पांक्तो यज्ञः। पांक्तः पशुः। पंचर्तवः संवत्सरः। - श.ब्रा. १३.६.१.७

*पुरुषमेधः :- तस्यायमेव लोकः प्रथममहः। अयमस्य लोको वसंत ऋतुः। यदूर्ध्वमस्माल्लोकादर्वाचीनमंतरिक्षात्। तत् द्वितीयमहः। तद्वस्य ग्रीष्म ऋतुः। अन्तरिक्षमेवास्य मध्यममहः। अंतरिक्षमस्य वर्षाशरदावृतू। यदूर्ध्वमन्तरिक्षादर्वाचीनं दिवः। तच्चतुर्थमहः। तद्वस्य हेमन्त ऋतुः। द्यौरेवास्य पंचममहः। द्यौरस्य शिशिर ऋतुः। इत्यधिदेवतम्। अथाध्यात्मम्। प्रतिष्ठैवास्य प्रथममहः। प्रतिष्ठो अस्य वसंत ऋतुः। यदूर्ध्वं प्रतिष्ठाया अवाचीनं मध्यात्। तत् द्वितीयमहः। तद्वस्य ग्रीष्म ऋतुः। मध्यमेवास्य मध्यममहः। मध्यमस्य वर्षाशरदावृतू। यदूर्ध्वं मध्यादवाचीनं शीर्ष्णः। तच्चतुर्थमहः। तद्वस्य हेमन्त ऋतुः। शिशिर एवास्य पंचममहः। शिरोऽस्य शिशिर ऋतुः। एवमिमे च लोकाः संवत्सरश्च आत्मा च पुरुषमेधमभिसंपद्यन्ते। - श.ब्रा.  १३.६.१.११

*षड्गवं भवति। षड् ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेवैनमेतत् संवत्सरे प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापयति। - श.ब्रा. १३.८.२.६

*तिस्रो रात्रीर्व्रतं चरति। त्रयो वा ऋतवः संवत्सरस्य संवत्सर एषः। य एष तपति। एष उ प्रवर्ग्यः। - श.ब्रा.  १४.१.१.२८

*तान्वा एतान्पंच संभारान्त्संभरति। पाङ्क्तो यज्ञः। पाङ्क्तः पशुः। पंचर्तवः संवत्सरस्य। - श.ब्रा. १४.१.२.१४

*वाचक्नवी ब्राह्मणं, अक्षर ब्राह्मणं वा सृष्टिप्रवेश ब्राह्मणम् : एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि अहोरात्राणि अर्द्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा विधृतास्तिष्ठन्ति। - श.ब्रा. १४.६.८.९

*दर्शपूर्णमासविकृतिभूतकाम्येष्टीनां याज्यापुरोनुवाक्यामन्त्राः :- अग्निर्विद्वान्त्स यजात् सेदु होता सो अध्वरान्त्स ऋतून्कल्पयाति। - तैत्तिरीय संहिता १.१.१४.३

*पुनराधानम् : पञ्चकपालः पुरोडाशो भवति पञ्च वा ऋतव ऋतुभ्य एवैनमवरुध्याऽऽधत्ते। - तै.सं. १.५.१.४

*गार्हपत्याहवनीययोरुपस्थानम् : पशवो वै रयिः पशूनेवावरुन्धे षड्भिरुप तिष्ठते षड् वै ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठति षडभिरुत्तराभिरुप तिष्ठते द्वादश सं पद्यन्ते द्वादश मासाः संवत्सरः - तै.सं. १.५.७.३

*एष वै छन्दस्यः प्रजापतिरा श्रावयास्तु श्रौषड् यज ये यजामहे वषट्कारो य एवं वेद पुण्यो भवति वसन्तम् ऋतूनां प्रीणामीत्याहर्तवो वै प्रयाजा ऋतूनेव प्रीणाति तेऽस्मै प्रीता यथापूर्वं कल्पन्ते कल्पन्तेऽस्मा ऋतवो य एवं वेद - - - - - तै.सं. १.६.११.४

*काम्येष्टियाज्यापुरोनुवाक्याविधानम् : इन्द्रो मरुद्भिर्ऋतुधा कृणोत्वादित्यैर्नो वरुणः सं शिशातु। - तै.सं. २.१.११.२

*याज्यानुवाक्याभिधानम् : विश्वे देवा ऋतावृध ऋतुभिर्हवनश्रुतः। जुषन्ता युज्यं पयः। - तै.सं. २.४.१४.५

*प्रयाज विधिः :- समिधो यजति वसन्तमेवर्तूनामव रुन्धे तनूनपातं यजति ग्रीष्ममेवाव रुन्ध इडो यजति वर्षा एवाव रुन्धे बर्हिर्यजति शरदमेवाव रुन्धे स्वाहाकारं यजति हेमन्तमेवाव रुन्धे तस्मात्स्वाहाकृता हेमन्पशवोऽव सीदन्ति समिधो यजत्युषस एव देवतानामव रुन्धे तनूनपातं यजति यज्ञमेवाव रुन्धे इडो यजति पशूनेवाव रुन्धे बर्हिर्यजति प्रजामेवाव रुन्धे समानयत उपभृतस्तेजो वा आज्यं प्रजा बर्हिः प्रजास्वेव तेजो दधाति स्वाहाकारं यजति वाचमेवाव रुन्धे दश सं पद्यन्ते दशाक्षरा विराडन्नं विराड्विराजैवान्नाद्यमव रुन्धे समिधो यजत्यस्मिन्नेव लोके प्रति तिष्ठति तनूनपातं यजति यज्ञ एवान्तरिक्षे प्रति तिष्ठतीडो यजति पशुष्वेव प्रति तिष्ठति बर्हिर्यजति य एव देवयानाः पन्थानस्तेष्वेव प्रति तिष्ठति स्वाहाकारं यजति सुवर्ग एव लोके प्रति तिष्ठति - - - - - - -यो वै प्रयाजानां मिथुनं वेद प्र प्रजया पशुभिर्मिथुनैर्जायते समिधो बह्वीरिव यजति तनूनपातमेकमिव मिथुनं तदिडो बह्वीरिव यजति बर्हिरेकमिव मिथुनं तदेतद्वै प्रयाजानां मिथुनं य एवं वेद - - - -तै.सं. २.६.१०.१

*अनूयाजसूक्तवाकानामभिधानम् : अग्नीध आ दधात्यग्निमुखानेवर्तून्प्रीणाति समिधमा दधात्युत्तरासामाहुतीनां प्रतिष्ठित्या - तै.सं  २.६.९.१

*राष्ट्रभृन्मन्त्राणां काम्यप्रयोगाभिधानम् : इदमहममुष्या ऽऽमुष्यायणस्यान्नाद्यं हरामीत्याहान्नाद्यमेवास्य हरति षड्भिर्हरति षड्वा ऋतवः प्रजापतिनैवास्यान्नाद्यमादायर्तवोऽस्मा अनु प्र यच्छन्ति - तै.सं. ३.४.८.६

*पञ्च पश्वङ्गभूताग्निक सामिधेन्यभिधानम् : समास्त्वाऽग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयो यानि सत्या। सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्वा आ भाहि प्रदिशः पृथिव्याः। (इति दशाऽऽग्निकीः) - तै.सं. ४.१.७.१

*आहवनीयचयनार्थं भूकर्षणाभिधानम् : मातेव पुत्रं पृथिवी पुरीष्यमग्निं स्वे योनावभारुखा। तां विश्वैर्देवैर्ऋतुभिः संविदानः प्रजापतिर्विश्वकर्मा वि मुञ्चतु। (इति शिक्यादुखां निरूह्य) - तै.सं. ४.२.५.२

*पशु (ऋषभ)शीर्षोपधानाभिधानम् : अजस्रमिन्दुमरुषं भुरण्युमग्निमीडे पूर्वचित्तौ नमोभिः। स पर्वभिर्ऋतुशः कल्पमानो गा मा हिंसीरदितिं विराजम्। - तै.सं. ४.२.१०.२

*अपानभृदिष्टकाभिधानम् : प्राची दिशां वसन्त ऋतूनामग्निर्देवता ब्रह्म द्रविणं त्रिवृत्स्तोमः स उ पञ्चदशवर्तनिस्त्र्यविर्वयः कृतमयानां पुरोवातो वातः सानग ऋषिर्दक्षिणा दिशां ग्रीष्म ऋतूनामिन्द्रो देवता क्षत्त्रं द्रविणं पञ्चदशः स्तोमः स उ सप्तदशवर्तनिर्दित्यवाड्वयस्त्रेताऽयानां दक्षिणाद्वातो वातः सनातन ऋषिः प्रतीची दिशां वर्षा ऋतूनां विश्वे देवा देवता विट् द्रविणं सप्तदशः स्तोमः स उवेकविँशवर्तनिस्त्रिवत्सो वयो द्वापरोऽयानां पश्चाद्वातो वातोऽहभून ऋषिरुदीची दिशां शरदृतूनां मित्रावरुणौ देवता पुष्टं द्रविणमेकविँशः स्तोमः स उ त्रिणववर्तनिस्तुर्यवाड्वय आस्कन्दोऽयानामुत्तराद्वातो वातः प्रत्न ऋषिरूर्ध्वा दिशां हेमन्तशिशिरावृतूनां बृहस्पतिर्देवता वर्चो द्रविणं त्रिणवः स्तोमः स उ त्रयस्त्रिंशवर्तनिः पष्टवाड्वयोऽभिभूरयानां विष्वग्वातो वातः सुपर्ण ऋषिः पितरः पितामहाः परेऽवरे ते नः पान्तु ते नो ऽवन्त्वस्मिन्ब्रह्मन्नस्मिन्क्षत्त्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन्कर्मन्नस्या देवहूत्याम्। - तै.सं. ४.३.३.१

*द्वितीयचितावश्विन्याख्येष्टकाभिधानम् : सजूर्ऋतुभिः सजूर्विधाभिः सजूर्वसुभिः सजू रुद्रैः सजूरादित्यैः - - - - - - अग्नये त्वा वैश्वानरायाश्विनाऽध्वर्यू सादयतामिह त्वा। (इति पञ्चर्तव्या आश्विनीरनूपधाय) - तै.सं. ४.३.४.३

*सृष्टिशब्दाभिधेयेष्टकाभिधानम् : एकादशभिरस्तुवर्तवोऽसृज्यन्ताऽऽर्तवोऽधिपतिरासीत् त्रयोदशभिरस्तुवत मासा असृज्यन्त संवत्सरोऽधिपतिः आसीत् - तै.सं. ४.३.१०.१

*व्युष्टिनामकेष्टकाभिधानम् : त्रिंशत्स्वसार उप यन्ति निष्कृतं समानं केतुं प्रतिमुञ्चमानाः। ऋतूंस्तन्वते कवयः प्रजानतीर्मध्येछन्दसः परि यन्ति भास्वतीः। - तै.सं. ४.३.११.३

*ऋतूनां पत्नी प्रथमेयमाऽगादह्नां नेत्री जनित्री प्रजानाम्। एका सती बहुधोषो व्युच्छस्यजीर्णा त्वं जरयसि सर्वमन्यत् ॥ - तै.सं. ४.३.११.५

*याज्यानुवाक्याभिधानम् : पिप्रीहि देवां उशतो यविष्ठ विद्वां ऋतुर्ऋतुपते यजेह। - तै.सं. ४.३.१३.४

*भूयस्कृदादीष्टकाभिधानम् : यावा अयावा एवा ऊमाः सब्दः सगरः सुमेकः (इति सप्तर्तव्याः) - तै.सं. ४.४.७.२

*इन्द्रतन्वाख्येष्टकाभिधानम् : - - - - गोभिर्यज्ञं दाधार क्षत्त्रेण मनुष्यानश्वेन च रथेन च वज्र्यृतुभिः प्रभुः संवत्सरेण परिभूस्तपसाऽनाधृष्टः सूर्यः सन्तनूभिः। - तै.सं. ४.४.८.१

*ऋतव्याख्येष्टकाभिधानम् : मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू इषश्चोर्जश्च शारदावृतू सहश्च सहस्यश्च हैमन्तिकावृतू तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू अग्नेरन्तःश्लेषोऽसि कल्पेता द्यावापृथिवी कल्पन्तामाप ओषधीः - - - - - - येऽग्नयः समनसोऽन्तरा द्यावापृथिवी शैशिरावृतू अभिकल्पमाना इन्द्रमिव देवा अभि सं विशन्तु संयच्च प्रचेताश्चाग्नेः सोमस्य सूर्योग्रा च भीमा च पितृpणां यमस्येन्द्रस्य ध्रुवा च पृथिवी च - - - - - - - तै.सं. ४.४.११.१

*याज्यानुवाक्याभिधानम् : उग्रा दिशामभिभूतिर्वयोधाः शुचिः शुक्रे अहन्योजसीना। इन्द्राधिपतिः पिपृतादतोv नो महि क्षत्त्रं विश्वतो धारयेदम्। - - - - - - प्राची दिशां सहयशा यशस्वती विश्वे देवाः प्रावृषाऽह्नां सुवर्वती। इदं क्षत्त्रं दुष्टरमस्त्वोजोऽनाधृष्टं सहस्रियं सहस्वत्। - - - - - - - मित्रावरुणा शरदाऽह्नं चिकित्नू अस्मै राष्ट्राय महि शर्म यच्छतम्। - - - - -सम्राड्दिशां सहसाम्नी सहस्वत्यृतुर्हेमन्तो विष्ठया नः पिपर्तु। - - - - - - तै.सं. ४.४.१२.१

*अश्वस्तोमीयमन्त्राणामभिधानम् : यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषाः पर्यश्वं नयन्ति। अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञं देवेभ्यः प्रतिवेदयन्नजः। - तै.सं. ४.६.८.२

*अवशिष्टाश्वस्तोत्रमन्त्राभिधानम् : एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथर्तुः या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानां प्र जुहोम्यग्नौ। - तै.सं. ४.६.९.३

*वसोर्धाराद्यभिधानम् : - - - वैश्वानरश्च म ऋतुग्रहाश्च मे - तै.सं. ४.७.७.१

*वसोर्धाराद्यभिधानम् : तपश्च म ऋतुश्च मे व्रतं च मे - तै.सं. ४.७.९.१

*वाजप्रसवीयहोमाभिधानम् : वाजः पुरस्तादुत मध्यतो नो वाजो देवां ऋतुभिः कल्पयाति। (इति गवीधुकहोमाय) - तै.सं. ४.७.१२.२

*संभृतमृदो यज्ञभूमौ समाहरणम् : तस्माद्वायुप्रच्युता दिवो वृष्टिरीर्ते तस्मै च देवि वषडस्तु तुभ्यमित्याह षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव वृष्टिं दधाति तस्मात्सर्वानृतून्वर्षति यद्वषट्कुर्याद्यातयामाऽस्यवषट्कारः स्याद्यन्न वषट्कुर्याद्रक्षांसि यज्ञं हन्युर्वडित्याह परोक्षमेव वषट्करोति - - तै.सं. ५.१.५.२

*उखासंस्कारः :- जनयस्त्वेत्याह देवानां वै पत्नीः जनयस्ताभिरेवैनां पचति षड्भिः पचति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनां पचति - तै.सं. ५.१.७.३

*वह्निपशवः : समास्त्वाऽग्न ऋतवो वर्धयन्त्वित्याह समाभिरेवाग्निं वर्धयति ऋतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ५.१.८.५

*षड्भिर्दीक्षयति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं दीक्षयति सप्तभिर्दीक्षयति सप्त छन्दांसि - तै.सं. ५.१.९.१

*उख्यधारणम् : एकविँशतिर्वै देवलोका द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्यः एकविँश - तै.सं. ५.१.१०.३

*षडुद्यामं शिक्यं भवति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनमुद्यच्छते यद्द्वादशोद्यामं संवत्सरेणैव - तै.सं. ५.१.१०.५

*अश्वमेधसंबन्धिप्रयाजयाज्याभिधानम् : अश्वो घृतेन त्मन्या समक्त उप देवा ऋतुशः पाथ एतु। - तै.सं. ५.१.११.४

*उख्याग्निसंवपनम् : यत्संन्यूप्य विहरति तस्माद्ब्रह्मणा क्षत्त्रं व्येत्यृतुभिः वा एतं दीक्षयन्ति स ऋतुभिरेव विमुच्यो मातेव पुत्रं पृथिवी पुरीष्यमित्याहर्तुभिरेवैनं दीक्षयित्वर्तुभिर्वि मुञ्चति - तै.सं. ५.२.४.१

*क्षेत्रकर्षणम् : षड्गवेन कृषति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं कृषति यद्द्वादश गवेन संवत्सरेणैव - तै.सं. ५.२.५.२

*क्षेत्रे सिकतादिवापः :- षड्भिर्नि वपति षड्वा ऋतवः संवत्सरः संवत्सरोऽग्निर्वैश्वानरः - तै.सं. ५.२.६.१

*विशसनाभिधानम् : ऋतवस्त ऋतुधा परुः शमितारो वि शासतु। - तै.सं. ५.२.१२.१

*द्वितीयचितगत अश्विन्यादीष्टकाचतुष्टयाभिधानम् : ऋतव्या उप दधात्यृतूनां क्लृप्त्यै पञ्चोप दधाति पञ्च वा ऋतवो यावन्त एवर्तवस्तान्कल्पयति समानप्रभृतयो भवन्ति समानोदर्कास्तस्मात्समाना ऋतव एकेन पदेन व्यावर्तन्ते तस्मादृतवो व्यावर्तन्ते प्राणभृत उप दधात्यृतुष्वेव प्राणान्दधाति तस्मात्समानाः सन्त ऋतवो न जीर्यन्त्यथो प्र जन्यत्येवैनानेष वै वायुर्यत्प्राणो यदृतव्या उपदाय प्राणभृतः उपदधाति तस्मात्सर्वानृतूननु वायुरा वरीवर्ति - - - - - - यदेकधोपदध्यादेकमृतु वर्षेदनुपरिहारं सादयति तस्मात्सर्वानृतून्वर्षति - तै.सं. ५.३.१.१

*वृष्टिसन्यादीष्टकापञ्चकाभिधानम् : वृष्टिसनीरुप दधाति वृष्टिमेवाव रुन्धे यदेकधोपदध्यादेकमृतु वर्षेदनुपरिहारं सादयति तस्मात्सर्वानृतून्वर्षति - तै.सं. ५.३.१०.१

*भूयस्कृदादीष्टकाषट्काभिधानम् : - - - -पञ्चचितीकस्तस्मादेवमाहर्तव्या उप दधात्येतद्वा ऋतूनां प्रियं धाम यदृतव्या ऋतूनामेव प्रियं धामाव रुन्धे - तै.सं. ५.३.११.३

*ऋतव्यादीष्टकात्रयप्रोक्षणयोरभिधानम् : ऋतव्या उप दधात्यृतूनां क्लृप्त्यै द्वंद्वमुप दधाति तस्माद्द्वंद्वमृतवो - - - - - - - - अन्तःश्लेषणं वा एताश्चितीनां यदृतव्या यदृतव्या उपदधाति चितीनां विधृत्या - - - - - - - अथ षष्ठी चितिं चिनुते षड्वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठति - तै.सं. ५.४.२.१

*परिषेचनाद्यभिधानम् : तिस्र उत्तरा आहुतीर्जुहोति षट् सं पद्यन्ते षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं शमयति - तै.सं. ५.४.३.४

*परिषेचनाद्यभिधानम् : षट् संपद्यन्ते षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवास्य शुचं शमयति - तै.सं. ५.४.४.२

*समिदाधानादिविधिः :- षड्भिर्हरति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं हरति - तै.सं. ५.४.६.३

*वाजप्रसवीयाभिधानम् : षड्भिर्जुहोति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठति - तै.सं. ५.४.९.२

*काम्यचितीनामभिधानम् : षण्मार्जालीये षड्वा ऋतव ऋतवः खलु वै देवाः पितर ऋतूनेव देवान्पितॄन्प्रीणाति - तै.सं. ५.४.११.४

*द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविँश एष प्रजापतिः प्राजापत्योऽश्वः - तै.सं. ५.४.१२.२

*उपस्थानाद्यभिधानम् : ऋतुस्थायज्ञायज्ञियेन पुच्छमृतुष्वेव प्रति तिष्ठति - तै.सं. ५.५.८.१

*अश्वमेधशेषभूताष्टमपशुसंघविधिः :- ऋतूनां जहका - तै.सं. ५.५.१८.१

*दीक्षाविकल्पविधिः :- षड्रात्रीर्दीक्षितः स्यात्षड्वा ऋतवः संवत्सरः संवत्सरो विराड् - तै.सं. ५.६.७.१

*सप्तदश रात्रीर्दीक्षितः स्याद्द्वादश मासाः पञ्चर्तवः संवत्सरः संवत्सरो विराड् - तै.सं. ५.६.७.१ *

*प्रजापतिरग्निमचिनुतर्तुभिः संवत्सरं वसन्तेनैवास्य पूर्वाधर्मचिनुत ग्रीष्मेण दक्षिणं पक्षं वर्षाभिः पुच्छं शरदोत्तरं पक्षं हेमन्तेन मध्यं ब्रह्मणा वा अस्य तत्पूर्वार्धमचिनुत क्षत्त्रेण दक्षिणं पक्षं पशुभिः पुच्छं विशोत्तरं पक्षमाशया मध्यं य एवं विद्वानग्निं चिनुत ऋतुभिरेवैनं चिनुते - - - - - इयं वाव प्रथमा चितिरोषधयो वनस्पतय पुरीषमन्तरिक्षं द्वितीया वयांसि पुरीषमसौ तृतीया नक्षत्राणि पुरीषं यज्ञश्चतुर्थी दक्षिणा पुरीषं यजमानः पञ्चमी प्रजा पुरीषं -- - - - - - - संवत्सरो वै षष्ठी चितिर~ऋतवः पुरीषं षट् चितयो भवन्ति षट्पुरीषाणि - तै.सं. ५.६.१०.१

*ऋषभेष्टकाद्यभिधानम् : ग्रीष्मो हेमन्त उत नो वसन्तः शरद्वर्षाः सुवितं नो अस्तु। तेषामृतूनां शतशारदानां निवात एषामभये स्याम। - - - - - -ब्रह्मवादिनो वदन्ति यदर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सर ओषधीः पचन्त्यथ कस्मादन्याभ्यो देवताभ्य आग्रयणं निरुप्यत इत्येता हि तद्देवता उदजयन्यदृतुभ्यो निर्वपेद्देवताभ्यः समदं दध्यादाग्रयणं निरुप्यैता आहुतीर्जुहोतत्यर्धमासानेव मासानृतून्त्संवत्सरं प्रीणाति - तै.सं. ५.७.२.४

*व्रतचरणाद्यभिधानम् : यो वा अग्निमृतुस्थां वेदर्तुर्ऋतुरस्मै कल्पमान एति प्रत्यव तिष्ठति संवत्सरो वा अग्निः ऋतुस्थास्तस्य वसन्तः शिरो ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षो वर्षाः पुच्छं शरदुत्तरः पक्षो हेमन्तो मध्यं पूर्वपक्षाश्चितयोऽपरपक्षाः पुरीषमहोरात्राणीष्टका एष वा अग्निर्ऋतुस्था य एवं वेदर्तुर्ऋतुरस्मै कल्पमान एति - तै.सं. ५.७.६.५

*ऋतून्पृष्ठीभिर्दिवं पृष्ठेन - - - -तै.सं. ५.७.१७.१

*ओजो ग्रीवाभिः - - - - अहोरात्रयोर्द्वितीयोऽर्धमासानां तृतीयो मासां चतुर्थ ऋतूनां पञ्चमः संवत्सरस्य षष्ठः। - तै.सं. ५.७.१८.१

*- - - - -वातः प्राणश्चन्द्रमाः श्रोत्रं मासाश्चार्धमासाश्च पर्वाण्यृतवो ऽङ्गानि संवत्सरो महिमा - तै.सं. ५.७.२५.१

*क्षुरकर्मादिसंस्कृतस्य प्राग्वंशप्रवेशाभिधानम् : पाङ्क्तो यज्ञो यज्ञायैवैनं पवयति षड्भिः पवयति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं पवयति - तै.सं. ६.१.१.८

*वेद्यभिधानम् : तिस्र उपसद उपैति त्रय इमे लोका इमानेव लोकान्प्रीणाति षट्सं पद्यन्ते षड्वा ऋतव ऋतूनेव प्रीणाति - तै.सं. ६.२.३.४

*यूपखण्डनाभिधानम् : षडरत्निं प्रतिष्ठाकामस्य षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठति - तै.सं. ६.३.३.६

*सप्तदशान्वाह द्वादश मासाः पञ्चर्तवः स संवत्सरः संवत्सरं प्रजा अनु प्र जायन्ते - तै.सं. ६.३.७.१

*उपांशु ग्रहकथनम् : षड्भिरंशुभिः पवयति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं पवयति - तै.सं. ६.४.५.७

*ऋतुग्रहकथनम् : यज्ञेन वै देवाः सुवर्गं लोकमायन्तेऽमन्यन्त मनुष्या नो ऽन्वाभविष्यन्तीति ते संवत्सरेण योपयित्वा सुवर्गं लोकमायन्तमृषय ऋतुग्रहैरेवानु प्राजानन्यदृतुग्रहा गृह्यन्ते सुवर्गस्य लोकस्य प्रज्ञात्यै - - - - - - सह प्रथमौ गृह्येते सहोत्तमौ तस्माद्वौद्वावृतू उभयतोमुखमृतुपात्रं भवति कः हि तद्वेद यत ऋतूनां मुखमृतुना प्रेष्येति षट्कृत्व आह षड्वा ऋतव ऋतूनेव प्रीणात्यृतुभिरिति चतुश्चतुष्पद एव पशून्प्रीणाति द्विः पुनर्ऋतुनाऽऽह द्विपद एव प्रीणात्यृतुना प्रेष्येति षट्कृत्व आहर्तुभिरिति चतुस्तस्माच्चतुष्पादः पशव ऋतूनुप जीवन्ति द्विः पुनर्ऋतुनाऽऽह तस्माद्विपादश्चतुष्पदः पशूनुप जीवन्त्यृतुना प्रेष्येति षट्कृत्वा आहर्तुभिरिति चतुर्द्विः पुनर्ऋतुनाऽऽहक्रमणमेव तत्सेतु यजमानः कुरुते सुवर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै नान्योऽन्यमनु प्रपद्येत यदन्योऽन्यमनुप्रपद्येतर्तुर्ऋतुमनु प्रपद्येतर्तवो मोहुकाः स्युः - तै.सं.  ६.५.३.१

*सुवर्गाय वा एते लोकाय गृह्यन्ते यदृतुग्रहा ज्योतिरिन्द्राग्नी यदैन्द्राग्नमृतुपात्रेण गृह्णाति ज्योतिरेवास्मा उपरिष्टाद्दधाति - तै.सं. ६.५.४.१

*मरुत्वतीयमाहेन्द्रग्रहकथनम् : तस्य वृत्रं जघ्नुष ऋतवोऽमुह्यन्त्स ऋतुपात्रेण मरुत्वतीयानगृहणात्ततो वै स ऋतून्प्राजानाद्यदृतुपात्रेण मरुत्वतीया गृह्यन्त ऋतूनां प्रज्ञात्यै - तै.सं. ६.५.५.१

*अग्नीधे ददात्यग्निमुखानेवर्तून्प्रीणाति ब्रह्मणे ददाति प्रसूत्यै - तै.सं. ६.६.१.५

*समिष्टयजुर्होमकथनम् : षड्ऋग्मियाणि जुहोति षड्वा ऋतव ऋतूनेव प्रीणाति - तै.सं. ६.६.२.१

*चतुरः प्रयाजान्यजति द्वावनूयाजौ षट्संपद्यन्ते षड्वा ऋतवः ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठति - तै.सं. ६.६.३.३

*षोडशिग्रहकथनम् : षडक्षराण्यति रेचयन्ति षड्वा ऋतव ऋतूनेव प्रीणाति - तै.सं. ६.६.११.५

*अतिरात्रविध्युन्नयनम् : यस्य त्रिणवमन्तर्यन्त्यृतूंश्च तस्य नक्षत्रियां च विराजमन्तर्यन्त्यpतुषु मे ऽप्यसन्नक्षत्रियायां च विराजीति खलु वै यज्ञेन यजमानो यजते - तै.सं. ७.१.३.२

*पञ्चरात्राभिधानम् : संवत्सरो वा इदमेक आसीत्सोऽकामयतर्तून्त्सृजेयेति स एतं पञ्चरात्रमपश्यत्तमाऽहरत्तेनायजत ततो वै स ऋतूनसृजत य एवं विद्वान्पञ्चरात्रेण यजते प्रैव जायते त ऋतवः सृष्टा न व्यावर्तन्त त एतं पञ्चरात्रमपश्यन्तमाऽहरन्तेनायजन्त ततो वै ते व्यावर्तन्त - - - - - - - पञ्चरात्रो भवति पञ्च वा ऋतवः संवत्सरः ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठत्यथो पञ्चाक्षरा पङ्क्तिः - तै.सं. ७.१.१०.४

*षड्रात्रकथनम् : षड्रात्रो भवति षड्वा ऋतवः षट्पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्य् ऋतुभिः संवत्सरं - तै.सं.  ७.२.१.१

*एकादशरात्रकथनम् : ऋतवो वै प्रजाकामाः प्रजां नाविन्दन्त तेऽकामयन्त प्रजां सृजेमहि प्रजामव रुन्धीमहि प्रजां विन्देमहि प्रजावन्तः स्यामेति त एतमेकादशरात्रमपश्यन्तमाऽहरन्तेनायजन्त - - - - - ऋतवोऽभवन्तदार्तवानामार्तवत्वमृतूनां वा एते पुत्रास्तस्मात् आर्तवा उच्यन्ते - - - - - पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट् पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ७.२.६.१

*एकादशरात्रो भवति पञ्च वा ऋतव आर्तवाः पञ्चर्तुष्वेवाऽऽर्तवेषु संवत्सरे प्रतिष्ठाय प्रजामव रुन्धतेऽतिरात्रावभितो भवतः - तै.सं. ७.२.६.३

*द्वादशरात्रकथनम् : ते देवा एतं वैश्वानरं पर्यौहन्त्सुवर्गस्य लोकस्य प्रभूत्या ऋतवो वा एतेन प्रजापतिमयाजयन्तेष्वार्ध्नोदधि तदृध्नोति ह वा ऋत्विक्षु य एवं विद्वान्द्वादशाहेन यजते तेऽस्मिन्नैच्छन्त स रसमह वसन्ताय प्रायच्छत् यवं ग्रीष्मायोषधीर्वर्षाभ्यो व्रीहीञ्शरदे माषतिलौ हेमन्तशिशिराभ्यां तेनेन्द्रं प्रजापतिरयाजयत्ततो वा इन्द्र इन्द्रोऽभवत्- तै.सं. ७.२.१०.१

*अहीनद्वादशाहकथनम् : किं पष्ठेनेति षड्ऋतूनिति - तै.सं. ७.३.२.१

*सप्तदशरात्रकथनम् : पञ्चाहो भवति पञ्च वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्त्यथा पञ्चाक्षरा पङ्क्तिः - तै.सं. ७.३.८.१

*एकविंशतिरात्रकथनम् : त एकविँशतिरात्रमासीरन्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविँश एतावन्तो वै देवलोकाः - तै.सं. ७.३.१०.५

*द्वितीय चतुर्विंशतिरात्रकथनम् : - - - - - - श्रीर्हि मनुष्यस्य देवी संसज्ज्योतिरतिरात्रो भवति सुर्वगस्य लोकस्यानुख्यात्यै पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः संवत्सरस्तं मासा अर्धमासा ऋतवः प्रविश्य देवीं संसदमगच्छन् - तै.सं. ७.४.२.२

*त्रिंशद्रात्रकथनम् : ज्योतिरतिरात्रो भवति सुवर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट्पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ७.४.३.२

*त्रयस्त्रिंशद्रात्रकथनम् : पञ्चाहा भवन्ति पञ्च वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्ति - तै.सं. ७.४.५.२

*षट्त्रिंशद्रात्रकथनम् : षडहा भवन्ति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठन्ति चत्वारो भवन्ति चतस्रो दिशो दिक्ष्वेव प्रति तिष्ठन्ति - - - - देवता एव पृष्ठैरव रुन्धते पशूञ्छन्दोमैरोजो वै वीर्यं पृष्ठानि पशवश्छन्दोमा - तै.सं. ७.४.६.२

*एकादशरात्रकथनम् : ऋतवो वै प्रजाकामाः प्रजां नाविन्दन्त तेऽकामयन्त प्रजां सृजेमहि प्रजामव रुन्धीमहि प्रजां विन्देमहि प्रजावन्तः स्यामेति त एतमेकादशरात्रमपश्यन्तमाऽहरन्तेनायजन्त - - - - - ऋतवोऽभवन्तदार्तवानामार्तवत्वमृतूनां वा एते पुत्रास्तस्मात् आर्तवा उच्यन्ते - - - - - पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट् पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ७.२.६.१

*एकादशरात्रो भवति पञ्च वा ऋतव आर्तवाः पञ्चर्तुष्वेवाऽऽर्तवेषु संवत्सरे प्रतिष्ठाय प्रजामव रुन्धतेऽतिरात्रावभितो भवतः - तै.सं. ७.२.६.३

*द्वादशरात्रकथनम् : ते देवा एतं वैश्वानरं पर्यौहन्त्सुवर्गस्य लोकस्य प्रभूत्या ऋतवो वा एतेन प्रजापतिमयाजयन्तेष्वार्ध्नोदधि तदृध्नोति ह वा ऋत्विक्षु य एवं विद्वान्द्वादशाहेन यजते तेऽस्मिन्नैच्छन्त स रसमह वसन्ताय प्रायच्छत् यवं ग्रीष्मायोषधीर्वर्षाभ्यो व्रीहीञ्शरदे माषतिलौ हेमन्तशिशिराभ्यां तेनेन्द्रं प्रजापतिरयाजयत्ततो वा इन्द्र इन्द्रोऽभवत्- तै.सं. ७.२.१०.१

*अहीनद्वादशाहकथनम् : किं षष्ठेनेति षड्ऋतूनिति - तै.सं. ७.३.२.१

*सप्तदशरात्रकथनम् : पञ्चाहो भवति पञ्च वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्त्यथा पञ्चाक्षरा पङ्क्तिः - तै.सं. ७.३.८.१

*एकविंशतिरात्रकथनम् : त एकविँशतिरात्रमासीरन्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविँश एतावन्तो वै देवलोकाः - तै.सं. ७.३.१०.५

*द्वितीय चतुर्विंशतिरात्रकथनम् : - - - - - - श्रीर्हि मनुष्यस्य देवी संसज्ज्योतिरतिरात्रो भवति सुर्वगस्य लोकस्यानुख्यात्यै पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः संवत्सरस्तं मासा अर्धमासा ऋतवः प्रविश्य देवीं संसदमगच्छन् - तै.सं. ७.४.२.२

*त्रिंशद्रात्रकथनम् : ज्योतिरतिरात्रो भवति सुवर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट्पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ७.४.३.२

*त्रयस्त्रिंशद्रात्रकथनम् : पञ्चाहा भवन्ति पञ्च वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्ति - तै.सं. ७.४.५.२

*षट्त्रिंशद्रात्रकथनम् : षडहा भवन्ति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठन्ति चत्वारो भवन्ति चतस्रो दिशो दिक्ष्वेव प्रति तिष्ठन्ति - - - - देवता एव पृष्ठैरव रुन्धते पशूञ्छन्दोमैरोजो वै वीर्यं पृष्ठानि पशवश्छन्दोमा - तै.सं. ७.४.६.२

*एकोनपञ्चाशद्रात्रकथनम् : पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट्पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - - - - - - - - - षडाश्विनानि भवन्ति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठन्ति - तै.सं.  ७.४.७.२

*मासगताहकथनम् : षडहेन यन्ति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठन्ति उभयतोज्योतिषा यन्त्युभयत एव सुवर्गे लोके प्रतितिष्ठन्तो यन्ति द्वौ षडहौ भवतः - तै.सं. ७.४.११.३

*संवत्सरसत्रकथनम् : षडहा भवन्ति षड्वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्ति गौश्चाऽऽयुश्च मध्यतः स्तोमौ भवतः संवत्सरस्यैव तन्मिथुनं मध्यतः दधति प्रजननाय ज्योतिरभितो भवति विमोचनमेव - - - तै.सं. ७.५.१.४

*ऋतुभिर्वा एष छन्दोभिः स्तोमैः पृष्ठैश्चेतव्य इत्याहुर्यदेतानि हवींषि निर्वपत्यृतुभिरेवैनं छन्दोभिः स्तोमैः पृष्ठैश्चिनुते - तै.सं. ७.५.१५.२

*- - - पञ्चदशिनोऽर्धमासास्त्रिंशिनो मासाः क्लृप्ता ऋतवः शान्तः संवत्सरः। - तै.सं. ७.५.२०.१

*उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः - - - - पर्वाणि मासाः संधानान्यृतवोऽङ्गानि संवत्सर आत्मा - - - - तै.सं. ७.५.२५.१

*ऋतुभिर्वर्धतु क्षयमित्यृतवो वै सोमस्य राज्ञो राजम्भ्रातरो यथा मनुष्यस्य तैरेवैनं तत्सहाऽवगमयति - ऐतरेय ब्राह्मण १.१३

*सप्तदशो वै प्रजापतिर्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्तावान्संवत्सरः। संवत्सरः प्रजापतिः - ऐ.ब्रा. १.१६

*ते वा एभ्यो लोकेभ्यो नुत्ता असुरा ऋतूनश्रयन्त ते देवा अब्रुवन्नुपसद एवोपायामेति तथेति त इमास्तित्रः सतीरुपसदो द्विर्द्विरेकैकामुपायंस्ताः षट् सम्पद्यन्त षड् वा ऋतवस्तान्वा ऋतवस्तान्वा ऋतुभ्योऽनुदन्त। ते वा ऋतुभ्यो नुत्ता असुरा मासानश्रयन्त ते देवा अब्रुवन्नुपसद एवोपायामेति तथेति त इमाः षट् सतीरुपसदो द्विर्द्विरेकैकामुपायंस्ता द्वादश समपद्यन्त- - - - ऐ.ब्रा. १.२३

*यां देवा एषु लोकेषु यामृतुषु यां मासेषु यामर्धमासेषु यामहोरात्रयोर्विजितिं व्यजयन्त तां विजितिं विजयते य एवं वेद - ऐ.ब्रा. १.२३

*एकविंशतिः संपद्यन्त एकविंशो वै प्रजापतिर्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः - ऐ.ब्रा. १.३०

*प्राणा वा ऋतुयाजास्तद्यदृतुयाजैश्चरन्ति प्राणानेव तद्यजमाने दधति। षड्ऋतुनेति यजन्ति प्राणमेव तद्यजमाने दधति। चत्वार ऋतुभिरिति यजन्त्यपानमेव तद्यजमाने दधति। द्विर्ऋतुनेत्युपरिष्टाद्व्यानमेव तद्यजमाने दधति। स वा अयं प्राणस्त्रेधा विहितः प्राणोऽपानो व्यान इति तद्यदृतुन ऋतुभिर्ऋतुनेति यजति प्राणानां संतत्यै प्राणानामव्यवच्छेदाय। प्राणा वा ऋतुयाजा नर्तुयाजानामनु वषट्कुर्यादसंस्थिता वा ऋतव एकैक एव। यदृतुयाजानामनु वषट्कुर्यादसंस्थितानृतून्संस्थापयेत्संस्था वा एषा यदनुवषट्कारो य एनं तत्र ब्रूयादसंस्थितानृतून्समतिष्ठिपद्दुःषमं भविष्यतीति शश्वत्तथा स्यात्तस्मान्नर्तुयाजानामनु वषट्कुर्यात् - ऐ.ब्रा.  २.२९

*षट्पदं तूष्णींशंसं शंसति षड्वा ऋतव ऋतूनेव तत्कल्पयत्यृतूनप्येति - ऐ.ब्रा.  २.४१

*षळिति वषट्करोति षड्वा ऋतव ऋतूनेव तत्कल्पत्यृतून्प्रतिष्ठापयत्यृतून्वै प्रतितिष्ठत इदं सर्वमनु प्रतितिष्ठति यदिदं किंच - - - - -वौषळिति वषट्करोत्यसौ वाव वावृतवः षळेतमेव तदृतुष्वादधात्यृतुषु प्रतिष्ठापयति यादृगिव वै देवेभ्यः करोति तादृगिवास्मै देवाः कुर्वन्ति - ऐ.ब्रा.  ३.६

*अथ हैते पोत्रीयाश्च नेष्ट्रीयाश्च चत्वार ऋतुयाजाः षळृचः सा विराड्दशिनी तद्विराजि यज्ञं दशिन्यां प्रतिष्ठापयन्ति - ऐ.ब्रा. ३.५०

*प्रथमं षळहमुपयन्ति षळहानि भवन्ति षड्वा ऋतव ऋतुश एव तत्संवत्सरमाप्नुवन्त्यृतुशः संवत्सरे प्रतितिष्ठन्तो यन्ति। द्वितीयं षळहमुपयन्ति द्वादशाहानि भवन्ति द्वादश वै मासा मासश एव तत्संवत्सरमाप्नुवन्ति- - - - - - - ऐ.ब्रा.  ४.१६

*गवामयनम् : अथ याः समापयिष्यामः संवत्सरमित्यासत तासामश्रद्धया शृङ्गाणि (न) प्रावर्तन्त ता एतास्तूपरा ऊर्जं त्वसुन्वंस्तस्मादु ताः सर्वानृतून्प्राप्त्वोत्तरमुत्तिष्ठन्त्यूर्जं ह्यसुन्वन्सर्वस्य वै गावः प्रेमाणं सर्वस्य चारुतां गताः - ऐ.ब्रा. ४.१७

*प्रजापतियज्ञो वा एष यद्द्वादशाहः - - - - सोऽब्रवीदृतूंश्च मासांश्च याजयत मा द्वादशाहेनेति तं दीक्षयित्वाऽनपक्रमं गमयित्वाऽब्रुवन्देहि नु नोऽथ त्वा याजयिष्याम इति तेभ्य इषमूर्जं प्रायच्छत्सैषोर्गृतुषु च मासेषु च निहिता ददतं वै ते तमयाजयंस्तस्माद्ददद्याज्यः प्रतिगृह्णन्तो वै ते तमयाजयंस्तस्मात्प्रतिगृह्णता याज्यम् - ऐ.ब्रा. ४.२५

*ते वा इम ऋतवश्च मासाश्च गुरव इवामन्यन्त द्वादशाहे प्रतिगृह्य तेऽब्रुवन्प्रजापतिं याजय नो द्वादशाहेनेति स तथेत्यब्रवीत्ते वै दीक्षध्वमिति ते पूर्वपक्षा पूर्वेऽदीक्षन्त ते पाप्मानमपाहत - - - ऐ.ब्रा. ४.२५

*स वा अयं प्रजापतिः संवत्सर ऋतुषु च मासेषु च प्रत्यतिष्ठत्ते वा इम ऋतवश्च मासाश्च प्रजापतावेव संवत्सरे प्रत्यतिष्ठंस्त एतेऽन्योऽन्यास्मिन्प्रतिष्ठिता - ऐ.ब्रा. ४.२५

*दीक्षा वै देवेभ्योऽपाक्रामत्तां वासन्तिकाभ्यां मासाभ्यामन्वयुञ्जत तां वासन्तिकाभ्यां मासाभ्यां नोदाप्नुवंस्ता ग्रैष्माभ्यां तां वार्षिकाभ्यां तां शारदाभ्यां तां हैमन्तिकाभ्यां मासाभ्यामन्वयुञ्जत तां हैमन्तिकाभ्यां मासाभ्यां नोदाप्नुवंस्तां शैशिराभ्यां मासाभ्यामन्वयुञ्जत तां शैशिराभ्यां मासाभ्यामाप्नुवन् - ऐ.ब्रा. ४.२६

*न वै देवा अन्योन्यस्य गृहे वसन्ति नर्तुर्ऋतोर्गृहे वसतीत्याहुस्तद्यथायथमृत्विज ऋतुयाजान्यजन्त्यसंप्रदायं तद्यथर्त्वृतूoन्कल्पयन्ति यथायथं जनताः। तदाहुर्नर्तुप्रेषैः प्रेषितव्यं नर्तुप्रैषैर्वषट्कृत्यं वाग्वा ऋतुप्रैषा आप्यते वै वाक्षष्ठेऽग्नीति। यदृतुप्रैषैः प्रेष्येयुर्यदृतुप्रैषैर्वषट्कुर्युर्वाचमेव तदाप्तां श्रान्तामृक्णवहीं वहराविणीमृच्छेयुः - ऐ.ब्रा. ५.९

*अथ ब्रह्मोद्यं वदन्ति अग्निर्गृहपतिरिति हैक आहुः सोऽस्य लोकस्य गृहपतिः - - - - -असौ वै गृहपतिर्योऽसौ तपत्येष पतिर्ऋतवो गृहाः। येषां वै गृहपतिं देवं विद्वान्गृहपतिर्भवति राध्नोति स गृहपती राध्नुवन्ति ते यजमानाः - ऐ.ब्रा.५.२५

*तद्वै षळृचं षड्वा ऋतव ऋतूनामाप्त्यै। तदुपरिष्टात्संपातानां शंसत्याप्त्वैव तत्स्वर्गं लोकं यजमाना अस्मिंलोके प्रतितिष्ठन्ति - ऐ.ब्रा. ६.२०

*अथ हायं धूमेन सहोर्ध्व उत्क्रामति। तस्य हैतस्यर्तवो द्वारपाः। तेभ्यो हैतेन प्रब्रुवीत। विचक्षणाद् ऋतवो रेत आभृतम् अर्धम स्यं प्रसुताद् पित्र्यावतः। - - - - - समं तद् विदे प्रति तद् विदे ऽहं तं मा ऋतवो ऽमृत आनयध्वम् ॥ इति। तं हर्तव आनयन्ते। यथा विद्वान् विद्वांसं यथा जानन्तम् एवं हैनम् ऋतव आनयन्ते। तं हात्यर्जयन्ते। स हैतम् आगच्छति तपन्तम्। - - - - - - -तस्मिन् हात्मन् प्रतिपत्त ऋतवस् संपलाय्य पद्गृहीतम् अपकर्षन्ति। तस्य हाहोरात्रे लोकम् आप्नुतः। - जैमिनीय ब्राह्मण १.१८

*तस्य हैतस्य देवस्याहोरात्रे अर्धमासा मासा ऋतवस् संवत्सरो गोप्ता य एष तपति। अहोरात्रे प्रचरे। तं हर्तूनाम् एको यः कूटहस्तो रश्मिना प्रत्यवेत्य पृच्छति को ऽसि पुरुषेति। - जै.ब्रा. १.४६

*ते अत्र मासे शरीरं चासुश् च संगच्छाते। तं हर्तूनाम् एको यः कूटहस्तो रश्मिना प्रत्यवेत्य पृच्छति को ऽसि पुरुषेति। तं प्रतिब्रूयात् - विचक्षणाद् ऋतवो रेत आभृतम् अर्धमास्यं प्रसुतात् पित्र्यावतः। - जै.ब्रा. १.४९

*अहर् मे पिता रात्रिर् माता ॥ सत्यम् अस्मि। ते मर्तवो ऽमृत आनयध्वम् इति। तं हर्तव आनयन्ते। यथा विद्वान् विद्वांसं यथा जानन् जानन्तम् एवं हैनम् ऋतव आनयन्ते। - जै.ब्रा. १.५०

*पङ्क्तिं गायति। ऋतवो वै पङ्क्तिः। तस्यै षड् अक्षराणि द्योतयति। षड् वा ऋतवः। ऋतुष्व~ एव तत् प्रतितिष्ठति। - जै.ब्रा. १.१०२

*पङ्क्त्यां प्रस्तुतायां गायत्रम् एव गायन्न् ऋतून् मनसा गच्छेत्। परोक्षेणैवैनान् तद् रूपेण गायति। - जै.ब्रा. १.१०४

*षड् अक्षराणि स्तोभति। षड् वा ऋतवः। ऋतुष्व~ एव तत् प्रतितिष्ठति। अथो षड् वै छन्दांसि। - जै.ब्रा. १.१३१

*स नवभिर् एकविंशैर् अमूर् ऊर्ध्वा उदृभ्नोत्। ताः परेण दिवं पर्यौहत्। ता एताः पर्यूढा ऋतुशो वर्षन्तीस् तिष्ठन्ति। - जै.ब्रा. १.२३७

*स यो ह स मृत्युस् संवत्सर एव सः। तस्य हर्तव एव मुखानि। तद् यद्वै किं च मि|यते न हास्यानृतौ मि|यते य एवं वेद। ऋतुषु वाव प्रजायते प्रजया पशुभिर् य एवं वेद। - जै.ब्रा. १.२४६

*ता एता नव बहिष्पवमान्यः। ताष् षड् बृहत्यः। षड् उ मृत्योर् मुखान्य् ऋतव एव। - - - - स बृहत्यैवर्तोर् मुखम् अपिदधाति। बृहत्य् ऋतोर् बृहत्य् ऋतोः। स यथा समेन विषमम् अतीत्य प्रत्यवेक्षेतैवम् एवैतं मृत्युं प्राङ् अतीत्य प्रत्यवेक्षते। - जै.ब्रा. १.२४७

*स हैवं विद्वान् अहोरात्रयोर् अर्धमासशो मासश ऋतुशस् संवत्सरश एतस्मिन् सर्वस्मिन्न् आत्मानम् उपसंधाय तं मृत्युं तरति यस् स्वर्गे लोके। - जै.ब्रा. १.२५२

*अथ यथो संवत्सरं भृत्वा गर्भं जनयेद् ऋतौ पक्वा ओषधी प्रचिनुयुस् तासां कामान् कुर्वीरन्न् एवं तद् यद् उपरिष्टात् संवत्सरस्य पृष्ठान्य् उपयन्ति। - जै.ब्रा. २.३

*द्वया ह वै पूर्व ऋतव आसुः - प्राणर्तवो देवर्तवः। अथेम एतर्ह्य् ऋतव एव। प्राण एव वसन्त आस। वाग् ग्रीष्मः। चक्षुर् वर्षाः। आर्द्रम् इव वै चक्षुर्, आर्द्र इव वर्षाः। श्रोत्रं शरत्। मनो हेमन्तः। या इमाः पुरुष आपस् स शिशिरः। अथ देवर्तवः। वायुर् एव वसन्त आस। अग्निर् ग्रीष्मः। पर्जन्यो वर्षाः। आदित्यश् शरत्। चन्द्रमा हेमन्तः। या अमूर् दिव्या आपस् स शिशिरः। स यस् स प्राणो वसन्त आस, यो वायुर् वसन्तस् , सो ऽयम् एतर्हि वसन्तः। - - - - - - - जै.ब्रा. २.५१

*त एते षड् ऋतवष् षड् दिशः। त एत ऋतवो दिग्भिर् मिथुना - वसन्तेनेयं प्राची दिङ् मिथुना, ग्रीष्मेणेयं, वर्षाभिर् इयं, शरदेयं, हेमन्तेनासौ, शिशिरेणेयम्। - - - - - - अथर्तून् अन्व् आरोहति। य ऋतव ऋतुभ्यो ऽध्य् आसन् पुरा सूर्याचन्द्रमसश् च पूर्वे। येभिः प्रजानन् प्रदिशो दिशश् च तान अन्व् आरोहामि तपसा ब्रह्मणा च। इति प्राणर्तून् अन्व् आरोहति। य ऋतवश् चन्द्रमसो ऽधि पूर्व ऋचं वाचं ब्रह्माणम् आबभूवुः। इत्य् एवंविदं ह्य् आभवन्। येभिः प्रजानन् प्रदिशो दिशश् च तान् अन्व् आरोहामि तपसा ब्रह्मणा च। इति देवर्तून् अन्व् आरोहति। य एक ऋतुस् त्रय ऋतवश् च ये षड् चतुर्विंशतिर् ऋतवो ये द्वादश सप्तदशान्य् उत विंशतिश् च तान् अन्व् आरोहामि तपसा ब्रह्मणा च। इतीमान् ऋतून् अन्व् आरोहति। स एवम् एतैस् तैर् ऋतुभिः परिगृहीतः। - - - - - - जै.ब्रा. २.५२

*एकविंशं च वा पञ्च प्राणं चादित्यं च। अथ ये द्वे अक्षरे ते बृहद्रथन्तर, ते अहोरात्रे। सो ऽर्धमासस् स मासस् स ऋतुस् स संवत्सरः। - - - - - कथं यजमानः प्राणैश् छन्दांस्य् अप्येति। छन्दोभि स्तोमान्, - - - - - - - अर्धमासेन मासं, मासेनर्तुम्, ऋतुना संवत्सरम्। - जै.ब्रा. २.६०

*स यत् संवत्सरभृता वा संवत्सरभृता वाग्निना चित्येन यजेत। स एताभ्यां यजेत। सद्यो हैवास्य संवत्सर ऋतुशो मासशो ऽर्धमासशो ऽन्विष्टो भवति। तद् यत् पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्त्य् - ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवस् - तेनर्तुशः। - जै.ब्रा. २.१०७

*तस्य पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्ति। ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवः। संवत्सरः प्रजननम्। - जै.ब्रा.  २.१०८

*स यस् संवत्सरभृता वा संवत्सरभृता वाग्निना चित्येन यजेत स एतेन यजेत। सद्यो हैवास्य संवत्सर ऋतुशो ऽर्धमासशो मासशो रात्रिशो ऽन्विष्टो भवति। तद् यत् पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्त्य् - ऋतवो वै पृष्ठानि, संवत्सर ऋतवस् - तेनर्तुशः। - जै.ब्रा.  २.१०९

*अथो आहु स्वर्गकाम एवैनेन यजेतेति। तस्य पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्त्य् - ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवः। - जै.ब्रा.  २.१६२

*स यस् संवत्सरभृता वा संवत्सरभृता वाग्निना चित्येन यजेत, स एतेन यजेत। सद्यो हैवास्य संवत्सर ऋतुशो मासशो ऽर्धमासशो रात्रिशो ऽन्विष्टो भवति। तद् यत् पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्त्य् - ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवस् - तेनर्तुशः। - जै.ब्रा. २.१६३

*अथैत ऋतुष्टोमाः। ऋतवो वा अकामयन्त समानेन यज्ञेन समानीम् ऋद्धिम् ऋध्नुयामावान्नाद्यं रुन्धीमहि, पुनर्नवाः पुनर्नवा स्यामेति। त एतान् यज्ञान् अपश्यन्। तान् आहरन्त। तैर् अयजन्त। स वसन्तः प्रथमो ऽयजत। स एतेनायजत। स एताम् एवर्द्धिम् आर्ध्नोद् एतद् अन्नाद्यम् अवारुन्द्धैतां पुनर्नवतां यैषा वसन्तस्य। अथ शिशिर ऐक्षत - येनैवेमे पूर्वा इष्ट्वारात्सुस् तेनो एवाहं यजा इति। स तेनैवायजत। स एताम् एवार्द्धिम् आर्ध्नोद् एतद् अन्नाद्यम् अवारुन्द्धैतां पुनर्नवतां यैषा शिशिरस्य। - - - - जै.ब्रा. २.२११

*- - - - -स हर्तूनाम् एवैको भवति। ऋतून् एवाप्येत्य् अक्षय्यं हास्याव्यवच्छिन्नं सुकृतं भवति। पांक्तो यज्ञो, ये पांक्ताः पशवो, यत् पांक्तम् अन्नाद्यं, ये पंचर्तवो, यत् किं च पञ्च पञ्च तस्यैषा सर्वस्यर्द्धिस् तस्योपाप्तिः। तेषाम् उ एकैकस्य षष्टि षष्टि स्तोत्र्या भवन्ति। तावतीर् ऋतो रात्रयः। तेनर्तून् नातिष्टुवन्ति। - - - - - तेषु यान्य् ऋतुनिधनानि यान्य् ऋतुनिधनानि सामानि तान्य् अवकल्पयन्ति स्वर्ग्याणि - जै.ब्रा. २.२१३

*- - - - - - युवस् ते यज्ञस्याज्यम् असि धीष्णस् त्व् ऋतुस्था मनस्था मनसो ग्रामस्यामाविशनाभृत् ते ऽस्मि - - - जै.ब्रा. २.२५९

*अनृतौ वा एष प्रतिष्ठितो यत् षडहः। पञ्चाहो वै ऋतौ प्रतिष्ठित इति। वसन्तो वै प्रथम ऋतूनां, ग्रीष्मो द्वितीयो, वर्षास् तृतीयाश्, शरच् चतुर्थी, हेमन्तः पञ्चमश, शिशिरष षष्ठः। स एष श्रेष्ठ ऋतूनां यद्धेमन्तः पीवगुः पीवत्सः। तम् अनु पञ्चाहः प्रतितिष्ठन्न् एति। अथैष परिचक्ष्यैव यच् छिशिरः कृशगुः कृशपुरुषः। तम् अनु षडहः प्रतितिष्ठति। स य श्रेष्ठ ऋतूनां हेमन्तस् तस्य प्रतिष्ठाम् अनु प्रतितिष्ठन्तो ऽयामेति - जै.ब्रा.  २.३५६

*एतं वा एत आरभ्य यन्तीन्द्रं प्रजापतिं विप्रं पदम् ऋतुपात्रं विश्वान् देवान् स्वर्गं लोकम्। - जै.ब्रा. २.३७३

*- - - - स षडहो ऽभवत्। तस्मात् षडहात् षड् ऋतून् प्रजनयत्। षट्स्व~ ऋतुषु प्रत्यतिष्ठन्। तद् यद् एष षडहो भवति षड् एवैतस्माद् ऋतून् प्रजन्यन्ति, षट्स्व~ ऋतुषु प्रतितिष्ठन्ति। - जै.ब्रा.  २.३७५

*एतद् ध वै संवत्सरस्य व्याप्तं यद् ऋतवो यन् मासा यद् ऋतुसन्धयः। तद् उ वा आहुर् य ऋतवो ये मासा य ऋतुसन्धयो ऽहोरात्रे वाव तद् भवतः। - जै.ब्रा. २.४२२

*स (प्रजापतिः) तपो ऽतप्यत। स आत्मन्न ऋत्वियम् अपश्यत्। ततस् त्रीन् ऋतून् असृजतेमान् एव लोकान्। यद् ऋत्वियात् असृजत तद् ऋतूनाम् ऋतुत्वम्। यद् ऋत्वियात् अजनयत् तस्माद् ऋत्विज इत्य् आख्यायन्ते। स यत् प्रथमम् अतप्यत ततो ग्रीष्मम् असृजत। तस्मात् स बलिष्ठं तपति। यद्द्वितीयम् अतप्यत ततो वर्षा असृजत। तस्मात् ता उभयं कुर्वन्त्य् आ च तपन्ति वर्षन्ति च। यत् तृतीयम् अतप्यत ततो हेमन्तम् असृजत। तस्मात् स शीततम इव। त्रीन् सतो ऽभ्यतप्यत। तान् द्वेधा व्यौहत्। ते षड् ऋतवो ऽभवन्। स ग्रीष्माद् एव वसन्तं निरमिमीत, वर्षाभ्यश् शरदं, हेमन्ताच् छिशिरम्। तस्माद् एत ऋतूनाम् उपश्लेषा इव निर्मिता हि। - जै.ब्रा. ३.१

*तद् ऋतवः प्रसुते पश्चेवान्वबुध्यन्त - प्र हैभ्यो ऽदाद् इति। तम् अब्रुवन्न् - अस्मभ्यम् अपि दक्षिणां प्रयच्छेति। तेभ्यो ऽन्नाद्यं प्रायच्छत्। - - - - - तद् एतद् यथर्त्व् अन्नाद्यं पच्यते। - - - - प्रत्य् ऋतवो ऽगृह्णन् न मासाः प्रतिग्रहम् अकामयन्त। तस्मान् मासा आख्याततरा इव। आख्याततर उप ह्य् एवाप्रतिगृह्णन् भवति। तस्माद् ऋतवो ज्यायांसः। - जै.ब्रा. ३.२

*यो वै विराजम् ऋतुप्रतिष्ठितां वेदर्तूrन् विराजि प्रतिष्ठितान्, गच्छति प्रतिष्ठाम् अवान्नाद्यं रुन्द्धे। त्रिंशदक्षरा विराट्। षड् ऋतवः। एतद् वै विराड् ऋतुषु प्रतितिष्ठत्य्, ऋतवो विराजि। - जै.ब्रा. ३.५

*अथ महानाम्नयः। प्राणा वा अग्रे सप्त। तेभ्य एतां सप्तपदां शक्वरीं निरमिमीत। - - - - सप्तपदायै षट्पदाम् ऋतून् संवत्सरम्। ऋतुभ्य आत्मानं परिदत्ते य एवं वेद। - जै.ब्रा. ३.११०

*ऋतुमन्ति पञ्चाहान्य् अनृतु षष्ठम्। तद् यद्धोत्रा ऋतुयाजान् नाना वषट्कुर्वन्ति तेनैव षष्ठम् अहर् ऋतुमत् क्रियते। तासु वारवन्तीयम्। - - - - -अग्निर् वा एष वैश्वानरो यत् पृष्ठ्यष् षडहः। ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवः। - जै.ब्रा. ३.१५४

*आधानप्रकरणम् : वसन्ता ब्राह्मणोऽग्निमादधीत। वसन्तो वै ब्राह्मणस्यर्तुः। स्व एवैनमृतावाधाय। ब्रह्मवर्चसी भवति। मुखं वा एतदृतूनाम्। यद्वसन्तः। - - - - ग्रीष्मे राजन्य आदधीत। ग्रीष्मो वै राजन्यस्यर्तुः। स्व एवैनमृतावाधाय। इन्द्रियावी भवति। शरदि वैश्य आदधीत। शरद्वै वैश्यस्यर्तुः। स्व एवैनमृतावाधाय। पशुमान्भवति। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.२.६

*अग्नीधे ददाति। अग्निमुखानेवर्तून्प्रीणाति। उपबर्हणं ददाति। रूपाणामवरुद्ध्यै। - तै.ब्रा. १.१.६.९

*येऽग्नयः समनसः। अन्तरा द्यावापृथिवी। वासन्तिकावृतू अभिकल्पमानाः। इन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु। - तै.ब्रा. १.२.१.१८

*- - - - -ते देवा विजित्य। अग्नीषोमावन्वैच्छन्। तेऽग्निमन्वविन्दन्नृतुषूत्सन्नम्। तस्य विभक्तीभिस्तेजस्विनीस्तनूरवारुन्धत। - - - - - - अनाग्नेयं वा एतत्क्रियते। यत्समिधस्तनूनपातमिडो बर्हिर्यजति। - तै.ब्रा. १.३.१.१

*वाजपेय ब्राह्मणे पिण्डपितृpयज्ञः :- त्रिर्निदधाति। षट् संपद्यन्ते। षड् वा ऋतवः। ऋतूनेव प्रीणाति। तूष्णीं मेक्षणमादधाति। अस्ति वा हि षष्ठ ऋतुर्न वा। देवान्वै पितृqन्प्रीतान्। मनुष्याः पितरोऽनु प्रपिपते। तिस्र आहुतीर्जुहोति। त्रिर्निदधाति। षट् संपद्यन्ते। षड् वा ऋतवः। ऋतूनेव देवान्पितॄन्प्रीणाति। तान्प्रीतान्। मनुष्याः पितरोऽनु प्रपिपते। - तै.ब्रा. १.३.१०.३

*नक्षत्रेष्टका :- - - - अङ्गेभ्य उक्थ्यम्। आयुषो ध्रुवम्। प्रतिष्ठाया ऋतुपात्रे। - तै.ब्रा. १.५.४.२

*अग्निहोत्रे उपयुक्त हविः संस्काराः :- द्विर्जुहोति। द्विर्निमार्ष्टि। द्विः प्राश्नाति। षट् संपद्यन्ते। षड् वा ऋतवः। ऋतूनेव प्रीणाति। - तै.ब्रा. २.१.४.५

*प्रजापतिर्वै दश होता। चतुर्होता पञ्चहोता। षड्ढोता सप्तहोता। ऋतवः संवत्सरः। प्रजाः पशव इमे लोकाः। - तै.ब्रा. २.२.३.२

*- - - - सो (इन्द्रो)ऽब्रवीत्। किं भागधेयमभिजनिष्य इति। ऋतून्संवत्सरम्। प्रजाः पशून्। इमाँल्लोकानित्यब्रुवन्। - तै.ब्रा. २.२.३.४

*संवत्सरो वै पञ्चहोता। संवत्सरः सुवर्गो लोकः। संवत्सर एवर्तुषु प्रतिष्ठाय। सुवर्गं लोकमेति। - तै.ब्रा. २.२.३.६

*द्वादश मासाः पञ्चर्तवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविँशः। एतस्मिन्वा एष श्रितः। - तै.ब्रा. २.२.३.७

*प्रायश्चित्ती वाग्घोvतेत्यृतुमुख ऋतुमुखे जुहोति। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। कल्पन्तेऽस्मा ऋतवः। क्लृप्ता अस्मा ऋतव आयन्ति। - तै.ब्रा. २.३.२.२

*केशनिवर्तनं : चन्द्रमा न्यवर्तयत। सोऽहोरात्रैरर्धमासैर्मासैर्ऋतुभिः संवत्सरेणापुष्यत्। - तै.ब्रा. २.३.३.२

*ययोरिदं विश्वं भुवनमाविवेश। ययोरानन्दो निहितो महश्च। शुनासीरावृतुभिः संविदानौ। इन्द्रवन्तौ हविरिदं जुषेथाम्। - तै.ब्रा. २.४.५.७

*नवं सोम जुषस्व नः। पीयूषस्येह तृप्णुहि। यस्ते भाग ऋता वयम्। - - - - नवं हविर्जुषस्व नः। ऋतुभिः सोम भूतमम्। तदङ्ग प्रतिहर्य नः। राजन्त्सोम स्वस्तये। - तै.ब्रा. २.४.८.२

*प्र हव्यानि घृतवन्त्यस्मै। हर्यश्वाय भरता सजोषाः। इन्द्रर्तुभिर्ब्रह्मणा वावृधानः। शुनासीरी हविरिदं जुषस्व। - तै.ब्रा. २.५.८.३

*पितृpयज्ञविषयक मन्त्राः :- अग्निष्वात्तानृतुमतो हवामहे। नराशंसे सोमपीथं य आशुः। ते नो अर्वन्तः सुहवा भवन्तु। शं नो भवन्तु द्विपदे शं चतुष्पदे। - तै.ब्रा. २.६.१६.१

*वान्यायै दुग्धे जुषमाणाः करम्भम्। उदीराणा अवरे परे च। अग्निष्वात्ता ऋतुभिः संविदानाः। इन्द्रवन्तो हविरिदं जुषन्ताम्। - तै.ब्रा. २.६.१६.२

*ऐन्द्रस्य पशोः वपायाः पुरोनुवाक्या : वसन्तेनर्तुना देवाः। वसवस्त्रिवृता स्तुतम् रथंतरेण तेजसा। हविरिन्द्रे वयो दधुः ॥ वपायाज्या : ग्रीष्मेण देवा ऋतुना रुद्राः पञ्चदशे स्तुतम्। बृहता यशसा बलम्। हविरिन्द्रे वयो दधुः। पुरोडाशस्य पुरोनुवाक्या : वर्षाभिर्ऋतुनाऽऽदित्याः। स्तोमे सप्तदशे स्तुतम्। वैरूपेण विशौजसा। हविरिन्द्रे वयो दधुः। पुरोडाशस्य याज्या : शारदेनर्तुना देवाः। एकविँश ऋभवः स्तुतम्। वैराजेन श्रिया श्रियम्। हविरिन्द्रे वयो दधुः। हविषः पुरोनुवाक्या : हेमन्तेनर्तुना देवाः। मरुतस्त्रिणवे स्तुतम्। बलेन शक्वरी सहः। हविरिन्द्रे वयो दधुः। हविषो याज्या : शैशिरेणर्तुना देवाः। त्रयस्त्रिंशेऽमृतं स्तुतम्। सत्येन रेवतीः क्षत्त्रम्। हविरिन्द्रे वयो दधुः। - तै.ब्रा. २.६.१९.१

*अग्निष्टुदाख्ये क्रतौ ग्रहाणां ग्रहकाले पुरोरुक्। आश्विन् ग्रहस्य पुरोरुक् : अश्विना पिबतं सुतम्। दीद्यग्नी शुचिव्रता। ऋतुना यज्ञवाहसा। - तै.ब्रा. २.७.१२.१

*चन्द्रमस इष्टिः :- चन्द्रमा वा अकामयत। अहोरात्रानर्धमासान्मासानृतून्त्संवत्सरमाप्त्वा१। चन्द्रमसः सायुज्यं सलोकतामाप्नुयामिति। स एतं चन्द्रमसे प्रतीदृश्यायै पुरोडाशं पञ्चदशकपालं निरवपत्। - तै.ब्रा. ३.१.६.१

*त्रीन्परिधीन्परिदधाति। ऊर्ध्वे समिधावादधाति। अनूयाजेभ्यः समिधमतिशिनष्टि। षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतूनेव प्रीणाति। - तै.ब्रा. ३.३.७.२

*इष्टिहौत्रस्य मन्त्राः :- विद्वां ऋतूंर्ऋतुपते यजेह। - तै.ब्रा. ३.५.७.५

*पत्नी संयाजः :- वियन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम्। - तै.ब्रा. ३.५.१२.१

*दशम प्रयाज : - - - - स्वदात्स्वधितिर्ऋतुथाऽद्य देवो देवेभ्यो हव्याऽवाड्वेत्वाज्यस्य होतर्यज। - तै.ब्रा. ३.६.२.२

*उपावसृत्तमन्या समञ्जन्। देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः। स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन। - तै.ब्रा. ३.६.३.४

*यत्पाकत्रा मनसा दीनदक्षा न। यज्ञस्य मन्वते मर्तासः। अग्निष्टद्धोता क्रतुविद्विजानन्। यजिष्ठो देवां ऋतुशो यजाति। - तै.ब्रा. ३.७.११.५

*तदाहुः। द्वादशारत्नी रशना कर्तव्या त्रयोदशारत्नीरिति। ऋषभो वा एष ऋतूनाम्। यत्संवत्सरः। तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपम्। ऋषभ एष यज्ञानाम्। - तै.ब्रा. ३.८.३.३

*एकविँशतिर्वै देवलोकाः। द्वादश मासाः पञ्चर्तवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविँशः। - - - - - भुवो देवानां कर्मणेत्यृतुदीक्षा जुहोति। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। - तै.ब्रा. ३.८.१७.२

*मृताश्वोपचारः :- त्रिः पुनः परियन्ति। षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभिरेवैनं धुवते। - तै.ब्रा. ३.९.६.२

*त्रिरात्रस्य द्वितीयेऽहनि पृष्ठस्तोत्रे शाक्वरं साम : एकविँशात्प्रतिष्ठाया ऋतूनन्वारोहति। ऋतवो वै पृष्ठानि ॥ ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रतिष्ठाय। देवता अभ्यारोहति। - तै.ब्रा. ३.९.९.१

*ऋतुभिर्वा एष व्यृध्यते। योऽश्वमेधेन यजते। पिशङ्गास्त्रयो वासन्ता इत्यृतुपशूनालभते। ऋतुभिरेवाऽऽत्मानं समर्धयति। - तै.ब्रा. ३.९.१०.३

*वैश्वसृज चयनाभिधानम् : आर्तवा उपगातारः। सदस्या ऋतवोऽभवन्। अर्धमासाश्च मासाश्च। चमसाध्वर्यवोऽभवन्। - तै.ब्रा. ३.१२.९.४

*एकं हि शिरो नाना मुखे। कृत्स्नं तदृतुलक्षणम्। उभयतः सप्तेन्द्रियाणि जल्पितं त्वेव दिह्यते। - तैत्तिरीय आरण्यक १.२.३

*ऋतुर्ऋतुना नुद्यमानः। विननादाभिधावः। षष्टिश्च त्रिंशका वल्गाः। शुक्लकृष्णौ च षाष्टिकौ। सारागवस्त्रैर्जरदक्षः। वसन्तो वसुभिः सह। संवत्सरस्य सवितुः। प्रैषकृत्प्रथमः स्मृतः। - - - - -एतदेव विजानीयात्। प्रमाणं कालपर्यये। विशेषणं तु वक्ष्यामः। ऋतूनां तन्निबोधत। शुक्लवासा रुद्रगणः। ग्रीष्मेणाऽऽवर्तते सह। निजहन्पृथिवीं सर्वाम्। ज्योतिषाऽप्रतिख्येन सः। विश्वरूपाणि वासांसि। आदित्यानां निबोधत। संवत्सरीणं कर्मफलम्। वर्षाभिर्ददतां सह। अदुःखो दुःखचक्षुरिव। तद्मा पीत इव दृश्यते। शीतेनाव्यथयन्निव। रुरुदक्ष इव दृश्यते।ह्लादयते ज्वलतश्चैव। शाम्यतश्चास्य चक्षुषी। या वै प्रजा भ्रंश्यन्ते। संवत्सरात्ता भ्रंश्यन्ते। याः प्रतितिष्ठन्ति। संवत्सरे ताः प्रतितिष्ठन्ति। वर्षाभ्य इत्यर्थः। - तै.आ. १.३.२

*अक्षिदुःखोत्थितस्यैव। विप्रसन्ने कनीनिके। आङ्क्ते चाद्गणं नास्ति। ऋभूणां तन्निबोधत। कनकाभानि वासांसि। अहतानि निबोधत। अन्नमश्नीत मृज्मीत। अहं वो जीवनप्रदः। एता वाचः प्रयुज्यन्ते। शरद्यत्रोपदृश्यते। अभिधून्वन्तोऽभिघ्नन्त इव। वातवन्तो मरुद्गणाः। अमुतो जेतुमिषुमुखमिव। संनद्धाः सह ददृशे ह। अपध्वस्तैर्वस्तिवर्णैरिव। विशिखासः कपर्दिनः। अक्रुद्धस्य योत्स्यमानस्य। क्रुद्धस्येव लोहिनी। हेमतश्चक्षुषी विद्यात्। अक्ष्णयोः क्षिपणोरिव। दुर्भिक्षं देवलोकेषु। मनूनामुदकं गृहे। एता वाचः प्रवदन्तीः। वैद्युतो यान्ति शैशिरीः। - तै.आ. १.४.१

*अत्यूर्ध्वाक्षोऽतिरश्चात्। शिशिरः प्रदृश्यते। नैव रूपं न वासांसि। न चक्षुः प्रतिदृश्यते। अन्योन्यं तु न हिंस्रातः। सतस्तद्देवलक्षणम्। लोहितोऽक्ष्णि शार शीर्ष्णिः। सूर्यस्योदयनं प्रति।- - - - - - - - तस्मै सर्व ऋतवो नमन्ते मर्यादाकरत्वात्प्र पुरोधाम्। - तै.आ. १.६.१

*नैवंविदुषाऽऽचार्यान्तेवासिनौ। अन्योन्यस्मै द्रुह्याताम्। यो द्रुह्यति। भ्रश्यते स्वर्गाल्लोकात्। इत्यृतुमण्डलानि। सूर्यमण्डलान्याख्यायिकाः। - तै.आ. १.६.३

*तदप्याम्नायः। दिग्भ्राज ऋतून्करोति। - तै.आ. १.७.५

*नानालिङ्गत्वादृतूनां नानासूर्यत्वम् - तै.आ. १.७.६

*आरुणकेतुकमग्निं चेतुम् संवत्सर व्रतस्य नियमाः :- - - - - चन्द्रमसे नक्षत्रेभ्यः। ऋतुभ्यः संवत्सराय। वरुणायारुणायेति व्रतहोमाः। - तै.आ. १.३२.२

*षड्रात्रीर्दीक्षितो भवति षड्वा ऋतवः संवत्सरः संवत्सरादेवाऽऽत्मानं पुनीते - तै.आ. २.८.१

*चन्द्रमा षड्ढोता। स ऋतून्कल्पयाति। स मे ददातु प्रजां पशून्पुष्टिं यशः। ऋतवश्च मे कल्पन्ताम्। - तै.आ. ३.७.३

*येनर्तवः पञ्चधोत क्लृप्ताः। उत वा षड्धा मनसोत क्लृप्ताः। तं षड्ढोतारमृतुभिः कल्पमानम्। ऋतस्य पदे कवयो निपान्ति। - तै.आ. ३.११.५

*अध्वर्युरग्निमभिमृशति : - - - -इद्वसरोऽसि वत्सरोऽसि। तस्य ते वसन्तः शिरः। ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षः। वर्षा पुच्छम्। शरदुत्तरः पक्षः। हेमन्तो मध्यम्। पूर्वपक्षाश्चितयः। अपरपक्षाः पुरीषम्। अहोरात्राणीष्टकाः। तस्य ते मासाश्चार्धमासाश्च कल्पन्ताम्। ऋतवस्ते कल्पन्ताम्। संवत्सरस्ते कल्पताम्। - तै.आ. ४.१९.१

*त्रिः पुनः परियन्ति। षट्संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठन्ति। यो वै घर्मस्य प्रियां तनुवमाक्रामति - - - तै.आ. ५.४.१२

*षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभ्य एव यज्ञस्य शिरोऽवरुन्धे। - तै.आ. ५.६.२

*अत्र प्रावीर्मधुमाध्वीभ्यां मधुमाधूचीभ्यामित्याह। वासन्तिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। समग्निरग्निना गतेत्याह। ग्रैष्मावैवास्मा ऋतू कल्पयति। समग्निरग्निना गतेत्याह। अग्निर्ह्येवैषोऽग्निना संगच्छते। - - - - -धर्ता दिवो विभासि रजसः पृथिव्या इत्याह। वार्षिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। हृदे त्वा मनसे त्वेत्याह। शारदावेवास्मा ऋतू कल्पयति।- - - - - विश्वासां भुवां पत इत्याह। हैमन्तिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। देवश्रूस्त्वं देव घर्म देवान्पाहीत्याह। शैशिरावेवास्मा ऋतू कल्पयति। - तै.आ. ५.६.५

*इडा आह्वान : षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभिरेवैनामाह्वयति। - तै.आ. ५.७.२

*त्रिः पुनः पर्येति। षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभिरेवास्य शुचं शमयति। - तै.आ. ५.९.६

*धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्यादित्याह। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। - तै.आ. ५.९.१०

*यथाऽहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभिर्यन्ति क्लृप्ताः। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम्। - तै.आ. ६.१०.१

*सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि। कला मुहूर्ताः काष्ठाश्चाहोरात्राश्च सर्वशः। अर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरश्च कल्पताम्। स आपः प्रदुघे उभे इमे अन्तरिक्षमथो सुवः। - तै.आ. १०.१.२

*षष्ठी गायति। तस्या द्वे द्वे अक्षरे उदासं गायत्या षड्भ्योऽक्षरेभ्यः। षडृतव ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठति। - षड्विंश ब्राह्मण २.१.२८

*बहिष्पवमाने धूर्गानं : या षष्ठी तां पङ्क्तिमागां गायंस्तस्या द्वे द्वे अक्षरे उदासं गायत्याषड्भ्योऽक्षरेभ्यः। षडpतवः ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठति। - षड्विंश ब्राह्मण २.२.१३

*तस्य ह वा एतस्य संवत्सरस्य साम्नोऽहोरात्राणि हिंकारोऽर्धमासाः प्रस्तावो मासा आदिर्ऋतव उद्गmथः पौर्णमास्यः प्रतिहारोऽष्टका उपद्रवोऽमावास्या निधनम्। - षड्विंश ब्राह्मण ३.४.२२

*तस्य ह वा एतस्य संवत्सरस्य साम्नो वसन्तो हिंकारो ग्रीष्मः प्रस्तावो वर्षा उद्गmथः शरत् प्रतिहारो हेमन्तो निधनम्। तस्माद्धेमन्तं प्रजा निधनकृता इवासते निधनरूपमेवैतर्हि। - षड्विंश ब्राह्मण ३.४.२३

*तस्यर्तवः शरीरम्। शिरः संवत्सरः। वेदा रूपाणि। संवत्सर एव प्रतितिष्ठति। य एवं वेद। - षड्विंश ब्राह्मण ५.४.१८

*षळृचं भवति षड्वा ऋतव ऋतूनामाप्त्यै। - ऐतरेय आरण्यक १.३.८

*इन्द्र सोमं पिब ऋतुना ऽऽत्वा विशन्त्विन्दवः। मत्सरासस्तदोकसः ॥ मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद् यज्ञं पुनीतन। यूयं हि ष्ठा सुदानवः। अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना। त्वं हि रत्नधा असि ॥ अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु। परि भूष पिब ऋतुना ॥ ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु। तवेद्धि सख्यमस्तृतम् ॥ युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम्। ऋतुना यज्ञमाशाथे ॥ - - - - - - द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत। नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत ॥ यत् त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे। अध स्मा नो ददिर्भव ॥ अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता। ऋतुना यज्ञवाहसा ॥ गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि। देवान् देवयते यज ॥ - ऋग्वेद  १.१५.१-१२

*वयश्चित् ते पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि। उषः प्रारनन्नृतूँरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥ - ऋ. १.४९.३

*को अग्निमीट्टे हविषा घृतेन स्रुचा यजाता ऋतुभिर्ध्रुवेभिः। कस्मै देवा आ वहानाशु होम को मंसते वीतिहोत्रः सुदेवः ॥ - ऋ.  १.८४.१८

*यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषाः पर्यश्वं नयन्ति। अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञं देवेभ्यः प्रतिवेदयन्नजः ॥ - ऋ. १.१६२.४

*एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथ ऋतुः। या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानां प्र जुहोम्यग्नौ ॥ - ऋ. १.१६२.१९

*त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम्। विश्वमेको अभि चष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम् ॥ - ऋ. १.१६४.४४

*त्वमीशिषे वसुपते वसूनां त्वं मित्राणां मित्रपते धेष्ठः। इन्द्र त्वं मरुद्भिः सं वदस्वाध प्राशान ऋतुथा हवींषि ॥ - ऋ. १.१७०.५

*दैव्या होतारा प्रथमा विदुष्टर ऋजु यक्षतः समृचा वपुष्टरा। देवान् यजन्तावृतुथा समञ्जतो नाभा पृथिव्या अधि सानुषु त्रिषु ॥ - ऋ. २.३.७

*ऋतुर्जनित्री तस्या अपस्परि मक्षू जात आविशद् यासु वर्धते। तदाहना अभवत्पिप्युषी पयों ऽशोः पीयूषं प्रथमं तदुक्थ्यम् ॥ - ऋ. २.१३.१

*वि मच्छ्रथाय रशनामिवाग ऋध्याम ते वरुण खामृतस्य। मा तन्तुश्छेदि वयतो धियं मे मा मात्रा शार्यपसः पुर ऋतोः ॥ - ऋ.  २.२८.५

*मन्दस्व होत्रादनु जोषमन्धसो ऽध्वर्यवः स पूर्णां वष्ट्यासिचम्। तस्मा एतं भरत तद्वशो ददिर्होत्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥ यमु पूर्वमहुवे तमिदं हुवे सेदु हव्यो ददिर्यो नाम पत्यते। अध्वर्युभिः प्रस्थितं सोम्यं मधु पोत्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥ मेद्यन्तु ते वह्नयो येभिरीयसे ऽरिषण्यन् वीळयस्वा वनस्पते। आयूया धृष्णो अभिगूर्या त्वं नेष्ट्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥ - ऋ.  २.३७.१-३

*जोष्यग्ने समिधं जोष्याहुतिं जोषि ब्रह्म जन्यं जोषि सुष्टुतिम्। विश्वेभिर्विश्वाँ ऋतुना वसो मह उशन् देवाँ उशतः पायया हविः ॥ - ऋ.  २.३७.६

*पुनः समव्यद्विततं वयन्ती मध्या कर्तोन्यदधाच्छक्म धीरः। उत् संहायास्थाद् व्यृतूँरदर्धररमतिः सविता देव आगात् ॥ - ऋ. २.३८.४

*प्रदक्षिणिदभि गृणन्ति कारवो वयो वदन्त ऋतुथा शकुन्तयः। उभे वाचौ वदति सामगा इव गायत्रं च त्रैष्टुभं चानु राजति ॥ - ऋ. २.४३.१

*अग्निर्नेता भग इव क्षितीनां दैवीनां देव ऋतुपा ऋतावा। स वृत्रहा सनयो विश्ववेदाः पर्षद् विश्वाति दुरिता गृणन्तम् ॥ - ऋ. ३.२०.४

*उत ऋतुभिर्ऋतुपाः पाहि सोममिन्द्र देवेभिः सखिभिः सुतं नः। याँ आभजो मरुतो ये त्वा ऽन्वहन् वृत्रमदधुस्तुभ्यमोजः ॥ - ऋ.  ३.४७.३

ऋतुभिः मरुद्भिः "देवेभिः देवैः – साभा.

*विदानासो जन्मनो वाजरत्ना उत ऋतुभिर्ऋभवो मादयध्वम्। सं वो मदा अग्मत सं पुरंधिः सुवीरामस्मे रयिमेरयध्वम् ॥ - ऋ.  ४.३४.२

*सजोषा इन्द्र वरुणेन सोमं सजोषाः पाहि गिर्वणो मरुद्भिः। अग्रेपाभिर्ऋतुपाभिः सजोषा ग्नास्पत्नीभी रत्नधाभिः सजोषाः ॥ - ऋ.  ४.३४.७

*आगन् देव ऋतुभिर्वर्धतु क्षयं दधातु नः सविता सुप्रजामिषम्। स नः क्षपाभिरहभिश्च जिन्वतु प्रजावन्तं रयिमस्मे समिन्वतु ॥ - ऋ.  ४.५३.७

*कया नो अग्न ऋतयन्नृतेन भुवो नवेदा उचथस्य नव्यः। वेदा मे देव ऋतुपा ऋतूनां नाहं पतिं सनितुरस्य रायः ॥ - ऋ. ५.१२.३

*त्वमुत्साँ ऋतुभिर्बद्बधानाँ अरंह ऊधः पर्वतस्य वज्रिन्। अहिं चिदुग्र प्रयुतं शयानं जघन्वाँ इन्द्र तविषीमधत्थाः ॥ - ऋ.  ५.३२.२

*एवा हि त्वामृतुथा यातयन्तं मघा विप्रेभ्यो ददतं शृणोमि। किं ते ब्रह्माणो गृहते सखायो ये त्वाया निदधुः काममिन्द्र ॥ - ऋ.  ५.३२.१२

*उत ग्ना व्यन्तु देवपत्नीरिन्द्राण्यग्नाय्यश्विनी राट्। आ रोदसी वरुणानी शृणोतु व्यन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम् ॥ - ऋ. ५.४६.८

*स इत् तन्तुं स वि जानात्योतुं स वक्त्वान्यृतुथा वदाति। य ईं चिकेतदमृतस्य गोपा अवश्चरन् परो अन्येन पश्यन् ॥ - ऋ. ६.९.३

*त्वं ह नु त्यददमायो दस्यूँरेकः कृष्टीरवनोरार्याय। अस्ति स्विन्नु वीर्यं तत् त इन्द्र न स्विदस्ति तदृतुथा वि वोचः ॥ - ऋ. ६.१८.३

*विश्वे देवा ऋतावृध ऋतुभिर्हवनश्रुतः। जुषन्तां युज्यं पयः ॥ - ऋ. ६.५२.१०

*य ईं राजानावृतुथा विदधद् रजसो मित्रो वरुणश्चिकेतत्। गम्भीराय रक्षसे हेतिमस्य द्रोघाय चिद् वचस आनवाय ॥ - ऋ. ६.६२.९

*देवहितिं जुगुपुर्द्वादशस्य ऋतुं नरो न प्र मिनन्त्येते। संवत्सरे प्रावृष्यागतायां तप्ता घर्मा अश्नुवते विसर्गम् ॥ - ऋ. ७.१०३.९

*स्तोता यत् ते अनुव्रत उक्थान्यृतुथा दधे। शुचिः पावक उच्यते सो अद्बुतः ॥ - ऋ. ८.१३.१९

*जुषाणो अङ्गिरस्तमेमा हव्यान्यानुषक्। अग्ने यज्ञं नय ऋतुथा ॥ - ऋ. ८.४४.८

*परि धामानि यानि ते त्वं सोमासि विश्वतः। पवमान ऋतुभिः कवे ॥ - ऋ. ९.६६.३

*अभि प्रियाणि पवते पुनानो देवो देवान् त्स्वेन रसेन पृञ्चन्। इन्दुर्धर्माण्यृतुथा वसानो दश क्षिपो अव्यत सानो अव्ये ॥ - ऋ. ९.९७.१२

*पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ठ विद्वाँ ऋतूँर्ऋतुपते यजेह। ये दैव्या ऋत्विजस्तेभिरग्ने त्वं होतॄणामस्यायजिष्ठः ॥ - ऋ.  १०.२.१

*आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनु प्रवोळ्हुम्। अग्निर्विद्वान् त्स यजात् सेदु होता सो अध्वरान् त्स ऋतून् कल्पयाति ॥ - ऋ.  १०.२.३

*यद्वो वयं प्रमिनाम व्रतानि विदुषां देवा अविदुष्टरासः। अग्निष्टद्विश्वमा पृणाति विद्वान् येभिर्देवाँ ऋतुभिः कल्पयाति ॥ यत् पाकत्रा मनसा दीनदक्षा न यज्ञस्य मन्वते मर्त्यासः। अग्निष्टद्धोता क्रतुविद्विजानन् यजिष्ठो देवाँ ऋतुशो यजाति ॥ - ऋ.  १०.२.४-५

*स्वयं यजस्व दिवि देव देवान् किं ते पाकः कृणवदप्रचेताः। यथायज ऋतुभिर्देव देवानेवा यजस्व तन्वं सुजात ॥ - ऋ.  १०.७.६

*वृषा वृष्णे दुदुहे दोहसा दिवः पयांसि यह्वो अदितेरदाभ्यः। विश्वं स वेद वरुणो यथा धिया स यज्ञियो यजतु यज्ञियाँ ऋतून् ॥ - ऋ.  १०.११.१

*यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथ ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥ - ऋ.  १०.१८.५

*कथा त एतदहमा चिकेतं गृत्सस्य पाकस्तवसो मनीषाम्। त्वं नो विद्वाँ ऋतुथा वि वोचो यमर्धं ते मघवन् क्षेम्या धूः ॥ - ऋ. १०.२८.५

*युवां मृगेव वारणा मृगण्यवो दोषा वस्तोर्हविषा नि ह्वयामहे। युवं होत्रामृतुथा जुह्वते नरेषं जनाय वहथः शुभस्पती ॥ - ऋ. १०.४०.४

*आ रोदसी अपृणादोत मध्यं पञ्च देवाँ ऋतुशः सप्तसप्त। चतुस्त्रिंशता पुरुधा वि चष्टे सरूपेण ज्योतिषा विव्रतेन ॥ - ऋ. १०.५५.३

*पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीळन्तौ परि यातो अध्वरम्। विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुनः ॥ - ऋ. १०.८५.१८

*आ नो द्रप्सा मधुमन्तो विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्रम्। नि षीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान् देवापे हविषा सपर्य ॥ - ऋ. १०.९८.४

*एतान्यग्ने नवतिं सहस्रा सं प्र यच्छ वृष्ण इन्द्राय भागम्। विद्वान् पथ ऋतुशो देवयानानप्यौलानं दिवि देवेषु धेहि ॥ - ऋ. १०.९८.११

*अयं दशस्यन् नर्येभिरस्य दस्मो देवेभिर्वरुणो न मायी। अयं कनीन ऋतुपा अवेद्यमिमीताररुं यश्चतुष्पात्। - ऋ. १०.९९.१०

*उपावसृज त्मन्या समञ्जन् देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन ॥ - ऋ. १०.११०.१०

*नहि स्थूर्यृतुथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे संगमेषु। गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः ॥ - ऋ. १०.१३१.३

*समानां मासामृतुभिष्ट्वा वयं संवत्सरस्य पयसा पिपर्मि। इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामहृणीयमानाः। - अथर्ववेद १.३५.४

*समास्त्वाग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयो यानि सत्या। सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्वा आ भाहि प्रदिशश्चतस्रः ॥ - अ. २.६.१

*आ यातु मित्र ऋतुभिः कल्पमानः संवेशयन् पृथिवीमुस्रियाभिः। अथास्मभ्यं वरुणो वायुरग्निर्बृहद् राष्ट्रं संवेश्यं दधातु। - अ. ३.८.१

*ऋतून् यज ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्। समाः संवत्सरान् मासान् भूतस्य पतये यजे ॥ ऋतुभ्यष्ट्वार्तवेभ्यो माद्भ्यः संवत्सरेभ्यः। धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे ॥ - अ. ३.१०.९-१०

*उपावसृज त्मन्या समञ्जन् देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन ॥ - अ. ५.१२.१०

*अग्निः सूर्यश्चन्द्रमा भूमिरापो द्यौरन्तरिक्षं प्रदिशो दिशश्च। आर्तवा ऋतुभिः संविदाना अनेन मा त्रिवृता पारयन्तु ॥ - अ. ५.२८.२

*ऋतुभिष्ट्वार्तवैरायुषे वर्चसे त्वा। संवत्सरस्य तेजसा तेन संहनु कृण्मसि ॥ - अ. ५.२८.१३

*स विश्वा प्रति चाक्लृप ऋतूंरुत सृजते वशी। यज्ञस्य वय उत्तिरन् ॥ - अ. ६.३६.२

*अहं विवेच पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त साकम्। अहं सत्यमनृतं यद्वदाम्यहं दैवीं परि वाचं विशश्च ॥ अहं जजान पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त सिन्धून्। अहं सत्यमनृतं यद्वदामि यो अग्नीषोमावजुषे सखाया ॥ - अ. ६.६१.२-३

*उत ग्ना व्यन्तु देवपत्नीरिन्द्राण्यग्नाय्यश्विनी राट्। आ रोदसी वरुणानी शृणोतु व्यन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम् ॥ - अ. ७.५१.२

*पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम्। विश्वान्यो भुवना विचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥ - अ. ७.८६.१

*दिशश्चतस्रोऽश्वतर्यो देवरथस्य पुरोडाशाः शफ अन्तरिक्षमुद्धिः। द्यावापृथिवी पक्षसी ऋतवोऽभीशवोऽन्तर्देशाः किंकरा वाक् परिरथ्यम् ॥ - अ. ८.८.२२

*को विराजो मिथुनत्वं प्र वेद क ऋतून् क उ कल्पमस्याः। क्रमान् को अस्याः कतिधा विदुग्धान् को अस्या धाम कतिधा व्युष्टीः ॥ - अ. ८.९.१०

*पञ्च व्युष्टीरनु पञ्च दोहा गां पञ्चनाम्नीमृतवोऽनु पञ्च। पञ्च दिशः पञ्चदशेन क्लृप्तास्ता एकमूर्ध्नीरभि लोकमेकम् ॥ - अ. ८.९.१५

*षडाहुः शीतान् षडु मास उष्णानृतुं नो ब्रूत यतमोऽतिरिक्तः। सप्त सुपर्णाः कवयो नि षेदुः सप्त च्छन्दांस्यनु सप्त दीक्षाः ॥ सप्त होमाः समिधो ह सप्त मधूनि सप्तर्तवो ह सप्त। सप्ताज्यानि परि भूतमायन् ताः सप्तगृध्रा इति शुश्रुमा वयम् ॥ - अ. ८.९.१७-१८

*अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकाद् विप्रो विप्रस्य सहसो विपश्चित्। इष्टं पूर्तमभिपूर्तं वषट्कृतं तद् देवा ऋतुशः कल्पयन्तु ॥ - अ. ९.५.१३

*यो वै नैदाघं नामर्तुं वेद। एष वै नैदाघो नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ यो वै कुर्वन्तं नामर्तुं वेद। कुर्वतींकुर्वतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्त। एष वै कुर्वन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ यो वै संयन्तं नामर्तुं वेद। संयतींसंयतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वै संयन्नामर्तुर्यदजः पञ्जाwदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ - अ. ९.५.३१-३३

*यो वै पिन्वन्तं नामर्तुं वेद। पिन्वतीपिन्वतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वै पिन्वन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्जाwदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति। यो वा उद्यन्तं नामर्तुं वेद। उद्यतीमुद्यतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वा उद्यन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ यो वा अभिभुवं नामर्तुं वेद। अभिभवन्तीमभिभवन्तीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वा अभिभूर्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति। - अ. ९.५.३४-३६

*त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम्। विश्वमन्यो अभिचष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम् ॥ - अ. ९.१५.२६

*ऋतवस्तमबध्नतार्तवास्तमबध्नत। संवत्सरस्तं बद्ध्वा सर्वं भूतं वि रक्षति ॥ - अ. १०.६.१८

*क्वार्धमासाः क्व यन्ति मासाः संवत्सरेण सह संविदानाः। यत्र यन्त्यृतवो यत्रार्तवाः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ - अ. १०.७.५

*अग्ने चरुर्यज्ञियस्त्वाध्यरुक्षच्छुचिस्तपिष्ठस्तपसा तपैनम्। आर्षेया दैवा अभिसंगत्य भागमिमं तपिष्ठा ऋतुभिस्तपन्तु ॥ - अ. ११.१.१६

*बार्हस्पत्य ओदनम् : ऋतवः पक्तार आर्तवाः समिन्धते। चरुं पञ्चबिलमुखं घर्मोभीन्धे। - अ. ११.३.१७

*यत् प्राण ऋतावागतेऽभिक्रन्दत्योषधीः। सर्वं तदा प्र मोदते यत् किं च भूम्यामधि ॥ - अ. ११.६.४

*ऋतून् ब्रूम ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्। समाः संवत्सरान् मासांस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥ - अ. ११.८.१७

*या देवीः पञ्च प्रदिशो ये देवा द्वादशर्तवः। संवत्सरस्य ये दंष्ट्रास्ते नः सन्तु सदा शिवाः ॥ - अ. ११.८.२२

*अर्धमासाश्च मासाश्चार्तवा ऋतुभिः सह। उच्छिष्टे घोषिणीरापः स्तनयित्नुः श्रुतिर्मही ॥ - अ. ११.९.२०

*अजाता आसन्नृतवोऽथो धाता बृहस्पतिः। इन्द्राग्नी अश्विना तर्हिं कं ते ज्येष्ठमुपासत ॥ - अ. ११.१०.५

*ग्रीष्मस्ते भूमे वर्षाणि शरद्धेमन्त शिशिरो वसन्तः। ऋतवस्ते विहिता हायनीरहोरात्रे पृथिवि नो दुहाताम् ॥ - अ. १२.१.३६

*यथाहान्यनु पूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभिर्यन्ति साकम्। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥ - अ. १२.२.२५

*नवं बर्हिरोदनाय स्तृणीत प्रियं हृदश्चक्षुषो वल्ग्वस्तु। तस्मिन् देवाः सह दैवीर्विशन्त्विमं प्राश्नन्त्वृतुभिर्निषद्य ॥ - अ. १२.३.३२

*वाचस्पत ऋतवः पञ्च ये नौ वैश्वकर्मणाः परि ये संबभूवुः। इहैव प्राणः सख्ये नो अस्तु तं त्वा परमेष्ठिन् परि रोहित आयुषा वर्चसा दधातु ॥ - अ. १३.१.१८

*यस्माद् वाता ऋतुथा पवन्ते यस्मात् समुद्रा अधि विक्षरन्ति तस्य देवस्य। क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥ - अ. १३.३.२

*द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः। अथैकं चक्रं यद्गुहा तदद्धातय इद् विदुः ॥ - अ. १४.१.१६

*पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम्। विश्वान्यो भुवना विचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥ - अ. १४.१.२३

*सोऽनादिष्टां दिशमनु व्यचलत्। तमृतवश्चार्तवाश्च लोकाश्च लौक्याश्च मासाश्चार्धमासाश्चाहोरात्रे चानुव्यचलन्। ऋतूनां च वै स आर्तवानां च लोकानां च लौक्यानां च मासानां चार्धमासानां चाहोरात्रयोश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥ - अ. १५.६.१६-१८

*तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य पञ्चमो व्यानस्त ऋतवः। - अ. १५.१७.५

*यज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजा अस्माकं वीरा अस्माकम्। तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः। स ऋतूनां पाशान्मा मोचि ॥ - - - - -तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः। स आर्तवानां पाशान्मा मोचि। - अ. १६.८.१७-१८

*ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम्। मा मा प्रापत् पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥ - अ. १७.१.२९

*वृषा वृष्णे दुदुहे दोहसा दिवः पयांसि यह्वो अदितेरदाभ्यः। विश्वं स वेद वरुणो यथा धिया स यज्ञियो यजति यज्ञियाँ ऋतून् ॥ - अ. १८.१.१८

*देवा यज्ञमृतवः कल्पयन्ति हविः पुरोडाशं स्रुचो यज्ञायुधानि। तेभिर्याहि पथिभिर्देवयानैर्यैरीजानाः स्वर्गं यन्ति लोकम् ॥ - अ. १८.४.२

*ऋतुभ्यष्ट्वार्तवेभ्यो माद्भ्यः संवत्सरेभ्यः। धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे ॥ - अ. १९.३७.४

*आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनुप्रवोढुम्। अग्निर्विद्वान्त्स यजात् स इद्धोता सो ऽध्वरान्त्स ऋतून् कल्पयाति ॥ - अ. १९.५९.३

*मरुतः पोत्रात् सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु। अग्निराग्नीध्रात् सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु। इन्द्रो ब्रह्मा ब्राह्मणात् सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु। देवो द्रविणोदाः पोत्रात् सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु। - अ. २०.२.१-४

*यमु पूर्वमहुवे तमिदं हुवे सेदु हव्यो ददिर्यो नाम पत्यते। अध्वर्युभिः प्रस्थितं सोम्यं मधु पोत्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥ - अ. २०.६७.७

*नहि स्थूर्यृतुnथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे संगमेषु। गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः ॥ - अ. २०.१२५.३

*वसन्ते पर्वणि ब्राह्मण आदधीत। ग्रीष्मवर्षाशरत्सु क्षत्रियवैश्योपक्रुष्टाः। यस्मिन्कस्मिश्चिदृतावादधीत। सोमेन यक्ष्यमाणो नर्तुं पृच्छेन्न नक्षत्रम् ॥ - आश्वलायन श्रौत सूत्र २.१.१२

*अथैनां कुशैः प्रक्षाल्य चतस्रः पूर्णाः प्रागुदीच्योर्निनयेदृतुभ्यः स्वाहा दिग्भ्यः स्वाहा सप्तर्षिभ्यः स्वाहेतरजनेभ्यः स्वाहेति। - आ.श्रौ.सू. २.४.१३

*अग्निः प्रथमो वसुभिर्नो अव्यात्सोमो रुद्रैरभिरक्षतु त्मना। इन्द्रो मरुद्भिर्ऋतुथा कृणोत्वादित्यैर्नो वरुणः शर्म यंसत्। - आ.श्रौ.सू. २.११.१२

*ऋतौ भार्यामुपेयात्। - आ.श्रौ.सू. २.१६.२५

*यद्यु वै सर्वपृष्ठान्यग्निर्गायत्रस्त्रिवृद्राथंतरो वासन्तिक इन्द्रस्त्रैष्टुभः पञ्चदशो बार्हतोv ग्रैष्मो विश्वे देवा जागताः सप्तदशा वैरूपा वार्षिका मित्रावरुणावानुष्टुभावेकविंशौ वैराजौ शारदौ बृहस्पतिः पाङ्क्तस्त्रिणवः शाक्वरो हैमन्तिकः सविताऽतिच्छन्दास्त्रयस्त्रिंशो रैवतः शैशिरोऽदितिर्विष्णुपत्न्यनुमतिः। आ.श्रौ.सू. ४.१२.१

*समिद्दिशामाशयानः स्वर्विन्मधुरेतो माधवः पात्वस्मान्। अग्निर्देवो दुष्टरीतुरदाभ्य इदं क्षत्रं रक्षतु पात्वस्मान् ॥ रथंतरं सामभिः पात्वस्मान्गायत्री छन्दसां विश्वरूपा। त्रिवृन्नो विष्टया स्तोमो अह्नां समुद्रो वात इदमोजः पिपर्तु। उग्रा दिशामभिभूतिर्वयोधाः शुचिः शुक्रे अहन्योजसीनाम्। इन्द्राधिपतिः पिपृतादतोv नो महि क्षत्त्रं विश्वतो धारयेदम्। बृहत्साम क्षत्त्रभृद्वृद्धवृष्ण्यं त्रिष्टुभौजः शुभितमुग्रवीरम्। इन्द्रस्तोमेन पञ्चदशेन मध्यमिदं वातेन सगरेण रक्ष। प्राची दिशां सहयशा यशस्वती विश्वे देवाः प्रावृषाऽह्नां स्वर्वती। इदं क्षत्त्रं दुष्टरमस्त्वोजोऽनाधृष्यं सहस्यं सहस्वत्। वैरूपे सामन्निह तच्छकेयं जगत्येनं विक्ष्वावेशयानि। विश्वे देवाः सप्तदशेन वर्च इदं क्षत्त्रं सलिलवातमुग्रम्। धर्त्री दिशां क्षत्त्रमिदं दाधारोपस्थाशानां मित्रवदस्त्वोजः। मित्रावरुणा शरदाह्नां चिकित्वमस्मै राष्ट्राय महि शर्म यच्छतम्। वैराजे सामन्नधि मे मनीषाऽनुष्टुभा संभृतं वीर्यं सहः। इदं क्षत्रं मित्रवदार्द्रदानुं मित्रावरुणा रक्षतमाधिपत्ये। सम्राड्दिशां सहसाम्नी सहस्वत्यृतुर्हेमन्तो विष्टया नः पिपर्तु। अवस्यु वाता बृहती नु शक्वरीमं यज्ञमवतु नो घृताची। स्वर्वती सुदुघा नः पयस्वती दिशां देव्यवतु नो घृताची। त्वं गोपा पुर एतोत पश्चाद्बृहस्पते याभ्यां युङ्धि वाचम्। ऊर्ध्वां दिशां रन्तिराशौषधीनां संवत्सरेण सविता नो अह्नाम्। रैवत्सामातिच्छन्दा उच्छन्दोऽजातशत्रुः स्योनानो अस्तु। स्तोमत्रयस्त्रिंशे भुवनस्य पत्नी विवस्वद्वाते अभि नो गृणीहि। घृतवती सवितराधिपत्ये पयस्वती रन्तिराशा नो अस्तु। - - - - आ.श्रौ.सू. ४.१२.२

*तदेषाऽभि यज्ञगाथा गीयते। ऋतुयाजान्द्विदेवत्यान्यश्च पात्नीवतो ग्रहः। आदित्यग्रहसावित्रौ तान्स्म माऽनुवषट्कृथा इति। - आ.श्रौ.सू. ५.५.२४

*ऋतुयाजैश्चरन्ति। तेषां प्रेषाः। पञ्चमं प्रैषसूक्तम्। तेन तेनैव प्रेषितः प्रेषितः स यथाप्रैषं यजति। - आ.श्रौ.सू. ५.८.१

*अथैतदृतुपात्रमानन्तर्येण वषट्कर्तारो भक्षयन्ति। - आ.श्रौ.सू. ५.८.८

*तृतीय सवने होत्रकाणाम् शस्त्राणि : - - - -ऋतुर्जनित्री - आ.श्रौ.सू. ६.१.२

*षष्ठस्य प्रातःसवने प्रस्थियाज्यानां पुरस्ताद् : पिबा सोममिन्द्र सुवानमद्रिभिरिन्द्राय हि द्यौरसुरो अनम्नतेति षट्। उपरिष्टात्त्वृच ऋतुयाजानाम् - आ.श्रौ.सू. ८.१.५

*अच्छावाकस्य स्तोत्रियानुरूपौ : *मदे मधोर्मदस्य मदिरस्य मदैवो - - - मोथामो दैवोमित्यस्य प्रतिहार ऋतुर्जनित्रीति नित्यान्यैकाहिकानि। - आ.श्रौ.सू. ८.३.३

*वैश्वानरो अजीजनदित्येका सा विश्वं प्रति चाक्लृपदृतूनुत्सृजते वशी। यज्ञस्य वय उत्तिरन्। - - - -इत्याग्निमारुतम् - आ.श्रौ.सू. ८.९.७

*ऋतूनां षळहं प्रतिष्ठाकामः। - आ.श्रौ.सू. १०.३.१

*मांसानशनं ब्रह्मचर्यं प्राङधः शेत ऋतुकाले वा जायामुपेयात्सत्यवदनं चान्तरालव्रतानि। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र ३.१३.३०

*याज्या : शुनासीरावृतुभिः संविदाना इन्द्रवन्ता हविरिदं जुषेथाम्। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र ३.१८.१४

*ऋत्विग्वरणदेवयजनप्रकरणम् : ऋतवो मे दैव्या होत्राशंसिनो यूयं मानुषाः। - शां.श्रौ.सू. ५.१.९

*ज्योतिष्टोमे ऋतुयाजप्रकरणम् : अथर्तुयाजैश्चरन्ति। होता यक्षदिन्द्रं होत्रादित्यृतुप्रैषैरनवानं प्रेष्यति। तथा यजति। - - - - - - - - शां.श्रौ.सू. ७.८.१

*ज्योतिष्टोम उक्थ्यशस्त्रप्रकरणम् : नार्मेधमच्छावाकस्य। - - - ऋतुर्जनित्री। - शां.श्रौ.सू. ९.३.१

*दशरात्रे षष्ठमहः :- तुभ्यं हिन्वान इति सूक्तयोरेकैकोर्ध्वमृतुप्रैषेभ्यः। - शां.श्रौ.सू. १०.७.८

*होत्रकशस्त्रप्रकरणम् : ऋतुर्जनित्री (एवयामरुतोऽनन्तरं शंसेत्) - शां.श्रौ.सू. १२.२६.१२

*हविर्यज्ञसोमप्रकरणम् : विंशतिं वैश्वदेवे ददाति। त्रिंशतं वरुणप्रघासेषु। पञ्चाशतं साकमेधेषु। विशतिं शुनासीरीये ॥ तद्विंशतिशतम्। विंशतिशतं वा ऋतोरहानि। तदृतुमाप्नोvति। ऋतुना संवत्सरम्। - शां.श्रौ.सू. १४.९.९

*ऋतुस्तोमाः। ऋतवो ह स्वर्गकामास्तपस्तप्त्वैतान्यज्ञक्रतूनपश्यन्षट्। तैरिष्ट्वा स्वर्गमापुः। तैः स्वर्गकामो यजेत। - शां.श्रौ.सू. १४.७३.१

*अश्वमेध प्रकरणम् : संवत्सरमृतुपशवः। षलाग्नेया वसन्ते। ऐन्द्रा ग्रीष्मे। मारुताः पार्जन्या वा वर्षासु। मैत्रावरुणाः शरदि। बार्हस्पत्या हेमन्ते। ऐन्द्रावैष्णवाः शिशिरे। - शां.श्रौ.सू. १६.९.२६

*पुरुषमेधप्रकरणम् : द्वादशद्वादशर्तुपशवः। - शां.श्रौ.सू. १६.१४.२०

*सर्वमेधप्रकरणम् : चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिर्ऋतुपशवः। - शां.श्रौ.सू. १६.१५.१६

*अहीनप्रकरणम् : अथ यत्षड्विधं तत्षड्रात्रेण। षड् वा ऋतवः षट्स्तोमास्तद्यत्किं च षड्विधमधिदैवतमध्यात्मं तत्सर्वमेनेनाप्नोvति। - शां.श्रौ.सू. १६.२५.१

*अग्निष्टद्धोता क्रतुविद्विजानन्यजिष्ठो देवाँ ऋतुशो यजाति। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ३.१२.१

*निरूढपशुबन्ध : ऋतुव्यावृत्तौ सूयवस आवृत्तिमुखावृत्तिमुखे वा। - आप.श्रौ.सू. ७.२८.७

*चातुर्मास्य वरुणप्रघास : यो वसन्तो ऽभूत्प्रावृडभूच्छरदभूदिति यजते स ऋतुयाजी। अथ यश्चतुर्षुचतुर्षु मासेषु स चातुर्मास्य याजी। वसन्ते वैश्वदेवेन यजते प्रावृषि वरुणप्रघासैः शरदि साकमेधैरिति विज्ञायते। - आप.श्रौ.सू. ८.४.१३

*चातुर्मास्य साकमेध : अग्निष्वात्ता ऋतुभिः संविदाना इन्द्रवन्तो हविरिदं जुषन्तामिति पितृpभ्यो ऽग्निष्वात्तेभ्यः। - आप.श्रौ.सू. ८.१५.१७

*चातुर्मास्य शुनासीरीय : इन्द्रर्तुभिर्ब्रह्मणा वावृधानः शुनासीरी हविरिदं जुषस्वेति शुनासीरीयस्य याज्यानुवाक्ये। - आप.श्रौ.सू. ८.२०.५

*चातुर्मास्य शुनासीरीय : प्रजामनु प्रजायसे तदु ते मर्त्यामृतम्। येन मासा अर्धमासा ऋतवः परिवत्सराः। येन ते ते प्रजापत ईजानस्य न्यवर्तयन्। तेनाहमस्य ब्रह्मणा निवर्तयामि जीवसे। - आप.श्रौ.सू. ८.२१.१

*चातुर्मास्य शुनासीरीय : त्रीनृतून्संवत्सरानिष्ट्वा मासं न यजते। द्वौ पराविष्ट्वा विरमति। चैत्र्यां तूपक्रम्य द्वाविष्ट्वा मासमनिष्ट्वा त्रीन्परानिष्ट्वा विरमति। - आप.श्रौ.सू. ८.२२.१०

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : दैवं च मानुषं च होतारौ वृत्वाश्रावमाश्रावमृतुप्रैषादिभिः सौमिकानृत्विजो वृणीते। - आप.श्रौ.सू. ११.१९.५

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : ते अपरेण प्राबाहुगृतुपात्रे आश्वत्थे अश्वशफबुध्ने उभयतोमुखे। दक्षिणमध्वर्योः। उत्तरं प्रतिप्रस्थातुः। - आप.श्रौ.सू. १२.१.१३

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : भक्षिताप्यायितमन्तरा नेष्टुराग्नीध्रस्य च चमसौ सादयित्वर्तुग्रहैः प्रचरतः। द्रोणकलशाद्गpह्यन्ते। न साद्यन्ते। - आप.श्रौ.सू. १२.२६.८

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : ऋतुपात्रं धारयमाणः सदोबिले प्रत्यङ्तिष्ठन्प्रतिगृणाति। प्रह्वो वा। - आप.श्रौ.सू. १२.२७.१५

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : स्तुत ऋतुपात्रवर्जमैन्द्राग्नवच्छस्त्रप्रतिहारो ग्रहनाराशंसाश्च। - आप.श्रौ.सू. १२.२८.९

*अग्निष्टोम माध्यन्दिन सवनम् : मरुत्वन्तमिति स्वेनर्तुपात्रेणाध्वर्युः पूर्वं मरुत्वतीयं गृह्णाति। इन्द्र मरुत्व इति स्वेन प्रतिप्रस्थातोत्तरम्। - आप.श्रौ.सू. १३.२.४

*सोमप्रायश्चित्तम् : यदृतुग्रहैः प्रचरन्तौ मुह्येयातां विसृष्टधेनाः सरितो घृतश्चुतो वसन्तो ग्रीष्मो मधुमन्ति वर्षाः। शरद्धेमन्त ऋतवो मयोभुव उदप्रुतो नभसी संवसन्ताम्। आ नः प्रजां जनयतु प्रजापतिर्धाता ददातु सुमनस्यमानः। संवत्सर ऋतुभिश्चाकुपानो मयि पुष्टिं पुष्टिपतिर्दधातु। आ देवानाम्। - आप.श्रौ.सू. १४.२८.४

*सोमप्रायश्चित्तम् : त इमं यज्ञमवन्तु ते मामवन्त्वनु व आरभे ऽनु मारभध्वं स्वाहेत्यृतुनामस्वनुषजति। - आप.श्रौ.सू. १४.२८.५

*यः कामयेतर्तवो मे कल्पेरन्निति स षड्ढौतारम्। यः कामयेत सोमपः सोमयाजी स्यामा मे सोमपः सोमयाजी जायेतेति स सप्तहोतारम्। आप.श्रौ.सू. १४.१४.१२

*अग्निचयनम् : मधुश्च माधवश्चेति द्वे ऋतव्ये समानतया देवते। सर्वास्वृतव्यास्ववकामनूपदधाति। - आप.श्रौ.सू. १६.२५.१०

*अग्निचयनम् : बृहद्रथंतराभ्यां पक्षौ। ऋतुस्थायज्ञायज्ञियेन पुच्छम्। - आप.श्रौ.सू. १७.१२.१०

*अथान्तरस्यां षड्यज्ञक्रतूंस्त्रीणि चतुर्नामान्युपदधात्यग्निष्टोम उक्थ्यो ऽग्निर्ऋतुरिति। - आप.श्रौ.सू. १९.१२.१४

*अश्वमेधः :- भुवो देवानां कर्मणेत्यृतुदीक्षाभिः कृष्णाजिनमारोहन्तमभिमन्त्रयते। - आप.श्रौ.सू. २०.८.१२

*अश्वमेधः :- भुवो देवानां कर्मणेत्यृतुदीक्षाः। - आप.श्रौ.सू. २०.१२.६

*अश्वमेधः :- वसन्ताय स्वाहा ग्रीष्माय स्वाहेत्यृतुभ्यः षट्। - आप.श्रौ.सू. २०.२०.६

*अश्वमेधः :- पिशङ्गास्त्रयो वासन्ता इत्यृतुपशुभिः संवत्सरं यजते। अथैकेषाम्। आग्नेया वासन्ताः। ऐन्द्रा ग्रैष्माः। मारुताः पार्जन्या वा वार्षिकाः। ऐन्द्रावारुणाः शारदाः। ऐन्द्राबार्हस्पत्या हैमन्तिकाः। ऐन्द्रावैष्णवाः शैशिराः। - आप.श्रौ.सू. २०.२३.१०

*द्वादशाहः :- स्वयमध्वर्युर्ऋतुयाजं यजति। स्वयं गृहपतिः। - आप.श्रौ.सू. २१.७.१५

ऋतु

१. अग्नयो वा ऋतवः । माश ६.२,१,३६ ।

२. अग्निर्वा उत्सीदन् संवत्सरमनूत्सीदति, पञ्च वा ऋतवस्संवत्सरः, पञ्चथाद्वा अध्यृतोष्षष्ठ ऋतुर्बभूव, समानमेतद्यपञ्चथश्चर्तुष्षष्ठश्च । काठ ९, ३ ।।

३ अग्निष्टोम उक्थ्योऽग्निर्ऋतुः प्रजापतिः संवत्सर इति । एतेऽनुवाका यज्ञक्रतूनाञ्च

संवत्सरस्य च नामधेयानि । तै ३,१०, १०, ४ ।

४. अन्नमृतवः । मै १,७, ३ ।।

५. अभक्तुर्वै पुरुषो न हि तद् वेद यमृतुमभिजायते । काठ ७,१५; क ६,५।।

६. असन्ना हीम ऋतवः । मै ४,६,७।।

७. असौ वा आदित्य ऋतुस्तस्मादेष षण्मास उदङ्ङेति षड् दक्षिणा । काठ २८,२; क ४४,२॥

८. असौ वा आदित्यश्शुक्रो रश्मय ऋतवः । काठ २८, १०

९. अहमस्तभ्नां पृथिवीमुत द्यामहमृतूँरजनँ सप्त साकम् । काठ ४०, ९ ।।

१०. इम ऋतवः सर्वेषां भूतानां प्राणैरप प्रसर्पन्ति चोत्सर्पन्ति च । तैआ १,१४, ३ । ११. उभयतोमुखा हीम ऋतवो, न वै तद् विद्म यत ऋतूनां मुखम् । मै ४,६,७ (तु. काठ २८, २; क ४४,२) ।

१२. उभये ह्येते (ऋतवः पशवश्च) सहासृज्यन्त । मै १,८, २ ।।

१३. ऋतव एतं दक्षिणा पर्यहरन् , पितर ऋतवः । काठ २१,१२ ।

१४. ऋतव एव प्रवोवाजाः । १,५,२३ ।।

१५. ऋतवः पितरः । कौ ५,७; गो २,१,२४; ६,१५; माश २,४,२,२४; ६,१,४ }

१६. ऋतवः शिक्यमृतुभिर्हि संवत्सरः शक्नोति स्थातुं यच्छक्नोति तस्माच्छिक्यम् । माश ६,७,१,१८ ।।

१७. ऋतवस्त्वा पचन्तु । तैआ ४,२६,१।।

१८. ऋतवस्संवत्सरः । काठ ९,१६, २२,८; जै ३,१५४; तै ३,३,९, १ ।।

१९. ऋतवः समिद्धाः प्रजाश्च प्रजनयन्त्योषधीश्च पचन्ति । माश १,३,४, ७ ।

२०. ऋतवा आयवानः । संवत्सर एवास्यैतेना ऋतवोऽभीष्टाः प्रीताः भवन्ति । मै ३,४,४ ।।

२१. ऋतवो (°वः खलु वै [तैसं.]) देवाः पितरः । तैसं ५,४,११,४; काठसंक ६९:१ ।। २२. ऋतवो वा एतानि पञ्च हवींषि, पञ्च ह्यृतवः । मै १, १०, ५ ।।

२३. ऋतवो वाव होत्राः । गो २, ६, ६ ।।

२४. ऋतवो वै दिशः प्रजननः । गो २, ६,१२।

२५. ऋतवो वै देवाः ( पंक्ति [जै.J)। जै १, १०२; २६१; ३१७; माश ७,२,४,२६ ।।

२६. ऋतवो वै पृष्ठानि ( मरुतः [मै.])। मै ४, ६,८; काठ ३३,८; जै १,३४८, २,१०७; ३०३; ३१४; ३१८; ३५०; ३,१५४; तै ३, ९, ९,१; माश १३.३,२,१। ।

२७. ऋतवो वै पृष्ठ्यः षडहः । जै ३,३१८ ।।

२८. ऋतवो वै ( हि [माश. J) प्रयाजाः (°याजानुयाजाः (कौ १,४]) । तैसं १,६,११, ५; मै १, ४, १२; ७, ३; कौ १,४; ३,४; माश १, ३, २, ८ ।।

२९. ऋतवो वै वाजिनः ( विश्वे देवाः [माश ७, १, १, ४३])। कौ ५, २; गो २, १, २०; माश २, ४,४, २२; ७,१,१,४३ ।।

३०. ऋतवो वै सोमस्य राज्ञो राजभ्रातरो यथा मनुष्यस्य। ऐ १, १३ ।

३१. ऋतवो ह वै प्रयाजाः । तस्मात्पञ्च भवन्ति पञ्च ह्यृतवः । माश १, ५, ३,१।। ३२. ऋतवो हैते यदेताश्चितयः । माश ६, २, १, ३६।।

३३. ऋतवो होत्राशंसिनः । कौ २९,८ ।

३४. ऋतुभिः प्रभुः ( इन्द्रः) । तैसं ४, ४, ८,१।।

३५. ऋतुमृतुं वर्षति । काठ १९, ५ ।।

३६. ऋतुषु ह खलु वा एष संवत्सरं स्वर्गं लोकमप्येति यश्चातुर्मास्ययाजी । जै २,२३४।।

३७. ऋतून् पृष्टिभिः ( प्रीणामि ) । काठ ५३, ७ ।।

३८. ऋतूनां पञ्चमः । काठ ५३, ८ ।।

३९. ऋषभो वा एष ऋतूनां यत्संवत्सरः । तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपम् । तै ३,८, ३,३ ।।

४०. एकादशभिरस्तुवतर्तवोऽसृज्यन्तार्तवोऽधिपतिरासीत् । तैसं ४, ३, १०, १ ( तु. मै २, ८, ६

४१. एतद्वा ऋतूनां मुखम् (यत्फल्गुनीपूर्णमासः) । काठ ८, १।

४२. किं नु ते ऽस्मासु (ऋतुषु) इति । इमानि ज्यायांसि पर्वाणि । जैउ ३,५,५,४ । ४३. को हि तद्वेद यत ऋतूनां मुखम् । तैसं ६,५, ३,२ ।।

४४. क्लृप्ता (तत्तल्लक्षणोपेताः) ऋतवः । तैसं ७,५,२०,१।

४५. चन्द्रमाः षड्ढोता । स ऋतून कल्पयति । तैआ ३,७,३।।

४६. तँ षड्ढोतारमृतुभिः कल्पमानम् •• कवयो निपान्ति । तैआ ३,११, ५।

४७. त एते षड् ऋतवष्षड् दिशः । त एत ऋतवो दिग्भिर्मिथुना वसन्तेनेयं प्राची दिङ् मिथुना, ग्रीष्मेणेयं (दक्षिणा दिक् ), वर्षाभिरियं (प्रतीची दिक् ) , शरदेयं (उदीची दिक् ), हेमन्तेनासौ (ऊर्ध्वा दिक् ), शिशिरेणेयम् (अधरा दिक् )। जै २, ५२ ।

४८. तद्यानि तानि भूतानि ऋतवस्ते । माश ६,१,३,८।

४९. तस्मादेकैकस्मिन्नृतौ सर्वेषामृतूनाँ रूपम् । माश ८, ७,१,४।

५०. तस्माद्यथर्तु वायुः पवते । तां १०,९, २ ।

५१. तस्माद्यथर्त्वादित्यस्तपति । तां १०,७,५।

५२. तस्माद्यथर्त्वोषधयः पच्यन्ते । तां १०,८,१।

५३. तस्य (संवत्सरस्य) ऋतव एव मुखानि । जै १,२४६ ।

५४. तानि वाऽएतानि (भूर्भुवस्स्वरिति ) पञ्चाक्षराणि । तान् पञ्चऽर्तूनकुरुत (प्रजापतिः), त इमे पञ्चर्तवः । माश ११,१,६,५ ।।

५५. तेषां (ऋतूनाम् ) वा एषो (संवत्सरः ) ऽभिषिक्तो राजा । मै ४,३,७ ।

५६. त्रयो वाऽऋतवः संवत्सरस्य । माश ३,४,४,१७; ११,५,४,११।।

५७. त्रयो ह वा ऋतवोऽनृतवोऽन्ये । ग्रीष्मो वर्षा हेमन्त एते ह वा ऋद्धा ऋतव उपश्लेषगा इवान्ये । जै २,३६०। ।

५८. त्रीन् (ऋतून्) सतो (प्रजापतिः) अभ्यतप्यत । तान् द्वेधा व्यौहत् । ते षड् ऋतवोऽभवन् । स ग्रीष्मादेव वसन्त निरमिमीत । वर्षाभ्यश्शरदं हेमन्ताच् छिशिरम् । तस्मादेत ऋतूनामुपश्लेषा इव निर्मिता हि । जै ३,१। ।

५९. द्वंद्वमृतवः । तैसं ५,४, २,१ (तु. तैसं ६,५,३,१) ।।

६०. द्वौ द्वौ हि मासावृतुः । तां १०,१२,८ (तु. माश ७,४,२,२९) ।।

६१. द्वौ द्वौ हीम (ह्य् [काठ., क.J) ऋतवः । मै ४,६,७; काठ २०, ६; २१,३; क ३१, ८; १८ ।

६२. द्वौ वा ऋतू अहश्च रात्रिश्च (रात्री च [काठ.]) । मै ३,७,१०; ४,४, ९; काठ ३७,१६ ।

६३. धाता षडक्षरेण षड् ऋतूनुदजयत् । तैसं १,७, ११, १। ।

६४. पञ्चथाद्वा अध्यृतोः षष्ठ ऋतुर्बभूव । समानमेतत्पञ्चथश्चर्तुः षष्ठश्च । क ८,६ ।

६५. पञ्चर्त्तवः संवत्सरस्य । माश १,५, २, १६; ३,१,४,२० (तु. काठ ९, १६; २२, ८; माश ३, १,४, ५) ।

६६. पञ्चर्तवो हेमन्त शिशिरयोः समासेन । ऐ १,१।।

६७. पञ्च वा (ह्य् ।काठ २५, २०; ३६,१३; तां.J) ऋतवः । तैसं ५,३,१,२; मै ४,१,५; काठ २०, १०; ३१,१५; काठसं ६९:१ क ४७,३; तां १२,४,८; १३,२, ६; माश २,२,३,१४।।

६८. पञ्च व्युष्टीरनु पञ्च दोहा गां पञ्चनाम्नीमृतवोऽनु पञ्च । पञ्च दिशः पञ्चदशेन क्लृप्ताः समानमूर्ध्नीरभि लोकमेकम् । तैसं ४,३,११,४; काठ ३९,१० ।

६९. पञ्चानां त्वर्तूनां यन्त्राय धर्त्राय गृह्णामि । तैसं १,६,१,२।।

७०. पितरो वा ऋतवः । मै १,१०,१७,३,४,४।

७१. पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ट विद्वाँ ऋतूनृतुपते यजेह । ये दैव्या ऋत्विजस्तेभिरग्ने त्वँ होतॄणामस्यायजिष्ठः । काठ २,१५ ।।

७२. पूषा षडक्षरया षड् ऋतून् उदजयत् । मै १,११,१०; काठ १४,४ ।

७३. प्रजापतिर्वा एतमग्रेऽग्निमचिनुतर्तुभिस्संवत्सरं वसन्तेन पूर्वार्धं, ग्रीष्मेण दक्षिणं पक्षं, वर्षाभिरुत्तरं शरदा पुच्छं हेमन्तेन मध्यम् । काठ २२,४।

७४. फल्गुनीपूर्णमासो वा ऋतूनां मुखम् । मै १,६,९।।

७५. मुखं वा एतदृतूनां यद्वसन्तः । तै १,१,२, ६-७ ।

७६. य एक ऋतुस्त्रय ऋतवश्च ये षट् चतुर्विंशतिर् ऋतवो ये द्वादश सप्तदशान्युत विंशतिश्च तानन्वारोहामि तपसा ब्रह्मणा च । जै २, ५२ ।।

७७. यत्षष्ठेऽहन्प्रवृज्यते ऋतुर्भूत्वा संवत्सरमेति । तैआ ५, १२, २ ।

७८. यद् ऋत्वियादसृजत तद् ऋतूनामृतुत्वम् । जै ३,१।।

७९. यस्मिन्नेव कस्मिंश्चर्ता (अग्निम् ) आदधीत सोमेन यक्ष्यमाणः । काठ ८,१।। ८०. याष्षड् विभूतय ऋतवस्ते । जैउ १,६,२,१।।

८१. येनर्त्तवः पञ्चधोत क्लृप्ता उत वा षड्ढा मनसोत क्लृप्ताः । तै ३, ११,५ । ८२. यो वै म्रियतऽऋतवो ह तस्मै व्युह्यन्ते । माश ८,७,१,११।

८३. यौ ह खलु वै द्वौ मासावृतोत्सार्द्धिः । जै २,३५३ ।

८४. रश्मय ऋतवः । मै ४,८,८; क १५,१ ।

८५. वर्षाहूर्ऋतूनाम् । मै ३,१४, १९ । ।

८६. वसन्तमृतूनां प्रीणामि । काठ ३१, १५ ।

८७. वसन्तो ग्रीष्मो वर्षाः, ते देवा ऋतवः । शरदेमन्तः शिशिरस्ते पितरः । माश २,१,३,१ ।

८८. वसन्तो वै प्रथम ऋतूनां ग्रीष्मो द्वितीय वर्षास्तृतीयाश्शरच्चतुर्थी हेमन्तः पञ्चमश्शिशिरष्षष्ठः । जै २,३५६ ।।

८९. विंशतिशतं वा ऋतोरहानि (ऋतुः = चत्वारो मासाः) । कौ ११,७।।

९०, षडु मृत्योर्मुखानि ऋतव एव । जै १,२४७ । ।

९१. षड्वा ऋतवः (+संवत्सरः [जै १, १०२; १३१]; संवत्सरम् [माश.J)। मै १, १०, १७; ३, ४,४; ४,४,९; ८,४; काठ ११, ५;१०; काठसंक २१:२; गो २,१,१४; जै १,१०२, १३१; २,३६६; माश १,२,५,१२ ( तु. जै १,३१८; २,४२०)।

९२. संवत्सर ऋतवः । मै ४,६,८; जै १, ३४८; २,१०७; ३५०।।

९३. स ( प्रजापतिः) तपोऽतप्यत स आत्मन्न् ऋत्वियमपश्यत् । ततस्त्रीनृतूनसृजतेमानेव

स लोकान्'••••• यत्प्रथममतप्यत ततो ग्रीष्ममसृजत । यद् द्वितीयमतप्यत ततो वर्षा असृजत । यत् तृतीयमतप्यत ततो हेमन्तमसृजत । तस्मात् स शीततम इव । जै ३,१।

९४, सदस्या ऋतवोऽभवन् । तै ३,१२,९,४ ।।

९५. सप्तऽर्तवः संवत्सरः । माश ६,६,१, १४; ७,३,२,९; ९,१,१,२६ ( तु. माश ९,३,१,१९; ५,२,८ )।

९६. समानप्रभृतयो ह्यृतवः । काठ २०,१०

९७. समानाः सन्त ऋतवो न जीर्यन्ति । तैसं ५, ३, १,२ ।

९८. सर्व ऋतवो वृष्टिमन्तः । मै ३, १, ५। ।

९९. सर्वानृतून् वर्षति (वायुरावरीवर्ति [तैसं ५,३,१,३]) । तैसं ५,१,५,२; ३,१, ३ ।

१००. सेयं वागृतुषु प्रतिष्ठिता वदति । माश ७, ४, २, ३७ ॥

प्रजननं वा ऋतवोऽग्निः प्रजनयिता – मै १.७.४, काठ ९.३

ऋतवः अङ्गानि – तैसं ७.५.२५.१

अन्तो वै यज्ञस्य स्वाहाकारोऽन्त ऋतूनां हेमन्तः। - माश १.५.३.१३

ऋतवो वा इदं सर्वमन्नाद्यं पचन्ति – माश ४.३.३.१२

ऋतवो वा उदुब्रह्मीयं (सूक्तम्) । कौ २९.६

ऋतव उद्गीथः – ष ३.१

ऋतव उपसदः – माश १०.२.५.७

क्षत्रं वा इन्द्राग्नी विड् ऋतवः ।काठ २८.२

तदृतुभिरेवैतद्दिशो मिथुनीकरोति – माश २.४.४.२४

ऋतव्या (इष्टका-)

१. इमे वै लोका ऋतव्याः । माश ८,७,१,१२ ।

२. ऋतव एते यदृतव्याः । माश ८,७,१, १ ।।

३. ऋतुभ्यो वा एता (इष्टकाः) देवा निरमिमत, तदृतव्यानामृतव्यात्वम् । काठ २१,३, क ३१, १८ ।

४. ककुदमृतव्ये (इष्टके)। माश ७,५,१,३५ ।

५. क्षत्रं वाऽऋतव्या विश इमा इतरा इष्टकाः । माश ८,७,१,२ ।

६. संवत्सरो वा ऋतव्याः । माश ८,६,१,४, ७,१,१ ।

ऋतु-ग्रह

१. ऋतुग्रहैः प्रातःसवनमृतुमत् । मै ४,६,८।।

२. सोमपा इन्द्रस्य सजाता यद् ऋतुग्रहाः । क ४४,२ ।

ऋतु-पात्र

१. ऋतुपात्रमेवान्वेकशफं प्रजायते । माश ४,५,५,८ ।

२. ऋतुपात्रे (यदृतु° [क.J) प्रयुज्येते अश्वानेव तेन पशूनां दाधार । काठ २८, १०; क ४५,१ ।

३. स्तना ऋतुपात्रे । मै ४,५,९।।

४. स्तनौ त ऋतुपात्रे पाताम् । मै ४,८,७ ॥

अथैतद् ऋतुपात्रं पुनः प्रयुज्यतेऽश्वं वा एतत् प्रति। - मै ४.८.८

ऋतु-प्रैष- वाग्वा ऋतुप्रैषाः । गो २,६,१०।।

ऋतु-याज

१. ऋतवो वा ऋतुयाजाः । गो २, ३,७।।

२. प्राणा वा ऋतुयाजाः । ऐ २,२९; कौ १३,९; गो २,३,७।।

ऋतु-याजिन्-

यो वसन्तोऽभूत् प्रावृडभूञ्शरदभूदिति यजते स ऋतुयाजी । मै १,१०,८ ।

ऋतु-सन्धि-

ऋतुसन्धिषु वै (हि कौ.]) व्याधिर्जायते । कौ ५,१; गो २,१, १९ ।।


ऋत्वि (तु-इ)ज् –

१. आत्मा वै यज्ञस्य यजमानोऽङ्गान्यृत्विजः । माश ९,५,२, १६।

२. ऋतव ऋत्विजः । माश ११,२,७,२।

३. ऋत्विग्भ्यो ददाति, होत्रा एव तया (दक्षिणया) प्रीणाति । मै ४,८,३ । ।

४. ऋत्विजो वै महिषाः । माश १२,८,१,२ ।।

५. ऋत्विजो (+हैव [माश.) देवयजनम् । गो १,२,१४; माश ३,१, १,५।।

६. एतऽएव सरघे मधुकृतो यदृत्विजः । माश ३,४,३,१४ ।

७. एता उ ह वै यजमानस्य विशो यदृत्विजः । जै २,१४८ ।।

८. छन्दांसि वा ऋत्विजः । मै ३,९,८; काठ २६,९।

९. देवदूता वा एते यद् ऋत्विजः । तैसं १,७, ३,२।

१०. प्राच्या दिशा (°च्यां दिशि [तैसं.]) देवी ऋत्विजो मार्जयन्ताम् । तैसं १, ६, ५, १; मै १,४,२; काठ ५,५।। ।

यद् ऋत्वियादजनयत् तस्माद् ऋत्विज इत्याख्यायन्ते । जै ३,१ ।

११. वेदानामेवैतन्मूलं यद् ऋत्विजः प्राश्नन्ति । काठसंक ४: ५।

१२. स (प्रजापतिः) आत्मन्नृत्वमपश्यत्तत ऋत्विजोऽसृजत यदृत्वादसृजत तदृत्विजामृत्विक्त्वम्

(ऋत्वं = ऋतौ !ऋतुकाले] भवं गर्भस्य कारणं बीजमिति) । तां १०, ३,१ ।।

१३. सप्तर्त्विजः सूर्या इत्याचार्याः । तेषामेषा ( ऋक् ) भवति । सप्त दिशो नानासूर्याः सप्त होतार ऋत्विजः । देवा आदित्या ये सप्त तेभिः सोमाभीरक्ष णः । तैआ १,७,४-५ ।।

[°त्विज्- उशिज- ४; ऋतु- ७१ द्र.] ।

आर्त्विज्य-

अमानुष इव वाऽएतद्भवति यदार्त्विज्ये प्रवृत्त: । माश १,९,१,२९ ।


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