पुराण विषय अनुक्रमणिका (ऋक्ष-एकपर्णा)

PURANA SUBJECT INDEX

Puraanic contexts of words like Uushmaa/heat, Riksha/constellation, Rigveda, Richeeka, Rijeesha/left-over, Rina/debt etc. are given here.

Comments on Rigveda

Veda study on Richeeka

Veda study on Rina/debt


ऋ अग्नि ३४८.३ ( ऋ अक्षर का शब्द व अदिति हेतु प्रयोग ), स्कन्द १.२.६२.२९( क्षेत्रपालों के ६४ प्रकारों में से एक )


ऋक्ष ब्रह्म १.११.१०५ ( अजमीढ - पत्नी धूमिनी से ऋक्ष के जन्म का वृत्तान्त, दिवोदास वंश ), १.११.१११ ( विदूरथ - पुत्र, परीक्षित / दिवोदास वंश ), ब्रह्माण्ड २.३.७.१७४ ( पुलह - पत्नी मृगमन्दा से ऋक्षों का जन्म ), २.३.७.२१० ( शुक व व्याघ्री - पुत्र, विरजा - पति, वाली व सुग्रीव पुत्रों के जन्म का वृत्तान्त ), २.३.७.३१९ ( वानरों की ११ जातियों में से एक ), भागवत ४.१.१७ ( ऋक्ष नामक कुलपर्वत पर अत्रि ऋषि के तप का वर्णन ), ९.२२.३ ( अजमीढ - पुत्र, संवरण - पिता, दिवोदास वंश ), मत्स्य ५०.१९ ( अजमीढ व धूमिनी - पुत्र, संवरण - पिता, जन्म वृत्तान्त का कथन ), १७३.७ ( तारकासुर - सेनानी मय के रथ के वाहक सहस्र ऋक्षों / रीछों का उल्लेख ), मार्कण्डेय १५.२८ ( ऊनी वस्त्र हरण पर ऋक्ष योनि प्राप्ति का कथन ), लिङ्ग १.२४.१११ ( २४वें द्वापर में व्यास ), वराह ८५.२ ( भारतवर्ष के कुलपर्वतों में से एक ), वायु २३.२०६ ( वही), ९९.२१४ ( अजमीढ - पत्नी धूमिनी से ऋक्ष पुत्र के जन्म का वर्णन ), ९९.२३३ ( देवातिथि - पुत्र, भीमसेन - पिता, परीक्षित वंश ), विष्णु ३.३.१८ ( २४वें द्वापर में व्यास, वाल्मीकि उपनाम ), ४.१९.५७ ९ (पुरञ्जय - पुत्र, हर्यश्व - पिता, पुरु /भरत वंश ), ४.२०.६ ( देवातिथि - पुत्र, भीमसेन - पिता, परीक्षित वंश ), विष्णुधर्मोत्तर १.२४९.५ ( धूम्र का ऋक्षों आदि के अधिपति होने का उल्लेख ), स्कन्द १.२.१३.१७१( शतरुद्रिय प्रसंग में ऋक्षों द्वारा तेजोमय लिङ्ग की भग नाम से अर्चना का उल्लेख ), २.१.१३ (धर्मगुप्त राजपुत्र द्वारा ऋक्ष रूप धारी ध्यानकाष्ठ ऋषि को वृक्ष से नीचे गिराने के प्रयत्न की कथा ), ३.१.३२ ( वही), ४.१.४५.३६ (ऋक्षाक्षी : ६४ योगिनियों में से एक ), हरिवंश १.३२.४७ (धूमिनी से ऋक्ष के जन्म का वृत्तान्त ), योगवासिष्ठ १.१८.३५ ( इन्द्रियों / अक्षों की ऋक्ष से उपमा ), लक्ष्मीनारायण १.४०२.२२ ( धर्मगुप्त राजपुत्र द्वारा ऋक्ष से विश्वासघात की कथा ), १.५५६.१७ ( ऋक्ष पर्वत से निकलने वाली नदियों के नाम ), १.५५६.७७ ( राजा पुरूरवा द्वारा पितरों के उद्धार हेतु नर्मदा नदी का ऋक्ष पर्वत पर अवतरण कराने का वृत्तान्त ), १.५५७.७ ( अयोध्यापति मनु द्वारा ऋक्ष पर्वत पर अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान का वर्णन ), कथासरित् १.५.८० ( हिरण्यगुप्त द्वारा वृक्ष पर ऋक्ष से विश्वासघात की कथा ), ४.३.४६ ( सिद्धविक्रम द्वारा पात्र में पत्नी के पूर्वजन्म के ऋक्षी रूप के दर्शन करना ) द्र. नक्षत्र Riksha


ऋक्ष- लक्ष्मीनारायण १.८३.२८( ऋक्षाक्षी : ६४ योगिनियों में से एक ), १.८३.३०( ऋक्षकेशी : ६४ योगिनियों में से एक )


ऋक्षरजा ब्रह्माण्ड २.३.१.५८ ( ब्रह्मा के नेत्र संचार से ऋक्षरजा की उत्पत्ति का कथन ), वा.रामायण ५.६३.५ ( वाली व सुग्रीव के पिता का नाम )


ऋक्षराज ब्रह्माण्ड २.३.७१.३५ ( जाम्बवान ऋक्ष की उपाधि, स्यमन्तक मणि का प्रसंग )


ऋक्षवान ब्रह्माण्ड १.२.१६.३२ ( भारतवर्ष के ७ कुल पर्वतों में से एक, ऋक्षवान पर्वत से उद्भूत नदियों के नाम ), २.३.७०.३२ ( राजा ज्यामघ की ऋक्षवान पर्वत पर स्थिति का कथन ), २.३.७१.३९ ( कृष्ण द्वारा ऋक्षवान पर्वत पर प्रसेनजित् का अन्वेषण, स्यमन्तक मणि प्रसंग ), मत्स्य ४४.३२ ( राजा ज्यामघ का भिक्षुक रूप में ऋक्षवान पर्वत पर वास का कथन ), ११४.१७, ११४.२६ ( भारतवर्ष के ७ कुल पर्वतों में से एक, ऋक्षवान पर्वत से उद्भूत नदियों के नाम ),महाभारत शान्ति ४९.७५, वायु ४५.१०१ ( ऋक्ष पर्वत से उद्भूत नदियों के नाम ), विष्णु २.३.३ ( वही), स्कन्द ५.३.४.४८ ( ऋक्ष पाद से प्रसूत शोण आदि नदियों के नाम ) Rikshavaan


ऋक्षशृङ्ग स्कन्द ५.३.५३ ( दीर्घतपा - पुत्र ऋक्षशृङ्ग की चित्रसेना द्वारा हत्या, दीर्घतपा परिवार के मरण आदि का वर्णन )


ऋग्जिह्व भविष्य १.१३९.४६ ( सुजिह्वा ऋषि की पुत्री निक्षुभा व सूर्य से ऋग्जिह्व ऋषि के जन्म की कथा, अग्नि द्वारा ऋग्जिह्व को पतित होने का शाप, सूर्य द्वारा वरदान )


ऋग्वेद अग्नि १४६.१६( ऋग्वेदा : वैष्णवी कुल में उत्पन्न देवियों में से एक ), भविष्य ३.२.३३.२३( व्याधकर्मा द्वारा अन्नपूर्णा देवी से ऋग्विद्या प्राप्ति का वृत्तान्त ), शिव ५.४२.११( भारद्वाज के ७ पुत्रों के जन्मान्तर में द्विज बनने पर पाञ्चाल नामक पुत्र के ऋग्वेदी/बह्-वृच बनने का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण २.२९०.२ ( बालकृष्ण व लक्ष्मी के विवाह में ऋग्वेद द्वारा आने वाले महीमानों का पूर्व कथन करना ) द्र. वेद Rigveda

Comments on Rigveda

ऋचा पद्म ५.७३.३२( गोपियों के श्रुति व गोप - कन्याओं के ऋचा होने का उल्लेख ), ब्रह्माण्ड १.२.३३.३६( ऋचा के लक्षण ), मार्कण्डेय १०२.७/९९.७( ऋचाओं के रजोगुणी, यजुओं के सतोगुणी आदि होने का कथन ), वायु ६६.७८ ( ऋचाओं की प्रत्यङ्गिरस से उत्पत्ति ? ) , विष्णु १.५.५३ ( ब्रह्मा के प्रथम मुख से ऋचा की उत्पत्ति का कथन ), १.१५.१३६ ( ऋचाओं की प्रत्यङ्गिरस से उत्पत्ति ? ), शिव ५.१३.१ ( एक ऋचा के पठन का फल वन में तप के बराबर होने का कथन ), स्कन्द ४.१.३१.२४( ऋचा द्वारा शिव स्तुति का कथन ), ५.३.५०.५ ( ऋचा से रहित हवि देने पर फल प्राप्ति न होने का उल्लेख ), हरिवंश १.३.६५ ( वही), महाभारत वन ३१३.५४ ( ऋचा द्वारा एकमात्र यज्ञ के वरण का उल्लेख : यक्ष - युधिष्ठिर संवाद ) Richaa

Vedic contexts on Richaa


ऋची ब्रह्माण्ड २.३.१.९४( नहुष - पुत्री, अप्रवान - पत्नी, और्व - माता ), वायु ९९.१७९/२.३७.१७४( अणुह - पत्नी, शुक - पुत्री, ब्रह्मदत्त - माता )


ऋचीक ब्रह्म १.८.२९ ( काव्य - पुत्र, सत्यवती से विवाह, सत्यवती को पुत्रार्थ चरु प्रदान करने की कथा ), ब्रह्माण्ड १.२.१३.९५ ( स्वायम्भुव मन्वन्तर में देवों के सोमपायी दीप्तिमान गण में से एक ), २.३.१.९५ ( और्व के १०० पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र, जमदग्नि - पिता ), २.३.२१.२१ ( परशुराम द्वारा स्व - पितामह ऋचीक व सत्यवती के दर्शन करना ), २.३.६६.३७ ( ऋचीक द्वारा गाधि से सत्यवती की प्राप्ति, सत्यवती को पुत्रार्थ प्रदत्त चरु के विपर्यास की कथा, पुत्र शुन:शेप का विश्वामित्र - पुत्र बनना ), भागवत ९.१५.५ ( गाधि - कन्या सत्यवती की प्राप्ति हेतु ऋचीक द्वारा गाधि को १००० श्याम कर्ण अश्वों को शुल्क रूप में देना, चरु विपर्यास से जमदग्नि व विश्वामित्र के जन्म की कथा ), लिङ्ग १.२४.१९ ( द्वितीय द्वापर में सुतार मुनि के शिष्य ), वायु २३.१८३ ( १८ वें द्वापर में शिखण्डी नामक हरि अवतार के ३ पुत्रों में से एक ), ६५.९३( और्व - पुत्र, सत्यवती - पति, जमदग्नि - पिता ), ९१.६६ ( चरु विपर्यास का प्रसंग ), विष्णु ४.७.१३ ( अश्व शुल्क के बदले सत्यवती से विवाह व चरु विपर्यास की कथा ), विष्णुधर्मोत्तर १.३३ ( और्व /ऋचीक द्वारा सत्यवती को पुत्रार्थ चरु देना, चरु का विपर्यय होने से जमदग्नि व विश्वामित्र का जन्म ), शिव ५.३४.४४ ( दशम मन्वन्तर में दक्षसावर्णि मनु के ९ पुत्रों में से एक ), स्कन्द ६.१६५+ ( गाधि - कन्या सत्यवती की प्राप्ति हेतु ऋचीक द्वारा गाधि को १००० श्याम कर्ण अश्वों को शुल्क रूप में देना, चरु विपर्यास से जमदग्नि व विश्वामित्र के जन्म की कथा ), हरिवंश १.२७.१७ ( और्व / ऋचीक द्वारा सत्यवती को पुत्रार्थ चरु देना, चरु का विपर्यय होने से जमदग्नि व विश्वामित्र का जन्म ), वा.रामायण १.६१.११ ( ऋचीक द्वारा अम्बरीष से गौ शुल्क के बदले मध्यम पुत्र शुन:शेप का यज्ञ में पशुबलि हेतु विक्रय ), १.६२ ( विश्वामित्र द्वारा अम्बरीष के यज्ञ में ऋचीक - पुत्र शुन:शेप की रक्षा ), लक्ष्मीनारायण १.१७४.१८० ( दक्ष यज्ञ से बहिर्गमन करने वाले शैव ऋषियों में से एक ), १.५०६ ( ऋचीक द्वारा गाधि - कन्या सत्यवती को प्राप्त करने व सत्यवती को चरु प्रदान का उद्योग ) Richeeka

Veda study on Richeeka


ऋचेयु ब्रह्म १.११.६, १.११.५१ ( रौद्राश्व - पुत्र, ज्वलना - पति, मतिनार - पिता, वंश वर्णन ), हरिवंश १.३२.१ ( वही)


ऋजीष ब्रह्माण्ड १.२.३५.१२१ ( १८वें द्वापर में व्यास का नाम )


ऋजु गरुड ३.१६.३४(योग में ऋजुता व वक्रता का कथन)


ऋण अग्नि २११.११(४ प्रकार के ऋणों दैवत्य, भौत्य?, पैत्र व मानुष का उल्लेख), २१४.१६( संवत्सर? में कास के ऋण व नि:श्वास के धन होने का उल्लेख ), २५३.१३, २५४.१ ( ऋण सम्बन्धी व्यवहार का विचार ), गरुड १.४९.१०( तीन ऋणों का अपाकरण करके मोक्ष की ओर उन्मुख होने का निर्देश ), १.११५.४६( ऋण शेष आदि के वर्धित होते रहने का कथन ), पद्म २.१२.१ ९ ऋण दाता का पुत्र, भ्राता, मित्र आदि के रूप में जन्म लेकर धन प्राप्ति का वर्णन ), ३.४४.२१( प्रयाग में ऋणप्रमोचन तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), ब्रह्मवैवर्त्त २.६.९९ ( ऋणग्रस्त मनुष्य का विष्णु भक्त के दर्शन करके पवित्र होने का कथन ), भविष्य १.१८४.४३ ( ऋण की परिभाषा : प्रतिज्ञा को क्रियान्वित न करना ), भागवत १०.८४.३९( २ ऋणों से उऋण वसुदेव द्वारा देवऋण से उऋण होने के लिए यज्ञ का अनुष्ठान ), मत्स्य १९८.१९ (ऋणवान् :विश्वामित्र वंश के एक ऋषि ), विष्णुधर्मोत्तर २.९५.२( तीन ऋणों तथा उनसे उऋण होने के उपाय का कथन ), २.१३१.३( बिना ऋणत्रय से उऋण हुए मोक्ष की इच्छा का निषेध ), ३.३३१ ( ऋण सम्बन्धी व्यवहार का विचार ), शिव २.२.१३.३५( तीन ऋणों का अपाकरण किए बिना पुत्रों को मोक्ष की ओर प्रवृत्त करने पर दक्ष द्वारा नारद को शाप ), स्कन्द ३.१.३०.१३०(ऋण मोक्ष के रूप में सेतुमूल, धनुषकोटि व गन्धमादन का उल्लेख), ४.१.४०.१२१ ( ऋण की परिभाषा ;प्रतिज्ञा को क्रियान्वित न करना ), महाभारत आदि ११९.१६( पाण्डु द्वारा अपत्यहीन होने के संदर्भ में ४ ऋणों का कथन ), २२८.११( मन्दपाल ऋषि के आख्यान के संदर्भ में मन्दपाल द्वारा पुत्रोत्पत्ति न किए जाने से तीसरे ऋण से उऋण न होने का कथन ), वन ८३.९८( कुरुक्षेत्र में किंदत्त कूप पर तिलप्रस्थ दान से ऋणों से मुक्त होने का उल्लेख ), उद्योग ५९.२२( द्रौपदी द्वारा कृष्ण को आर्तभाव से पुकारने को कृष्ण द्वारा स्वयं के ऊपर ऋण की संज्ञा ), शान्ति १४०.५८( ऋणशेष या वर्धमान ऋण को समाप्त करने का निर्देश ), १९९.८५( काम व क्रोध रूपी विकृत व विरूप ब्राह्मणों में ऋण पर विवाद का वर्णन ), २९२.९( ५ प्रकार के ऋणों के नाम व उनसे उदृण होने के उपायों का कथन ), अनुशासन ३७.१७( देवादि ५ ऋणों के नाम ) द्र. दशार्ण Rina

Veda study on Rina/debt

Each of the four Vedas is meant for some specific purpose in human life. The present work attempts to investigate the purpose of Rigveda on the basis of quotations in vedic and puraanic texts. Rigvedic mantra is called Richaa. This word indicates that through Rigveda, one can guess the attributes of an event before it actually takes place.

In pictorial representation of Rigveda, this veda is depicted as hold a rosary of beads in his hand. Here lies hidden the actual character of Rigveda. In normal course, all our life is governed by beads, which are called Akshas in Sanskrit. In terms of modern science, these akshas are called the play of dice in nature and about which Einstein thinks that God does not play dice. But it is true that may be not God, but nature plays dice. How can one overcome this play of dice, the nature of chance of any event according to Dr. L.N.Dhoot. The way out may be that the contact between one aksha and the other should be strong. In vedic mythology, this contact is created by god air. Practically, these axes have to be provided energy from outside so that these may establish contact with each other.

ऋग्वेद

टिप्पणी : वैदिक साहित्य में ऋग्वेद और उसकी ऋचाओं के लक्षणों का जितना विस्तार से उल्लेख किया गया है, पुराणों में उतना ही संक्षेप से । केवल मत्स्य पुराण २८९.२ में ही वेदों की मूर्तियों के संदर्भ में ऋग्वेद की मूर्ति के हाथों में अक्षमाला कही गई है । यह लक्षण कितना विलक्षण है, इस पर हम विचार करते हैं । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से यह उल्लेख आता है ( तैत्तिरीय संहिता ७.५.१.६, ७.५.४.१, शतपथ ब्राह्मण ४.६.७.२, जैमिनीय ब्राह्मण २.३८०, गोपथ ब्राह्मण १.५.२५) कि साम देवलोक से और ऋचा मनुष्य लोक से सम्बन्धित है, अथवा कि साम आदित्य से और ऋचा अग्नि से सम्बन्धित है । शतपथ ब्राह्मण ४.६.७.२ का कथन है कि इस ( पृथिवी ) लोक की जय ऋचा द्वारा की जाती है, अन्तरिक्ष की यजु से और द्युलोक की साम से । इस आधार पर ऋग्वेद का सम्बन्ध गार्हपत्य अग्नि से, यजुर्वेद का दक्षिणाग्नि से और सामवेद का आहवनीय अग्नि से होना चाहिए । इन्दौर से डा. लक्ष्मीनारायण धूत द्वारा दी गई सूचना के अनुसार इस लोक में, प्रकृति में सारा कार्य द्यूत के, चांस के आधार पर होता है, उसमें कोई तारतम्य नहीं है । द्यूत के पांसों को अक्ष कहा जाता है । हमारी इन्द्रियों को, आंख, नाक, कान आदि को भी अक्ष कहा जाता है । अक्ष को इस प्रकार समझा जा सकता है हि अक्ष वह है जिसमें ऊर्जा का प्रवाह संघनित रूप में होता है । दूसरे शब्दों में, अक्ष चुम्बक की भांति है जो सारी चुम्बकीय ऊर्जा को अपने में समाहित कर लेता है । जहां जहां भी चुम्बक रखा होगा, सारी चुम्बकीय ऊर्जा उसी के माध्यम से होकर पारण करेगी, उसके परितः जो स्थान होगा, वह चुम्बकीय क्षेत्र से विरल हो जाएगा । प्राणि जगत में बहुत से अक्ष स्वाभाविक रूप में उत्पन्न हो गए हैं, जैसे दर्शन की ऊर्जा हमारे चक्षुओं से प्रवाहित होती है, शरीर में अन्यत्र इस प्रकार के तन्तुओं का विकास नहीं हो पाया है जो दर्शन में काम आ सके, यद्यपि वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है कि ७ स्तरों पर अक्ष हैं जिनमें से शिरोभाग या मुख में स्थित अक्षों के अतिरिक्त अन्य सब अक्ष अविकसित पडे हैं । उदाहरण के लि, स्तनों को भी अविकसित चक्षु कहा गया है । इसके अतिरिक्त, प्राणियों की देह में हृदय, यकृत, अग्न्याशय आदि अनेक छोटे - बडे अक्ष अपना - अपना कार्य कर रहे हैं । अब विचारणीय यह है कि हमारी देह में स्थित इन अक्षों के बीच सूचना का आदान - प्रदान कितने बृहत् स्तर पर है । सूचना का आदान - प्रदान जितने बृहत् स्तर पर होगा, द्यूत की सम्भावना उतनी ही कम होगी । यह तो सर्वविदित है कि सारे अक्ष मिल कर हमारे जीवन को सुचारु रूप से चला रहे हैं । अक्षों के इस सहयोग को ही वह अक्षमाला कहा जा सकता है जिसे ऋग्वेद की मूर्ति अपने हाथों में लिए है । इस अक्षमाला में क्या त्रुटियां हैं ? प्रकृति - प्रदत्त इस अक्षमाला में एक कमी तो यह है कि सबसे निचले स्तर पर जीवन को धारण करने के लिए जो कुछ भी आवश्यक है, वह सब अक्ष सुचारु रूप से करते हैं । लेकिन यदि हम यह सोचें कि जीवन अमर हो जाए तो इन अक्षों की कमियां सामने आने लगती हैं । अमर जीवन के लिए यह आवश्यक है कि एक अक्ष में जो विकास हुआ, दूसरा अक्ष उसे ग्रहण करने को तैयार हो । लेकिन प्रकृति - प्रदत्त अक्षों में विशेष उपाय के बिना ऐसा नहीं हो पाता । उदाहरण के लिए, हमारी देह के अक्ष वीर्य उत्पन्न करते हैं जो रसों का रस है और शरीर को पुष्ट करने के लिए, उसे अमर बनाने के लिए आवश्यक है । लेकिन यह सर्वविदित है कि प्राणायाम आदि विशेष उपायों द्वारा मल का शोधन किए बिना हमारे शरीर के अक्ष उसका आदान - प्रदान नहीं करते । इस अक्षमाला की दूसरी त्रुटि यह है कि इसके अक्षों में सम्पर्क बहुत मन्द गति से होता है । यदि पैर में कांटा चुभा तो उसकी संवेदना मस्तिष्क तक पंहुचने में कुछेक क्षण तो लग ही जाते हैं । आधुनिक विज्ञान के अनुसार हमारे शरीर के अक्षों में सम्पर्क विद्युत के भारी कणों के माध्यम से होता है जिन्हें आयन कहते हैं । विद्युत कणों के भारी होने के कारण यह धीरे - धीरे, एक दूसरे से टकराते हुए आगे बढते हैं । दूसरी ओर, आधुनिक विज्ञान में सूचना का आदान - प्रदान इलेक्ट्रान कहे जाने वाले हल्के विद्युत कणों के माध्यम से किया जाता है, और उससे भी आगे विद्युत - चुम्बकीय तरंगों के माध्यम से किया जाता है जो बहुत तेज गति वाली हैं । यह कहा जा सकता है कि अक्षमाला जितनी सशक्त होगी, ऋग्वेद का स्वरूप भी उतना ही सशक्त होगा । अक्षों को परस्पर सम्बद्ध करने वाले सूत्र के विषय में विज्ञान का दृष्टिकोण ऊपर कहा गया है । आध्यात्म में, बृहदारण्यक उपनिषद ३.७.१ में यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या किसी को उस सूत्र का ज्ञान है जो इस लोक को परलोकों से सम्बद्ध करता है, सारे भूतों को परस्पर सम्बद्ध करता है ? इसका उत्तर कुछ अस्पष्ट रूप में वायु और अन्तर्यामी के रूप में दिया गया है । वायु ही सबको परस्पर सम्बद्ध करने वाला है । इस सूत्र के सम्बन्ध में बहुत गहन विचार की आवश्यकता है जो इस टिप्पणी के संदर्भ में नहीं किया गया है । बृहदारण्यक उपनिषद में वायु को सूत्र कहने के महत्त्व का आकलन तभी हो सकता है जब यह ज्ञात हो जाए कि वैदिक साहित्य में वायु शब्द से क्या तात्पर्य है । साधारण निरुक्ति के अनुसार तो जो वा - विकल्प से यु - योजन करे, जोडे, वह वायु है । वायु का स्थान अन्तरिक्ष है और अन्तरिक्ष में ज्योति तथा विद्युत की भी स्थिति कही गई है । अक्षों को जोडने वाले सूत्र के रूप में विद्युत के योगदान की चर्चा आयन नामक कणों के रूप में ऊपर की जा चुकी है । तीव्र गति वाली विद्युत का आभास तो हमें बहुत ही कम, रोमाञ्च में ही कभी - कभी हो जाता है । अतः अक्षों में द्यूत की स्थिति से बचने के लिए यह आवश्यक है कि सूत्र को अधिक से अधिक पुष्ट किया जाए, रोमाञ्च की स्थिति को सामान्य स्थिति बनाया जाए (यह उल्लेखनीय है कि वायु सम्बन्धित कार्य यजुर्वेद के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि यजुर्वेद का देवता वायु है ) ।

ऋग्वेद के संदर्भ में एक अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेख अथर्ववेद ११.९.५, ११.९.२४ में आता है जिसमें कहा गया है कि ऋग्वेद की ऋचाओं की उत्पत्ति उच्छिष्ट से, अतिरिक्त ऊर्जा से हुई है । अथर्ववेद ९.५.५ में पृथिवी रूपी कुम्भी में ओदन पकाने का रूपक प्रस्तुत किया गया है । यह कार्य ऋचा की सहायता से किया जाता है ( ओदन डा. फतहसिंह के शब्दों में उदान प्राण का, अतिरिक्त ऊर्जा का रूप है ) । इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि हमारे शरीर के प्रत्येक अक्ष को अपने पोषण के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उस ऊर्जा की प्राप्ति के पश्चात् ही अक्षों द्वारा अतिरिक्त ऊर्जा का उपयोग करके परस्पर आदान - प्रदान का प्रश्न उठेगा । लेकिन यदि प्रत्येक अक्ष ऊर्जा के संदर्भ में अतृप्त है तो भी एक उपाय है जिसके द्वारा इसे अन्य अक्षों के साथ जोडना संभव हो सकता है । विज्ञान में प्रत्येक जड पदार्थ में ( प्रत्येक जड पदार्थ भी किसी न किसी रूप में अक्ष की भांति कार्य करता है, अथवा उसे अक्ष बनाया जा सकता है ) धन और ऋण विद्युत के कण एक दूसरे को जकडे हुए हैं । इन विद्युत कणों में से कुछ को यदि बाहर से, जैसे सूर्य के प्रकाश से या उच्च वोल्टता की विद्युत से ऊर्जा प्राप्त हो जाए तो उनकी परस्पर जकडन समाप्त हो जाती है और वह एक प्रकार से अतिरिक्त बनकर जड पदार्थ से बाहर निकलकर वायुमण्डल तक में फैलने में समर्थ हो जाते हैं । इस प्रक्रिया का आधुनिक विज्ञान में बहुत उपयोग किया जा रहा है । अतः जब ब्राह्मण ग्रन्थों में यह कहा जाता है कि साम ऋचाओं में वीर्य के सिंचन का कार्य करते हैं ( शतपथ ब्राह्मण ४.३.२.३ आदि ) तो उसको इसी रूप रूप में समझा जाना चाहिए कि वह अक्षों में अतिरिक्त ऊर्जा की सृष्टि करते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७९ में ऋचाओं की निरुक्ति ऊर्घ के रूप में की गई है जिसे परोक्ष रूप में ऋक् कह दिया जाता है । कम से कम अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए हम इस ऊर्घ शब्द को ऊर्क मान रहे हैं । आकाश से पर्जन्य वृष्टि के फलस्वरूप पृथिवी पर जो अन्न, सस्य उत्पन्न होती है, उसे ऊर्क् कहा जाता है । इस ऊर्क् को भी पृथिवी की अतिरिक्त ऊर्जा ही कह सकते हैं । ऋग्वेद १०.१६५.५ में ऋचा द्वारा कपोत को नियन्त्रित करने का उल्लेख आता है । कपोत शब्द की टिप्पणी में कपोत को भी अतिरिक्त ऊर्जा, घर्म, प्रवर्ग्य आदि कहा गया है । यह संकेत करता है कि अतिरिक्त ऊर्जा को व्यवस्थित करने का, उसका सम्यक् उपयोग करने का कार्य ऋग्वेद की ऋचाओं के माध्यम से किया जाता है । और ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद की ऋचाएं इस कार्य के लिए केवल मार्गदर्शन प्रस्तुत करती हैं । ऐसा नहीं लगता कि स्वयं ऋचाओं में कोई दिव्य शक्ति है जो असम्भव को सम्भव बना देती हो । ऐतरेय ब्राह्मण १.४ व २.२ का कथन है कि यत् कर्म क्रियमाणमृगभिवदति, तद् रूप समृद्धम्, अर्थात् हमने कोई कार्य करने की सोची है तो ऋचा में यह शक्ति है कि वह उस कर्म को करने के पश्चात् क्या स्वरूप उभर कर आएगा, इसकी पूर्व घोषणा कर सकती है । यह आजकल के कम्प्यूटर मांडलिंग की तरह है । कम्प्यूटर मांडलिंग का उपयोग इस प्रकार किया जाता है कि किसी बहुत बडे कार्य का सम्पादन करने से पूर्व उस कार्य के विभिन्न आयामों के संदर्भ में कम्प्यूटर में आवश्यक सूचना भरी जाती है और फिर कम्प्यूटर उन सूचनाओं का विश्लेषण करके यह बताता है कि इस कार्य की परिणति इन - इन रूपों में हो सकती है । इन परिणामों के अनुसार हम अपने कार्य की दिशा में आवश्यक परिवर्तन कर सकते हैं । इस प्रकार बहुत धन व्यय करने के बाद भी कार्य की असफलता की संभावना से बचा जा सकता है । प्रत्येक कार्य के लिए ऋचाओं के भिन्न - भिन्न समूहों का विनियोग किया जाता है और तैत्तिरीय संहिता आदि में स्थान - स्थान पर निर्देश आता है कि यज्ञ में इस कार्य के लिए वैष्णवी ऋचा का विनियोग करना है, इस कार्य के लिए आग्नावैष्णवी, इस कार्य के लिए वारुणी आदि आदि । यज्ञ की क्रियाएं विशिष्ट होती हैं और तैत्तिरीय संहिता आदि के यह विशिष्ट निर्देश अवश्य ही महत्त्वपूर्ण होने चाहिएं जिनका ज्ञान यज्ञ के ऋत्विजों को नहीं हो पाता होगा । अभी वह समय दूर है जब यज्ञ की क्रियाओं का रूपान्तर सामान्य जीवन की क्रियाओं में किया जा सके । लेकिन कम से कम कुछेक ऋग्वैदिक ऋचाओं को सामान्य जीवन की क्रियाओं का आधार बनाकर ऋग्वेद की गंभीरता को समझने का प्रयास कर ही सकते हैं । ऋग्वेद १.१८७ सूक्त अन्न की स्तुति में है और चूंकि अन्न से प्रत्येक प्राणी सम्बन्धित है, अतः इस सूक्त के विश्लेषण के आधार पर पूरे ऋग्वेद की क्या प्रकृति हो सकती है, यह समझ में आ सकता है । यह सूक्त अगस्त्य ऋषि का है । इस सूक्त की पहली ऋचा में कहा गया है कि हम पिता की स्तुति करते हैं - - - - - - जिसके ओज से त्रित ने वृत्र को विपर्व करके मारा । आगे तीन ऋचाओं में उस वातापि के पुष्ट होने की कामना की गई है जो सोम का किंचित् भी रसास्वादन कराने में समर्थ है । जैसा कि स्पष्ट है, सूक्त को समझने में बहुत सी कठिनाइयां हैं । अन्न का वह कौन सा रूप है जिसकी ऋग्वेद में स्तुति की गई है ? क्य यह वही अक्ष रूप अन्न है जिसका हम सब सेवन करते हैं ? श्राद्ध कार्य में तो श्रद्धा ही अन्न होती है जिससे पितर तृप्त होते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण का आरम्भ इस कथन से होता है कि अग्नि के मन्थन से जो भस्म उत्पन्न हुई, वह अन्न बना, फिर जो धूम उत्पन्न हुआ, वह मन, फिर आगे मन्थन से चक्षु, श्रोत्र, ऋचा, साम आदि उत्पन्न हुए । इस कथन के अनुसार क्या पापों के भस्म होने की स्थिति, नास्तिक स्थिति से सर्वप्रथम आस्तिकता की स्थिति अन्न है ? यह सभी विचारणीय विषय हैं । फिर आगे वातापि शब्द के बारे में शांखायन/कौशितकि ब्राह्मण २७.४ में कहा गया है कि जो वात अर्थात् आत्मा द्वारा शरीर का आप्यायन कराता है, पुष्ट कराता है, वह वातापि अर्थात् इन्द्र है । पुराणों में तो वातापि को एक राक्षस बना दिया गया है जो अन्न का रूप भी धारण कर लेता है और द्विजों को हानि पहुंचाता है । केवल अगस्त्य ही इस वातापि नामक राक्षस अन्न को पचाने में समर्थ हो पाते हैं ।

वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से ऋचाओं को महदुक्थ कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण ९.५.२.१२, १०.४.१.१३, १०.५.२.१ आदि ) । उक्थ शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि उक्थ का कार्य सोए हुए, अचेतन प्राणों को जगाना है, जैसे नाम लेकर सोए हुए व्यक्ति को जगाया जाता है । ऊपर के वर्णन से यह स्पष्ट है कि यदि अतिरिक्त ऊर्जा के ऋचाओं द्वारा संस्करण से सोए हुए प्राण जाग्रत होते हों तो यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है ।

ऋग्वेद १.१६४.३९ ऋच: अक्षरे परमे व्योमन् शब्दों से आरम्भ होता है तथा अथर्ववेद १०.८.१०, गोपथ ब्राह्मण १.१.२२ व तैत्तिरीय आरण्यक २.११.१ में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है कि परम व्योम में जो अक्षर है, वह प्रणव, ओंकार रूपी एकाक्षर ऋचा है । यदि अक्षों के माध्यम से प्रवाहित हो रही तरंगों को क्षयरहित बनाना है तो उसका एक उपाय यह है कि अक्षों की एक माला बना दी जाए जिससे तरंगें एक अक्ष में प्रवेश करने के पश्चात् दूसरे में प्रवेश कर जाएं और यह क्रम चलता रहे । अतः इस दृष्टि से भी पुराणों में ऋग्वेद की मूर्ति का स्वरूप महत्त्वपूर्ण हो सकता है ।

पुराणों द्वारा ऋग्वेद की मूर्ति के हाथ में अक्षमाला देने का तथ्य ब्राह्मण ग्रन्थों के उल्लेख पर ही आधारित है । तैत्तिरीय संहिता ६.६.७.४ का कथन है कि साम और ऋचा द्वारा यज्ञ का इस प्रकार प्रभेदन करे जैसे लाङ्गल/हल द्वारा उर्वरा भूमि का । दूसरी ओर, ऋचा के अश्व रूप का भी उल्लेख आता है । शतपथ ब्राह्मण ४.४.३.६ आदि का कथन है कि ऋक् और साम इन्द्र के हरिद्वय हैं जो इन्द्र के रथ का वहन करते हैं ।

वर्तमान टिप्पणी ऋग्वेद का बहुत ही एकाङ्गी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है और ब्राह्मण ग्रन्थों में ऋचाओं के संदर्भ में अधिकांश उल्लेख अभी तक व्याख्यारहित ही रह जाते हैं । आशा है कि विद्वज्जन भविष्य में ऋग्वेद का और अधिक सुन्दर चित्र बनाने में सफल होंगे ।

प्रथम लेखन : २९-८-२००२ई.

संदर्भ


*वसोरिन्द्रं वसुपतिं गीर्भिर्गृणन्त ऋग्मियम्। होम गन्तारमूतये ॥ - ऋग्वेद १.९.९

*य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा। मरुद्भिरग्न आ गहि ॥ - ऋ. १.१९.४

*यमग्निं मेध्यातिथि: कण्व ईध ऋतादधि। तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस् तमग्निं वर्धयामसि ॥ - ऋ. १.३६.११

*अभि त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियमिन्द्रं गीर्भिर्मदता वस्वो अर्णवम्। यस्य द्यावो न विचरन्ति मानुषा भुजे मंहिष्ठमभि विप्रमर्चत ॥ - ऋ. १.५१.१

*प्र मन्महे शवसानाय शूषमाङ्गूषं गिर्वणसे अङ्गिरस्वत्। सुवृक्तिभिः स्तुवत ऋग्मियायाऽर्चामार्कं नरे विश्रुताय ॥ - ऋ. १.६२.१

*पितुः प्रत्नस्य जन्मना वदामसि सोमस्य जिह्वा प्र जिगाति चक्षसा। यदीमिन्द्रं शम्यृक्वाण आशतादिन्नामानि यज्ञियानि दधिरे ॥ श्रियसे कं भानुभिः सं मिमिक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः। ते वाशीमन्त इष्मिणो अभीरवो विद्रे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः ॥ - ऋ. १.८७.५-६

*सो अङ्गिरोभिरङ्गिरस्तमो भूद् वृषा वृषभिः सखिभिः सखा सन्। ऋग्मिभिर्ऋग्मी गातुभिर्ज्येष्ठो मरुत्वान् नो भवत्विन्द्र ऊती ॥ - ऋ. १.१००.४

*शरस्य चिदार्चत्कस्यावतादा नीचादुच्चा चक्रथुः पातवे वाः। शयवे चिन्नासत्या शचीभिर्जसुरये स्तर्यं पिप्यथुर्गाम् ॥ - ऋ. १.११६.२२

*चतुर्भिः साकं नवतिं च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतीfरवीविपत्। बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्वभिर्युवा कुमारः प्रत्येत्याहवम् ॥ - ऋ. १.१५५.६

*ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद् विदुस्त इमे समासते ॥ - ऋ. १.१६४.३९

*दैव्या होतारा प्रथमा विदुष्टर ऋजु यक्षतः समृचा वपुष्टरा। देवान् यजन्तावृतुथा समञ्जतो नाभा पृथिव्या अधि सानुषु त्रिषु ॥ - ऋ. २.३.७

*अस्मै बहूनामवमाय सख्ये यज्ञैर्विधेम नमसा हविर्भिः। सं सानु मार्ज्मि दिधिषामि बिल्मैर्दधाम्यन्नैः परि वन्द ऋग्भिः ॥ - ऋ. २.३५.१२

*आ मन्द्रस्य सनिष्यन्तो वरेण्यं वृणीमहे अह्रयं वाजमृग्मियम्। रातिं भृगूणामुशिजं कविक्रतुमग्निं राजन्तं दिव्येन शोचिषा ॥ - ऋ. ३.२.४

*दीदिवांसमपूर्व्यं वस्वीभिरस्य धीतिभिः। ऋक्वाणो अग्निमिन्धते होतारं विश्पतिं विशाम् ॥ - ऋ. ३.१३.५

*स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण। बृहस्पतिरुस्रिया हव्यसूदः कनिक्रदद् वावशतीरुदाजत् ॥ - ऋ. ४.५०.५

*आ ते अग्न ऋचा हविः शुक्रस्य शोचिषस्पते। सुश्चन्द्र दस्म विश्पते हव्यवाट् तुभ्यं हूयत इषं स्तोतृभ्य आ भर ॥ - ऋ. ५.६.५

*नवा नो अग्न आ भर स्तोतृभ्यः सुक्षितीरिषः। ते स्याम य आनृचुस्त्वादूतासो दमेदम इषं स्तोतृभ्य आ भर ॥ - ऋ. ५.६.८

*यो म इति प्रवोचत्यश्वमेधाय सूरये। दददृचा सनिं यते ददन्मेधामृतायते ॥ - ऋ. ५.२७.४

*यो जागार तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति। यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः ॥ अग्निर्जागार तमृचः कामयन्ते ऽग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति। अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः ॥ - ऋ. ५.४४.१४-१५

*प्र श्यावाश्व धृष्णुया ऽर्चा मरुद्भिर्ऋक्वभिः। ये अद्रोघमनुष्वधं श्रवो मदन्ति यज्ञियाः ॥ - ऋ. ५.५२.१

*अग्ने मरुद्भिः शुभयद्भिर्ऋक्वभिः सोमं पिब मन्दसानो गणश्रिभिः। पावकेभिर्विश्वमिन्वेभिरायुभिर्वैश्वानर प्रदिवा केतुना सजूः ॥ - ऋ. ५.६०.८

*वरुणं वो रिशादसमृचा मित्रं हवामहे। परि व्रजेव बाह्वोर्जगन्वांसा स्वर्णरम् ॥ - ऋ. ५.६४.१

*युवाभ्यां मित्रावरुणोपमं धेयामृचा। यद्ध क्षये मघोनां स्तोतॄणां च स्पूर्धसे ॥ - ऋ. ५.६४.४

*अपामुपस्थे महिषा अगृभ्णत विशो राजानमुप तस्थुर्ऋग्मियम्। आ दूतो अग्निमभरद् विवस्वतो वैश्वानरं मातरिश्वा परावतः ॥ - ऋ. ६.८.४

*आ ते अग्न ऋचा हविर्हृदा तष्टं भरामसि। ते ते भवन्तूक्षण ऋषभासो वशा उत ॥ - ऋ. ६.१६.४७

*स मातरा सूर्येणा कवीनामवासयद् रुजदद्रिं गृणानः। स्वाधीभिर्ऋक्वभिर्वावशान उदुस्रियाणामसृजन्निदानम् ॥ स वह्निभिर्ऋक्वभिर्गोषु शश्वन् मितज्ञुभिः पुरुकृत्वा जिगाय। पुरः पुरोगा सखिभिः सखीयन् दृळ्हा रुरोज कविभिः कविः सन् ॥ - ऋ. ६.३२.२-३

*दूराच्चिदा वसतो अस्य कर्णा घोषादिन्द्रस्य तन्यति ब्रुवाणः। एयमेनं देवहूतिर्ववृत्यान्मद्र्यगिन्द्रमियमृच्यमाना ॥ - ऋ. ६.३८.२

*नू गृणानो गृणते प्रत्न राजन्निषः पिन्व वसुदेयाय पूर्वीः। अप ओषधीरविषा वनानि गा अर्वतोv नॄनृचसे रिरीहि ॥ - ऋ. ६.३९.५

*ब्रह्माणं ब्रह्मवाहसं गीर्भिः सखायमृग्मियम्। गां न दोहसे हुवे ॥ - ऋ. ६.४५.७

*बाधसे जनान् वृषभेव मन्युना घृषौ मीळ्ह ऋचीषम। अस्माकं बोध्यविता महाधने तनूष्वप्सु सूर्ये ॥ - ऋ. ६.४६.४

*अरुषस्य दुहितरा विरूपे स्तृभिरन्या पिपिशे सूरो अन्या। मिथस्तुरा विचरन्ती पावके मन्म श्रुतं नक्षत ऋच्यमाने ॥ - ऋ. ६.४९.३

*इन्द्रं नो अग्ने वसुभिः सजोषा रुद्रं रुद्रेभिरा वहा बृहन्तम्। आदित्येभिरदितिं विश्वजन्यां बृहस्पतिमृक्वभिर्विश्ववारम् ॥ - ऋ. ७.१०.४

*त्वमिन्द्र स्वयशा ऋभुक्षा वाजो न साधुरस्तमेष्यृक्वा। वयं नु ते दाश्वांसः स्याम ब्रह्म कृण्वन्तो हरिवो वसिष्ठाः ॥ - ऋ. ७.३७.४

*समु वां यज्ञं महयं नमोभिर्हुवे वां मित्रावरुणा सबाधः। प्र वां मन्मान्यृचसे नवानि कृतानि ब्रह्म जुजुषन्निमानि ॥ - ऋ. ७.६१.६

*वि ये दधुः शरदं मासमादहर्यज्ञमक्तुं चादृचम्। अनाप्यं वरुणो मित्रो अर्यमा क्षत्रं राजान आशत ॥ - ऋ. ७.६६.११

*यो वां यज्ञो नासत्या हविष्मान् कृतब्र|ह्मा समर्यो भवाति। उप प्र यातं वरमा वसिष्ठमिमा ब्रह्माण्यृच्यन्ते युवभ्याम् ॥ - ऋ. ७.७०.६

*येषामाबाध ऋग्मिय इषः पृक्षश्च निग्रभे। उपविदा वह्निर्विन्दते वसु ॥ - ऋ. ८.२३.३

*अग्निरुक्थे पुरोहितो ग्रावाणो बर्हिरध्वरे। ऋचा यामि मरुतो ब्रह्मणस्पतिं देवाँ अवो वरेण्यम् ॥ - ऋ. ८.२७.१

*आ नो अद्य समनसो गन्ता विश्वे सजोषसः। ऋचा गिरा मरुतो देव्यदिते सदने पस्त्ये महि ॥ - ऋ. ८.२७.५

*अहन् वृत्रमृचीषम और्णवाभमहीशुवम्। हिमेनाविध्यदबुर्दम् ॥ - ऋ. ८.३२.२६

*आहं सरस्वतीवतोरिन्द्राग्न्योरवो वृणे। याभ्यां गायत्रमृच्यते ॥ - ऋ. ८.३८.१०

*अग्निमस्तोष्यृग्मियमग्निमीळा यजध्यै। अग्निर्देवाँ अनक्तु न उभे हि विदथे कविरन्तश्चरति दूत्यं नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ. ८.३९.१

*तं शिशीता सुवृक्तिभिस्त्वेषं सत्वानमृग्मियम्। उतो नु चिद् य ओजसा शुष्णस्याण्डानि भेदति जेषत् स्वर्वतीरपो नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ. ८.४०.१०

*यस्मा अर्कं सप्तशीर्षाणमानृचुस्त्रिधातुमुत्तमे पदे। स त्विमा विश्वा भुवनानि चिक्रददादिज्जनिष्ट पौंस्यम् ॥ - ऋ. ८.५१.४

*तुरण्यवो मधुमन्तं घृतश्चुतं विप्रासो अर्कमानृचुः। अस्मे रयिः पप्रथे वृष्ण्यं शवो ऽस्मे सुवानास इन्दवः ॥ - ऋ. ८.५१.१०

*अव चष्ट ऋचीषमो ऽवताँ इव मानुषः। जुष्ट्वी दक्षस्य सोमिनः सखायं कृणुते युजं भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.६

*बळृत्वियाय धाम्न ऋक्वभिः शूर नोनुमः। जेषामिन्द्र त्वया युजा ॥ - ऋ. ८.६३.११

*परोमात्रमृचीषममिन्द्रमुग्रं सुराधसम्। ईशानं चिद्वसूनाम् ॥ - ऋ. ८.६८.६

*आ नो विश्वासु हव्य इन्द्रः समत्सु भूषतु। उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहा परमज्या ऋचीषमः ॥ - ऋ. ८.९०.१

*शिक्षा ण इन्द्र राय आ पुरु विद्वाँ ऋचीषम। अवा नः पार्ये धने ॥ - ऋ. ८.९२.९

*नेमिं नमन्ति चक्षसा मेषं विप्रा अभिस्वरा। सुदीतयो वो अद्रुहो ऽपि कर्णे तरस्विनः समृक्वभिः ॥ - ऋ. ८.९७.१२

*मिमाति वह्निरेतशः पदं युजान ऋक्वभिः। प्र यत् समुद्र आहितः ॥ - ऋ. ९.६४.१९

*मन्द्रस्य रूपं विविदुर्मनीषिणः श्येनो यदन्धो अभरत् परावतः। तं मर्जयन्त सुवृधं नदीष्वाँ उशन्तमंशुं परियन्तमृग्मियम् ॥ - ऋ. ९.६८.६

*पितुर्मातुरध्या ये समस्वरन्नृचा शोचन्तः संदहन्तो अव्रतान्। इन्द्रद्विष्टामप धमन्ति मायया त्वचमसिक्नी भूमनो दिवस्परि ॥ - ऋ. ९.७३.५

*महि प्सरः सुकृतं सोम्यं मधूर्वी गव्यूतिरदितेर्ऋतं यते। ईशे यो वृष्टेरित उस्रियो वृषा ऽपां नेता य इतऊर्तिर्ऋग्मियः ॥ - ऋ. ९.७४.३

*असर्जि स्कम्भो दिव उद्यतो मदः परि त्रिधातुर्भुवनान्यर्षति। अंशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं गिरा यदि निर्णिजमृग्मिणो ययुः ॥ - ऋ. ९.८६.४६

*वृषा वृष्णे रोरुवदंशुरस्मै पवमानो रुशदीर्ते पयो गोः। सहस्रमृक्वा पथिभिर्वचोविदध्वस्मभिः सूरो अण्वं वि याति ॥ - ऋ. ९.९१.३

*स मामृजे तिरो अण्वानि मेष्यो मीळ्हे सप्तिर्न वाजयुः। अनुमाद्यः पवमानो मनीषिभिः सोमो विप्रेभिर्ऋक्वभिः ॥ - ऋ. ९.१०७.११

*अया रुचा हरिण्या पुनानो विश्वा द्वेषांसि तरति स्वयुग्वभिः सूरो न स्वयुग्वभिः। धारा सुतस्य रोचते पुनानो अरुषो हरिः। विश्वा यद्रूपा परियात्यृक्वभिः सप्तास्येभिर्ऋक्वभिः ॥ - ऋ. ९.१११.१

*मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्वभिर्वावृधानः। याँश्च देवा वावृधुर्ये च देवान् त्स्वाहान्ये स्वधयान्ये मदन्ति ॥ - ऋ. १०.१४.३

*इह श्रुत इन्द्रो अस्मे अद्य स्तवे वज्र्यृचीषमः। मित्रो न यो जनेष्वा यशश्चक्रे असाम्या ॥ - ऋ. १०.२२.२

*एन्द्रो बर्हिः सीदतु पिन्वतामिळा बृहस्पतिः सामभिर्ऋक्वो अर्चतु। सुप्रकेतं जीवसे मन्म धीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥ - ऋ. १०.३६.५

*कथा कविस्तुवीरवान् कया गिरा बृहस्पतिर्वावृधते सुवृक्तिभिः। अज एकपात् सुग्वेभिर्ऋक्वभिरहिः शृणोतु बुध्न्यो हवीमनि ॥ - ऋ. १०.६४.४

*ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु। ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां वि मिमीत उ त्वः ॥ - ऋ. १०.७१.११

*तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ - ऋ. १०.९०.९

*इमा अस्मै मतयो वाचो अस्मदाँ ऋचो गिरः सुष्टुतयः समग्मत। वसूयवो वसवे जातवेदसे वृद्धासु चिद्वर्धनो यासु चाकनत् ॥ - ऋ. १०.९१.१२

*अव नो वृजिना शिशीह्यृचा वनेमानृचः। नाब|ह्मा यज्ञ ऋधग्जोषति त्वे ॥ - ऋ. १०.१०५.८

*भूरि दक्षेभिर्वचनेभिर्ऋक्वभिः सख्येभिः सख्यानि प्र वोचत। इन्द्रो धुनिं च चुमुरिं च दम्भयञ्छ्रद्धामनस्या शृणुते दभीतये ॥ - ऋ. १०.११३.९

*ऋचा कपोतं नुदत प्रणोदमिषं मदन्तः परि गां नयध्वम्। संयोपयन्तो दुरितानि विश्वा हित्वा न ऊर्जं प्र पतात् पतिष्ठः ॥ - ऋ. १०.१६५.५

*ऋचा कपोतं नुदत प्रणोदमिषं मदन्तः परि गां नयामः। संलोभयन्तो दुरिता पदानि हित्वा न ऊर्जं प्र पदात् पथिष्ठः ॥ - अथर्ववेद ६.२८.१

*ऋचं साम यजामहे याभ्यां कर्माणि कुर्वते। एते सदसि राजतो यज्ञं देवेषु यच्छतः ॥ ऋचं साम यदप्राक्षं हविरोजो यजुर्बलम्। एष मा तस्मान्मा हिंसीद् वेदः पृष्टः शचीपते ॥ - अ. ७.५४.१-२

*ऋचा कुम्भीमध्यग्नौ श्रयाम्या सिञ्चोदकमव धेह्येनम्। पर्याधत्ताग्निना शमितारः शृतो गच्छतु सुकृतां यत्र लोकः ॥ - अ. ९.५.५

*यो विद्याद् ब्रह्म प्रत्यक्षं परूंषि यस्य संभारा ऋचो यस्यानूक्यम्। - अ. ९.६.१

*ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद् विदुस्ते अमी समासते ॥ ऋचः पदं मात्रया कल्पयन्तोऽर्धर्चेन चाक्लृपुर्विश्वमेजत्। त्रिपाद् ब्रह्म पुरुरूपं वि तष्ठे तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्रः ॥ - अ. ९.१५.१८-१९

*देवैनसात् पित्र्यान्नामग्राहात् संदेश्यादभिनिष्कृतात्। मुञ्चन्तु त्वा वीरुधो वीर्येण ब्रह्मण ऋग्भिः पयस ऋषीणाम् ॥ - अ. १०.१.१२

*विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नह ऋक्संशितः सामतेजाः। ऋचोऽनु वि क्रमेऽहमृग्भ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत् तं प्राणो जहातु ॥ - अ. १०.५.३०

*यत्र ऋषयः प्रथमजा ऋचः साम यजुर्मही। एकर्षिर्यस्मिन्नार्पितः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ - अ. १०.७.१४

*यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्। सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ - अ. १०.७.२०

*या पुरस्ताद् युज्यते या च पश्चाद् या विश्वतो युज्यते या च सर्वतः। यया यज्ञः प्राङ् तायते तां त्वा पृच्छामि कतमा सर्चाम् ॥ - अ. १०.८.१०

*सं हि वातेनागत समु सर्वैः पतत्रिभिः। वशा समुद्रे प्रानृत्यदृचः सामानि बिभ्रती ॥ - अ. १०.१०.१४

*ऋचा कुम्भ्यधिहितार्त्विज्येन प्रेषिता - अ. ११.३.१४

*यज्ञं ब्रूमो यजमानमृचः सामानि भेषजा। यजूंषि होत्रा ब्रूमस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥ - अ. ११.८.१४

*ऋक् साम यजुरुच्छिष्ट उद्गीथः प्रस्तुतं स्तुतम्। हिङ्कार उच्छिष्टे स्वरः साम्नो मेडिश्च तन्मयि ॥ - अ. ११.९.५

*ऋचः सामानि च्छन्दांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥ - अ. ११.९.२४

*विद्याश्च वा अविद्याश्च यच्चान्यदुपदेश्यम्। शरीरं ब्रह्म प्राविशदृचः सामाथो यजुः ॥ - अ. ११.८.२३

*यस्यां सदोहविर्धाने यूपो यस्यां निमीयते। ब्रह्माणो यस्यामर्चन्त्यृग्भिः साम्ना यजुर्विदः। यज्यन्ते यस्यामृत्विजः सोममिन्द्राय पातवे ॥ - अ. १२.१.३८

*यावदस्या गोपतिर्नोपशृणुयादृचः स्वयम्। चरेदस्य तावद् गोषु नास्य श्रुत्वा गृहे वसेत् ॥ - अ. १२.४.२७

*यो अस्या ऋच उपश्रुत्याथ गोष्वचीचरत्। आयुश्च तस्य भूतिं च देवा वृश्चन्ति हीडिताः ॥ - अ. १२.४.२८

*देवा वशां पर्यवदन् न नोऽदादिति हीडिताः। एताभिर्ऋग्भिर्भेदं तस्माद् वै स पराभवत्~ ॥ - अ. १२.४.४९

*स वा ऋग्भ्योऽजायत तस्मादृचोऽजायन्त। - अ. १३.७.१०

*अमोऽहमस्मि सा त्वं सामाहमस्म्यृक् त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम्। ताविह सं भवाव प्रजामा जनयावहै ॥ - अ. १४.२.७१

*ऋचः प्राञ्चस्तन्तवो यजूंषि तिर्यञ्चः। वेद आस्तरणं ब्रह्मोपबर्हणम् ॥ - अ. १५.२.७

*स उत्तमां दिशमनु व्यचलत्। तमृचश्च सामानि च यजूंषि च ब्रह्म चानुव्यचलन् ॥ ऋचां च वै स साम्नां च यजुषां च ब्रह्मणश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥ - अ. १५.६.८-९

*मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्वभिर्वावृधानः। यांश्च देवा वावृधुर्ये च देवांस्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥ - अ. १८.१.४७

*तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दो ह जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत ॥ - अ. १९.६.१३

*कालो ह भूतं भव्यं च पुत्रो अजनयत् पुरा। कालादृचः समभवन् यजुः कालादजायत ॥ - अ. १९.५४.३

*अस्मा इदु प्र तवसे तुराय प्रयो न हर्मि स्तोमं माहिनाय। ऋचीषमायाध्रिगव ओहमिन्द्राय ब्रह्माणि राततमा ॥ - अ. २०.३५.१

*नेमिं नमन्ति चक्षसा मेषं विप्रा अभिस्वरा। सुदीतयो वो अद्रुहोऽपि कर्णे तरस्विनः समृक्वभिः ॥ - अ. २०.५४.३

*वसोरिन्द्रं वसुपतिं गीर्भिर्गृणन्त ऋग्मियम्। होम गन्तारमूतये ॥ - अ. २०.७१.१५

*स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण। बृहस्पतिरुस्रिया हव्यसूदः कनिक्रदद् वावशतीरुदाजत् ॥ - अ. २०.८८.५

*आ नो विश्वासु हव्य इन्द्रः समत्सु भूषतु। उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहा परमज्या ऋचीषमः ॥ - अ. २०.१०४.३

*तुरण्यवो मधुमन्तं घृतश्चुतं विप्रासो अर्कमानृचुः। अस्मे रयिः पप्रथे वृष्ण्यं शवोऽस्मे सुवानास इन्दवः ॥ - अ. २०.११९.२

*पुरोडाशकरणम् : तस्य यानि शुक्लानि च कृष्णानि च लोमानि - तान्यृचां च साम्नां च रूपम्। यानि शुक्लानि तानि साम्नां रूपम्, यानि कृष्णानि तान्यृचाम्। यदि वेतरथा - यान्येव कृष्णानि तानि साम्नां रूपम्, यानि शुक्लानि तान्यृचाम्। यान्येव बभ्रूणीव हरीणि तानि यजुषां रूपम्। - शतपथ ब्राह्मण १.१.४.२

*स यदि पुरा मानुषीं वाचं व्याहरेत् - तत्रो व्वैष्णवीमृचं वा यजुर्वा जपेत्। यज्ञो वै विष्णुः। - मा.श. १.१.४.९

*गोतम - विदेघ संवादः :-तमृग्भिर्ह्वयितुं दध्रु - वीतिहोत्रं त्वा कवे द्युमन्तं समिधीमहि। अग्ने बृहन्तमध्वरे विदेघ इति - मा.श. १.४.१.११

*अश्वो न देववाहनः इति। अश्वो ह वा एष भूत्वा देवेभ्यो यज्ञं वहति। यद्वै नेति ऋचि - ओमिति तत्। - मा.श. १.४.१.३०

*होता यो विश्ववेदसः इति। - - - - - तदु तथा न ब्रूयात्। - - - - तस्माद्यथैवर्चाऽनूक्तमेवमेवानुब्रूयात् - होतारं विश्ववेदसम् इत्येव। - मा.श. १.४.१.३५

*स वा ऋचमनूच्य जुषाणेन यजति, तदन्विमा अन्यतरतोदन्ताः प्रजाः प्रजायन्ते। अस्थि हि ऋग्, अस्थि हि दन्तः, अन्यतरतो ह्येतदस्थि करोति। अथ ऋचमनूच्यर्चा यजति, तदन्विमा उभयतोदन्ताः प्रजाः प्रजायन्ते। अस्थि हि ऋग्, अस्थि हि दन्तः, उभयतो ह्येतदस्थि करोति। - मा.श. १.६.३.२९

*- - - - -आश्वत्थीस्तिस्रः समिधो घृतेनान्वज्य, समिद्वतीभिर्घृतवतीभिर्ऋग्भिरभ्यादधति शमीगर्भमेतदाप्नुमः इति वदन्तः। - मा.श. २.१.४.५

*न हि तदवकल्पते - यस्मिन्नग्नावृचा वा, साम्ना वा यजुषा वा, समिधं वाऽभ्यादध्यात्, आहुतिं वा जुहुयात् - - - मा.श. २.१.४.६

*अग्न्युपस्थानब्राह्मणम् : अथ सर्पराज्ञ्या ऋग्भिरुपतिष्ठते - आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्वः। - - - - - तद्यदेवास्यात्र सम्भारैर्वा, नक्षत्रैर्वा, ऋतुभिर्वा, आधानेन वाऽनाप्तं भवति, तदेवास्यैतेन सर्वमाप्तं भवति। तस्मात्सर्पराज्ञ्या ऋग्भिरुपतिष्ठते।- - - - - - मा.श. २.१.४.२९

*ऋक्सामाभ्यां सन्तरन्तो यजुर्भिः इति। ऋक्सामाभ्यां वै यजुर्भिर्यज्ञस्योदृचं गच्छन्ति। - मा.श. ३.१.१.१२

*कृष्णाजिन दीक्षा : अथ जघनेन कृष्णाजिने पश्चात् प्राङ् जान्वाक्न उपविशति। स यत्र शुक्लानां च कृष्णानां च सन्धिर्भवति - तदेवमभिमृश्य जपति - ऋक्यसामयोः शिल्पे स्थः इति। यद्वै प्रतिरूपम् - तच्छिल्पम्। ऋचां च साम्नां च प्रतिरूपे स्थः - इत्येवैतदाह। - मा.श. ३.२.१.५

*अथ यद्दीक्षितः ऋचं वा यजुर्वा साम वा व्याहरति - अभिस्थिरमभिस्थिरमेवैतद्यज्ञमारभते। - - - - - -तस्मादु हैष विसृष्टो यज्ञः पराङावर्तते। तत्रो वैष्णवीमृचं वा यजुर्वा जपेत्। यज्ञो वै विष्णुः। - मा.श. ३.२.१.३७

*तद् यद्वैष्णवीभ्यामृग्भ्यां जुहोति, वैष्णवं हि हविर्द्धानम्। - मा.श. ३.५.३.१५

*यद्वेव वैष्णव्यर्चा जुहोति कनीयांसं वा एनमेतद्वधात्कृत्वात्यनैषुः - स्तोकमेव। - मा.श. ३.६.३.१६

*निग्राभ्या प्रयोगः :-योषा वाऽऋग्घोता। योषायै वाऽइमाः प्रजाः प्रजायन्ते। तदेनमेतस्यै योषायाऽऋचो होतुः प्रजनयति, तस्माद्धोतृचमसात्। - मा.श. ३.९.४.२५

*स एषोऽप्येतर्हि तथैव यज्ञः सन्तिष्ठते - एतस्मिन्नेव ग्रहे यजुष्टः, प्रथमे स्तोत्रे सामतः, प्रथमे शस्त्रऽऋक्तः। - मा.श. ४.१.१.७

*अथातो गृह्णात्येव। - - - - -तं वै मधुमत्यर्चा गृह्णाति, माध्वीभ्यां त्वेति सादयति। - मा.श. ४.१.५.१७

*उक्थ्य ग्रहः :- तं वा अपुरोरुक्वं गृह्णाति। उक्थं हि पुरोरुक्। ऋग्घि पुरोरुक्। ऋग्घ्युक्थम्। साम ग्रहः। अथ यदन्यज्जपति - तद्यजुः। ता हैता अभ्यर्ध एवाग्रऽऋग्भ्य आसुः, अभ्यर्धो यजुर्भ्यः, अभ्यर्धः सामभ्यः। - मा.श. ४.२.३.७

*माध्यन्दिन सवन ग्रहाः :-प्रजापतिर्वाऽउद्गाता, योषऽर्ग्घोता। स एतत्प्रजापतिरुद्गाता योषायामृचि होतरि रेतः सिञ्चति। यत्स्तुते तद्धोता - शस्त्रेण प्रजनयति। तच्छ्यति - यथाऽयं पुरुषः शितः। तद् यदेनच्छ्यति - तस्माच्छस्त्रं नाम। - मा.श. ४.३.२.३

*अन्यं वाऽएतऽएतस्यात्मानं संस्कुर्वन्ति - एतं यज्ञमृङ्मयं यजुर्मयं साममयमाहुतिमयम्। सोऽस्यामुष्मिंल्लोकऽआत्मा भवति। - मा.श. ४.३.४.५

*सावित्र ग्रहः :- तं वाऽअपुरोरुक्कं गृह्णाति। विश्वेभ्यो ह्येनं देवेभ्यो गृहणाति। सर्वं वै विश्वे देवाः - यद् ऋचो यद्यजूंषि यत् सामानि। स यदेवैनं विश्वेभ्यो देवेभ्यो गृह्णाति - तेनो हास्यैष पुरोरुङ्मान्भवति। - मा.श. ४.४.१.१३

*हारियोजन ग्रहः :-अथातो गृह्णात्येव - उपयामगृहीतोऽसि हरिरसि हारियोजनो हरिभ्यां त्वा इति। ऋक्सामे वै हरी। ऋक्सामाभ्यां ह्येनं गृह्णाति। - मा.श. ४.४.३.६

*पुरश्चरणोपनिषत् : त्रयी वै विद्या - ऋचो, यजूंषि, सामानि। इयमेवऽर्चः। अस्यां ह्यर्चति - योऽर्चति - सः। वागेवऽर्चः। वाचा ह्यर्चति - योऽर्चति - सः अन्तरिक्षमेव यजूंषि। द्यौः सामानि सैषा त्रयी विद्या सौम्येऽध्वरे प्रयुज्यते। इममेव लोकमृचा जयति, अन्तरिक्षं यजुषा, दिवमेव साम्ना। - मा.श. ४.६.७.१

*तद्वाऽएतत् सहस्रं वाचः प्रजातम्। द्वेऽइन्द्रस्तृतीये, तृतीयं विष्णुः ऋचश्च सामानि च इन्द्रः यजूंषि विष्णुः। तस्मात्सदसि ऋक्सामाभ्यां कुर्वन्ति ऐन्द्रं हि सदः। - - - - -वागेवऽर्चश्च सामानि च, मन एव यजूंषि। सा यत्रेयं वागासीत् - सर्वमेव तत्राक्रियत, सर्वं प्राज्ञायत। - मा.श. ४.६.७.५

*तस्मादु कुर्वन्त्येवऽर्चा हविर्धाने। - मा.श. ४.६.७.७

*तद्वाऽएतद्वृषा साम योषामृचं सदस्यध्येति। तस्मान्मिथुनादिन्द्रो जातः। तेजसो वै तत्तेजो जातम् - यदृचश्च साम्नश्च इन्द्रः। - मा.श. ४.६.७.११

*चन्द्रमा ह्येतस्यान्नम् - य एष तपति। तद् यजमानं चैवैतज्जनयति - अन्नाद्यं चास्मै जनयति। ऋचश्च साम्नश्च यजमानं जनयति, अद्भ्यश्च सोमाच्चास्माऽअन्नाद्यम्। यजुषा ह वै देवा अग्रे यज्ञं तेनिरे - अथऽर्चा, अथ साम्ना। तदिदमप्येतर्हि यजुषैवाग्रे यज्ञं तन्वते - अथऽर्चा, अथ साम्ना। - मा.श. ४.६.७.१३

*वागेवऽर्चश्च सामानि च, मन एव यजूंषि। स यऽऋचा च साम्ना च चरन्ति - वाक्ते भवन्ति। अथ ये यजुषा चरन्ति - मनस्ते भवन्ति। - - - - यदैवाध्वर्युराह - अनुब्रूहि, यज इति। अथैव ते कुर्वन्ति यऽऋचा कुर्वन्ति। - - - - - - मा.श. ४.६.७.१९

*सत्रधर्माः :- सर्पराज्ञ्या ऋक्षु स्तुवते। इयं वै पृथिवी सर्पराज्ञी, तदनयैवैतत्सर्वमाप्नुवन्ति। - मा.श. ४.६.९.१७

*अथ वाकोवाक्ये ब्रह्मोद्यं वदन्ति। - - - - अचारिषुर्यजुर्भिः - तत्तान्यापन्, तदवारुत्सत। आशंसिषुर्ऋचः - तत्ता आपन्, तदवारुत्सत। अस्तोषत सामभिः - तत्तान्यापन्, तदवारुत्सत। - मा.श. ४.६.९.२०

*तदु वै यजेतैव। यऽ एवमेतं यज्ञं क्लृप्तं विद्युः - ऋक्तो यजुष्टः सामतः, ये प्रजज्ञयः तऽ एनं याजयेयुः - मा.श. ५.१.१.१०

*चरकसौत्रामणि प्रयोगः :- सा या परिशिष्टा परिस्रुद्भवति - तामासिञ्चति। तां विक्षरन्तीमुपतिष्ठते - पितॄणां सोमवतां तिसृभिर्ऋग्भिः, पितॄणां बर्हिषदां तिसृभिर्ऋग्भिः, पितॄणामग्निष्वात्तानां तिसृभिर्ऋग्भिः। - मा.श. ५.५.४.२८

*त्रैधातवीसंज्ञिका उदवसानीयेष्टिः :- वृत्रे ह वाऽइदमग्रे सर्वमास - यदृचो, यद्यजूंषि, यत् सामानि। तस्माऽइन्द्रो वज्रं प्राजिहीर्षत्। - - - -स होवाच - अस्ति वाऽइदं वीर्यम् - तन्नु प्रयच्छानि - मा नु मे प्रहार्षीरिति। तस्माऽऋचः प्रायच्छत्। तस्मै तृतीयमुद्ययाम। - - - -यजुर्भिरेवाग्र, अथऽर्ग्भिः, अथ सामभिः। - मा.श. ५.५.५.५

*व्रीहिमयमेवाग्रे पिण्डमधिश्रयति - तद् यजुषां रूपम्। अथ यवमयं - तदृचां रूपम्। अथ व्रीहिमयं - तत् साम्नां रूपम्। - मा.श. ५.५.५.९

*अथो हैनयापि भिषज्येत्। यं न्वेवैकयऽर्चा भिषज्येद्, एकेन यजुषा, एकेन साम्ना, तं न्वेवागदं कुर्यात् - किमु यं त्रयेण वेदेन। - मा.श. ५.५.५.१५

*होमः :- ऋचेति - ऋचा स्तोमं समर्धय गायत्रेण रथन्तरं बृहद्गायत्रवर्तनि इति। - मा.श. ६.३.१.२०

*मृत्पिण्डे पलाशपर्णक्वथितोदक सेचनम्, अजलोमा : यां वै देवता ऋगभ्यनूक्ता, यां यजुः, सैव देवता सऽर्क् सो देवता तद्यजुः, ता हैता आप एवैष त्रिचः। - मा.श. ६.५.१.२

*अषाढेष्टकादिनिर्माणम्, अश्वशकृद्भिर्धूपनञ्च : त्रेधाविहिता हि वाक् - ऋचो, यजूंषि, सामानि। अथो यदिदं त्रयं वाचो रूपम् उपांशु व्यन्तरामुच्चैः। - मा.श. ६.५.३.४

*रुक्मप्रतिमोक विध्यादि, उखाया आसन्द्यां निधानं, उख्याग्नेः परिग्रहश्च : अभि शुक्लानि च कृष्णानि च लोमानि निष्यूतो भवति। ऋक्सामयोर्हैते रूपे। ऋक्सामे वाऽएतं यन्तुमर्हतः। ऋक्सामाभ्यामेतं देवा अबिभरुः। ऋक्सामाभ्यामेवैनमेतद्बिभर्ति। - मा.श. ६.७.१.७

*कर्षणक्रमेणसीतासूदकप्रक्षेपः :- तिसृभिस्तिसृभिर्ऋग्भिर्वपति। त्रिवृदग्निः। - - - - द्वादशभिर्ऋग्भिः कृष्टे वपति। द्वादश मासाः संवत्सरः। संवत्सरोऽग्नि :। - मा.श. ७.२.४.१६

*कूर्मादीनामुपधानादि : मधु वाता ऋतायते इति। यां वै देवतामृगभ्यनूक्ता, यां यजुः - सैव देवता सऽर्क्, सो देवता तद्यजुः। - - - -मा.श. ७.५.१.४

*उखायां पशुशीर्षोपधानादि : ऋचे त्वा इतीह। प्राणो वाऽऋक्। प्राणेन ह्यर्चति। रुचे त्वा - इतीह। प्राणो वै रुक्। प्राणेन हि रोचते। - मा.श. ७.५.२.१२

*जगती वार्षी इति। जगतीं छन्दो वर्षाभ्य ऋतोर्निरमिमीत। जगत्या ऋक्समम् इति। जगत्यै छन्दस ऋक्समं साम निरमिमीत। ऋक्समाच्छुक्रः इति। ऋक्समात्साम्नः शुक्रं ग्रहं निरमिमीत। शुक्रात्सप्तदशः। - मा.श. ८.१.२.२

*प्राणभृच्छब्दनिर्वचनम्, तत्स्तुतिश्च : तदाहुः यद्ग्रहाय गृहीताय स्तुवते - अथ शंसति - अथ कस्मात्पुरस्ताद्ग्रहाणामृचश्च सामानि चोपदधातीति। संस्था वै कर्मणोऽन्वीक्षितव्या। ऋचा वै प्रतिपदा ग्रहो गृह्यते, ऋचि साम गीयते। तदस्यैतद् - यत्पुरस्ताद्ग्रहाणामृचश्च सामानि चोपदधाति। - मा.श. ८.१.३.३

*तदाहुः - यद्यथा पितुः पुत्रमेवं त्रीणि प्रथमान्याह। अथ कस्मादृक्सामयोः संक्रामतीति। साम वाऽऋचः पतिः। तद्यत्तत्रापि यथा पितुः पुत्रमेवं ब्रूयात्, यथा पतिं सन्तं पुत्रं ब्रूयात् - तादृक् तत्। तस्मादृक्सामयोः संक्रामति। - मा.श. ८.१.३.५

*प्रवर्ग्योत्सादनविधिः :- तिस्र आहुतीर्जुहोति। त्रिवृदग्निः। - - - - सप्तदशभिर्ऋग्भिः। सप्तदशः प्रजापतिः। प्रजापतिरग्निः। - मा.श. ९.२.२.६

*अप्रतिरथजपादि : अध्वर्युः पुरस्ताद्यजूंषि जपति। होता पश्चादृचोऽन्वाह। ब्रह्मा दक्षिणतोऽप्रतिरथं जपति। एष एव तुरीयो यज्ञः। - मा.श. ९.२.३.११

*वसोर्धाराहोमस्यार्थवादाः :- अथाह। स्तोमश्च यजुश्च ऋक्च साम च बृहच्च रथन्तरं च। त्रयी हैषा विद्या। - मा.श. ९.३.३.१४

*वारुणीहोमः :- तदेनं हविषा देवतां करोति। - - - - वारुण्यर्चा। - मा.श. ९.४.२.१५

*उख्यसंभरणमीमांसा : स यद्यसंवत्सरभृते महदुक्थं शंसेद् - ऋगशीतीः शंसेत्। असर्वं वै तद् - यदसंवत्सरभृतः। असर्वं तद् - यदृगशीतयः। - मा.श. ९.५.१.६३

*सर्वचित्यन्तसाधारणोपस्थानम् : य उ तस्यामनुष्टुभ्यृचि कामः - अत्रैव तमाप्नोति। - मा.श. ९.५.२.३

*चित्युपस्थानम् : तथैवैतद्यजमानः षडृचेन पाप्मानमपहत्यैकया कामवत्यैकधाऽन्ततः सर्वान्कामानात्मन्कुरुते। सप्तर्चं भवति। सप्तचितिकोऽग्निः, - - - - - - - - -। अष्टर्चेनोपतिष्ठेतेत्यु हैक आहुः। - - - - - - मा.श. ९.५.२.७

*त्रयो ह वै समुद्राः - अग्निर्यजुषाम्, महाव्रतं साम्नाम्, महुदुक्थमृचाम्। स य एतानि परस्मै करोति - एतान् ह स समुद्राञ्छोषयते। - मा.श. ९.५.२.१२

*चित्याग्नेः संवत्सररूपत्वम् : अथ योऽस्य सोऽग्रं रसोऽगच्छत् - महत्तदुक्थम्। तमस्य तं रसमृक्सामाभ्यामनुयन्ति। तद्यत्तत्र यजुः पुरस्तादेति - अभिनेतैव तदेति। - मा.श. १०.१.१.४

*सर्वाणि हैतानि सामानि यन्महाव्रतम्। तदस्मिन्त्सर्वैः सामभी रसं दधाति। तस्मिन् होता महतोक्थेन रसं दधाति। सर्वा हैता ऋचो यन्महदुक्थम्। तदस्मिन्त्सर्वाभिर्ऋग्भी रसं दधाति। - मा.श. १०.१.१.५

*आत्मा ह्यग्निः। तदेनमेतेऽउभे रसो भूत्वाऽपीतः। ऋक् च साम च। तदुभे ऋक्सामे यजुरपीतः। - मा.श. १०.१.१.६

*प्रजापतेर्मर्त्यामृतादि - कृत्स्नशरीरसम्पादकत्वेन स्तुतिः :- ते वै देवास्तं नाविदुः - यद्येनं सर्वं वाऽकुर्वन् - न वा सर्वं, यद्यति वाऽरेचयन् - न वाऽभ्यापयन्। त एतामृचमपश्यन्। धामच्छदग्निरिन्द्रो ब्रह्मा देवो बृहस्पतिः। सचेतसो विश्वे देवा यज्ञं प्रावन्तु नः शुभे इति। - मा.श. १०.१.३.८

*प्रजापतेः प्रकारान्तरेणैकशतसंख्याकत्वादिविधानम् : तदेतदृचाभ्युक्तम् - विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम् इति। मा.श. १०.२.६.६

*यजुषोविधायक ब्राह्मणयोर्निर्वचनम् : तदेतद्यजुर्वायुश्चान्तरिक्षं च यच्च जूश्च। तस्माद्यजुरेष एव। यदेष ह्येति। तदेतद्यजुर्ऋक्सामयोः प्रतिष्ठितम् - ऋक्सामे वहतः। - मा.श. १०.३.५.२

*प्रजापतेर्भोक्तृत्वमाहवनीयरूपत्वम् : एष उ एवोक्। तस्यैतदन्नं थम्। तदुक्थम् - ऋक्तः। तदेतदेकं सत् - त्रेधाऽऽख्यायते। - मा.श. १०.४.१.४

*- - - -तस्मिन् होता महतोक्थेन रसं दधाति। सर्वा हैता ऋचो - यन्महदुक्थम्। तदस्मिन्त्सर्वाभिर्ऋग्भी रसं दधाति। - मा.श. १०.४.१.१३

*स ऋचो व्यौहत् - द्वादश बृहतीसहस्राणि। एतावत्यो हर्चो याः प्रजापतिसृष्टाः। - मा.श. १०.४.२.२३

*त्रयीमयादित्याग्न्युपासनं ब्राह्मणम् : सा वा एषा वाक् त्रेधा विहिता - ऋचः, यजूंषि, सामानि। तेनाग्निस्त्रेधा विहितः। - - - - यदस्मिंस्त्रेधा विहिता इष्टका उपधीयन्ते - पुन्नाम्न्यः, स्त्रीनाम्न्यः, नपुंसकनाम्न्यः। - मा.श. १०.५.१.२

*सा वा एषा वाक् त्रेधा विहिता - ऋचः, यजूंषि, सामानि। मण्डलमेवऽर्चः, अर्चिः सामानि, पुरुषो यजूंषि, अथैतदमृतम् - यदेतदर्चिर्दीप्यते। इदं तत्पुष्करपर्णम् - तद् यत्पुष्करपर्णमुपधायाग्निं चिनोति - एतस्मिन्नेवैतदमृतऽऋङ्मयम्, यजुर्मयम्, साममयमात्मानं संस्कुरुते। - मा.श. १०.५.१.५

*मण्डलपुरुषोपासनं ब्राह्मणम् : यदेतन्मण्डलं तपति - तन्महदुक्थम्, ता ऋचः, स ऋचां लोकः। अथ यदेतदर्चिर्दीप्यते तन्महाव्रतं तानि, तानि सामानि, स साम्नां लोकः। - - - - मा.श. १०.५.२.१

*स एष त्रीष्टकोऽग्निः - ऋगेका, यजुरेका, सामैका। - मा.श. १०.५.२.२१

*ते वाऽएते उभे - एष च रुक्मः, एतच्च पुष्करपर्णम्। एतं पुरुषमपीतः। उभे हि ऋक्सामे यजुरपीतः। एवम्वेकेष्टकाः। - मा.श. १०.५.२.२२

*पुरुषस्याग्निविधार्कविधोक्थविधत्व निरूपणम् : स तया वाचा तेनात्मनेदं सर्वमसृजत - यदिदं किं च ऋचः, यजूंषि, सामानि, छन्दांसि, यज्ञान् - - - - - मा.श. १०.६.५.५

*स यथाऽहिस्त्वचो निर्मुच्येत, एवमस्मान्मर्त्याच्छरीरात्पाप्मनो निर्मुच्यते। स ऋङ्मयो यजुर्मयः साममय आहुतिमयः स्वर्गं लोकमभिसंभवति। - मा.श. ११.२.६.१३

*स तु रसो यस्येदृक् शिष्टमिति। यथा ह वा ऋचं वा यजुर्वा साम वाऽभिव्याहरेत्। तादृक् तत्। - मा.श. ११.५.४.१८

*पयआहुतयो ह वा एता देवानां यदृचः। स य एवं विद्वानृचोऽहरहः स्वाध्यायमधीते, पय आहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति। - मा.श. ११.५.६.४

*ब्रह्मयज्ञलक्षण स्वाध्यायप्रशंसाख्यं ब्राह्मणम् : मधु ह वा ऋचः। घृतं ह सामानि। अमृतं यजूंषि। - - - - मधुना ह वा एष देवांस्तर्पयति। य एवं विद्वानृचोऽहरहः स्वाध्यायमधीते। त एनं तृप्तास्तर्पयंति सर्वैः कामैः सर्वैर्भोगैः। - मा.श. ११.५.७.५

*सर्वप्रायश्चित्तविधायक ब्राह्मणम् : स इमानि त्रीणि ज्योतींष्यभितताप। तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायंत। अग्नेर्ऋग्वेदः। वायोर्यजुर्वेदः। सूर्यात्सामवेदः। स इमांस्त्रीन्वेदानभितताप। तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायंत। भूरित्यृग्वेदात्। भुव इति यजुर्वेदात्। स्वरिति सामवेदात्। ते ऋग्वेदेनैव हौत्रमकुर्वत। यजुर्वेदेनाध्वर्यवम्। सामवेदेनोद्गीथम्। - मा.श. ११.५.८.३

*ते देवाः प्रजापतिमब्रुवन्। यदि नः ऋक्तो वा यजुष्टो वा सामतो वा यज्ञो ह्वलेत्, केनैनं भिषज्येमेति। स होवाच यद्यृक्तो भूरिति चतुर्गृहीतमाज्यं गृहीत्वा गार्हपत्ये जुहवथ। यदि यजुष्टो भुव इति - - - - मा.श. ११.५.८.६

*तदाहुः। यदृचा हौत्रं क्रियते। यजुषाऽऽध्वर्यवम्। साम्नोद्गीथः। अथ केन ब्रह्मत्वमिति। अनया त्रय्या विद्ययेति ह ब्रूयात्। - मा.श. ११.५.८.७

*ऋग्वेदो वै भर्गः। यजुर्वेदो महः। सामवेदो यशः। येऽन्ये वेदास्तत्सर्वम्। वाग्वै भर्गः। प्राणो महः। चक्षुर्यशः। येऽन्ये प्राणास्तत्सर्वम्। - मा.श. १२.३.४.९

*तद्धैके - गार्हपत्याद्भस्मोपहत्याहवनीयान्निवपन्तो यन्ति। इदं विष्णुर्विचक्रमे इत्येतयर्चा। यज्ञो वै विष्णुः । - मा.श. १२.४.१.४

*यो अग्निरग्नेरध्यजायत शोकात्पृथिव्या उत वा दिवस्परि। येन प्रजा विश्वकर्मा जजान तमग्ने हेडः परि ते वृणक्तु इति। यथा ऋक् तथा ब्राह्मणम्। मा.श. १२.५.२.४

*शफúग्रहा भवन्ति। - - - - -षोडशभिर्ऋग्भिर्जुहोति। षोडशकला वै पशवः। - मा.श. १२.८.३.१३

*यज्ञो यजुर्भिः इति। - - - - -यजूंषि सामभिः इति। - - - सामानि ऋग्भिः इति।सामानि ह्येतमृग्भिरभिषिञ्चन्ति। ऋचः पुरोऽनुवाक्याभिः इति। ऋचो ह्येतं पुरोऽनुवाक्याभिरभिषिञ्चन्ति। - मा.श. १२.८.२.३०

*प्रजापतिरश्वमेधमसृजत। स सृष्टः प्रर्चमव्लीनात्प्र साम। तं वैश्वदेवान्युदयच्छन्। - मा.श. १३.१.८.१

*मनुर्वैवस्वतो राजेत्याह। तस्य मनुष्या विशः। - - - - तानुपदिशति। ऋचो वेदः सोऽयमिति। ऋचां सूक्तं व्याचक्षाण इवानुद्रवेत्। - मा.श. १३.४.३.३

*त्रयो वेदा एत एव। वागेव ऋग्वेदः। मनो यजुर्वेदः। प्राणः सामवेदः। देवाः पितरो मनुष्या एत एव। वागेव देवाः। मनः पितरः। प्राणो मनुष्याः। - मा.श. १४.४.३.११

*कतिभिरयमद्य ऋग्भिर्होता अस्मिन् यज्ञे करिष्यतीति। तिसृभिरिति। कतमास्तास्तिस्र इति। पुरोऽनुवाक्या च याज्या च। शस्यैव तृतीया। किं ताभिर्जयतीति। पृथिवी लोकमेव पुरोऽनुवाक्यया जयति। अन्तरिक्षलोकं याज्यया। द्यौर्लोकं शस्यया। - मा.श. १४.६.१.९

*तदेतत् ऋचा अभ्युक्तम् :- एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न कर्मणा वर्द्धते, नो कनीयान्। तस्यैव स्यात्पदवित्तं विदित्वा न कर्मणा लिप्यते पापकेन। - मा.श. १४.७.२.२८

*अथैनामभिपद्यते - अमोऽहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमोऽअहम्। सामाहमस्मि ऋक् त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम्। तावेहि संरभावहै सह रेतो दधावहै। पुंसे पुत्राय वित्तये इति। - मा.श. १४.९.४.१९


*दीक्षितकर्तृकदेवयजनस्वीकारः :- ऋक्सामाभ्यां यजुषा सन्तरन्तो रायस्पोषेण समिषा मदेम - तैत्तिरीय संहिता १.२.३.३

*पुरोनुवाकोक्तमन्त्रव्याख्यानम् : यत्सर्पराज्ञिया ऋग्भिर्गार्हपत्यमादधात्यन्नाद्यस्यावरुद्ध्या अथो अस्यामेवैनं प्रतिष्ठितमा धत्ते - तै.सं. १.५.४.२

*हविःसादनविधिः :- यद्वै यज्ञस्य साम्ना क्रियते राष्ट्रम् यज्ञस्याऽऽशीर्गच्छति यदृचा विशं यज्ञस्याऽऽशीर्गच्छत्यथ ब्राह्मणोऽनाशीर्केण यज्ञेन यजते - - -तै.सं. १.६.१०.४

*यान्कामयेत यजमानान्त्समावत्येनान्यज्ञस्याऽऽशीर्गच्छेदिति१ तेषामेता व्याहृतीः पुरोनुवाक्याया अर्धर्च एकां दध्याद्याज्यायै पुरस्तादेकां याज्याया अर्धर्च एकां - - - - तै.सं. १.६.१०.५

*काम्येष्टियाज्यापुरोनुवाक्याविधानम् : श्रियसे कं भानुभिः सं मिमिक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः। ते वाशीमन्त इष्मिणो अभीरवो विद्रे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः। - तै.सं. २.१.११.२

*ब्रह्मवर्चसकामादीनां सौमारौद्रचर्वादीष्टिविधिः :- मानवी ऋचौ धाय्ये कुर्याद्यद्वै किं च मनुरवदत्तद्भेषजम् - तै.सं. २.२.१०.२

*काम्ययाज्यापुरोनुवाक्याभिधानम् : स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन वलं रुरोज फलिगँ रवेण। बृहस्पतिरुस्रिया हव्यसूदः कनिक्रदद्वावशतीरुदाजत्। - तै.सं. २.३.१४.४

*यथा पुरोडाशे पुरोडाशोऽध्येवमेव तद्यदृच्यध्यक्षराणि - तै.सं. २.४.११.१

*त्रैधातवीय द्रव्योद्देशेन इन्द्राविष्णुदेवताकत्व सहस्रदक्षिणयोर्विधिः :- यद्वा इदं किं च तदस्मै तत्प्रायच्छदृचः सामानि यजूंषि सहस्रं वा अस्मै तत्प्रायच्छत्तस्मात्सहस्रदक्षिणम्। - तै.सं. २.४.१२.७

*हौत्रविवक्षया सामिधेनीव्याख्यानम् : देवा वै नर्चि न यजुष्यश्रयन्त ते सामन्नेवाश्रयन्त - तै.सं. २.५.७.१

*होत्रविवक्षया अवशिष्ट सामिधेनीमन्त्र व्याख्यानम् : तं त्वा समिद्बिरङ्गिर इत्याह सामिधेनीष्वेव तज्ज्योतिर्जनयति स्त्रियस्तेन यदृचः स्त्रियस्तेन यद्गायत्रियः स्त्रियस्तेन - तै.सं. २.५.८.४

*आज्यभागविधिः :- किं तद्यज्ञे यजमानः कुरुते येनान्यतोदतश्च पशून् दाधारोभयतोदतश्चेत्यृचमनूच्याऽऽज्यभागस्य जुषाणेन यजति तेनान्यतोदतोv दाधारर्चमनूच्य हविष ऋचा यजति तेनोभयतोदतोv दाधार - तै.सं. २.५.२.२

*सूक्तवाकमन्त्र व्याख्या पत्नीसंयाजानामभिधानम् : जामि वा एतद्यज्ञस्य क्रियते यदाज्येन प्रयाजा इज्यन्त आज्येन पत्नीसंयाजा ऋचमनूच्य पत्नीसंयाजानामृचा यजत्यजामित्वायाथो मिथुनत्वाय - तै.सं. २.६.१०.४

*दीक्षितेन वक्तव्यमन्त्राणां तद्विधीनां चाभिधानम् : यद्ब्राह्मणा ऋक्सामाभ्यां यजुषा संतरन्त इत्याहर्क्सामाभ्यां ह्येष यजुषा संतरति यो यजते - तै.सं. ३.१.१.४

*सोमक्रयणीपदाञ्जनादिविध्यभिधानम् : नमोवृक्तिवत्यर्चाऽऽग्नीध्रे जुहुयान्नमोवृक्तिमेवैषां वृङ्क्ते ताजगार्तिमार्छन्ति - तै.सं. ३.१.३.२

*अभिमर्शनविधीनां मन्त्रविशेषाणां चाभिधानम् : आग्नेय्यर्चाऽऽग्नीध्रमभि मृशेद्वैष्णव्या हविर्धानमाग्नेय्या स्रुचो वायव्यया वायव्यान्यैन्द्रिया सदो - तै.सं. ३.१.६.१

*प्रवृत्तहोमादि मन्त्राणामभिधानम् : ऋचा स्तोमं समर्धय गायत्रेण रथंतरम् - तै.सं. ३.१.१०.१

*प्रवृत्तहोमादिमन्त्राणामभिधानम् : पराचीभिः स्तुवते वैष्णव्यर्चा पुनरेत्योप तिष्ठते यज्ञो वै विष्णुः - तै.सं. ३.१.१०.३

*पृषदाज्याभिधानम् : यस्य पृषदाज्यं स्कन्दति वैष्णव्यर्चा पुनर्गृह्णाति यज्ञो वै विष्णुः - तै.सं. ३.२.६.३

*स्तुतशस्त्राभिधानम् : बृहस्पतिर्ब्रह्माऽऽयुष्मत्या ऋचो मा गात - तै.सं. ३.२.७.१

*प्रतिहारानन्तरभाविमन्त्राभिधानम् : ऋचः प्रणव उक्थशंसिनां प्रतिहारोऽध्वर्यूणां य एवं विद्वान्प्रतिगृणात्यन्नाद एव भवति - - - - तै.सं. ३.२.९.६

*राष्ट्रभृन्मन्त्राभिधानम् : प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनः गन्धर्वस्तस्यर्क्सामान्यप्सरसो - तै.सं. ३.४.७.१

*अभ्र्यादानाभिधानम् : ऋचा स्तोमं समर्धय गायत्रेण रथंतरम्। बृहद्गायत्रवर्तनि - तै.सं. ४.१.१.३

*छन्दोभिधेष्टकाभिधानम् : आ ते अग्न ऋचा हविः शुक्रस्य ज्योतिषस्पते। - तै.सं. ४.४.४.६

*वसोर्धाराद्यभिधानम् : ऋक् च मे साम च मे स्तोमश्च मे यजुश्च मे - तै.सं. ४.७.९.१

*सावित्राहुति अभ्रिस्वीकारयोरभिधानम् : यदि कामयेत छन्दांसि यज्ञयशसेनार्पयेयमित्यृचमन्तमां कुर्यात् छन्दांस्येव यज्ञयशसेनार्पयति यदि कामयेत यजमानं यज्ञयशसेनार्पयेयमिति यजुरन्तमं कुर्यात् यजमानमेव यज्ञयशसेनार्पयत्यृचा स्तोमं समर्धयेति आह समद्ध्यै - तै.सं. ५.१.१.३

*स्वयमातृण्णास्थापनम् : वैष्णव्यर्चोप दधाति विष्णुर्वै यज्ञो - - - - -तै.सं. ५.२.८.७

*वसोर्धाराभिधानम् : ऋक्च मे साम च म इत्याह एतद्वै छन्दसां रूपं रूपेणैव छन्दांस्यव रुन्धे - तै.सं. ५.४.८.४

*ऋक् च म साम च म एतद्वै छन्दसां रूपं। गर्भाश्च म वत्साश्च म एतद्वै पशूनां रूपं - तै.सं.५.४.८.५

*यूपैकत्वादीनामभिधानम् : वि वा एष इन्द्रियेण वीर्येणर्ध्यते योऽग्निं चिन्वन्नधिकामत्येन्द्रिया ऋचाऽऽक्रमणं प्रतीष्टकामुपदध्यान्नेन्द्रियेण वीर्येण व्यृध्यते - तै.सं. ५.५.७.१

*वैश्वानर्यर्चा पुरीषमुप दधातीयं वा अग्निर्वैश्वानरस्तस्यैषा चितिर्यत्पुरीषम् - तै.सं. ५.६.६.४

*वज्रिणीष्टकोपधानविधिः :- आग्नावैष्णव्यर्चा वसोर्धारां जुहोति भागधेयेनैवैनौ समर्धयति - तै.सं. ५.७.३३.२

*व्रतचरणाद्यभिधानम् : तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमान इति वारुण्यर्चा जुहुयात् शान्तिरेवैषाऽग्नेर्गुप्तिः - तै.सं. ५.७.६.४

*आकूतिमन्त्राभिधानम् : ऋचेमं यज्ञं नो वह सुवर्देवेषु गन्तवे। - तै.सं. ५.७.७.२

*दीक्षाहुत्याभिधानम् : स प्र यजुरव्लीनात्प्र साम तमृगुदयच्छत् यदृगुदयच्छत्तदौद्ग्रहणस्योद्ग्रहणत्वम् ऋचा जुहोति यज्ञस्योद्यत्या - तै.सं. ६.१.२.४

*सा वा एषर्गनुष्टुग्वागनुष्टुग्यदेतयर्चा दीक्षयति वाचैवैनं सर्वया दीक्षयति - तै.सं. ६.१.२.५

*द्युम्नं वृणीत पुष्यस इत्याह पौष्ण्येतेन सा वा एषर्क्सर्वदेवत्या यदेतयर्चा दीक्षयति सर्वाभिरेवैनं देवताभिर्दीक्षयति - तै.सं. ६.१.२.६

*सा वा एषर्क्सर्वाणि छन्दांसि यदेतयर्चा दीक्षयति सर्वेभिरेवैनं छन्दोभिर्दीक्षयति - तै.सं. ६.१.२.७

*कृष्णाजिनादिभिर्दीक्षाकरणाभिधानम् : ऋक्सामे वै देवेभ्यो यज्ञायाऽतिष्ठमाने कृष्णो रूपं कृत्वाऽपक्रम्यातिष्ठतां - - - - - - एष वा ऋचो वर्णो यच्छुक्लं कृष्णाजिनस्यैष साम्नो यत्कृष्णमृक्सामयोः शिल्पे स्थ इत्याहर्क्सामे एवाव रुन्ध - - - - तै.सं. ६.१.३.१

*दण्डादानादिकरणपूर्वक नियमानुष्ठान विधिः :- यदि विसृजेद्वैष्णवीमृचमनु ब्रूयाद्यो वै विष्णुर्यज्ञेनैव यज्ञं सं तनोति - तै.सं. ६.१.४.४

*प्रायणीयविधानम् : अदितिमिष्ट्वा मारुतीमृचमन्वाह मरुतो वै देवानां विशो देवविशं खलु वै कल्पमानं मनुष्यविशमनु कल्पते यन्मारुतीमृचमन्वाह विशां क्लृप्त्यै - तै.सं. ६.१.५.३

*सोमोन्मानाभिधानम् : अभि त्यं देवं सवितारमित्यतिच्छन्दसर्चा मिमीतेऽतिच्छन्दा वै सर्वाणि छन्दांसि - - - - -यदतिच्छन्दसर्चा मिमीते वर्ष्मैवैनं समानानां करोति - तै.सं. ६.१.९.४

*क्रीतसोमस्य शकटेन नयनाभिधानम् : वारुण्यर्चाऽऽ सादयति स्वयैवैनं देवतया समर्धयति - तै.सं. ६.१.११.२

*क्रीतसोमस्य शकटेन नयनाभिधानम् : उदु त्यं जातवेदसमिति सौर्यर्चा कृष्णाजिनं प्रत्यानह्यति रक्षसामपहत्या - तै.सं. ६.१.११.४

*तस्माद्वाश्यं वारुण्यर्चा परि चरति स्वयैवैनं देवतया परि चरति। - तै.सं. ६.१.११.६

*व्याघारणविधिः :- सावित्रियर्चा हुत्वा हविर्धाने प्र वर्तयति सवितृप्रसूत एवैने प्र वर्तयति - तै.सं. ६.२.९.१

*वैष्णवीभ्यामृग्भ्यां वर्त्मनोर्जुहोति यज्ञो वै विष्णुर्यज्ञादेव रक्षांस्यप हन्ति - तै.सं. ६.२.९.२

*दिवो वा विष्णवुत वा पृथिव्याः इत्याशीपर्दयर्चा(?) दक्षिणस्य हविर्धानस्य मेथीं नि हन्ति शीर्षत एव यज्ञस्य यजमान आशिषोऽव रुन्धे - तै.सं. ६.२.९.४

*अग्नीषोमप्रणयनाभिधानम् : नयवत्यर्चाऽऽग्नीधे जुहोति सुवर्गस्य लोकस्याभिनीत्यै - तै.सं. ६.३.२.३

*यूपखण्डनाभिधानम् : वैष्णव्यर्चा हुत्वा यूपमच्छैति वैष्णवो वै देवतया यूपः - तै.सं. ६.३.३.१

*यूपस्थापनाभिधानम् : वैष्णव्यर्चा कल्पयति वैष्णवो वै देवतया यूपः स्वयवैनं देवतया कल्पयति - तै.सं. ६.३.४.३

*वसतीवर्यभिधानम् : चतुष्पदयर्चा गृह्णाति त्रिः सादयति - तै.सं. ६.४.२.५

*आग्रयणग्रहकथनम् : रुहणवत्यर्चा भ्रातृव्यवतो गृह्णीयात् भ्रातृव्यस्यैव रुक्त्वाऽग्रं समानानां पर्येति - तै.सं. ६.४.११.१

*ध्रुवग्रहः :- वैश्वदेव्यामृचि शस्यमानायामव नयति वैश्वदेव्यो वै प्रजाः प्रजास्वेवाऽऽयुर्दधाति - तै.सं. ६.५.२.३

*हारियोजनग्रहकथनम् : ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी सोमपानौ - - - - - तै.सं. ६.५.९.२

*सोमपात्रस्तुतिः :- ब्रह्मवादिनो वदन्ति नर्चा न यजुषा पङ्क्तिराप्यतेऽथ किं यज्ञस्य पाङ्क्तत्वमिति धानाः करम्भः परिवापः पुरोडाशः पयस्या तेन पङ्क्तिराप्यते - तै.सं. ६.५.११.४

*सौम्यचरुकथनम् : अभ्याग्नावैष्णव्यर्चा घृतस्य यजत्यग्निः सर्वा देवता विष्णुर्यज्ञो - तै.सं. ६.६.७.३

*यथा वै लाङ्गलेनोर्वरां प्रभिन्दन्त्येवमृक्सामे यज्ञं प्र भिन्तो यन्मैत्रावरुणीं वशामालभते यज्ञायैव प्रभिन्नाय - तै.सं. ६.६.७.४

*अथ वा एतत्सर्पराज्ञिया ऋग्भिः स्तुवन्तीयं वै सर्पतोv राज्ञी यत्र अस्या किं चार्चन्ति यदानृचुस्तेनेयं सर्पराज्ञी ते यदेव किं च वाचाऽऽनृचुर्यदतोvऽध्यर्चितारः तदुभयमाप्त्वाऽवरुध्योत्तिष्ठामेति - तै.सं. ७.३.१.३

*अथ ब्रह्म वदन्ति परिमिता वा ऋचः परिमितानि सामानि परिमितानि यजूंष्यथैतस्यैवान्तो नास्ति यद्ब्रह्म - तै.सं. ७.३.१.४

*अश्वमेधगृमन्त्रकथनम् : ऋक्सामयजुर्वषट्त्स्वाहा नमो - तै.सं. ७.३.१२.१

*प्रायणीयाख्यप्रथमाहाभिधानम् : द्वे चर्चावति रिच्येते एकया गौरतिरिक्त एकयाऽऽयुरूनः - तै.सं. ७.४.१०.२, ७.४.११.२

*संवत्सरसत्रकथनम् : समानं साम भवति देवलोको वै साम देवलोकादेव न यन्त्यन्याअन्या ऋचो भवन्ति मनुष्यलोको वा ऋचो मनुष्यलोकादेवान्यमन्यं देवलोकमभ्यारोहन्तो यन्ति - तै.सं. ७.५.१.६

*समान्य ऋचो भवन्ति मनुष्यलोको वा ऋचो मनुष्यलोकादेव न यन्त्यन्यदन्यत्साम भवति देवलोको वै साम देवलोकादेवान्यमन्यं मनुष्यलोकं प्रत्यवरोहन्तो यन्ति - तै.सं. ७.५.४.१

*अश्वमेधाङ्गमन्त्रकथनम् : ऋग्भ्यः स्वाहा यजुर्भ्यः स्वाहा सामभ्यः स्वाहा - - - तै.सं. ७.५.११.२

*यथा वरुणोऽद्भिः साम्ने समनमदृचे समनमद्यथा सामर्चा ब्रह्मणे समनमत्क्षत्त्राय समनमद्यथा ब्रह्म क्षत्त्रेण राज्ञे समनमद्विशे समनमद्यथा राजा - - - - तै.सं. ७.५.२३.२

*आग्नावैष्णव्यौ रूपसमृद्धे एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति - ऐतरेय ब्राह्मण १.४

*तस्य क्रीतस्य मनुष्यानभ्युपावर्तमानस्य दिशो वीर्याणीन्द्रियाणि व्युदसीदंस्तान्येकयर्चा अवारुरुत्सन्त तानि नाशक्नुवंस्तानि द्वाभ्यां तानि तिसृभिस्तानि चतसृभिस्तानि - - - - तान्यष्टाभिरवारुन्धताष्टाभिराश्नुवत - ऐ.ब्रा. १.१२

*- - - - अग्निर्वै देवयोनिः सोऽग्नेर्देवयोन्या आहुतिभ्यः संभवति। ऋङ्मयो यजुर्मयः साममयो वेदमयो ब्रह्ममयोऽमृतमयः संभूय देवता अप्येति य एवं वेद - ऐ.ब्रा. १.२२

*ता एताः सप्तान्वाह रूपसमृद्धा एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति तासां त्रिः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमां - - - ऐ.ब्रा. २.२

*स प्रजापतिरैक्षत यद्येकां देवतामादिष्टामभि प्रतिपत्स्यामीतरामेकेन देवता उपाप्ता भविष्यन्तीति स एतामृचमपश्यदापो रेवतीरित्यापो वै सर्वा देवता रेवत्यः सर्वा देवताः स एतयर्चा प्रातरनुवाकं प्रत्यपद्यत - ऐ.ब्रा. २.१६

*- - - तानब्रवीदिन्द्रो मा बिभीत त्रिषमृद्धमेभ्योऽहं प्रातर्वज्रं प्रहर्ताऽस्मीत्येतां वाव तदृचमब्रवीद् वज्रस्तेन यदपोनप्त्रीय वज्रस्तेन - - - - ऐ.ब्रा. २.१६

*तदाहुः स वै होता स्याद्य एतस्यामृचि सर्वाणि च्छन्दांसि प्रजनयेदित्येषा वाव त्रिरनूक्ता सर्वाणि च्छन्दांसि भवत्येषा छन्दसां प्रजातिः। - ऐ.ब्रा. २.१६

*यं कामयेत प्राणेनैनं व्यर्धयानीति वायव्यमस्य लुब्धं शंसेदृचं वा पदं वाऽतीयात्तेनैव तल्लुब्धं प्राणेनैवैनं तद्व्यर्धयति - ऐ.ब्रा. ३.३

*यं कामयेत प्राणापानाभ्यामेनं व्यर्धयानीत्यैन्द्रवायवमस्य लुब्धं शंसेदृचं वा पदं वाऽतीयात्तेनैव तल्लुब्धं - - - - -ऐ.ब्रा. ३.३

*यं कामयेत चक्षुषैनं व्यर्धयानीति मैत्रावरुणमस्य लुब्धं शंसेदृचं वा पदं वाऽतीयात्तेनैव तल्लुब्धं - ऐ.ब्रा. ३.३

*यं कामयेत श्रोत्रेणैनं व्यर्धयानीत्याश्विनमस्य लुब्धं शंसेदृचं वा पदं वाऽतीयात्तेनैव तल्लुब्धं - ऐ.ब्रा. ३.३

*यं कामयेत वीर्येणैनं व्यर्धयानीत्यैन्द्रमस्य लुब्धं शंसेदृचं वा पदं वाऽतीयात्तेनैव तल्लुब्धं - ऐ.ब्रा. ३.३

*यं कामयेताङ्गैरेनं व्यर्धयानीति वैश्वदेवमस्य लुब्धं शंसेदृचं वा पदं वाऽतीयात्तेनैव तल्लुब्धम् - ऐ.ब्रा. ३.३

*यं कामयेत वाचैनं व्यर्धयानीति सारस्वतमस्य लुब्धं शंसेदृचं वा पदं वाऽतीयात्तेनैव तल्लुब्धं - ऐ.ब्रा. ३.३

*अथ यः (वषट्कारः) समः संततोऽनिर्हाणर्चः स धामच्छत् - ऐ.ब्रा. ३.७

*यं कामयेत यथैवानीजानोऽभूत्तथैवेजानः स्यादिति यथैवास्य ऋचं ब्रूयात्तथैवास्य वषट्कुर्यात्सदृशमेवैनं तत्करोति। यं कामयेत पापीयान्स्यादित्युच्चैस्तरामस्य ऋचमुक्त्वा शनैस्तरां वषट्कुर्यात्पापीयांसमेवैनं तत्करोति। यं कामयेत श्रेयान्स्यादिति शनैस्तरामस्य ऋचमुक्त्वोच्चैस्तरां वषट्कुर्याच्छ्रियं एवैनं तच्छ्रियामादधाति। संततमृचा वषट्कृत्यं संतत्यै। - ऐ.ब्रा. ३.७

*ययोरोजसा स्कभिता रजांसीति वैष्णुवारुणीमृचं शंसति विष्णुर्वै यज्ञस्य दुरिष्टं पाति वरुणः स्विष्टं तयोरुभयोरेव शान्त्यै। - ऐ.ब्रा. ३.३८

*तदु वा आहुर्जामि वा एतद्यज्ञे क्रियते यत्र समानीभ्यामृग्भ्यां समानेऽहन्यजतीति। - ऐ.ब्रा. ३.४७, ३.४८

*अथ हैते पोत्रीयाश्च नेष्टीयाश्च चत्वार ऋतुयाजाः षळृचः सा विराड्दशिनी तद्विराजि यज्ञं दशिन्यां प्रतिष्ठापयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति। - ऐ.ब्रा. ३.५०

*दिवि शुक्रं यजतं सूर्यस्येति प्रथमयैव ऋचा काष्ठामाप्नोतीति - ऐ.ब्रा. ४.७

*तस्मादृग्मेभ्य एवाधि प्रेषितव्यमृग्मेभ्योऽधि वषट्कृत्यं तन्न वाचमाप्तां श्रान्तामृक्णवहीं वहराविणीमृच्छन्ति - ऐ.ब्रा. ५.९

*अभि त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियमिति सूक्तं यद्वाव प्रेति तदभीति सप्तमेऽहनि सप्तमस्याह्नो रूपम् - ऐ.ब्रा. ५.१७

*ते ततः सर्पन्ति ते सदः संप्रपद्यन्ते यथायथमन्य ऋत्विजो व्युत्सर्पन्ति संसर्पन्त्युद्गातारस्ते सर्पराज्ञ्या ऋक्षु स्तुवते - ऐ.ब्रा. ५.२३

*प्रजापतिरकामयत प्रजायेय - - - -स तपस्तप्त्वेमाँल्लोकानसृजत - - - -तानि ज्योतींष्यभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्त ऋग्वेद एवाग्नेरजायत यजुर्वेदो वायोः सामवेद आदित्यात्तान्वेदानभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायन्त भूरित्येव ऋग्वेदादजायत भुव इति यजुर्वेदात्स्वरिति सामवेदात् - ऐ.ब्रा. ५.३२

*स प्रजापतिर्यज्ञमतनुत तमाहरत्तेनायजत स ऋचैव हौत्रमकरोद्यजुषाऽऽध्वर्यवं साम्नोद्गीथं तदेत्त्रय्यै विद्यायै शुक्रं तेन ब्रह्मत्वमकरोत् - ऐ.ब्रा. ५.३२

*ते(देवाः) ऋचैव हौत्रमकुर्वन्यजुषाऽऽध्वर्यवं साम्नोद्गीथं यदेवैतत्त्रय्यै विद्यायै शुक्रं तेन ब्रह्मत्वमकुर्वन्। ते देवा अब्रुवन्प्रजापतिं यदि नो यज्ञ ऋक्त आर्तिः स्याद्यदि यजुष्टो यदि सामतो यद्यविज्ञाता सर्वव्यापद्वा का प्रायश्चित्तिरिति स प्रजापतिरब्रवीद्देवान्यदि वो यज्ञ ऋक्त आर्तिर्भवति भूरिति गार्हपत्ये जुहवाथ यदि यजुष्टो भुव इत्याग्नीध्रीयेऽन्वाहार्यपचने वा हविर्यज्ञेषु यदि सामतः स्वरित्याहवनीये - - - -ऐ.ब्रा. ५.३२

*तदाहुर्महावदाः यदृचैव हौत्रं क्रियते यजुषाऽऽध्वर्यवं साम्नोद्गीथं व्यारब्धा त्रयी विद्या भवत्यथ केन ब्रह्मत्वं क्रियत इति त्रय्या विद्ययेति ब्रूयात् - ऐ.ब्रा. ५.३३

*तस्माद्यदि यज्ञ ऋक्त आर्तिः स्याद्यदि यजुष्टो यदि सामतो यद्यविज्ञाता सर्वव्यापद्वा ब्रह्मण एव निवेदयन्ते तस्माद्यदि यज्ञ ऋक्त आर्तिर्भवति भूरिति ब्रह्मा गार्हपत्ये जुहुयाद्यदि यजुष्टो भुव इत्याग्नीध्र - - - ऐ.ब्रा. ५.३४

*ग्रावस्तुत् ऋचा : तान्ह राजा मदयामेव चकार ते होचुः स्वेन वै नो मन्त्रेण ग्राव्णोऽभिष्टौति हन्तास्यान्याभिर्ऋग्भिर्मन्त्रमापृणचामेति तथेति तस्य हान्याभिर्ऋग्भिर्मन्त्रमापपृचुस्ततो हैनान्न मदयांचकार तद्यदस्यान्याभिर्ऋग्भिर्मन्त्रमापृञ्चन्ति शान्त्या एव। - ऐ.ब्रा. ६.१

*तदाहुः कथमभिष्टुयादित्यक्षरशाः, चतुरक्षरशाः, पच्छाः, अर्धर्चशाः, ऋक्शाः, इति तद्यदृक्शो न तदवकल्पतेऽथ यत्पच्छो नो एव तदवकल्पतेऽथ यदक्षरशश्चतुरक्षरशो वि तथा छन्दांसि लुप्येरन्बहूनि तथाऽक्षराणि हीयेरन्नर्धर्चश एवाभिष्टुयात्प्रतिष्ठाया एव - ऐ.ब्रा. ६.२

*- - - - ऋचाऽऽग्नीध्रीयां प्रभावयांचक्रुस्तस्मात्तस्यैकयर्चा भूयस्यो याज्या भवन्ति - ऐ.ब्रा. ६.१४

*पच्छः प्रथमं षड् वालखिल्यानां सूक्तानि विहरत्यर्धर्चशो द्वितीयमृक्शस्तृतीयं स पच्छो विहरन्प्रगाथे प्रगाथ एवैकपदां दध्यात्स वाचःकूट: - ऐ.ब्रा. ६.२४

*अथार्धर्चशो विहरंस्ताश्चैवैकपदाः शंसेत्तानि चैवाष्टाक्षराणि माहानामनानि पदानि। अथ ऋक्शो विहरंस्ताश्चैवैकपदाः शंसेत्तानि चैवाष्टाक्षराणि माहानामनानि पदानि - ऐ.ब्रा. ६.२४

*स पच्छः प्रथमे सूक्ते विहरत्यर्धर्चशो द्वितीये ऋक्शस्तृतीये। स यत्प्रथमे सूक्ते विहरति प्राणं च तद्वाचं च विहरित यद्द्वितीये चक्षुश्च तन्मनश्च विहरति यत्तृतीये श्रोत्रं च तदात्मानं च विहरति। - ऐ.ब्रा. ६.२८

*प्रायश्चित्तम् : अथोत्तरत आहवनीयस्योष्णं भस्म निरूह्य जुहुयान्मनसा वा प्राजापत्यया वर्चा तद्धुतं चाहुतं च - - - ऐ.ब्रा. ७.५

*ययोरोजसा स्कभिता रजांसीति वैष्णुवारुणीमृचं जपति विष्णुर्वै यज्ञस्य दुरिष्टं पाति वरुणः स्विष्टं तयोरुभयोरेव शान्त्यै - ऐ.ब्रा. ७.५

*स (शुनःशेपः) प्रजापतिमेव प्रथमं देवतानामुपससार कस्य नूनं कतमस्यामृतानामित्येतयर्चा। तं प्रजापतिरुवाचाग्निर्वै देवानां नेदिष्ठस्तमेवोपधावेति सोऽग्मिमुपससाराग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानामित्येतयर्चा। तमग्निरुवाच सविता वै प्रसवानामीशे तमेवोपधावेति स सवितारमुपससाराभि त्वा देव सवितरित्येतेन तृचेन - ऐ.ब्रा. ७.१६

*तमग्निरुवाच विश्वान्नु देवान्स्तुह्यथ त्वोत्स्रक्ष्याम इति स विश्वान्देवांस्तुष्टाव नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्य इत्येतयर्चा - ऐ.ब्रा. ७.१६

*तस्य (शुनःशेपस्य) स्मर्च्यृच्युक्तायां वि पाशो मुमुचे कनीय ऐक्ष्वाकस्योदरं भवत्युत्तमस्यामेवर्च्युक्तायां वि पाशो मुमुचेऽगद ऐक्ष्वाक आस। - ऐ.ब्रा. ७.१६

*अथ हैतं शुनःशेपोऽञ्जःसवं ददर्श तमेताभिश्चतसृभिरभिसुषाव यच्चिद्धि त्वं गृहे गृह इत्यथैनं द्रोणकलशमभ्यवनिनायोच्छिष्टं चम्वोर्भरेत्येतयर्चाऽथ हास्मिन्नन्वारब्धे पूर्वाभिश्चतसृभिः स स्वाहाकाराभिर्जुहवांचकार - ऐ.ब्रा. ७.१७

*तदेतत्परऋक्शतगाथं शौनःशेपमाख्यानम् - ऐ.ब्रा. ७.१८

*ऐन्द्रो अभिषेकः :- तस्मा एतामासन्दीं समभरन्नृचं नाम तस्यै बृहच्च रथंतरं पूर्वौ पादावकुर्वन्वैरूपं च वैराजं चापरौ - - - - -ऋचः प्राचीनातानान्सामानि तिरश्चीनवायान्यजूंष्यतीकाशान् - - - -ऐ.ब्रा. ८.१२

*तमभ्युत्क्रुष्टं प्रजापतिरभिषेक्ष्यन्नेतयर्चाऽभ्यमन्त्रयत - ऐ.ब्रा. ८.१३

*भूर्भुवः स्वरोममोऽहमस्मि स त्वं स त्वमस्यमोऽहं द्यौरहं पृथिवी त्वं सामहमृक्त्वं तावेह संवहावहै। - ऐ.ब्रा. ८.२७

*सोऽत आहुतिमयो मनोमयः प्राणमयश् चक्षुर्मयश् श्रोत्रमयो वाङ्मय ऋङ्मयो यजुर्मयस् साममयो ब्रह्ममयो हिरण्मयो ऽमृतस् संभवति। - जैमिनीय ब्राह्मण १.२, १.४७

*उदपात्रं वैवोदकमण्डलुं वादाय गार्हपत्याद् आहवनीयान् निनयन्न इयात् इदं विष्णुर् विचक्रमे इत्य् एतयैवर्चा। देवपवित्रं वा एतद् यद् ऋग् देवपवित्रम् एतद् यद् आपः। - जै.ब्रा. १.५२

*ज्योतिस् तद् यद् ऋग् ज्योतिस् तद् यत् साम ज्योतिस् तद् यद्देवता - जै.ब्रा. १.७६

*यत् साम प्रथमम् अभिव्याहरेत् क्षत्रं बलम् ऋच्छेत्। यद् ऋचं प्रथमम् अभिव्याहरेद् विशं बलम् ऋच्छेत्। विड् ढ्य ऋक्। यद्यजुः प्रथमम् अभिव्याहरति - ब्रह्म वै यजुः - ब्रह्मवर्चसम् एतत् करोति। - जै.ब्रा. १.८८

*यस्यां वर्षीयस्याम् ऋचि ह्रसीयो ह्रसीयस्यां वा वर्षीयस् ताम् आनायकामः प्रतिपदं कुर्वीत। - जै.ब्रा. १.९६

*परोक्षम् इव वै रेतः। नर्चम् उपस्पृशेत्। यद् ऋचम् उपस्पृशेद् रेतो विच्छिन्द्यात्। - जै.ब्रा. १.१००

*एतद् ध वा अस्य पितृदेवत्यं यत् तान्ताकरोति। यदि सामिताम्ये मध्य ऋचो वान्यान्। प्राणो वा ऋक् प्राणो गायत्रम्। प्राणस्यैतन् मध्ये प्राणं समानयते। - जै.ब्रा. १.११२

*ते(देवा) ऽकामयन्त पूता मेध्याश् श्रितास् स्याम गच्छेम स्वर्गं लोकम् इति। त एता ऋचो ऽपश्यन्। ताभिर् अपुनत। पुनानस् सोम धारयापो वसानो अर्षसि इति - जै.ब्रा. १.१२१

*- - - - - ऋषिर् विप्रः पुरएता जनानाम् ऋभुर् धीर उशना काव्येन। स चिद् विवेद निहितं यद् आसाम् अपीच्यं गुह्यं नाम गोनाम् ॥ इति। ता एताः पशव्या ऋचः। अव पशून् रुन्द्धे बहुपशुर् भवत्य् एताभिर् ऋग्भिस् तुष्टुवानः। -- - - - - - - - स्वरेण वै देवेभ्यो ऽन्नाद्यं प्रदीयते। ऋक्समं पवमानान्ते भवति। नर्चा सामातिरेचयन्ति नर्चं साम्ना। - जै.ब्रा. १.१२७

*मनो वै पूर्वम् अथ वाक्। मनो वै बृहद् वाग् रथन्तरम्। ऋग् वै रथन्तरं साम बृहत्। ब्रह्म वै रथन्तरं क्षत्रं बृहत्। - जै.ब्रा. १.१२८

*ऋचा वा असुरा आयन् साम्ना देवाः। ते देवा असुरान् ऋच्य एव परिगृह्य साम्नापीडयन्तेव पीडयत् पीडतो भ्रातृव्यस्य व्यधाय। - जै.ब्रा. १.१५४

*अथैता भवन्ति अभि प्रियाणि पवते चनोहितः इति। प्रजापतिः प्रजा असृजत। ता अप्राणा असृजत। ताभ्य एताभिर् एवर्ग्भिः प्राणान् अदधात्। - - - - आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्न् अधि रथं विष्वञ्चम् अरुहद् विचक्षणः इति। प्राणो वै विष्वङ्। सो ऽयं विष्व~ अञ्चति। ता एता आयुष्या ऋचः। सर्वम् आयुर् एत्य् एताभिर् ऋग्भिस् तुष्टुवानः। - जै.ब्रा. १.१६६

*सो ऽग्निर् गायत्र्या स्वाराण्य् असृजतेन्द्रस् त्रिष्टुभा निधनवन्ति विश्वेदेवा जगत्यैळानि प्रजापतिर् अनुष्टुभर्क्समानि। - - - - - स्वारर्क्समे वाव यज्ञं कल्पयत इति। तद् यद् ऋच्य् अन्तस् संतिष्ठते तद् राथन्तरम् अथ यद् ऋचम् अतिस्वरति तद् बार्हतम्। - जै.ब्रा. १.२९९

*चत्वार्य् उ ह वै सामानि स्वारं निधनवद् ऐळम् ऋक्समम्। - - - - - यद्धि निधनं येळा यद् ऋक्समं स्वारं एव तद् इति। - - - - आत्मा वै स्वरः प्रजा निधनं पशव इळा जायर्क्समम्। समानौ वा आत्मा च जाया च। - जै.ब्रा. १.३००

*यद् ऋक्समे सह कुर्यात् पत्नी वास्य प्रमायुका स्याद् अन्त्यो वा मृत्युर् यजमानं हन्यात्। - जै.ब्रा. १.३०१

*ऋक्समे सह कुर्यात् प्रजननं वा ऋक्समम्। - जै.ब्रा. १.३०२

*- - - - अथ यद् ऋक्समं स्वारं वाव तन् मन्यन्ते। समाना ह्य् ऋक्समस्य च स्वरस्य च जाम्यजामिता। - जै.ब्रा. १.३०७

*तद् यद् ऋचा प्रस्तावम् अन्तर्निधनं तद् राथन्तरम्। - - - - - अथ यद् ऋचा प्रस्तावं बहिर्निधनं तद् राथन्तरबार्हतम्। - जै.ब्रा. १.३०८

*अथ ह वै नैकर्चे गायत्रं कुर्यात्। ऐळं मध्येनिधनम् अनुष्टुभ्य अकाम एवैते त्रिवृति स्तोम एकर्चयोः कुर्यात्। - - - - न वा ऋक्तो न सामतो ऽन्त्यम् एकर्चाय तस्थानं नार्भवस्य गायत्री नाग्निष्टोमसाम। - जै.ब्रा. १.३१०

*चत्वार्य् उ है वै सामान्य् एकर्चेभ्यो तस्थानानि बृहद्रथन्तरे वामदेव्यं यज्ञायज्ञीयम् इति। तानि यत्र क्व चानुपरिप्लवेरंस् तानि तृचेष्व~ एव कल्पयेन् नैकर्चेषु। अथ ह वै नैकर्चकल्पी स्यात्। अवीर्य इव वा एष यद् एकर्चः। अयं वै लोक एकर्चः। अवच्छिन्न इव वा अयम् आभ्यां लोकाभ्याम्। वीर्यसंतततर इव तृचः। - - - - -- - - एकर्चो ह त्वाव तृचाज् ज्यायान्। एकर्च इति त्रीण्य अक्षराणि तृच इति द्वे। - - --अथो यद् एवर्क्साम हिंकारस् तेनास्य तृचाः कृता भवन्ति। - जै.ब्रा. १.३११

*यो वा ऋक्सामाभ्याम् आयतनवद्भ्याम् आर्त्विज्यं करोत्य् आयतनवान् भवति। प्रस्ताव एवर्चस् सामन्न् आयतनम् यद् ऊर्ध्वं प्रस्तावाच् छन्नं गायति तत् साम्न ऋच्य् आयतनम्। प्रतिहार एवर्चस् सामन्न् आयतनम्। यद् ऊर्ध्वं प्रतिहाराच् छन्नं गायति तत् साम्न ऋच्य् आयतनम्। निधनम् एवर्चस् सामन्न् आयतनम्। यन् निधनम् अतिस्वरति तत् साम्न ऋच्य् आयतनम्। - - - - तद् वा एतद् द्वयम् एवर्क् च साम च। - - - - वाग् वा ऋचस् सत्यं मनस् साम्नः। एते ह वा ऋक्सामयोस् सत्ये। - - - - - जै.ब्रा. १.३२६

*स यदि यज्ञ ऋक्तो भ्रेषं नीयात् भूस् स्वाहा इति गार्हपत्य जुहवाथ। सैव तत्र प्रयश्चित्तिः। अथ यदि यजुष्टः भुवस् स्वाहा इत्य् आग्नीध्रे जुहवाथ। - - - - - -। तद् आहुर् यद् ऋचा होतृत्वं क्रियते यजुषाध्वर्यवं साम्नोद्गीथो ऽथ केन ब्रह्मत्वं क्रियत इति। - जै.ब्रा. १.३५८

*त एतद् ऋग्रेतसं यजूरेतसं ब्रह्मणि योनौ रेतो दधतो यन्ति। - जै.ब्रा. २.२३

*त ऋङ्मया यजुर्मयास् साममया ब्रह्ममया हिरण्मया अमृतास् संभवन्ति। - - - - - ऋङ्मयान्य् अस्यास्थानि भवन्ति य एवं वेद। - जै.ब्रा. २.२४

*अथैषोदुम्बरी राजासन्दी। तस्यै बृहद्रथन्तरे पूर्वौ पादौ, - - - - ऋचः प्राचीन् आताना, यजूंषि तिरश्चीनं, सामान्य् आस्तरणं, - - - - -जै.ब्रा. २.२५

*कृष्णाजिनं वाव दीक्षितयशसम्। एतद् धि सर्वेषां वेदानां रूपम्। यानि शुक्लानि तानि साम्नां रूपं, यानि कृष्णानि तान्य् ऋचाम्। यदि वेतरथा यान्य् एव बभ्रूणीव हरीणि तानि यजुषाम्। - जै.ब्रा. २.६६

*तस्य पाहि नो अग्न एकये त्य् एतासु नार्मेधस्यर्क्षु रथन्तरं पृष्ठं भवति। एताभिर् वै नृमेधा औशिजो ऽग्नेर् हरांस्य् अपैरयत। - जै.ब्रा. २.१३७

*- - - -तस्य यज्ञायज्ञीयस्यर्क्षु बहिष्पवमानं भवति। अग्निर् वै यज्ञायज्ञीयस्यर्चः। - जै.ब्रा. २.२०१

*- - - - समानीः परस्ताद् ऋचो भवन्त्य् अन्यद्अन्यत् साम। रेत एव तत् सिक्तम्। - - - - - समानीः परस्ताद् ऋचो भवन्त्य् अन्यद्अन्यत् साम। - - - - यद् अमुत आयन्त ऋचम् आरभ्यारभ्यायन्तीमं तल् लोकम् आरभ्यायन्ति। - जै.ब्रा. २.३८०

*ते मनोमयाः प्राणमयाश् चक्षुर्मयाः श्रोत्रमया वाङ्मया ऋङ्मया यजुर्मयास् साममया ब्रह्ममया हिरण्मया अमृतास् संभवन्ति। - जै.ब्रा. २.४२८

*तद् यत् प्रेति चेति च भवति गायत्र्या एवैतद् रूपेण प्रयन्ति न वैता भवन्ति न वा हस्यैव युक्त्या ऋचर् चैवाहर् युज्यते यथा नद्धयुगस्य शम्या अवदध्यात् तादृक् तत्। - जै.ब्रा. ३.१२

*एवम् इव वै विराट् नैव स्वारं नैव निधनवन् नैवैळछ नैवक्सदमम्। तद् वाङ्निधनं भवति। - जै.ब्रा. ३.६७

*यदृचोऽध्यगीषत ताः पयआहुतयो देवानामभवन्यद्यजूंषि घृताहुतयो यत्सामानि सोमाहुतयो यदथर्वाङ्गिरसो मध्वाहुतयो - - - - तैत्तिरीय आरण्यक २.९.१

*यत्स्वाध्यायमधीयीतैकामप्यृचं यजुः साम वा तद्ब्रह्मयज्ञः संतिष्ठते। यदृचोऽधीते पयसः कूल्या अस्य पितॄन्त्स्वधा अभिवहन्ति यद्यजूंषि घृतस्य कूल्या यत्सामानि सोम एभ्यः पवते - - - - तै.आ. २.१०.१

*यत्त्रिराचामति तेन ऋचः प्रीणाति यद्द्विः परिमृजति तेन यजूंषि यत्सकृदुपस्पृशति तेन सामानि - - - -तै.आ. २.११.१

*तदेतदृचाऽभ्युक्तम्। ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुर्यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासत इति। - तै.आ. २.११.१

*तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः। ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात्। यजुस्तस्मादजायत। - तै.आ. ३.१२.४

*उदु त्यं चित्रमिति सौरीभ्यामृग्भ्यां पुनरेत्य गार्हपत्ये जुहोति। अयं वै लोको गार्हपत्यः। - तै.आ. ५.९.११

*भूरिति वा ऋचः। भुव इति सामानि। सुवरिति यजूंषि। मह इति ब्रह्म। - तै.आ. ७.५.२

*तस्य (पुरुषस्य) यजुरेव शिरः। ऋग्दक्षिणः पक्षः। सामोत्तरः पक्षः। आदेश आत्मा अथर्वाङ्गिरसः पुच्छं प्रतिष्ठा। तै.आ. ८.२.

*आदित्यो वा एष एतन्मण्डलं तपति तत्र ता ऋचस्तदृचा मण्डलं स ऋचां लोकोऽथ य एष एतस्मिन्मण्डलेऽर्चिर्दीप्यते तानि सामानि स साम्नां लोकोऽथ य एष एतस्मिन्मण्डलेऽर्चिषि पुरुषस्तानि यजूंषि स यजुषां मण्डलं स यजुषां लोकः - तै.आ. १०.१३.१

*ऋचे त्वा रुचे त्वा समित्स्रवन्ति सरितो न धेनाः। - तै.आ. १०.४०.१

*गवामयनशेषविधिः :- अहेबुध्निय मन्त्रं मे गोपाय। यमृषयस्त्रयिविदा विदुः। ऋचः सामानि यजूंषि। सा हि श्रीरमृता सताम्। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.१.२६

*द्वे चर्चावतिरिच्येते। एकया गौरतिरिक्तः। एकयाऽऽयुरूनः। - तै.ब्रा. १.२.२.२

*वाजपेय ब्राह्मणे पुनराधानम् :- अग्निन्यक्ताः पत्नीसंयाजानामृचः स्युः। - तै.ब्रा. १.३.१.३

*वाजपेय ब्राह्मणे ग्रहविधिः :-एकयर्चा गृह्णाति। एकधैव यजमाने वीर्यं दधाति। - तै.ब्रा. १.३.३.२

*सारस्वतौ त्वोत्सो समिन्धातामित्याह। ऋक्सामे वै सारस्वतावुत्सो। - तै.ब्रा. १.४.४.९

*दीक्षितस्य प्रमरणे विधानम् : सर्पराज्ञिया ऋग्भिः स्तुयुः। इयं वै सर्पतोv राज्ञी। अस्या एवैनं परिददति - तै.ब्रा. १.४.६.६

*राजसूये वैश्वदेव हविरङ्गविधिः :- ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी सोमपानौ। तयोः परिधय आधानम्। - तै.ब्रा. १.६.३.९

*अग्निहोत्रविधिः :-- - - - तेषां यस्त्रिरजुहोत्। स ऋचाऽजुहोत्। यो द्विः। स यजुषा। यः सकृत्। स तूष्णीम्। - तै.ब्रा. २.१.९.१

*स दिवमसृजत। अग्निष्टोममुक्थ्यमतिरात्रमृचः। - तै.ब्रा. २.२.४.३

*दशरात्रे दशमेऽहनि होतृमन्त्रविधिः :- दशमेऽहन्त्सर्पराज्ञिया ऋग्भिः स्तुवन्ति। यज्ञस्यैवान्तं गत्वा। अन्नाद्यमवरुन्धते। - तै.ब्रा. २.२.६.१

*त्रया देवा एकादश। त्रयस्त्रिंशाः सुराधसः। - - - - -सत्यं यज्ञेन। यज्ञो यजुर्भिः। यजूंषि सामभिः। सामान्यृग्भिः। ऋचो याज्याभिः। याज्या वषट्कारैः। - - - (इति आहुतीर्जुहोति) - तै.ब्रा. २.६.५.८

*अभिषेककालीनमाघारं : कृष्णाजिनऽभिषिञ्चति। ब्रह्मणो वा एतदृक्सामयो रूपम्। यत्कृष्णाजिनम्। ब्रह्मन्नेवैनमृक्सामयोरध्यभिषिञ्चति। - तै.ब्रा. २.७.३.३

*प्राणैरेव प्राणान्त्संपृणक्ति। सावित्रियर्चा। सवितृप्रसूतं मे कर्मासदिति। - तै.ब्रा. ३.२.५.३

*हुतानामग्निसंमार्गाणां दर्भाणामभिमन्त्रणे मन्त्रम् : - - - - -इध्मः परिधयः स्रुचः। आज्यं यज्ञ ऋचो यजुः। याज्याश्च वषट्काराः। सं मे संनतयो नमन्ताम्। - तै.ब्रा. ३.७.६.१८

*सोमाङ्गभूतदीक्षाया अङ्गभूता मन्त्राः :- - - - -वाक्त्वा दीक्षमाणमनु दीक्षताम्। ऋचस्त्वा दीक्षमाणमनु दीक्षन्ताम्। सामानि त्वा दीक्षमाणमनु दीक्षन्ताम्। यजूंषि त्वा दीक्षमाणमनु दीक्षन्ताम्। - तै.ब्रा. ३.७.७.८

*द्वितीयेऽहनि बहिष्पवमानसर्पणकाले ऽश्वसाहित्यं : प्राजापत्यो वा अश्वः। प्रजापतिरुद्गीथः। उद्गीथमेवावरुन्धे। अथो ऋक्सामयोरेव प्रतितिष्ठति। - तै.ब्रा. ३.८.२२.३

*दधिक्राव्णो अकारिषमिति सुरभिमतीमृचं वदन्ति। प्राणा वै सुरभयः। प्राणानेवाऽऽत्मन्दधते। - तै.ब्रा. ३.९.७.४

*लेखायामुपधानमन्त्राः :- ऋचो यजूंषि सामानि। अथर्वाङ्गिरसश्च ये। सर्वास्ताः। - तै.ब्रा. ३.१२.८.१

*ब्रह्मणा पठनीया मन्त्राः :- ऋचां प्राची महती दिगुच्यते। दक्षिणामाहुर्यजुषामपाराम्। अथर्वणामङ्गिरसां प्रतीची। साम्नामुदीची महती दिगुच्यते। ऋग्भिः पूर्वाह्णे दिवि देव ईयते। यजुर्वेदे तिष्ठति मध्ये अह्नः। सामवेदेनास्तमये महीयते। वेदैरशून्यस्त्रिभिरेति सूर्यः। ऋग्भ्यो जाताँ सर्वशो मूर्तिमाहुः। सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्। सर्वं तेजः सामरूप्यं ह शश्वत्। सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्। ऋग्भ्यो जातं वैश्यं वर्णमाहुः। यजुर्वेदं क्षत्त्रियस्याऽऽहुर्योनिम्। सामवेदो ब्राह्मणानां प्रसूतिः। पूर्वे पूर्वेभ्यो वच एतदूचुः। - तै.ब्रा. ३.१२.९.१

*तेभ्यः श्रान्तेभ्यस्तप्तेभ्यः संतप्तेभ्यो दशतयानाङ्गिरसानार्षेयान् निरमिमीत - षोडशिनो ऽष्टादशिनो द्वादशिन एकर्चान् द्व्यृचास्तृचांश्चतुर्ऋचान् पञ्चर्चान् षडर्चान् सप्तर्चानिति। - गोपथ ब्राह्मण १.१.८

*सैषैकाक्षरर्ग् ब्रह्मणस्तपसो ऽग्रे प्रादुर्बभूव ब्रह्मवेदस्याथर्वणं शुक्रम्। - - - - - - पुरस्तादोंकारं प्रयुङ्क्ते। एतयैव तदृचा प्रत्याप्याययेत्। - - - - तदप्येतदृचोक्तम् - या पुरस्ताद् युज्यते, ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् इति। - गो.ब्रा. १.१.२२

*तस्मादोंकार ऋच्यृग्भवति, यजुषि यजुः, साम्नि साम, सूत्रे सूत्रं - - - गो.ब्रा. १.१.२३

*अथोत्तरे - मन्त्रः कल्पो ब्राह्मणमृग्यजुः साम? कस्माद् ब्रह्मवादिन ओंकारमादितः कुर्वन्ति ?- - - - गो.ब्रा. १.१.२४

*स्वरितोदात्त एकाक्षर ओंकार ऋग्वेदे, त्रैस्वर्योदात्त एकाक्षर ओंकारो यजुर्वेदे, दीर्घप्लुतोदात्त एकाक्षर ओंकारः सामवेदे, ह्रस्र्वोदात्त एकाक्षर ओंकारो ऽथर्ववेदे, - - - - गो.ब्रा. १.१.२५

*- - - तस्माद् ऋग्यजुःसामान्यपक्रान्ततेजांस्यासन्। - गो.ब्रा. १.१.२८

*किं देवतमिति - ऋचामग्निर्देवतं, तदेव ज्योतिः, गायत्रं छन्दः, पृथिवी स्थानम्। अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥ इत्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते। - गो.ब्रा. १.१.२८

*चत्वारो वा इमे वेदा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेद इति। चतस्रो वा इमा होत्रा हौत्रमाध्वर्यवमौद्गात्रं ब्रह्मत्वमिति। तदप्येतदृचोक्तम् -- चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा - - - -। वृषभो रोरवीत्येष ह वै वृषभः, एष तद् रोरवीति यद्यज्ञेषु शस्त्राणि शंसत्यृग्भिर्यजुर्भिः सामभिर्ब्रह्मभिरिति। - गो.ब्रा. १.२.१६

*अश्वरूप अग्नेः शमनम् : तमेताभिः पञ्चभिर्ऋग्भिरुपाकुरुते -- यदक्रन्दः प्रथमं जायमान इति सो ऽशाम्यत्। - - - - तमेतयर्चाज्याहुत्याभ्यजुहोत् -- इन्द्रस्योजो मरुतामनीकम् इति। - - - - - तां पञ्चस्वपश्यदृचि यजुषि साम्नि शान्तेऽथ घोरे। - - - - गो.ब्रा. १.२.२१

*प्रजापतिर्यज्ञमृनुत। स ऋचैव हौत्रमकरोद् यजुषाध्वर्यवं साम्नौद्गात्रमथर्वाङ्गिरोभिर्ब्रह्मत्वम्। तं वा एतं महावाद्यं कुरुते, यदृचैव हौत्रमकरोद् यजुषाध्वर्यवं साम्नौद्गात्रम् अथर्वाङ्गिरोभिर्ब्रह्मत्वम्। - गो.ब्रा. १.३.२

*- - - -अथ ये पवमाना ओदृचस्तेषु, अथ यानि स्तोत्राणि सशस्त्राण्या वषट्कारात् तेषु। स यदृक्तो भ्रेषं न्यृच्छेद् ओं भूर्जनदिति गार्हपत्ये जुहुयात्। यदि युजुष्ट ओं भुवो जनदिति दक्षिणाग्नौ जुहुयात्। - - - -गो.ब्रा. १.३.३

*को हि तस्मै मनुष्यो यः सहस्रसंवत्सरेण यजेतेति ? तदयातयाम मध्ये यज्ञस्यापश्यन्। तेनायातयाम्ना या वेदे व्यष्टिरासीत्, तां पञ्चस्वपश्यन् - ऋचि यजुषि साम्नि शान्ते ऽथ घोरे। ता वा एताः पञ्च व्याहृतयो भवन्ति -- ओ श्रवय, अस्तु श्रौषड्, यज, ये यजामहे, वौषड् इति। - गो.ब्रा. १.५.१०

*ऋग्वेद एव भर्गो यजुर्वेद एव महः सामवेद एव यशो ब्रह्मवेद एव सर्वम्। होतैव भर्गो ऽध्वर्युरेव मह उद्गातैव यशो ब्रह्मैव सर्वम्। वागेव भर्गः प्राण एव महश्चक्षुरेव यशो मन एव सर्वम्। - गो.ब्रा. १.५.१५

*ऋचो ऽस्य भागांश्चतुरो वहन्त्युक्थशस्त्रैः प्रमुदो मोदमानाः। ग्रहैर्हविर्भिश्च कृताकृतश्च यजूंषि भागांश्चतुरो वहन्ति। - - - - - - -होता च मैत्रावरुणश्च पादमच्छावाकः सह ग्रावस्तुतैकम्। ऋग्भिः स्तुवन्तो ऽहरहः पृथिव्या अग्निं पादं ब्रह्मणा धारयन्ति ॥ - गो.ब्रा. १.५.२४

*ऋग्वेदस्य पृथिवी स्थानमन्तरिक्षस्थानो ऽध्वरः। द्यौ स्थानं सामवेदस्यापो भृग्वङ्गिरसां स्मृतम् ॥ अग्निर्देवत ऋग्वेदस्य यजुर्वेदो वायुदेवतः। आदित्यः सामवेदस्य चन्द्रमा वैद्युतश्च भृग्वङ्गिरसाम् ॥ त्रिवृत स्तोम ऋग्वेदस्य यजूंषि पञ्चदशेन सह जज्ञिरे। सप्तदशेन सामवेद एकविंशो ब्रह्मसंमितः ॥ वागध्यात्ममृग्वेदस्य यजुषां प्राण उच्यते। चक्षुषी सामवेदस्य मनो भृग्वङ्गिरसां स्मृतम् ॥ ऋग्भिः सह गायत्रं जागतमाहुर्यजूंषि त्रैष्टुभेन सह जज्ञिरे उष्णिह्मùककुब्भ्यां भृग्वङ्गिरसो जगत्या सामानि कवयो वदन्ति। - - - - - ऋग्भिः सुशस्तो यजुषा परिष्कृतः सविष्टुतः सामजित् सोमजम्भाः। अथर्वभिरङ्गिरोभिश्च गुप्तो यज्ञश्चतुष्पाद् दिवमारुरोह ॥ ऋचो विद्वान् पृथिवीं वेद संप्रति यजूंषि विद्वान् बृहदन्तरिक्षम्। दिवं वेद सामगो यो विपश्चित् सर्वान् लोकान् यद्भृग्वङ्गिरोवित्॥ - गोपथ ब्राह्मण १.५.२५


*एतद् वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं, यत् कर्म क्रियमाणमृग् यजुर्वाभिवदति। - गो.ब्रा. २.२.६

*तदनुमत्यैवों भूर्जनदिति प्रातःसवन ऋग्भिरेवोभयतो ऽथर्वाङ्गिरोभिर्गुप्ताभिर्गुप्तै स्तुतेत्येव - - - - गो.ब्रा. २.२.१४ ऋचा

*विभक्तिभिः प्रयाजानुयाजान्यजत्यृतवो वै प्रयाजानुयाजा ऋतुभ्य एनं तत्समाहत्यग्न आयाहि वीतयेऽग्निं दूतं वृणीमहे - - - - इत्येतासामृचां प्रतीकानि विभक्तयस्ता वै षड् भवन्ति - - - शाङ्खायन ब्राह्मण १.४

*- - - तत्सर्व आत्मा वाचमप्येति वाङ्मयो भवति तदेतदृचाऽभ्युदितं नेन्द्रादृते पवते धाम किंचनेति वाग्वा इन्द्रो न ह्यृते वाचः पवते धाम किंचन स वै सायं जुहोति। - शां.ब्रा. २.७

*ऋगन्ते वषट् करोति तथा हास्य सर्वा याज्या रूपवत्यो भवन्ति - शां.ब्रा. ३.५

*स्विष्टकृतो वै पत्न्यस्तस्मादेनमन्ततो यजत्यथ यदृचं जपति स्वस्त्ययनमेव तत्कुरुते - शां.ब्रा. ३.९, ५.७

*प्रजापतिस्तपोऽतप्यत - - - -सोऽग्नेरेवर्चोऽसृजत वायोर्यजूंष्यादित्यात्सामानि स एतां त्रयी विद्यामभ्यतप्यत स यज्ञमतनुत स ऋचैवाशंसद्यजुषा प्रातरत्साम्नोदगायदथैतस्या एव त्रय्यै विद्यायै तेजोरसं प्रावृहदेतेषामेव वेदानां भिषज्यायै स भूरित्यृचां प्रावृहद्भुव इति यजुषां स्वरिति साम्नां - शां.ब्रा. ६.१०

*तदाहुर्यदृचा होता होता भवति यजुषाऽध्वर्युरध्वर्युः साम्नोद्गातोद्गाता केन ब्रह्मा ब्रह्मा भवतीति - - - - - -अथ या मनसा तां ब्रह्मा तस्माद्यावदृचा यजुषा साम्ना कुर्युस्तूष्णी तावद्ब|ह्माऽऽसीतार्धं हि तद्यज्ञस्य संस्करोति - शां.ब्रा. ६.११

*अथ यद्धि ऋच्युल्बणं स्याच्चतुर्गृहीतमाज्यं गृहीत्वा गार्हपत्ये प्रायश्चित्ताहुतिं जुहुयात् भूः स्वाहेति तदृचमृचि दधातृचर्चि प्रायश्चित्तिं करोति - - - शां.ब्रा. ६.१२

*उत्तमाया अर्धर्चमुक्त्वोपरमत्यमृतं वा ऋगमृतं तत्प्रविशत्यथा ब्रह्म वा ऋगुभयत एव तद्ब|ह्मार्धर्चो वर्म कुरुते तद्यद्वा ऋचावर्धर्चेन वा पादेन वोपरमेदेतद्ब्राह्मणमेव - शां.ब्रा. ७.१०

*वार्त्रघ्नौ त्वेव स्थितावृग्याज्यौ स्यातामिति हैक आहुर्ऋग्याज्या वा एता देवता उपसत्सु भवन्तीति वदन्तो - शां.ब्रा. ८.२

*अभिरूपा अभिष्टौति यद्यज्ञेऽभिरूपं तत्समृद्धं यज्ञस्यैव समृद्ध्यै ता एकशतमृचो भवन्ति तासामुक्तं ब्राह्मणम् - शां.ब्रा. ८.६

*किमु देवतामनावाह्य यजेदित्यृच एवाऽऽवाहयेदग्निमावह सोममावह विष्णुमावहेति ता वै तिस्रो देवता यजति - शां.ब्रा. ८.८

*वषट्कारेण ह वा ऋग्यातयामा भवति - शां.ब्रा. ८.९

*यथा होतरभयमसत्तथा कुर्वीत संप्रेषितः पुरर्चप्रतिवदनाद्दक्षिणस्य पादस्य प्रपदेन प्रत्यञ्चं लोकमपास्स्यति - शां.ब्रा. ९.४

*तदु वा आहुरासीन एव होतैतां प्रथमामनुब्रूयात्सर्वाणि ह वै भूतानि सोमं राजानं प्रणीयमानमनुप्रच्यवन्ते तद्यदासीनो होतैतामृचमन्वाह तत्सर्वाणि भूतानि यथायथं नियच्छसीति - शां.ब्रा. ९.५

*तदाहुः कस्मादृचा प्रयाजेषु यजति प्रतीकैरयानुयाजेष्विति रेतःसिच्यं वै प्रयाजा रेतोधेयमनुयाजास्तस्मादृचा प्रयाजेषु यजति प्रतीकैरनुयाजेषु इति - शां.ब्रा. १०.३

*अर्धर्चशोऽनुब्रूयादृक्संमिता वा इमे लोका अयं लोकः पूर्वोऽर्धर्चोऽसौ लोक उत्तरोऽथ यदर्धर्चावन्तरेण तदिदमन्तरिक्षं तद्यदर्धर्चशोऽन्वाहैभिरेव तं लोकैर्यजमानं समर्धयति - शां.ब्रा. ११.१

*अथ वै पङ्क्तेः पञ्च पदानि कथं सार्धऽर्चशोऽनूक्ता भवतीति प्रणव उत्तरयोस्तृतीयस्तथा साऽर्धर्चशोऽनूक्ता भवति - शां.ब्रा. ११.२

*ऋग्भिर्हि शतमात्रमनुब्रूयाच्छतायुर्वै पुरुष - शां.ब्रा. ११.७

*अनूत्थेयः पवमानो ना३इति नानूत्थेय इत्याहुर्ऋच एतदायतनं यत्रैतद्धोतास्तेऽथातः साम्नो यत्रामी साम गायन्ति स योऽनूत्तिष्ठत्यृचं स स्वादायतनाच्च्यवयत्यृचं स साम्नोऽनुवर्त्मानं करोति तस्मादनानूत्तिष्ठेन्नेदृचं स्वादायतनाच्च्यवयानीति नेदृचं स साम्नोऽनुवर्त्मानं करवाणीति -- - - - शां.ब्रा. १२.५

*तस्माद्येनैव मैत्रावरुणः प्रेष्यति तेन होता यजति - - - -तदाहुर्यया वै प्रातर्यजत्यृक्सा तदहर्यातयामा भवति - शां.ब्रा. १३.२

*केन वा उ केन वा यजा इत्यृषिकृतेन मन्त्रेणर्चा यजानीत्येव विद्यात् - शां.ब्रा. १३.३

*स वा एषोऽग्निष्टोम आज्यप्रभृत्याग्निमारुतान्तो यच्छश्यं त्रीणि षष्टिशतान्यृचां संपद्यन्ते त्रीणि वै षष्टिशतानि संवत्सरस्याह्नां - - - -अग्ने मरुद्भिः शुभयद्भिर्ऋक्वभिरित्युक्थं शस्त्वा यजति - शां.ब्रा. १६.९

*-- - - - - द्विपदाया आयतने सर्वं बार्हस्पत्यं पुरस्तात्परिधानीयाया एतद्वै किंचिदिवर्चां न प्रदृश्यते - शां.ब्रा. १८.३

*यदृचं जपन्ति यदाहुतीर्जुह्वति स्वस्त्ययनमेव तत्कुर्वते - शां.ब्रा. १८.६

*यदा वा आपश्चौषधयश्च संगच्छन्तेऽथ कृत्स्नः सोमस्ता वैष्णव्यर्चा निनयन्ति - शां.ब्रा. १८.८

*प्रथम अह : न ह वा ऋक्छस्त्रेण यातयामा भवति नानुवचनेन वषट्कारेणैव सा यातयामा भवति - शां.ब्रा. २२.१

*एतैर्ह वा अत्रय आदित्यं तमसोपस्पृण्वत तद्यदपस्पृण्वत तस्मात्स्वरसामानस्तदेतदृचाऽभ्युदिम् - शां.ब्रा. २४.३

*उभयतो ह्यमुमादित्यमापोऽवस्ताच्चोपरिष्टाच्च तदेतदृचाभ्युदितम्। - शां.ब्रा. २४.४

*शस्त्रं वा अनुवचनं वा निगदं वा याज्यां वा यत्रऽन्यत्सर्वं तत्पुनर्ब्रूयादिति यावन्मात्रमुल्बणं तावद्ब्रूयादृचं वाऽर्धर्चं वा पादं वा पदं वा वर्णं वेति - - -शां.ब्रा. २६.५

*यद्धि होतारो यज्ञस्य किंचित्तदुल्बणमबुध्यमानाः कुर्वन्ति सर्वं तदग्निर्देवो होता अनुल्बणं करोति तदेतदृचाभ्युदितम् - शां.ब्रा. २६.५

*अग्निर्ह दैवो होता मानुषाद्धोतुः पूर्वो निषद्य यजत इति तदाहाऽऽशिषमेवोत्तरेणार्धर्चेन वदति पूर्वया चर्चा - शां.ब्रा. २६.६

*अक्षरैर्ह वा ऋक्स्तोमं व्यश्नुतेऽक्षरैर्ह निविद्वा पुरोरुग्वर्चं - - - - - शां.ब्रा. २६.१४

*एते ह ते ह वा उ प्रैषाश्च निगदाश्च यदृग्भिर्यज्ञस्यानाप्तं तदेभिः सर्वमाप्स्याम इति - शां.ब्रा. २८.१

*नि वो जामयो जिहतान्यजामय इति यच्च जामिर्यच्चाजामिस्तद्वो निजिहतामित्येथैनं तदाह तदेतदृचाऽभ्युदितम्। - शां.ब्रा. २८.५

*वालखिल्य सूक्तानि : - - - -पच्छः प्रथमे सूक्ते विहरति पर्वश एवैनं तत्संभरत्यर्धर्चशो द्वितीये द्वे वै पुरुषः कपाले ते एव तत्संदधात्यृचमृचं तृतीये कृत्स्नमेवैनं तत्संभरति विपर्यस्येन्नाराशंसे तस्माद्विपर्यस्ता गर्भा जायन्ते। - शां.ब्रा. ३०.४

The story of Richeeka in puraanic texts is one of the most complicated stories from facts point of view. Richeeka is father of Shunahshepa whose story is well known in vedic and puraanic texts. His other name which appears in texts is Ajeegarta. He makes efforts to marry Satyavati, the daughter of Gaadhi. And to marry her, he has to make a payment of special horses. From Satyavati, he begets 3 sons, the eldest of whom is Jamadagni or Shunah Laanguula. The middle one is Shunah – shepa. Richeeka is prepared to sacrifice his middle son for the sake of getting few cows. He is the grandfather of Parashurama, who has got warrior qualities. The contents of this website try to unfold the mystery of this in context with vedic rituals. What is a cow? It is said that an object which can reflect(in a gross way of thinking) sun rays is cow. This earth is also called cow because it also reflects. What is horse? It is still not much clear. But it is certain that horse is symbolic of pervading in the world, and pervading in no time. From the whole story, it seems clear that Richeeka is interested in spreading his sphere of penances from vertical to horizontal, from jungle to the real society. That is why he begets a grandson who has got warior qualities. His wife Satyavati may mean that part of nature which does not fully lies in truth. The closest parallel of Richeek word in Vedas may be Rijeekam, which means linear. Therefore, the meaning of word Richeeka may be something between linearity and curvature of modern sciences. If one goes according to modern sciences, it will be difficult to find something linear in this world. Everything, even the rays of sun, are curved. The transition from brahmanical to warrior like qualities has been called curvature in Richeeka story. If the word meaning of Richeeka is derived from richa, or rigvedic mantra, then Satyavati, the wife o Richeeka, may be said to be the inner voice which gets distorted while coming down to the lowest outer level. Richa of Rigveda is said to be connected with giving a pre-guess of an event which has not yet taken place . The story of Richeeka points out how much efforts one has to make to keep his inner voice intact to the outermost level. It is hoped that unfoldment of the mysteries of Richeeka will help understanding the episode of Shunahshepa in Rigveda better.

ऋचीक

टिप्पणी : वैदिक साहित्य में ऋचीक शब्द प्रकट नहीं होता, वहां गो - ऋजीक, आविर्ऋजीक, भा - ऋजीक शब्द अवश्य प्रकट हुए हैं । इसके अतिरिक्त आjर्जीक, आर्जीका अर्थात् ऋजीक से उत्पन्न हुए, शब्द भी प्रकट होते हैं । अतः यह एक पहेली है कि पुराणकार को ऋचीक शब्द का निर्माण करने की आवश्यकता क्यों पडी । ऋचीक की पितामही तथा आप्रवानः की भार्या का नाम भी ऋची है । ऋचीक शब्द से ऐसा लगता है कि यह ऋग्वेद की ऋचाओं से सम्बन्धित हो सकता है । ऋचाओं का कार्य महदुक्थ रूपी रस समुद्र का निर्माण करना है ( शतपथ ब्राह्मण ९.५.२.१२, १०.१.१.५, १०.४.१.१३, १०.५.२.१) । उक्थ शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि सोए हुए प्राणों को जगाना और फिर उन्हें जगाए रखना उक्थ कहलाता है । प्राण उक् हैं और उनके लिए जो भोजन संस्कृत किया गया है, वह थम् है । अपना - अपना भोजन प्राप्त होने पर ही विभिन्न प्रकार के प्राण स्थाई रूप से जागे रह सकते हैं । नाम का कार्य भी सोए हुए प्राणों को जगाना होता है और महदुक्थ या ऋचा के बारे में कहा गया है कि यह नाम और रूप दोनों की समृद्धि के लिए है ( ऐतरेय ब्राह्मण १.४, २.२ ) । डा. लक्ष्मीश्वर झा का कहना है कि महदुक्थ इस प्रकार है जैसे एक मूर्तिकार मूर्ति का निर्माण करता है, अव्यक्त को रूप प्रदान करता है । इसके अतिरिक्त, सार्वत्रिक रूप से यह कहा गया है कि ऋचाएं भू लोक से, अग्नि से सम्बन्धित हैं जबकि साम द्यु लोक से, सूर्य से । ऋक् और साम के बीच एक सन्धि होती है । वह सन्धि अन्तरिक्ष लोक है जो यजुर्वेद का प्रतिनिधित्व करता है । दीक्षा के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.१.४.२, ३.२.१.५, तैत्तिरीय संहिता ६.१.३.१ आदि में सार्वत्रिक रूप से कहा गया है कि कृष्णाजिन चर्म में एक तो काले लोम होते हैं, एक श्वेत होते हैं । यह दोनों ऋक् और साम के प्रतीक हैं । इन दोनों की सन्धि रूप बभ्रु लोम होते हैं जो यजुर्वेद का प्रतीक हैं । दीक्षा के समय उन्हें स्पर्श करने का निर्देश है । यह सन्धि क्या है, यह जानना ऋचीक की कथा के संदर्भ में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । तैत्तिरीय संहिता ७.५.३.२ का कथन है कि सब कामों की प्राप्ति के लिए सन्धि/गौ का दोहन करे । डा. लक्ष्मीश्वर झा का भी यही कहना है कि भौतिक जगत में जहां जहां सूर्य की किरणें ऐसे स्थान पर आती हैं जो सन्धि स्थान हो, जहां से वे परावर्तित होने लगें, वह किरणें गौ कहलाती हैं । पृथिवी को भी गौ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उससे सूर्य की किरणें परावर्तित होती हैं । यहां यह ध्यान देने योग्य है कि पौराणिक कथाओं में ऋचीक ऋषि गायों की प्राप्ति के लिए कुछ भी कर सकता है - अपने पुत्र को बेच सकता है, उसका सिर काटने को उद्धत हो सकता है आदि ( यह उल्लेखनीय है कि गौ शब्द की व्युत्पत्ति गम् - गतौ धातु से होती है । गम् धातु गति, गच्छति और गम्यते अनेन, ज्ञान दोनों अर्थ में प्रयुक्त होती है ) । आगे यह जानने योग्य है कि भौतिक और आध्यात्मिक जगत में सन्धि का निर्माण कहां - कहां और कैसे होता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ६.४.५ का कथन है कि अह और रात्रि दो समुद्रों के समान हैं और इनके बीज सन्धि गाध प्रतिष्ठा है, तीर्थ है जहां इन दोनों समुद्रों में स्नान किया जा सकता है । यहां गाध प्रतिष्ठा का उल्लेख फिर ऋचीक ऋषि की कथा की ओर इंगित करता है जहां वह गाधि की कन्या सत्यवती को पत्नी रूप में प्राप्त करना चाहता है । अहोरात्र की सन्धि के पश्चात् दर्शपूर्ण मास रूपी सन्धि आती है और यह उल्लेखनीय है कि अहोरात्र रूपी सन्धि में अग्निहोत्र केवल यजुर्वेद द्वारा कल्पित होता है, जबकि दर्शपूर्णमास में ऋग्वेद और यजुर्वेद दोनों की प्रतिष्ठा रहती है । गाध का अर्थ होता है उथला, कम गहरा, जहां घुस कर सुविधापूर्वक स्नान किया जा सके । गाध शब्द को भी अच्छी प्रकार समझ लेना होगा क्योंकि इसे सन्धि के साथ जोडा गया है और वैदिक साहित्य में सन्धि को बताने के लिए गाध प्रतिष्ठा शब्द का भी उपयोग किया गया है । गवामयन सत्र के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १२.२.१.१ तथा गोपथ ब्राह्मण १.५.२ का कथन है कि २४वां दिन गाध प्रतिष्ठा है, अभिजित् दिन गाध प्रतिष्ठा है, विश्वजित् गाध प्रतिष्ठा है, महाव्रत गाध प्रतिष्ठा है आदि । इस कथन को समझने के लिए गवामयन सत्र की प्रकृति को समझ लेना होगा । इस यज्ञ में पहले २४ दिन ६-६ दिनों वाले ४ अभिप्लव नामक कृत्यों का सम्पादन किया जाता है और इसके पश्चात् ६ दिन का पृष्ठ~य षडह नामक कृत्य सम्पन्न होता है । इस प्रकार एक मास पूरा होता है । इस एक मास के कृत्यों की पुनरावृत्ति ६ मासों तक की जाती है । ६ मास पूर्ण होने पर विषुवत~ नामक एक दिन के मुख्य कृत्य का सम्पादन किया जाता है । इसके पश्चात् फिर अगले ६ मासों में यही कृत्य उल्टे क्रम से सम्पन्न किए जाते हैं । वर्ष के अन्त में महाव्रत नामक एक दिन के कृत्य का सम्पादन होता है । विषुवत~ अह से तीन या चार दिन पूर्व अभिजित् नामक एक दिवसीय कृत्य सम्पन्न होता है और विषुवत~ अह के तीन या चार दिन पश्चात् विश्वजित् नामक एक दिवसीय कृत्य का सम्पादन किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण १२.२.१.१ के कथन में २४वें अह, अभिजित् आदि कम से कम ४ गाध प्रतिष्ठाओं का उल्लेख है और यह स्वाभाविक ही है कि यह गाध प्रतिष्ठाएं अलग - अलग प्रकार की होंगी । २४वें दिन प्रतिदिन सायंकाल होने वाले उक्थ नामक कृत्य का लोप कर दिया जाता है । कहा गया है कि जो २४दिन अभिप्लव कृत्य के हैं, यह तो गहरा समुद्र है जिसमें देवता ही स्नान कर सकते हैं । इससे आगे पृष्ठ कहे जाने वाले ६ दिन मर्त्य स्तर के विकास के लिए हैं । और इस पृष्ठ नामक ६ दिवसीय कृत्य के छठे दिन कुछ विचित्र प्रकार के मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है जिन्हें सामान्य रूप से गाथाएं, प्रगाथाएं नाम दिया गया है । यह नाराशंसी गाथाएं हो सकती है, वालखिल्य ऋचाएं हो सकती हैं इत्यादि । इन गाथाओं को ऋत्विजों द्वारा जिस प्रकार विशेष ढंग से उच्चारण किया जाता है, और जिस प्रकार ऋचाओं को तोड मरोड कर इनकी रचना की जाती है, उससे प्रतीत होता है कि ऋत्विज गण भावातिरेक की एक ऐसी स्थिति में हैं जहां बोलना भी कठिन होता है, उल्टा - सुल्टा बोला जाता है । डा. लक्ष्मीश्वर झा का कथन है कि गाथा लौकिक वाणी को कहते हैं । वास्तविक यज्ञ की अवधि में गाथा का उच्चारण नहीं किया जा सकता, केवल ऋचाओं आदि का ही उच्चारण किया जा सकता है । अतः यह कहा जा सकता है कि २४वें दिन जो स्थिति गाध प्रतिष्ठा के रूप में प्राप्त हुई थी, ३०वें दिन उसकी चरम परिणति गाथाओं के रूप में होती है और पुराणों का ऋचीक ऋषि इन्हीं गाथाओं रूपी सत्यवती को पत्नी रूप में प्राप्त करना चाहता है । लेकिन पुराणों में गाधि एक शर्त जोड देता है कि पहले एक हजार श्यामकर्ण अश्व लाओ, फिर सत्यवती को पाओ । और ऋचीक ऋषि एक हजार अश्व प्राप्त करने के लिए ऋग्वेद ९.११२.४ से आरम्भ होने वाले? सूक्त अश्वो वोड~हा सुखं रथं इत्यादि का जप करके इन अश्वों को प्राप्त करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि सत्यवती वाक् को प्राप्त करने के लिए, धेना या गौ को प्राप्त करने के लिए अश्व के स्तर पर बृहद् स्तर पर साधना करना, स्वयं को शुद्ध करना आवश्यक है । प्रश्न यह है कि पुराणकार को ऋचीक के माध्यम से इस कथा को गढने की आवश्यकता क्यों पडी ? अनुमान यह है कि ऋग्वेद की एक ऋचा ३.५८.४ में गोऋजीक मधु का उल्लेख है । यास्क ने भा ऋजीकम् का अर्थ किया है भा प्रसिद्धम्, जो भा सिद्ध हो, संस्कृत हो । इसी प्रकार से गोऋजीकम् का अर्थ गो द्वारा संस्कृत किया जा सकता है । लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि गौ दुग्ध देती है, मधु नहीं देती । मधु विद्या का सम्पादन तो बृहदारण्यक उपनिषद २.५.१ आदि के अनुसार अश्व विद्या से ही होता है जहां कहा गया है कि यह पृथिवी सब भूतों के लिए मधु है और सब भूत पृथिवी के लिए मधु हैं, ऐसी स्थिति मधु विद्या के अन्तर्गत आती है । अतः यह संभव है कि इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए ही पुराणकार ने ऋचीक की कथा में अश्वों का समावेश किया हो । पहले अश्व ऋजीकम् होगा, उसके पश्चात् गो ऋजीकम् हो सकता है । अश्वमेध से तात्पर्य होता है अपने अन्दर - बाहर सब जगह अपने शत्रुओं को, दोषों को समाप्त कर देना, पूर्णतः शुद्ध स्थिति को प्राप्त हो जाना । अगला प्रश्न यह उठता है कि पुराणकार को गो ऋजीकम् शब्द के बदले ऋचीक शब्द का निर्माण करने की आवश्यकता क्यों पडी ? और क्या यह दोनों शब्द वास्तव में परस्पर सम्बन्धित हैं भी? ऋजीक शब्द ऋज या ऋजि धातुओं से निष्पन्न हुआ है । ऋजि धातु प्रसाधने अर्थ में और ऋजु अर्थ में ली जाती है । ऋज धातु गत्यर्थक है । ऋचीक की कथा में सत्यवती द्वारा चरुओं का विपर्यास किए जाने और ब्राह्मण के क्षत्रिय पुत्र उत्पन्न होने की सम्भावना पर सत्यवती अपने पति से अनुरोध करती है कि उसे अनृजु पुत्र नहीं चाहिए, ऋजु पुत्र चाहिए । इसका अर्थ यह है कि ऋजीक शब्द जिन अर्थों की ओर संकेत कर रहा है, उन अर्थों का समावेश किसी न किसी प्रकार से ऋचीक की कथा में भी किया गया है । ऋजु - अनृजु के संदर्भ में आधुनिक भौतिक विज्ञान की यह मान्यता उल्लेखनीय है कि यह सारा जगत अनृजु या वक्र है । दिल्ली से डा. एस.टी. लक्ष्मीकुमार ने सूचना दी है कि भौतिक विज्ञान में प्रयोगों द्वारा ऐसा पाया गया है कि किसी नक्षत्र या तारे से पृथिवी पर आने वाला प्रकाश ऋजु नहीं रहता, अपितु बीच में स्थित सूर्य उन किरणों को अपनी ओर कुछ आकर्षित कर लेता है और इस कारण वह किरणें वक्रित होकर पृथिवी तक पहुंचती हैं । इस कारण किसी तारे की पृथिवी से जितनी दूरी है, वह आभासी रूप में वास्तविकता से अधिक हो जाती है । और फिर अनुमान लगाया गया है कि यदि इस संदर्भ में यह स्थिति है तो यह सारा भौतिक जगत ही अनृजु, वक्र होना चाहिए । इन्दौर से डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने सूचित किया है कि यह सारी प्रकृति, भौतिक जगत द्यूत, चांस के सिद्धान्त पर कार्य करता है । अतः यह कहा जा सकता है कि जहां - जहां भी प्रकृति होगी, द्यूत का सिद्धान्त लागू होगा, वहां - वहां अनृजुता, वक्रता भी होगी । शतपथ ब्राह्मण १४.१.२.२२ का कथन है कि केवल ऊपर का लोक ही ऋजु है, सत्य ही ऋजु है । तो क्या ऋचीक या ऋजीक से तात्पर्य दोनों लोकों को ऋजु बनाने से है ? तैत्तिरीय आरण्यक ५.३.७ में इस पृथिवी के भी ऋजु होने की संभावना व्यक्त की गई है । ऐतरेय ब्राह्मण में २ स्थानों पर एक ही वाक्य की पुनरावृत्ति की गई है कि यत् कर्म क्रियमाणमृगभिवदति, अर्थात् वास्तविक कर्म वह है जिसको करने से पूर्व ही ऋचा उसका स्वरूप घोषित कर दे । यह निचले लोक को ऋजु बनाने की ओर पहला कदम होगा । अध्यात्म में ऋजु और अनृजु का अर्थ ऋचीक की वर्तमान कथा के अनुसार ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्व लिया गया है । क्षत्रियत्व में अपने शत्रुओं का नाश करने की आवश्यकता पडती है, ब्राह्मणत्व में सारा जगत मित्र हो जाता है । ऋग्वेद में सोम के लिए, मधु के लिए गो ऋजीकम् शब्द प्रकट हुआ है ( ऋग्वेद ३.५८.४, ६.२३.७, ७.२१.१ ) तथा अग्नि के लिए भा ऋजीकम् प्रकट हुआ है ( ऋग्वेद १.४४.३, ३.१.१२, ३.१.१४, १०.१२.२ ), लेकिन अश्व ऋजीकम् नहीं कहा गया है ।

प्रश्न यह है कि पुराणों का ऋचीक ऋषि ऋग्वेद से सम्बन्धित है या यजुर्वेद से ?अध्वर्यु शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि गौ केवल अपने अध्वर्यु रूपी वत्स के लिए ही दुग्ध देती है । अध्वर्यु यज्ञ को अध्वर, शत्रुओं से रहित, हिंसा से रहित बनाता है और यज्ञ में यजुर्वेद से सम्बद्ध ऋत्विजों में मुख्य ऋत्विज है । यदि भृगु - वंशी ऋचीक के रूप में विचार किया जाए तो पुराणों में यज्ञों में कहीं पर तो भृगु को होता ऋत्विज बनाया गया है, कहीं अध्वर्यु । अतः इस आधार पर ऋचीक की प्रकृति का निर्णय नहीं किया जा सकता । ऋचीक शब्द तो ऋचा की ओर संकेत देता है लेकिन वह पाना चाहता है गाधि - कन्या सत्यवती को और गाध: प्रतिष्ठा सन्धि है । यह सन्धि अग्निहोत्र की भांति शुद्ध रूप से यजुर्वेदीय हो सकती है, या दर्शपूर्णमास की भांति यजुर्वेद और ऋग्वेद का मिश्रण हो सकती है, या महाव्रत की भांति तीनों वेदों का मिश्रण हो सकती है । यह भी संभव है कि ऋचीक की कथा में इन सभी संधियों का क्रमशः समावेश किया गया हो क्योंकि महाव्रत नाम सन्धि उत्सव में ब्राह्मण यजमान द्वारा धारित क्षत्रियत्व का विशेष महत्त्व होता है और वह राजा का रूप धारण कर तीर से निशाना साधता है । क्या ऋचीक के पौत्र परशुराम के रूप में इसी क्षत्रियत्व को दर्शाया गया है, यह विचारणीय है । ऋचीक का पिता और्व तो स-गर, विष सहित का पालन करता है, उसे मनोमय कोश के स्तर पर उपस्थित दोषों से कोई लेना - देना नहीं है, यद्यपि उसका जन्म ऊरु, विस्तीर्ण स्थिति से हुआ है और वह जन्म लेते ही अपने तेज से हैहय क्षत्रियों का नाश कर देता है ।

ऋचीक ऋषि के तीन पुत्रों के नाम क्रमशः शुनःलाङ्ग®ल या जमदग्नि, शुनःशेप और शुनःपुच्छ कहे गए हैं । पहले २ पुत्रों का तो प्रचुरता से वर्णन मिलता है, लेकिन तीसरे का नहीं । शुनम् को विद्वानों ने विज्ञानमय कोश के समुद्र की स्थिति, शान्त अवस्था माना है और शेप इस विज्ञानमय कोश की स्थिति से नीचे मनोमय कोश की ओर क्षरण की स्थिति हो सकती है ( उदाहरण के लिए द्रष्टव्य वैदिक कोश, रचयिता : पं. चन्द्रशेसर उपाध्याय व अनिल कुमार उपाध्याय, नाग प्रकाशक, दिल्ली, १९९५ ) । ऋग्वेद ९.११२.४ की ऋचा में, जिसका ऋचीक ऋषि जप करता है, शेप को रोमण्वन्त भेद द्वय की कामना करने वाला कहा गया है । इसका अर्थ होगा कि वह २ स्तरों पर रोमांच की कामना करने वाला है । ऋचीक ऋषि गायों के बदले शुनःशेप की बलि देने को क्यों तैयार हो जाता है, यह विचारणीय है । तीसरा पुत्र शुनःपुच्छ माता को प्रिय है, अतः उसकी बलि नहीं दी जा सकती । माता सत्यवती वाक् रूप है और पुच्छ को प्रतिष्ठा कहा गया है । मयूर की पुच्छ विशेष रूप से प्रसिद्ध है । चूंकि मयूर सुने हुए मन्त्रों की प्रतिध्वनि के लिए प्रसिद्ध है, अतः हो सकता है कि पुच्छ भी विशेष रूप से प्रतिध्वनि का कार्य करने की प्रतीक हो । इसके विपरीत शुनःलाङ्ग®ल/लाङ्गल या हल है जो निचले कोशों का कर्षण करता है ।

प्रथम लेखन : २६-७-२००२ई.

Every word of vedas is full of mystery. The unravelling of the mystical meaning has become somewhat easier with the advancement of principles of modern science. Take for example the word Rina or debt. It is easier now to understand this word in terms of increase in entropy, or according to the second law of thermodynamics. According to this law, the entropy or the degree of disorder of this world is increasing. In simple words, energy in this cosmos can not be destroyed, it can only be changed from one form to another.But there is a second factor too.Until the steam in a steam engine is confined to a container, any work can be taken from it. But as soon as it is released in air, it becomes useless.Though there is no change in energy, but the disorder has increased. This gives us a clue to understand the word Rina in vedas.

It seems that in vedic literature, the word RINA is connected with gradual death. All of us are gradually proceeding towards that. The question is how to prevent that. One solution seems to be to let the consciousness be free from the bondage of gross matter part of individuality, just like Suparni freed herself from the bondage of Kadru in Puraanic mythology.Let us give chance for development of consciousness in gross matter, development of higher and higher stages of consciousness.The second solution seems to be to let us free ourselves from taking debt from gods, rishis and pitris or manes. Puraanic writers have suggested that let there be neither a donor nor an acceptor. Let both enjoy equally.This concept can be understood better with the advancement of technology in information communication. A single photon is somehow shared between two centers and whatever happens at one center, is automatically transferred to another. At the level of consciousness, we can say that let us feel the happiness and sorrow of others.There is an apparently strange mantra which is recited while accepting Dakshina from yajamana. The mantra says that neither there is donor nor acceptor etc. This mantra can be understood in the light of the above discussion.This website gives puraanic contexts of RINA or debt, comments and quotations from vedic texts.


ऋण

टिप्पणी : सामान्य व्यवहार की भाषा में ऋण का अर्थ है - कर्ज, जो धनराशि अथवा अन्य कोई वस्तु किसी रूप में किसी एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति से ली जाती है और जिसे समयानुसार लौटाना चाहिए । नहीं लौटाये जाने पर ऋणग्राही ऋणदाता का ऋणी ( कर्जदार ) हो जाता है । अग्निपुराण तथा विष्णुधर्मोत्तर पुराण में उपर्युक्त प्रकार के ऋण से सम्बन्धित व्यवहार - विचार का वर्णन किया गया है । परन्तु आज के युग के मनीषियों का दर्शन तथा आज का भौतिक विज्ञान हमें वैदिक ऋण शब्द को और अधिक समझने के लिए व्यापक आधार प्रदान करता है । ऋग्वेद २.२८.९ में वरुण से प्रार्थना की गई है कि वह ऋणों को दूर करे । बहुत सी उषाएं अभी प्रकट होने से बची हुई हैं । हे वरुण, उनमें हमारे जीवन को अनुशासित करो, जीवन की रक्षा करो । ऋग्वेद १०.१२७.७ में कहा गया है कि रात्रि का तम हमें हानि न पहुंचाए । हे उषा, उसे ऋण की भांति दूर करो । ऋग्वेद ४.२३.७ में भी ऋण दूर करने वाले उग्र इन्द्र के साथ किसी प्रकार से अज्ञात उषाओं को जोडा गया है । ऋग्वेद ५.३०.१४ में ऋणंचय राजा के लिए पाप वाली रात्रि में उषा प्रकट होती है । उषा शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि जड पदार्थ में जीवन का प्रकट होना सबसे पहली उषा का प्रकट होना है । फिर जीवन में चेतना शक्ति जितनी प्रबल होगी, उसको प्रकट करने वाली उषा भी उतनी ही विकसित होगी । सामान्य प्रकृति के स्तर पर हम देख रहे हैं कि हमारी पृथिवी पर सूर्य की किरणों से जीवन का कितना विकास हो रहा है । पृथिवी का कण - कण जीवन पाने के लिए लालायित है । यह कहा जा सकता है कि पृथिवी पर जीवन के इस विकास की चरम सीमा मनुष्य में प्रकट हुई है । और वैदिक तथा पौराणिक साहित्य इस मनुष्य से भी आगे चेतना के विकास की संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं । श्री अरविन्द ने अपने लेखन में इसको सुपर ह्यूमन, उच्चतर मानव का नाम दिया है । चेतना के आगे विकास में हमारे पाप, अज्ञान में किए गए कर्म बाधक बनते हैं । चेतना का आगे विकास तभी संभव है जब वर्तमान में उपलब्ध चेतना पर से अनावश्यक कार्यों का बोझ हटा दिया जाए । अभी स्थिति यह है कि जितनी चेतना हमें नैसर्गिक रूप में प्राप्त हुई है, हमारे अनुचित आचार - विचार के कारण वह न्यूनता की ओर बढ रही है, मृत्यु की ओर बढ रही है, ऋणात्मकता की ओर बढ रही है । यही नहीं, हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि पृथिवी पर जीवन के रूप में जितनी भी चेतना का विकास होता है, वह सब मृत्यु की ओर उन्मुख है, शाश्वत नहीं है । पुराणों में इस ऋणात्मकता को समाप्त करने के लिए मुख्य रूप से तीन और गौण रूप से चार या पांच ऋणों को चुकाने के उल्लेख आते हैं । मुख्य तीन ऋणों में देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋणों के उल्लेख आते हैं और किन्हीं स्थानों पर इनके अतिरिक्त मनुष्य ऋण या अतिथि ऋण तथा आत्म ऋण आदि के भी उल्लेख हैं । और विशेष तथ्य यह है कि पुराणकारों ने इस तथ्य की वैदिक साहित्य से नकल करके ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया है, उसको काटने - छांटने का, और अधिक समझाने का प्रयास ही नहीं किया है । इसका अर्थ है कि उन्होंने इस कथन के गूढ तथ्यों को प्रत्यक्ष रूप से और अधिक स्पष्ट करना उचित नहीं समझा है । वैदिक साहित्य में यह कथन आलम्भनीय पशु के अङ्गों के अवदान के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता ६.३.१०.५, शतपथ ब्राह्मण १.२.२.१ आदि में प्राप्त होता है । अथर्ववेद ६.११७.३ में भी इसका मूल खोजा जा सकता है जहां देवयान और पितृयान लोकों के मार्ग को अनृण बनाने की प्रार्थना की गई है । यज्ञ में पशु का वध करके उसके मन, १० प्राणों और अन्य अङ्गों की देवों हेतु अग्नि में आहुति देने की कल्पना की गई है । इसे अवदान नाम दिया गया है, अर्थात् जो कुछ हमने देवों से ऋण लिया था, उसका एक स्वल्प अंश हम वापस लौटा रहे हैं । सभी अङ्ग आहुति देने लायक नहीं होते, हृदय आदि कुछ विशेष अङ्गों से ही अंश ग्रहण करके उनकी आहुति दी जाती है । इस संदर्भ में कहा गया है कि पूरे अङ्ग की आहुति न दे, अपितु यावन् मात्र की, यव मात्र की आहुति दे । सामान्य रूप से यव का अर्थ अल्प लिया जाता है । लेकिन डा. फतहसिहं की विचारधारा में यव २ भागों के जुडने से बनता है । अतः यह कहा जा सकता है कि किसी अङ्ग के उतने अंश की ही आहुति देनी है जिसकी चेतना उच्चतर चेतना से, समष्टि चेतना से, देवों की चेतना से जुड चुकी हो । ऐसा करने से ऋण से मुक्ति होती है । लेकिन अवदान के अतिरिक्त जो अङ्ग शेष बचा रहता है, और वह अङ्ग जिनसे अवदान लिया ही नहीं जाता, उनका क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं है । तैत्तिरीय संहिता ६.३.१०.४ में कहा गया है कि पहले हृदय से अवदान लिया जाता है, फिर जिह्वा से, फिर वक्ष से । इसका कारण यह है कि जो हृदय में आता है, वह बाद में जिह्वा बोलती है और जो जिह्वा बोलती है, वह उर/वक्ष के द्वारा बोला जाता है । एक संभावना यह है कि तीन अवदानों के रूप में यहां देवऋण, ऋषि ऋण और पितृऋण छिपे हैं । शतपथ ब्राह्मण १.७.२.२ में ऋषि ऋण के संदर्भ में अनुब्रूहि शब्द का उल्लेख आता है । अतः तैत्तिरीय संहिता में जो जिह्वा द्वारा बोलने का उल्लेख है, वह ऋषियों के लिए अवदान से सम्बन्धित हो सकता है । ऋषि का कार्य श्रुति को, श्रुत ज्ञान को स्मृति में उतारना, उसका अनुवाचन करना हो सकता है । फिर तीसरे स्तर पर वह वक्ष पर आ जाता है । क्या वक्ष पितरों के ऋणों से सम्बन्धित हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । ऋग्वेद २.२४.१३ में ऋण को वश के अनु रखने की कामना की गई है । कर्मकाण्ड में वशा गौ उसे कहा जाता है जो वन्ध्या, गर्भ न धारण करने वाली गौ होती है । अन्यथा वश को शव से विपरीत अर्थों में माना जा सकता है । शव - जिसमें चेतना का विकास नहीं हुआ है । वक्ष को डा. फतहसिंह के अनुसार अङ्ग्रेजी के वैक्सिंग एंड वेनिंग, वृद्धि और ह्रास से भी समझने का प्रयत्न किया जा सकता है । पितरों के ऋण से मुक्त होने के लिए तन्तु का विस्तार या पुत्र और श्राद्ध, यह दो अपेक्षित हैं । तैत्तिरीय संहिता के कथन को इस रूप में भी समझा जा सकता है कि श्रुत ज्ञान की प्रतिध्वनि तीन स्तरों पर होनी चाहिए, यदि ऐसा होता है तो वह तीन ऋणों से मुक्त हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण १.७.२.७ में ४ अवदानों की व्याख्या यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली के आधार पर की गई है । ४ अवदानों की व्याख्या अनुवाक्या, याज्या, वषट्कार व देव विशेष को दी जाने वाली हवि के रूप में की गई है । ब्रह्माण्ड के रूपक में द्युलोक या द्यौ या असौ की तृप्ति अनुवाक्या मन्त्र बोलने से होती है, पृथिवी या इयं की तृप्ति याज्या द्वारा होती है, सूर्य का ६ ऋतुओं से मिलन वषट्कार कहलाता है । अतः अवदान का वास्तविक स्वरूप क्या है, यह निश्चय करना शेष है ।

अथर्ववेद ६.११८.१ में उग्रंपश्या और उग्रजिता अप्सराओं से ऋण दूर करने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद २.२३.११, ४.२३.७ व ८.६१.१२ में भी उग्र को ऋण को समाप्त करने वाला कहा गया है । इस संदर्भ में उग्र शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है जहां उग्र को शव अवस्था से आगे, जड तत्त्व में, भूतों में चेतना उत्पन्न करने वाला कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.१६ में कद्रू और सुपर्णी का आख्यान है । इस संदर्भ में कहा गया है कि पुरुष जन्म लेते ही मृत्यु का ऋणी होता है । जब वह इस प्रकार यजन करता है जैसे सुपर्णी ने देवों के लिए स्वयं का क्रय किया, तब वह मृत्यु से स्वयं का क्रय करता है । डा. फतहसिंह के अनुसार कद्रू स्थिर तत्त्व है जबकि सुपर्णी गतिमान्, चेतनावान् पक्ष है । सामान्य स्थिति में चेतना पक्ष स्थिर, जड तत्त्व का दास होता है, वैसे ही जैसे आख्यान में सुपर्णी कद्रू की दासी बन गई थी । इस स्थिति से उबरने का एकमात्र उपाय यह है कि सोम पर अधिकार किया जाए और उससे देवों का यजन किया जाए । ऋग्वेद ८.३२.१६ के अनुसार सोमपान करने वालों, जैसे इन्द्र पर ब्रह्म का ऋण नहीं चढता । ऋग्वेद २.२८.९ में ऋण के संदर्भ में अन्यकृत भोजन का निषेध है । ऋग्वेद ९.१०८.१२-१३ सूक्त ऋणंचय ऋषि तथा पवमान सोम देवता के हैं । इनमें ९.१०८.१२ में अमर्त्य सोम द्वारा ज्योति द्वारा तम का तापन करने का उल्लेख है ।

ऋग्वेद २.२७.४ में आदित्य को, ४.२३.७ तथा १०.८९.८ में इन्द्र को, ९.४७.२ में सोम को, २.२३.११ तथा २.२३.१७ में बृहस्पति को, १.८७.४ में मरुद्गण को, तैत्तिरीय आरण्यक २.६.१-२ तथा अथर्ववेद ६.११९.१ में वैश्वानर को तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.१२.३ में अग्नि को ऋण मुक्त करने वाले देवों के रूप में स्मरण किया गया है । इनके लिए प्रायः ऋणया शब्द का प्रयोग किया गया है । यह उल्लेखनीय है कि पुराणों में ऋणदाता व ऋणग्राही के लिए उत्तमर्ण व अधमर्ण शब्दों का प्रयोग हुआ है ।

ब्रह्म पुराण में ऋण को श्रौत व स्मार्त भागों में विभक्त किया गया है । ऋण का यह विभाजन प्रत्यक्ष रूप में अन्यत्र नहीं मिलता । हो सकता है कि पुराणकार ने ऋषि ऋण और पितृऋण को यह नाम दिए हों ।

तैत्तिरीय ब्राह्मण २.२.५.५ आदि में दक्षिणा के दाता व प्रतिगृहीता के संदर्भ में प्रश्न किया गया है कि दक्षिणा या दान किस प्रकार दिया - लिया जाए कि प्रतिगृहीता दाता का ऋणी न बन पाए । इसके उपाय के रूप में जो मन्त्र बोला जाता है, उसमें कहा गया है कि कौन लेता है, कौन देता है, काम ही दाता है, काम ही प्रतिगृहीता है आदि । लगता है कि इसी कथन की व्याख्या के लिए महाभारत शान्तिपर्व १९९ में एक आख्यान रचा गया है । जापक ब्राह्मण द्वारा राजा को पुण्यों का प्रतिग्रह/दान देने का प्रयत्न किया जाता है जिस पर राजा आपत्ति करता है कि उसका धर्म तो दान देना है, वह कैसे दान ले सकता है । राजा के सामने विरूप व विकृत नामक २ ब्राह्मण प्रकट हो जाते हैं । राजा इस समस्या का हल इस प्रकार निकालता है कि जापक ब्राह्मण और राजा प्रतिग्रह का समान रूप से उपभोग करे । ऐसा हल निकलते ही विरूप व विकृत अदृश्य हो जाते हैं और कहते हैं कि वह तो काम और क्रोध हैं जो इस रूप में प्रकट हुए थे । यद्यपि पूरे आख्यान का निहितार्थ अन्वेषणीय है, लेकिन इस आख्यान में एक विशेष तथ्य समान रूप से उपभोग करने का है । सामान्य दृष्टि से तो यह गौण लगता है, लेकिन आधुनिक भौतिक विज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर यह तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है । तापगतिकी या थर्मोडायनेमिक्स के द्वितीय सार्वत्रिक नियम के अनुसार इस संसार की अव्यवस्था की माप में निरन्तर वृद्धि हो रही है । इसका अभिप्राय यह है कि, जैसा कि उषा शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, संसार की ऊर्जा कार्य करने से नष्ट तो नहीं होती, केवल रूपान्तरित हो जाती है । लेकिन वह ऊर्जा क्रमिक रूप से उस अव्यवस्था को जा रही है जहां उससे कोई काम लेना संभव नहीं रहेगा । उदाहरण के लिए, वाष्प के इंजन में जब तक वाष्प उसके सिलिण्डर में बंद रहती है, एक सीमित स्थान में बद्ध रह कर व्यवस्थित रहती है, उससे कोई भी कार्य लिया जा सकता है । जब वह वाष्प वायुमण्डल में फैल जाती है, अव्यवस्थित हो जाती है तो वह कार्य करने के लिए बेकार हो जाती है । अतः प्रश्न ऊर्जा का नहीं है, अव्यवस्था का है । इसमें इंजन का सिलिण्डर दाता है, वायुमण्डल प्रतिगृहीता है । भौतिक विज्ञान में ऐसा कोई उपाय नहीं है जहां कार्य करने में इस अव्यवस्था को रोका जा सके । लेकिन वैदिक विज्ञान यह उपाय प्रस्तुत करता है कि न दाता हो, न प्रतिगृहीता हो, दोनों समान रूप से भोक्ता हों तो इस ऋण की स्थिति से बचा जा सकता है । हाल ही में सूचना टेक्नालाजी में ऐसे प्रयोग सफलतापूर्वक हो रहे हैं और बाजार में भी आने लगे हैं जहां प्रकाश के एक कण, फोटोन का ध्रुवीकरण या पोलेराइजेशन करके उसे परोक्ष रूप से २ भागों में बांट दिया जाता है । यह ध्रुवीकरण क्या होता है, अभी स्पष्ट रूप से कहना संभव नहीं है । कुछ कांच विशेष ऐसे होते हैं जिनमें से यदि प्रकाश को भेजा जाए तो वह दो भागों में बंट जाता है । सूचना प्रेषण के लिए एक भाग को प्रतिगृहीता के पास भेजा जाता है और दूसरा स्वयं के पास रहता है । वास्तव में यह प्रकाश २ भागों में बंटे रहने पर भी किसी प्रकार से जुडा रहता है, एक इकाई की तरह ही व्यवहार करता है । यदि एक भाग के साथ कोई छेडछाड की जाती है, तो दूसरे भाग में भी वह परिलक्षित हो जाती है । मनोवैज्ञानिक स्तर पर तो इस घटना की पुनरावृत्ति सरलता से देखने को मिलती ही है । एक व्यक्ति के दुःख या सुख से दूसरा व्यक्ति दूर बैठे हुए भी परिचित हो जाता है । या एक व्यक्ति दूसरे के विचार जान लेता है ।

ऋग्वेद १०.३४.१० तथा अथर्ववेद ६.११९.१ में कितव/जुआरी द्वारा ऋणयुक्त हो जाने का उल्लेख आता है । इन्दौर से डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने कितव/द्यूत की व्याख्या इस प्रकार की है कि प्रकृति में जो घटनाएं घट रही हैं, वह सब द्यूत रूप हैं, चांस हैं, हो भी सकती हैं, नहीं भी । अतः यह स्वाभाविक है कि ऋग्वेद की इस ऋचा के कथनानुसार प्रकृति भी ऋणयुक्त हो । ऋणमुक्त होने के लिए द्यूत की अवस्था से ऊपर उठना होगा । जैसा कि कृत की टिप्पणी में कहा जा चुका है, द्वापर युग में केवल द्यूत की स्थिति रहती है, त्रेता युग में यज्ञ रूप क्रिया परक स्थिति, सम्यक् क्रिया प्रधान रहती है तथा कृतयुग में सत्यपरक स्थिति प्रधान रहती है । देव ऋण से मुक्त होने के लिए वैदिक व पौराणिक साहित्य में यज्ञ को उपाय बताया गया है ।

पौराणिक साहित्य में पितृऋण से उऋण होने के लिए पुत्र के महत्त्व का अतिशयोक्ति पूर्वक वर्णन किया गया है । इस अतिशयोक्ति का मूल शाङ्खायन श्रौत सूत्र १५.१७ तथा ऐतरेय ब्राह्मण ७.१३ में खोजा जा सकता है जहां नारद राजा हरिश्चन्द्र को पुत्र प्राप्ति के लिए प्रेरित करते हैं और पुत्र को ज्योति कहते हैं । शतपथ ब्राह्मण १.७.२.४ तथा तैत्तिरीय आरण्यक १०.६३ में भी पितरों के ऋण से उऋण होने के लिए प्रजनन का निर्देश है ।

पुराणों में ऋण पर ब्याज का वर्णन भी मिलता है जिसे वर्धमान ऋण कहा जाता है । संस्कृत भाषा में ब्याज को कुसीद कहा जाता है और ऋग्वेद ८.८१ से ८.८३ सूक्तों का ऋषि कुसीदी काण्व है । गोपथ ब्राह्मण २.४.८ में यम में कुसीद होने का उल्लेख है । महानारायणोपनिषद २०.१२ में शरीर को यज्ञ और शमल या पाप, दोष को कुसीद कहा गया है और कामना की गई है कि हमसे द्वेष करने वाला इसमें बैठे । श्रौत सूत्रों में सार्वत्रिक रूप से पारिप्लव यज्ञ के ७वें दिन असित धान्व राजा, कुसीद संज्ञक असुर उसकी प्रजा कहे गए हैं और माया वेद की प्राप्ति होती है ( शाङ्खायन श्रौत सूत्र १६.२.२०, आश्वलायन श्रौत सूत्र १०.७.७, शतपथ ब्राह्मण १३.४.३.११) । बौधायन श्रौत सूत्र ४.११, १७.३८, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.२४.१५ आदि में भी कुसीद का उल्लेख आता है । अग्नि पुराण आदि में धान्य, रस/रथ आदि पर अधिकतम वृद्धियों के निर्देश इस संबंध में विचारणीय हैं ।

वैदिक साहित्य में अर्ण:, अर्णव आदि शब्द प्रकट होते हैं । अर्णव शब्द की व्युत्पत्ति भी ऋण शब्द के समान ही ऋ - गतौ धातु के आधार पर की जाती है । भाष्यकारों ने अर्णव का अर्थ प्रायः जल को धारण करने वाले मेघ अथवा समुद्र के रूप में किया है । ऋग्वेद की ऋचाओं में अर्णव और समुद्र शब्दों का साथ - साथ उल्लेख भी आया है । ऋचाओं में इन्द्र द्वारा अर्णव का उब्जन करने के, उसके जल को नीचे की ओर प्रसारित करने के उल्लेख आते हैं । शतपथ ब्राह्मण में प्राणों को अर्णव कहा गया है । ऋण के सम्बन्ध में अर्णव से क्या सूचना प्राप्त की जा सकती है, यह अन्वेषणीय है ।

अथर्ववेद १९.४५.१ में चक्षुओं में अञ्जन के संदर्भ में कहा गया है कि ऋण से ऋण ग्रहण करने की भांति( संनयन ) कृत्या को कृत्या उत्पन्न करने वाले के घर में ले जाए । यह कथन महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है । यदि भौतिक विज्ञान की दृष्टि से ऋण को अव्यवस्था माना जाए तो अव्यवस्था की तो कोई सीमा नहीं है । एक अव्यवस्था से कार्य लेते हुए उससे बडी अव्यवस्था उत्पन्न की जा सकती है । उदाहरण के लि, पहले वाष्प के इंजन में बंद वाष्प को वायुमण्डल में छोडकर उससे काम लिया जा सकता है । फिर वायुमण्डल की वाष्प को आकाश में निर्वात में छोडकर उससे फिर काम लिया जा सकता है । शांखायन श्रौत सूत्र में पुत्र के संदर्भ में ऋण के संनयन का उल्लेख आता है । ऋग्वेद ८.४७.१७ में भी ऋण के संनयन का उल्लेख है ।

प्रथम लेखन : २६-१२-२००४ई.


संदर्भ

ऋण

*स हि स्वसृत् पृषदश्वो युवा गणो ऽया ईशानस्तविषीभिरावृतः। असि सत्य ऋणयावानेद्यो ऽस्या धियः प्राविताथा वृषा गणः ॥ - ऋ. १.८७.४

*प्रति घोराणामेतानामयासां मरुतां शृण्व आयतामुपब्दिः। ये मर्त्यं पृतनायन्तमूमैर्ऋणावानं न पतयन्त सर्गैः ॥ - ऋ. १.१६९.७

*अनानुदो वृषभो जग्मिराहवं निष्टप्ता शत्रुं पृतनासु सासहिः। असि सत्य ऋणया ब्रह्मणस्पत उग्रस्य चिद् दमिता वीळुहर्षिणः ॥ - ऋ. २.२३.११

*विश्वेभ्यो हि त्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नःसाम्नः कविः। स ऋणचिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि ॥ - ऋ. २.२३.१७

*उताशिष्ठा अनु शृण्वन्ति वह्नयः सभेयो विप्रो भरते मती धना। वीळुद्वेषा अनु वश ऋणमाददिः स ह वाजी समिथे ब्रह्मणस्पतिः ॥ - ऋ. २.२४.१३

*धारयन्त आदित्यासो जगत् स्था देवा विश्वस्य भुवनस्य गोपाः। दीर्घाधियो रक्षमाणा असुर्यमृतावानश्चयमाना ऋणानि ॥ - ऋ. २.२७.४

*पर ऋणा सावीरध मत्कृतानि माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम्। अव्युष्टा इन्नु भूयसीरुषास आ नो जीवान् वरुण तासु शाधि ॥ - ऋ. २.२९.९

*मा कस्य यक्षं सदमिद्ध्रुरो गा मा वेशस्य प्रमिनतो मापेः। मा भ्रातुरग्ने अनृजोर्ऋणं वेर्मा सख्युर्दक्षं रिपोर्भुजेम ॥ - ऋ. ४.३.१३

*द्रुहं जिघांसन् ध्वरसमनिन्द्रां तेतिक्ते तिग्मा तुजसे अनीका। ऋणा चिद् यत्र ऋणया न उग्रो दूरे अज्ञाता उषसो बबाधे ॥ - ऋ. ४.२३.७

*भद्रमिदं रुशमा अग्ने अक्रन् गवां चत्वारि ददतः सहस्रा। ऋणंचयस्य प्रयता मघानि प्रत्यग्रभीष्म नृतमस्य नृणाम् ॥ - ऋ. ५.३०.१२

*औच्छत् सा रात्री परितक्म्या याँ ऋणंचये राजनि रुशमानाम्। अत्यो न वाजी रघुरज्यमानो बभ्रुश्चत्वार्यसनत् सहस्रा ॥ - ऋ. ५.३०.१४

*अध स्मास्य पनयन्ति भासो वृथा यत् तक्षदनुयाति पृथ्वीम्। सद्यो यः स्पन्द्रो विषितो धवीयानृणो न तायुरति धन्वा राट् ॥ - ऋ. ६.१२.५

*इयमददाद् रभसमृणच्युतं दिवोदासं वध्र्यश्वाय दाशुषे। या शश्वन्तमाचखादावसं पणिं ता ते दात्राणि तविषा सरस्वति ॥ - ऋ. ६.६१.१

*न नूनं ब्रह्मणामृणं प्राशूनामस्ति सुन्वताम्। न सोमो अप्रता पपे ॥ - ऋ. ८.३२.१६

*यथा कलां यथा शफं यथ ऋणं संनयामसि। एवा दुष्ष्वप्न्यं सर्वमाप्त्ये सं नयामस्यनेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥ - ऋ. ८.४७.१७

*उग्रं युयुज्म पृतनासु सासहिमृणकातिमदाभ्यम्। वेदा भृमं चित् सनिता रथीतमो वाजिनं यमिदू नशत् ॥ - ऋ. ८.६१.१२

*आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं चित्रं ग्राभं सं गृभाय। महाहस्ती दक्षिणेन ॥ (ऋषिः कुसीदी काण्वः) - - - - - - ऋ. ८.८१.१

*आ प्र द्रव परावतो ऽर्वावतश्च वृत्रहन्। मध्वः प्रति प्रभर्मणि ॥ (ऋषिः कुसीदी काण्वः) - ऋ. ८.८२.१

*देवानामिदवो महत् तदा वृणीमहे वयम्। वृष्णामस्मभ्यमूतये ॥ - - - - - (ऋषिः कुसीदी काण्वः) - ऋ. ८.८३.१

*कृतानीदस्य कर्त्वा चेतन्ते दस्युतर्हणा। ऋणा च धृष्णुश्चयते ॥ - ऋ. ९.४७.२

*वृषा वि जज्ञे जनयन्नमर्त्यः प्रतपञ्ज्योतिषा तमः। स सुष्टुतः कविभिर्निर्णिजं दधे त्रिधात्वस्य दंससा ॥ स सुन्वे यो वसूनां यो रायामानेता य इळानाम्। सोमो यः सुक्षितीनाम् ॥ (ऋषिः ऋणंचयो राजर्षिः) - ऋ. ९.१०८.१२-१३

*पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥ - ऋ. ९.११०.१

*जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्व स्वित्। ऋणावा बिभ्यद्धनमिच्छमानो ऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति ॥ - ऋ. १०.३४.१०

*त्वं ह त्यदृणया इन्द्र धीरो ऽसिर्न पर्व वृजिना शृणासि। प्र ये मित्रस्य वरुणस्य धाम युजं न जना मिनन्ति मित्रम् ॥ - ऋ. १०.८९.८

*उप मा पेपिशत् तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव यातय ॥ - ऋ. १०.१२७.७

*यथा कलां यथा शफं यथर्णं संनयन्ति। एवा दुष्वप्न्यं सर्वं द्विषते सं नयामसि ॥ - अथर्ववेद ६.४६.३

*अपमित्यमप्रतीत्तं यदस्मि यमस्य येन बलिना चरामि। इदं तदग्ने अनृणो भवामि त्वं पाशान् विचृतं वेत्थ सर्वान् ॥ इहैव सन्तः प्रति दद्म एनज्जीवा जीवेभ्यो नि हराम एनत्। अपमित्य धान्यं यज्जघसाहमिदं तदग्ने अनृणो भवामि ॥ अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिन् तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान् पथो अनृणा आ क्षियेम ॥ - अ. ६.११७.१-३

*यद्धस्ताभ्यां चकृम किल्बिषाण्यक्षाणां गत्नुमुपलिप्समानाः। उग्रंपश्ये उग्रजितौ तदद्याप्सरसावनु दत्तामृणं नः ॥ उग्रंपश्ये राष्ट्रभृत् किल्बिषाणि यदक्षवृत्तमनु दत्तं न एतत्। ऋणान्नो नर्णमेर्त्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुरायत् ॥ यस्मा ऋणं यस्य जायामुपैमि यं याचमानो अभ्यैमि देवाः। ते वाचं वादिषुर्मोत्तरां मद्देवपत्नी अप्सरसावधीतम् ॥ - अ. ६.११८.१-३

*यददीव्यन्नृणमहं कृणोम्यदास्यन्नग्न उत संगृणामि। वैश्वानरो नो अधिपा वसिष्ठ उदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम् ॥ वैश्वानराय प्रति वेदयामि यद्यृणं संगरो देवतासु। स एतान् पाशान् विचृतं वेद सर्वानथ पक्वेन सह सं भवेम ॥ वैश्वानरः पविता मा पुनातु यत् संगरमभिधावाम्याशाम्। अनाजानन् मनसा याचमानो यत् तत्रैनो अप तत् सुवामि ॥ - अ. ६.११९.१-३

*ऋणादृणमिव संनयन् कृत्यां कृत्याकृतो गृहम्। चक्षुर्मन्त्रस्य दुर्हार्दः पृष्टीरपि शृणाञ्जन। - अ. १९.४५.१

*यद्वेव देवताया आदिशति। यावतीभ्यो ह वै देवताभ्यो हवींषि गृह्यन्ते, ऋणमु हैव तास्तेन मन्यन्ते - यदस्मै तं कामं समर्द्धयेयुः, यत्काम्या गृह्णाति। - शतपथ ब्राह्मण १.१.२.१९

*अवदान क्लृप्तिः :- ऋणं ह वै जायते योऽस्ति। स जायमान एव देवेभ्य ऋषिभ्यः पितृभ्यो मनुष्येभ्यः। स यदेव यजेत - तेन देवेभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति - यदेनान् यजते, यदेभ्यो जुहोति। अथ यदेवानुब्रुवीत - तेन ऋषिभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति - ऋषीणां निधिगोप इति ह्यनूचानमाहुः। अथ यदेव प्रजामिच्छेत - तेन पितृभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति - यदेषां सन्तताऽव्यवच्छिन्ना प्रजा भवति। अथ यदेव वासयेत - तेन मनुष्येभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति - यदेनान् वासयते, यदेभ्योऽशनं ददाति। स य एतानि सर्वाणि करोति, स कृतकर्मा, तस्य सर्वमाप्तं, सर्वं जितम्। स येन देवेभ्य ऋणं जायते - तदेनांस्तदवदयते - यद्यजते। अथ यदग्नौ जुहोति - तदेनांस्तदवदयते। तस्माद् यत् किञ्चाग्नौ जुह्वति तदवदानं नाम। तद्वै चतुरवत्तं भवति। - - - शतपथ ब्राह्मण १.७.२.१-७

*धिष्ण्य पदार्थ विधानं : ऋणं ह वै पुरुषो जायमान एव मृत्योरात्मना जायते। स यद्यजते - यथैव तत् सुपर्णी देवेभ्य आत्मानं निरक्रीणीत - एवमेवैष एतन्मृत्योरात्मानं निष्क्रीणीते। - शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.१६

*या व्याघ्रं विषूचिकोभौ वृकं च रक्षति। श्येनं पतत्रिणं सिंहं सेमं पात्वंहसः ॥ यदापिपेष मातरं पुत्रः प्रमुदितो धयन्। एतत्तदग्ने अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ मया ॥ - मा.श. १२.७.३.२१

*पारिप्लवाख्यानब्राह्मणम् : अथ सप्तमेऽहन्नेवमेव। एतास्विष्टिषु संस्थितासु। एषैवावृदध्वर्यविति। हवै होतरित्येवाध्वर्युः। असितो धान्वो राजेत्याह। तस्यासुरा विशः। त इम आसत इति। कुसीदिन उपसमेता भवन्ति। तानुपदिशति। माया वेदः सोऽयमिति। - मा.श. १३.४.३.११

*कूष्माण्डहोमगत मन्त्राः :- यत्कुसीदमप्रतीत्तं मयेह येन यमस्य निधिना चरामि। एतत्तदग्ने अनृणो भवामि जीवन्नेव प्रति तत्ते दधामि ॥ - तै.आ. २.३.१

*यददीव्यन्नृणमहं बभूवादित्सन्वा संजगर जनेभ्यः। अग्निर्मा तस्मादिन्द्रश्च संविदानौ प्रमुञ्चताम् ॥ यद्धस्ताभ्यां चकर किल्बिषाण्यक्षाणां वग्नुमुपजिघ्नमानः। उग्रंपश्या च राष्ट्रभृच्च तान्यप्सरसावनुदत्तामृणानि ॥ उग्रंपश्ये राष्ट्रभृत्किल्बिषाणि यदक्षवृत्तमनुदत्तमेतत्। नेन्न ऋणानृणव इत्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुराय। - तै.आ. २.४.१

*वैश्वानराय प्रतिवेदयामो यदीनृणं संगरो देवतासु। स एतान्पाशान्प्रमुचन्प्रवेद स नो मुञ्चातु दुरितादवद्यात् ॥ - तै.आ. २.६.१

*यदन्नमद्म्यनृतेन देवा दास्यन्नदास्यन्नुत वाऽकरिष्यन्। यद्देवानां चक्षुष्यागो अस्ति यदेव किंच प्रतिजग्राहमग्निर्मा तस्मादनृणं कृणोतु ॥ - तै.आ. २.६.२

*य एवं विद्वान्महारात्र उषस्युदिते व्रजंस्तिष्ठन्नासीनः शयानोऽरण्ये ग्रामे वा यावत्तरसं स्वाध्यायमधीते सर्वाfल्लोकाञ्जयति सर्वाfल्लोकाननृणोऽनुसंचरति तदेषाऽभ्युक्ता - अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिंस्तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयाना उत पितृयाणाः सर्वान्पथो अनृणा आक्षीयेमेति। - तै.आ. २.१५.१

*प्रजननं वै प्रतिष्ठा लोके साधु प्रजायास्तन्तुं तन्वानः पितृणामनृणो भवति तदेव तस्या अनृणं तस्मात्प्रजननं परमं वदन्ति - तैत्तिरीय आरण्यक १०.६३.

*सैषा दिगपराजिता। तस्मैदेतस्यां दिशि यतेत वा यातयेद्वेश्वरो हानृणाकर्तोः - ऐ.ब्रा. १.१४

*प्रउग शस्त्रम् : इयमददाद्रभसमृणच्युतमिति प्रउगं पारुच्छेपमतिच्छन्दाः सप्तपदं षष्ठेऽहनि षष्ठस्याह्नो रूपम् - ऐ.ब्रा. ५.१२

*हरिश्चन्द्र - नारद आख्यानम् : स एकया पृष्टो दशभिः प्रत्युवाच। ऋणमस्मिन्संनयत्यमृतत्वं च गच्छति। पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम् ॥ - ऐ.ब्रा. ७.१३

*पर्यूषु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्रा भूब्रह्म प्राणममृतं प्रपद्यतेऽयमसौ शर्म वर्माभयं स्वस्तये। सह प्रजया सह पशुभिर्णि सक्षणिर्द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे स्वाहा। - ऐतरेय ब्राह्मण ८.११

*राजसूये वरुणप्रघास विधिः :-अक्रन्कर्म कर्मकृत इत्याह। देवानृणं निरवदाय। अनृणा गृहानुपप्रेतेति वैवैतदाह। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.५.५

*- - - - - कामेन त्वा प्रतिगृह्णामीत्याह। येन कामेन प्रतिगृह्णाति। स एवैनममुष्मिfल्लोके काम आगच्छति। कामैतत्त एषा ते काम दक्षिणेत्याह। काम एव तद्यजमानोऽमुष्मिfल्लोके दक्षिणामिच्छति। न प्रतिग्रहीतरि। य एवं विद्वान्दक्षिणां प्रतिगृह्णाति। अनृणामेवैनां प्रतिगृह्णाति ॥ - तै.ब्रा. २.२.५.६

*अच्छिद्रकाण्डाभिधानम् : अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिन्। तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयाना उत पितृयाणाः। सर्वान्पथो अनृणा आक्षीयेम ॥ - तै.ब्रा. ३.७.९.८

*दर्भपुञ्जीलै: पाव्यमानस्य यजमानस्य जयार्था मन्त्राः :- यद्धस्ताभ्यां चकर किल्बिषाणि। अक्षाणां वग्नुमुपजिघ्नमानः। दूरेपश्या च राष्ट्रभृच्च। तान्यप्सरसावनुदत्तामृणानि। अदीव्यन्नृणं यदहं चकार। यत्रऽदास्यन्त्संजगारा जनेभ्यः। अग्निर्मा तस्मादेनसः। यन्मयि माता गर्भे सति। एनश्चकार यत्पिता। अग्निर्मा तस्मादेनसः। यदा पिपेष मातरं पितरम्। पुत्रः प्रमुदितो धयन्। अहिंसितौ पितरौ मया तत्। तदग्ने अनृणो भवामि। - तै.ब्रा. ३.७.१२.३

*पुनराधानसंबन्ध्यङ्गजातनिरूपणम् : वीरहा वा एष देवानां योऽग्निमुद्वासयते तस्य वरुण एवर्णयादाग्निवारुणमेकादशकपालमनु निर्वपेद्यं चैवं हन्ति यश्चास्यर्णयात्तौ भागधेयेन प्रीणाति नाऽऽर्तिमार्छति यजमानः। - तैत्तिरीय संहिता १.५.२.५

*अवदानाभिधानम् : जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्य एष वा अनृणो यः पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी तदवदानैरेवाव दयते तदवदानानामवदानत्वं - तै.सं. ६.३.१०.५

*शरीरं यज्ञः शमलं कुसीदं तस्मिन्त्सीदतुn योऽस्मान्द्वेष्टि। - महानारायणोपनिषद २०.१३

*राजसूयप्रकरणम् : स (नारदः) एकया पृष्टो दशभिः प्रत्युवाच। ऋणमस्मिन्संनयत्यमृतत्वं च विन्दते। पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम् ॥ - शाङ्खायन श्रौत सूत्र १५.१७.१

*अश्वमेध प्रकरणम् : असितो धान्वन इति सप्तमे। तस्यासुरा विशस्त इम आसत इति कुसीदिन उपदिशति। असुरविद्या वेदः सोऽयमिति मायां काञ्चित्कुर्यात्। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र १६.२.२०

*- - - - -इयमददाद्रभसमृणच्युतमिति प्रउगम्। - आश्वलायन श्रौत सूत्र ८.१.१२

*सप्तमेऽहन्यसितो धान्वस्तस्यासुरा विशस्त इम आसत इति कुसीदिन उपसमानीताः स्युस्तानुपदिशत्यसुरविद्या वेदः सोऽयमिति मायां कांचित्कुर्यात्। - आश्वलायन श्रौत सूत्र १०.७.७

*पशुबन्धः :- यत्कुसीदमप्रतीत्तं मयि येन यमस्य बलिना चरामि। इहैव सन्निरवदये तदेतत्तदग्ने अनृणो भवामीत्यथाञ्जलिनोपस्तीर्णाभिघारितान्सक्तून्प्रदाव्ये जुहोति - बौधायन श्रौत सूत्र ४.११

*सौत्रामणी : पयस्वां अग्न आगमं तं मा संसृज वर्चसेत्यथ कुसीदेन सक्तुहोमेन चरत्यथ देवता उपस्थाय यूपमुपतिष्ठते। - बौधायन श्रौत्र सूत्र १७.३८

*अग्नीनाधास्यमानः प्रज्यमात्मानं कुर्वीत येनास्याकुशलं स्यात्तेन कुशलं कुर्वीत यान्यृणान्युत्थितकालानि स्युस्तानि व्यवहरेदनुज्ञापयीत वा- - - - -बौधायन श्रौत सूत्र २४.१२

*अग्निष्टोमेन यक्ष्यमाणः प्रज्यमात्मानं कुर्वीत येनास्याकुशलं स्यात्तेन कुशलं कुर्वीत यान्यृणान्युत्थितकालानि स्युस्तानि व्यवहरेदनुज्ञापयीत वा - बौधायन श्रौत सूत्र २५.४

*अग्निष्टोम तृतीयसवनम् : आहवनीयादुल्मुकमादाय यजमानो वेदिमुपोषति यत्कुसीदमप्रतीत्तमिति। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.२४.१५

*अग्निचयनम् : पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तरध्यै ऋणया न ईयसे ॥ - आप.श्रौ.सूत्र १६.१८.७

*दक्षिणा दानम् : उत्तमां दक्षिणां नीत्वोदवसाय वा दक्षिणेनौदुम्बरीं प्राङ्निषद्य ब्रूयाद्यन्मे ऽद ऋणं यददस्तत्सर्वं ददामीति। - आप.श्रौ.सूत्र २२.१.१०

*अग्निर्वाव यम इयं यमी। कुसीदं वा एतद् यमस्य यजमान आदत्त, यदोषधीभिवेर्दिं स्तृणाति। तां यदनुपोष्य प्रयायात्, यातयेरन्नेनममुष्मिfल्लोके। यमे यत् कुसीदम्, अपमित्यमप्रतीत्तम् इति वेदिमुपोषति। इहैव सन् यमं कुसीदं निरवदायानृणो भूत्वा स्वर्गं लोकमेति। - गोपथ ब्राह्मण २.४.८

*क इदम् उद्गास्यति स इदम् उद्गास्यति इति। प्रजापतिर् वै कः। तम् एवादाव् आर्त्विज्याय वृणीते। स य एवं तद् उद्गायति वाचैवास्य कृतं भवत्य् अनृण आत्मना भवति। - जैमिनीय ब्राह्मण १.३२७

*ऋणं भौमे न गृह्णीयान्न देयं बुधवासरे। ऋणच्छेदं कुजे कुर्यात्संचयं सोमनंदने॥ - ज्योतिःसार

Puraanic contexts of words like Rina/debt, Rita/apparent - truth, Ritadhwaja, Ritambhara, Ritawaaka, Ritu/season etc. are given here.

Veda study on Rita


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Veda study on ritu/season



ऋणमोचन पद्म ३.२६.९३ ( कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत ऋणान्त कूप का माहात्म्य ), ब्रह्म २.२९ ( ऋणमोचन तीर्थ का माहात्म्य : कक्षीवान - पुत्र पृथुश्रवा का गौतमी में स्नान से पितृऋण से मुक्त होना ), मत्स्य १०७.२० ( प्रयाग स्थित ऋणमोचन तीर्थ का माहात्म्य ), १९१.२७ ( नर्मदा तटवर्ती ऋणमोचन तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), वामन ४१.६ ( कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत ऋणमोचन तीर्थ का माहात्म्य ), वायु ७७.१०६ ( गया क्षेत्र के अन्तर्गत कनकनन्दी तीर्थ में स्नान से ऋणत्रय से मुक्ति ), १०८.८९ ( पितृरूपी जनार्दन के दर्शन से ऋणत्रय से मुक्ति का कथन ), १११.२९ ( गया में अश्वत्थ दर्शन व ब्रह्मसर में स्नान से ऋणत्रय से मुक्ति का कथन ), स्कन्द २.८.२.२२ ( अयोध्या में स्थित ऋणमोचन तीर्थ का माहात्म्य : लोमश की ऋण से मुक्ति ), ३.१.४२.२ ( सेतु माहात्म्य के अन्तर्गत ऋणत्रय मोचन तीर्थ का माहात्म्य ), ५.३.८७.२ ( रेवा तट पर स्थित ऋणमोचन तीर्थ का माहात्म्य ), ५.३.२०८ ( ऋणमोचन तीर्थ का माहात्म्य : ऋणत्रय से मुक्ति ), ५.३.२३१.२० ( रेवा - सागर सङ्गम पर २ ऋणमोचन तीर्थों की स्थिति का उल्लेख ), ७.१.२२१ ( ऋणमोचनेश्वर तीर्थ का माहात्म्य ) Rinamochana


ऋत अग्नि १५२.५ (ग्रहस्थ वृत्ति के संदर्भ में ऋतामृताभ्यां इत्यादि श्लोक का उल्लेख ), नारद १.२७.३९ ( सन्ध्या कर्म में ऋतमिति मन्त्र का उल्लेख ), भविष्य १.१८६.१० ( विप्रों की वृत्तियों में ऋतामृत, ऋत, प्रमृत, प्रतिग्रह, वाणिज्य वृत्तियों का उल्लेख ), १.२१६.१७७ ( लोकों के नामों में क्रमश: अर्क लोक, गोलोक, ऋत लोक, अमृत / ब्रह्म लोक का उल्लेख ),४.१४३.३८ (महाशान्ति विधि के अन्तर्गत ऋतमस्तु इति द्वारा स्नान का निर्देश ), ब्रह्माण्ड १.२.१३.२३ ( अग्नि का नाम ; संवत्सर - पुत्र, ऋतुओं के पिता ), १.२.३६.१२ (स्वारोचिष मन्वन्तर में १२ तुषित देवगण में से एक ), ३.४.१.१८ ( प्रथम सावर्णि मनु के काल में २० सुख नामक देवगण में से एक ), भागवत २.९.३३ ( ऋत में प्रतीत होने वाले अर्थ के आत्मा में प्रतीत होने पर उसे आत्मा की माया जानने का निर्देश ), ४.१३.१६ ( चक्षु मनु व नड्वला के १२ पुत्रों में से एक, ध्रुव वंश ), ७.११.१८ ( ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत, सत्य आदि वृत्तियों की परिभाषा : उच्छ शिल वृत्ति के ऋत तथा वाणिज्य के सत्यानृत वृत्ति होने का उल्लेख ), ८.२०.२५ ( बलि द्वारा वामन के स्तनों में ऋत और सत्य के दर्शन का उल्लेख ), ९.१३.२५ ( विजय - पुत्र, शुनक - पिता, निमि वंश ), ९.१९.३८(ऋत की परिभाषा : सूनृता वाणी) ११.१९.३८ ( समदर्शन के सत्य तथा सूनृता वाणी के ऋत होने का उल्लेख ), मत्स्य ९.३६ ( १२ वें मनु का नाम ), १९६.२ ( अङ्गिरा व सुरूपा के १० पुत्रों में से एक ), लिङ्ग २.५४.२९ ( पुष्टिवर्धन देव का घृत, पय:, मधु आदि से भक्तिपूर्वक यजन करने की ऋत संज्ञा ? ; ऋत द्वारा पाशबन्धन , कर्मयोग तथा मृत्युबन्धन से मुक्त होने की प्रार्थना ), वायु ६२.४३ ( तामस मनु के पुत्रों में से एक ), ६७.१२६ ( मरुतों के तृतीय गण में से एक ), ८९.२२ ( विजय - पुत्र, सुनय - पिता, नेमि / जनक वंश ), विष्णु ४.५.३१ ( विजय - पुत्र, सुनय - पिता, निमि वंश ), स्कन्द ७.१.२०७.५३ ( श्ववृत्ति की अपेक्षा ऋतामृत द्वारा जीने का निर्देश : नित्य भक्षण ऋत, अयाचित के अमृत, वृद्धि जीवित्व के मृत, कर्षण के प्रमृत आदि होने का उल्लेख ), हरिवंश ३.३४.७ ( जगत रूपी अण्ड में स्थित ऋत नामक द्रव से जातरूप / सुवर्ण की उत्पत्ति का वर्णन ) , महाभारत आदि १.२२ ( ऋतम् : परमात्मा का सूचक ), ३.६२ ( १२ अरों, ६ नाभियों व एक अक्ष वाले चक्र के ऋत /कर्मफल को धारण करने का उल्लेख ), ७६.६४ ( गुरु के ऋत का दाता होने का उल्लेख ), उद्योग ४४.९ ( गुरु द्वारा ऋत करते हुए अमृत प्रदान करने का उल्लेख ),भीष्म ६२.१४(ऋतायन :शल्य का पिता), शान्ति ४७.५० ( अमृत - योनि परमात्मा द्वारा ऋत द्वारा साधु जनों के लिए सेतु बनाने का उल्लेख ), २७०.४६ ( ब्रह्म के ऋत, सत्य आदि होने का उल्लेख ), अनुशासन १०४.५७ ( उत्तराभिमुख होकर भोजन करने पर ऋत प्राप्त होने का उल्लेख, अन्य दिशाओं से अन्य प्राप्तियां ), आश्वमेधिक २५.१५( ऋत के प्रशास्ता ऋत्विज का शस्त्र होने का उल्लेख ), योगवासिष्ठ ३.१.१२( आत्मा के ऋत और परब्रह्म के सत्य होने का उल्लेख ), लक्ष्मीनारायण १.३९.१२( संवत्सर अग्नि की ऋत संज्ञा : ऋत से ऋतुओं की उत्पत्ति का उल्लेख ) Rita

Veda study on Rita


ऋतजित् ब्रह्माण्ड १.२.२३.२३ ( शिशिर ऋतु में सूर्य रथ व्यूह में स्थित एक गन्धर्व ), २.३.५.९३ ( मरुतों के द्वितीय गण में से एक ), वायु ५२.२२ ( शिशिर ऋतु में सूर्य रथ व्यूह में स्थित एक ग्रामणी ), विष्णु २.१०.१६ ( माघ मास में सूर्य रथ में स्थित एक यक्ष ) Ritajit




ऋतञ्जय लिङ्ग १.२४.८६ ( १८वें द्वापर में व्यास ), वायु २३.१८१ ( वही), शिव ३.५.२० ( वही)


ऋतधामा गरुड १.८७.५० ( १२ वें मन्वन्तर में इन्द्र ), भागवत ८.१३.२७ ( १२वें रुद्र सावर्णि मन्वन्तर में इन्द्र का नाम ), ९.२४.४४ ( ऋतधाम : कङ्क व कर्णिका - पुत्र, विदर्भ वंश ), मत्स्य ९.३६ ( १३वें मनु का नाम ? ), विष्णुधर्मोत्तर १.१८७.५ ( १२वें मन्वन्तर में इन्द्र ), शिव ५.३४.५८ ( चतुर्थ सावर्णि मनु के काल में इन्द्र ), महाभारत शान्ति ३४२.६९ ( परमात्मा के ऋतधामा नाम की निरुक्ति : भूतों का सार धाम तथा विचारित ऋत होने का उल्लेख ), वा.रामायण ६.११७.७( ऋतधामा के वसुओं के प्रजापति तथा वसुओं में सर्वश्रेष्ठ होने का उल्लेख ) Ritadhaamaa

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ऋतध्वज ब्रह्म २.३७.१९ ( आर्ष्टिषेण - पुत्र ऋतध्वज का सुश्यामा अप्सरा से समागम, वृद्धा नामक कन्या की उत्पत्ति, कालान्तर में वृद्धा का गौतम से विवाह ), भागवत ९.१७.६ ( दिवोदास -पुत्र द्युमान के शत्रुजित् , वत्स, कुवलयाश्व आदि नामों में से एक, अलर्क - पिता ), ३.१२.१२ ( एकादश रुद्रों में से एक ; एकादश रुद्रों की पत्नियों के नाम ), मार्कण्डेय २०+ ( शत्रुजित् - पुत्र ऋतध्वज द्वारा कुवलय अश्व पर आरूढ होकरपातालकेतु दानव का अनुगमन, पाताल में प्रवेश व मदालसा से विवाह, पातालकेतु आदि दानवों का वध, कुवलाश्व नाम प्राप्ति ), २२ ( पातालकेतु - अनुज तालकेतु द्वारा मदालसा को ऋतध्वज की मृत्यु का मिथ्या समाचार देना, मदालसा की पति वियोग से मृत्यु ), २३+ ( अश्वतर नाग द्वारा सरस्वती व महादेव की आराधना से मदालसा को पुत्री रूप में उत्पन्न करना, ऋतध्वज द्वारा नाग -पुत्री मदालसा को पुन: प्राप्त करना ), २५+ ( मदालसा से विक्रान्त आदि ४ पुत्रों की प्राप्ति, मदालसा द्वारा पुत्रों को निवृत्ति मार्ग की शिक्षा पर राजा द्वारा आपत्ति, मदालसा द्वारा चतुर्थ पुत्र अलर्क को प्रवृत्ति मार्ग की शिक्षा ), वामन ५९.२ ( रिपुजित् - पुत्र ऋतध्वज द्वारा पातालकेतु के वध व मदालसा प्राप्ति का संक्षिप्त वर्णन, ६४.२२ ( बंधन ग्रस्त जाबालि द्वारा अपने जन्म पर पिता ऋतध्वज द्वारा की गई भविष्यवाणी का कथन ), ६४.६२ ( जाबालि की मुक्ति के लिए ऋतध्वज द्वारा इक्ष्वाकु व इक्ष्वाकु - पुत्र शकुनि से अनुरोध ), ७२.२४ ( स्वारोचिष मनु - पुत्र ऋतध्वज के ७ पुत्रों का वृत्तान्त ), ७२.५७ ( तामस मनु - पुत्र ऋतध्वज / दन्तध्वज द्वारा पुत्र प्राप्ति हेतु स्वमांस का अग्नि में होम, सात मरुतों की पुत्र रूप में उत्पत्ति ), विष्णु ४.८.१४ ( प्रर्तदन का दूसरा नाम ), स्कन्द ७.१.२९४ ( निषाद द्वारा अपने जाल को सुखाने के लिए शिव मन्दिर के ध्वज दण्ड से बांधना, मृत्यु पश्चात् निषाद का राजा ऋतध्वज बनना, पूर्व आराधित अजोगन्ध शिव की पुन: प्रतिष्ठा करना ), लक्ष्मीनारायण १.३९२+ ( मदालसा प्राप्ति की कथा, तु. : मार्कण्डेय पुराण ), १.५४५.५६ ( क्रतुध्वज : निषाद द्वारा शिवमन्दिर की ध्वजा पर जाल फैलाने से क्रतुध्वज राजा बनना ), ४.१०१.९९ ( ऋतध्वजा : कृष्ण - पत्नी, शान्ता व सत्यव्रत युगल की माता ), द्र. : क्रतुध्वज Ritadhwaja

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ऋतम्भर पद्म ५.३०+ ( तेज:पुर के राजा सत्यवान् के पिता, ऋतम्भर द्वारा पुत्र प्राप्ति हेतु जाबालि ऋषि से परामर्श, जाबालि से गौ माहात्म्य सुनकर गौ की सेवा करना, सिंह द्वारा गौ के वध पर अयोध्यापति ऋतुपर्ण से राम नाम माहात्म्य श्रवण, सुरभि से पुत्रता वर की प्राप्ति ), भागवत ६.१३.१७ ( ऋतम्भर/परमात्मा का ध्यान करने से इन्द्र के पाप नष्ट होने का उल्लेख ) Ritambhara

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ऋतम्भरा भागवत ५.२०.४ ( प्लक्ष द्वीप की एक नदी ), स्कन्द ४.१.२९.३४ ( गंगा सहस्रनामों में से एक ), लक्ष्मीनारायण १.३०९.३१( सर्वहुत राजा की पत्नी गोऋतम्भरा का द्वितीया व्रत के प्रभाव से जन्मान्तर में आभीरी - कन्या व ब्रह्मा की पत्नी गायत्री बनना ), १.३८५.४८(ऋतम्भरा का कार्य), ४.१०१.९१ ( कृष्ण व सत्या - पुत्री ) Ritambharaa

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ऋतवाक् देवीभागवत ०.४.६ ( अशील पुत्र के जन्म के सम्बन्ध में गर्ग मुनि से पृच्छा, पुत्र जन्म के कारणभूत रेवती नक्षत्र को शाप देकर गिराना , रेवती कन्या के जन्म की कथा ), मार्कण्डेय ७५.२ ( वही), स्कन्द ७.२.१७ ( ऋतवाक् द्वारा दुष्ट पुत्र की उत्पत्ति के कारण रेवती नक्षत्र का पातन ), महाभारत वन २६.२४ ( कृतवाक् / ऋतवाक् आदि ब्रह्मर्षियों द्वारा युधिष्ठिर का आदर करने का उल्लेख ), कर्ण ३२.५६ ( पूर्वजों द्वारा ऋतवादन के कारण शल्य की आर्तायनि संज्ञा का उल्लेख ), शान्ति २३५.१६ ( काल रूपी उदक / नदी में ऋतवाक् व मोक्ष के तीर होने का उल्लेख ), ३४२.७५ ( ऋता / सत्या / सरस्वती के परमात्मा की वाणी होने का उल्लेख ), अनुशासन ९३.११ ( दानशील पुरुष के सदैव ऋतवादी होने का उल्लेख ), १४३.३० ( ऋतवाक् आदि गुणों से युक्त वैश्य के क्षत्रियकुल में जन्म लेने का उल्लेख ), १४४.२३ ( ऋत व मैत्रीयुक्त वचन बोलने से स्वर्गगामी होने का उल्लेख ) Ritavaak

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ऋता महाभारत शान्ति ३४१.१४ ( १८ गुणों वाले सत्त्व / रोदसी के परमात्मा की ऋता, सत्या आदि होने का उल्लेख ), ३४२.७५ ( ऋता / सत्या के परमात्मा की वाणी होने का उल्लेख ), Ritaa

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 ऋतु अग्नि  १९९ ( ऋतुव्रतों   का   कथन ),    २८०.२२ ( ऋतु अनुसार शरीर में वात,  पित्त व कफ के चय,   प्रकोप व शम का वर्णन ),  २८०.२६ (चन्द्रमा द्वारा वर्षा आदि ऋतुओं में अम्ल, लवण व मधुर रसों की उत्पत्ति का उल्लेख),  ३८०.४५ ( ऋतु / ऋभु : ब्रह्मा - पुत्र,  स्व -शिष्य  निदाघ को शिक्षा ),   ३८३.२६ ( विभिन्न ऋतुओं में अग्नि पुराण श्रवण से यज्ञों के फलों की प्राप्ति का कथन ),   देवीभागवत  ३.२६.४ ( यमदंष्ट्र संज्ञक दो ऋतुओं शरद व वसंत में चण्डिका पूजन का विधान ),   १२.४.९( रक्त व मांस में ऋतुओं का न्यास ),    १२.१०.३८ ( ऋतु स्वरूप  ,   वास स्थान,   भार्याएं व शक्तियां ),   १२.१०.५२( वर्षा ऋतु की १२ शक्तियों नभश्री आदि के नामों का कथन ;   अन्य ऋतुओं की भार्याओं के नाम आदि ),  पद्म  १.२७.५६( वर्षा आदि विभिन्न ऋतुओं के जलों का अग्निष्टोम आदि विभिन्न यज्ञों के फलों से साम्य ),   ब्रह्म  १.३४.७० ( पार्वती - शिव विवाह के अवसर पर ऋतुओं का आगमन ),   ब्रह्मवैवर्त्त  २.२७.८२( शारदीय पूजा का संक्षिप्त माहात्म्य ),  ब्रह्माण्ड  १.२.१३.१८ ( ६ ऋतुएं : निमि   व ऋत अग्नि - पुत्र,   आर्तव – पिता, कार्य-कारण युक्त आदि ),    १.२.१३.२० ( आर्तव - पिता,  स्थावर व जङ्गम प्राणियों के पितामह ),   १.२.१३.२६ ( पितरों का रूप,  कार्य –   कारण युक्त   ),    १.२.२१.१२५( २ पक्षों से मास,  २ मासों से ऋतु,   ३ ऋतुओं से अयन के निर्माण का उल्लेख ),   १.२.२४.१४१( ऋतुओं में शिशिर के आदि होने का उल्लेख ),    १.२.२८.१४  आर्त्तवों की पितर, ऋतुओं की   पितामह   व अब्दों की प्रपितामह संज्ञा ),    ३.४.१.१४ ( २० सुतप नामक देवगण में मे एक ),    ३.४.१.१६ ( २० अमिताभ नामक देवगण में से एक ),  भागवत  ८.२.९ ( गज - ग्राह कथा के संदर्भ में ऋतुमान् उद्यान में स्थित सरोवर का वर्णन ;   उद्यान की शोभा का वर्णन, निदाघ काल में ग्राह द्वारा गज का ग्रहण    ), १०.१५.४८   (निदाघ आतप से पीडित गायों द्वारा कालियह्रद का जलपान, मृत्यु, कृष्ण द्वारा पुनर्जीवन आदि),  १०.१७ (व्रज में ग्रीष्म ऋतु का वर्णन, प्रलम्ब दैत्य का वध),   १०.२० (व्रज में वर्षा व शरद ऋतु का वर्णन,  अध्यात्म से तुलना ;  शरद ऋतु में कृष्ण के वेणु गीत का वर्णन ),   १०.२२( हेमन्त ऋतु में गोपियों द्वारा कात्यायनी व्रत व कृष्ण द्वारा चीर हरण ),  वराह  १२४.४० (वसन्तादि   ऋतु -   अनुसार विष्णु की पूजा का विधान ),  वामन २.१ ( शरद ऋतु की शोभा का वर्णन ),  वायु  २१.३० ( छठे कल्प का नाम  ;   सप्तम कल्प का क्रतु नाम ),   २१.३५/१.२१.३२( १६वें षडज नामक कल्प में ब्रह्मा के शिशिर,  हेमन्त,    निदाघ आदि पुत्रों का उल्लेख ),   २९.१८(ऋतु का विभु से साम्य?),    ३०.७ ( ऋतवों की पितर व देव संज्ञा का उल्लेख  ;   मधु माधव आदि मास युगलों की क्रम से रस,  शुष्मी,   जीव,   सुधावन्त,   मन्युमन्त व घोर संज्ञा ),   ३०.२२( ऋतु की निरुक्ति : ऋत् से उत्पत्ति  ;   ऋतुओं के आर्तव रूप ५ पुत्रों के विषय में कथन ),   १००.१५ ( २० सुतप नामक देवगण में से एक ),  विष्णु  ५..१(  वर्षा ऋतु में राम द्वारा प्रलम्ब असुर के वध की कथा ),    ५.१०.१२( व्रज में शरद ऋतु का वर्णन;  शरद ऋतु की योगी के प्राणायाम आदि से तुलना ),  विष्णुधर्मोत्तर  १.२३९.१० ( विराट् पुरुष के दन्तों के मास - ऋतु होने का उल्लेख ),   १.२४३+ ( राम द्वारा शत्रुघ्न को प्रावृट्  ,   शरद,   हेमन्त व शिशिर ऋतुओं की शोभा का वर्णन ),   १.२४५( राम द्वारा हेमन्त ऋतु का वर्णन ),   ३.४२.७४ ( वसन्त आदि ऋतुओं के रूप निर्माण का कथन ),    ३.१५६ ( षण्मूर्ति व्रत : ऋतु अनुसार फल,  पुष्प व मधुर आदि रसों से मूर्ति पूजा के विधान का कथन ),   ३.३१७.४ ( ऋतु अनुसार दान द्रव्य का कथन ),   शिव  ५.१२.१२ ( विभिन्न ऋतुओं में तडाग में जल एकत्र करने के   यज्ञरूप   फल का कथन   ),    ७.१.१७.४५( ऋतुओं के पितर होने का कथन  ;   ऋतु रूप पितरों का   कथन ),   स्कन्द  १.२.१३.१७३ (ऋतुओं द्वारा दूर्वांकुर लिंग पूजा,   शतरुद्रिय प्रसंग ),  १.२.६२.२६( ऋतुंसन : क्षेत्रपालों के ६४ प्रकारों में से एक ),   ५.३.७८.२९ ( ऋतुओं द्वारा तरुओं को पुन: - पुन: युवा करने का उल्लेख ),   ५.३.१०३.६२( ब्रह्मा के वर्षा,  विष्णु के हेमन्त,   रुद्र के ग्रीष्म रूप होने का कथन ),  हरिवंश  २.१६.१४( व्रज में शरद ऋतु का वर्णन ),   २.१९.५१( इन्द्र द्वारा शरद ऋतु का वर्णन ),  महाभारत उद्योग  ८३.६( कौरवों को समझाने के लिए कृष्ण द्वारा शरदन्त में रेवती नक्षत्र में मैत्र मुहूर्त में प्रस्थान का कथन ),  अनुशासन  ४३.५(विपुल द्विज द्वारा अक्षों से खेल रहे ६ पुरुषों रूपी ६ ऋतुओं का दर्शन ),  योगवासिष्ठ  ६.२.७.१८ ( संसार रूपी वृक्ष की शाखाओं का रूप ),   वा.रामायण  ३.१६ ( लक्ष्मण द्वारा पंचवटी में हेमन्त ऋतु का वर्णन ),   ४.२८ ( राम द्वारा किष्किन्धा में वर्षा ऋतु का वर्णन ),    ४.३० ( राम द्वारा शरद ऋतु का वर्णन ),  लक्ष्मीनारायण  १.३६.३२( ऋतुदान काल में पिता की मन:स्थिति का गर्भ की प्रकृति पर प्रभाव का वर्णन ;   ऋतुदान हेतु काल विचार आदि ),    १.३९.२( ६ ऋतुओं की पितर संज्ञा   का कथन ),    १.३९.९( संवत्सर रूप काल के पुत्रों के रूप में ऋतुओं तथा ऋतुओं के पुत्रों के रूप में आर्तवों/मासों का कथन ),   १.३७४.८९ ( ऋतुदान द्वारा कन्या या पुत्र प्राप्त होने के विकल्प का कथन ),  १.४८४.४२ ( पर्वकालों में ऋतुदान के निषेध के संदर्भ में जाबालि व पुरुहूता का वृत्तान्त ),   १.५५०.१०१? ( ऋतुकाल पर परमात्मा के साथ संगम व्यर्थ न होने देने का निर्देश )   Ritu 

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ऋत

*एतस्मान्मनोमयात् अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः तेनैष पूर्णः - - - तस्य श्रद्धैव शिरः। ऋतं दक्षिणः पक्षः सत्यमुत्तरपक्षः। योग आत्मा। महः पुच्छं प्रतिष्ठा। - तै.उ.  ब्रह्मा ४

इस विज्ञानमय पुरुष के दक्षिण और उत्तर पक्ष क्रमशः ‘सत्य’ तथा ‘ऋत’ बताए गए हैं। इन दोनों शब्दों के प्रचलित अर्थ अत्यन्त भ्रामक हैं, यहां उनसे काम नहीं चल सकता। उपनिषद में लिखा है कि सत्य शब्द के केवल ‘स’ और ‘य’ ही सत्य के द्योतक हैं और दोनों के बीच का ‘त्’ अनृत का वाचक है। इससे स्पष्ट है कि ‘सत्य’ का अर्थ प्रचलित अर्थ से विपरीत, अनृतपूर्ण सत्य भी हो सकता है।

वस्तुतः सत्य और ऋत का जोडा, आध्यात्मिक प्रसंगों में, प्रचलित अर्थ से कुछ भिन्न अर्थ रखता है। इनका अर्थ क्रमशः सत्व (being) और भाव (becoming) अथवा सत्ता और विकृति किया जा सकता है। पहला स्थिरता या निष्क्रियता का सूचक है, दूसरा परिवर्तन या विकार का। नाम-रूपात्मक जगत में ये दोनों तत्त्व सापेक्षिक रूपों में ही मिलते हैं, न यहां सत्व (being) ही आत्यन्तिक है और न भाव (becoming) ही। अतः आदित्य को सत्य तथा अग्नि को ऋत कहा जाता है; परन्तु अग्नि तथा उसके प्रकाश में, अग्नि को सत्य तथा प्रकाश को ऋत कहा जाता है। उसी प्रकार यदि सृष्टि या उसकी उपकरणीभूत वाक् को ऋत कहा जाता है, तो स्रष्टा को सत्य कहा जाता है या सत्यमय माना जाता है, परन्तु वही स्रष्टा ऋत कहा जाता है, जब उसकी तुलना कारण-ब्रह्म से की जाती है। ऐसे ही स्थूल शरीर की अपार विकारशीलता को देखकर उसको ऋत तथा वीर्य, प्राण, नाम रूप आदि को सत्य कहा जाता है।

इस विवेचन से यह सिद्ध है कि ‘ऋत’ शब्द विकार, परिवर्तन या गति-वाची ‘भाव’ शब्द का पर्याय है और ‘सत्य’ शब्द से सत्व के अन्तर्गत उस स्थिरता या अगति का बोध होता है जिससे ऋत या भाव की गति अथवा विकृति का सूत्रपात होता है। अतः ऋत या भाव (becoming) को यथार्थ में, गतिशील या विकृतिमय सत्त्व (being) कहा जा सकता है। इसी दृष्टिकोण से सत्य और ऋत को एक ही कहा जाता है। प्राणमय तथा अन्नमय में ऋत या भाव (becoming) का इतना अधिकार रहता है कि उसके कारण एकांतिक सत्य का आभास भी नहीं मिल पाता। परन्तु विज्ञानमय में आकर ऋत् ‘म्’ अर्थात् सुप्त हो जाता है। इसीलिए, इस अवस्था में ऋत् को मऋत(म्+ ऋत) कहा जाता है। जब ऋत और सत्य का तादात्म्य हो जाता है, तो सुप्त सत्य (मृत) भी नहीं रह जाता, अतः उसका नाम ‘अमृत’ (अ-म्-ऋत) हो जाता है। - डा. फतहसिंह, वैदिक दर्शन पृष्ठ ४४-४६(यह ग्रन्थ  डिजिटल लाईब्रेरी आफ इंडिया में उपलब्ध है।  VEDIC DARSHAN


टिप्पणी : ऋग्वेद  ४.२३.८- १० का देवता ऋतम् है । वैदिक साहित्य में ऋतम् की व्याख्याओं के अनपेक्ष, लैटिन / अंग्रेजी भाषा में रिदम् (rhythem) शब्द उपलब्ध होता है जिसका अर्थ सामञ्जस्य (harmony) लिया जाता है । यह शब्द वैदिक साहित्य के ऋतम् के अर्थ की व्याख्या करने में सफल प्रतीत होता है । वैदिक निघण्टु में तो ऋतम् की परिगणना उदक और सत्य नामों के अन्तर्गत और ऋत की पदनामों के अन्तर्गत की गई है, जबकि सायणाचार्य ने वैदिक ऋचाओं की व्याख्या करते समय ऋतम् का अर्थ यज्ञ ( ऋग्वेद  ५.३.९,  ६.४४.८ आदि ) और स्तोत्र ( ऋग्वेद  ५.१२.२ ,  ५.१२.६,  ६.३९.२ आदि ) आदि भी किए हैं । ऋतम् का स्तोत्र अर्थ लैटिन के रिदम् के बहुत निकट है क्योंकि स्तोत्र भी तभी उत्पन्न होता है जब सामञ्जस्य उत्पन्न हो जाए ।

वैदिक निघण्टु, सायण भाष्य आदि में ऋत को सत्य का पर्यायवाची माना जाता है । ऋत और सत्य में अन्तर बताते हुए प्रायः सायण भाष्य में कहा जाता है कि जो मानसिक स्तर पर सत्य है वह ऋत है और जो वाचिक स्तर का सत्य है, वह सत्य है । लेकिन ऋत और सत्य में क्या अन्तर है , इसे हम ऐतरेय आरण्यक  २.३.६ के वर्णन के आधार पर समझ सकते हैं । इस वर्णन में एक वृक्ष की कल्पना की गई है जिसका मूल तो अनृतवाक् है और पुष्प व फल सत्यवाक् हैं । कहा गया है कि यदि अनृतवाक् बोली जाएगी तो वह ऐसे होगा जैसे वृक्ष के मूल को उखाड कर बाहर दिखा देना । ऐसा करने पर वृक्ष सूख जाएगा । अतः अनृत वाक् न बोले । इस वर्णन में ऋतवाक् का कहीं नाम नहीं है, किन्तु यह अन्तर्निहित समझा जा सकता है कि इस वृक्ष का स्कन्ध ऋतवाक् का रूप है । इस ऋत का निचला भाग अनृत से जुडा है और ऊपरी भाग सत्य से । वृक्ष के जीवन के लिए अनृत भी आवश्यक है , वह पोषण करता है । इसी प्रकार हमारी देह का पोषण पितर शक्तियां करती हैं, ऐसा वैदिक व पौराणिक साहित्य में कहा जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में अनृत ( अन् - ऋत )को मृत कहा गया है । इसी कारण से भविष्य पुराण में जहां एक ओर ऋतामृत वृत्ति का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर मृत, प्रमृत आदि वृत्तियों का । एक ऋत सत्य से जुडा है तो दूसरा अनृत से ।

ऋत को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें अनृत का अर्थ ऐसे करना होगा कि अनृत अवस्था में केवल जीवन के रक्षण भर के लिए ऊर्जा विद्यमान है, जीवन को क्रियाशील बनाने के लिए नहीं । ऋत अवस्था जीवन में क्रियाशीलता लाती है, पुष्प, फल उत्पन्न कर सकती है । जीवन में जो भी कामना हो, वह सब ऋतम् का भरण करने से पूर्ण होगी ( द्र. आश्वलायन श्रौत सूत्र  ९.७.३५, बौधायन श्रौत सूत्र १८.३२ व  १८.३४ में ऋतपेय नामक एकाह )। ऋतम् जीवन की एक अतिरिक्त ऊर्जा है । जब हम सोए रहते हैं तो वह अनृत अवस्था कही जा सकती है । उसके पश्चात् उषा काल की प्राप्ति होने पर सब प्राणी जाग जाते हैं । जैसा कि उषा शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, यह उषा अव्यवस्था में, एन्ट्रांपी में वृद्धि का सूचक है

भागवत पुराण  ४.१३.१५ आदि में ऋत की माता नड्वला का उल्लेख आता है । अनुमान है कि नड्वला शब्द नाद-वला का परोक्ष रूप है। यहां नाद अंग्रेजीभाषा के रिदम शब्द के तुल्य है। तुलना के लिए, ऋग्वेद  १.१४२.७ में नक्तोषासा मातृ - द्वय,  ५.५.६ में दोषा - उषा मातृद्वय,  ६.१७.७ में रोदसी यह्वी,  ९.३३.५ में ब्रह्मी यह्वी,  ९.१०२.७ में यह्वी?,  १०.५९.८ में यह्वी रोदसी का ऋत की माता के रूप में उल्लेख है । वैदिकपदानुक्रमकोश में यह्वी शब्द के अर्थ का अनुमान नदी लगाया गया है। हो सकता है यह्वी शब्द की रचना हव्यी शब्द का व्युत्क्रम करके की गई हो।


तैत्तिरीय संहिता  ७.१.१८.२ तथा आपस्तम्ब श्रौत सूत्र  १०.९.४ में ऋत की पत्नी दीक्षा होने का उल्लेख है । अथर्ववेद  ७.६.२ तथा तैत्तिरीय संहिता  १.५.११.५ में ऊं सु अदिति को ऋत की पत्नी कहा गया है जबकि ऋग्वेद  १.१२३.९ में उषा का योषा के रूप में उल्लेख है । एक ऋचा में कहा गया है कि जो रपः, पाप है, वह मोषु का भाग है। डा. फतहसिंह वेद के ओंकार को दो भागों में विभाजित करते हैं – ऊ सु अथवा ओषु और मोषु। साधनापक्ष में ऐसा कहा जा सकता है कि जिसने ओसु को तो दृढ बना लिया है लेकिन मोसु की साधना नहीं की है वह ऋत है।


ऋग्वेद  १०.१७९.३ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि शृत / पका हुआ शब्द से श का लोप होने पर तथा मृत से म का लोप होने पर ऋत शब्द का निर्माण हुआ होगा । फलित ज्योतिष में कच्चे फल को ऋत का और पके फल को सत्य का प्रतीक माना जाता है ।

ऋग्वेद  १.१०५.४ व १५ आदि में पूर्व और नव्य ऋत का प्रश्न उठाया गया है कि कौन सा ऋत पूर्व्य है और कौन सा नव्य ? ऋग्वेद  १०.१७९.३ में इसका उत्तर दिया गया है कि शृत होने /पकने के पश्चात् ऋत नवीन हो जाता है । हो सकता है कि पूर्व्य ऋत अनृत से, वृक्ष के मूल से सम्बद्ध हो और नव्य सत्य से, वृक्ष के पुष्पों व फलों से ।


वैदिक साहित्य में कईं स्थानों पर प्रथमजा ऋतस्य ( ऋत से प्रथम उत्पन्न ) का उल्लेख आता है, जैसे द्यावापृथिवी ( अथर्ववेद  २.१.४ ), ओदन ( अथर्ववेद  ४.३५.१ ), आपः देवी ( अथर्ववेद  ५.१७.१ ), ओदनभाग ( अथर्ववेद  ६.१२२.१ ), ६ भूत (अथर्ववेद  ८.९.१६ ), ८ भूत (अथर्ववेद  ८.९.२१), प्रजापति (अथर्ववेद  १२.१.६१ तथा तैत्तिरीय आरण्यक १.२३.९ ), मृत्यु (तैत्तिरीय आरण्यक  ३.१५.२ ), अहं (तैत्तिरीय आरण्यक ९.१०.६ ), श्रद्धा ( तैत्तिरीय ब्राह्मण  ३.१२.३.२ आदि ) । हो सकता है यह सब ऋत के शृत होने पर उत्पन्न हुए हों । अथर्ववेद  ९.५.२१ में ऋत व सत्य को अज ओदन के चक्षु - द्वय कहा गया है जबकि अथर्ववेद  ११.३.१३ में ऋत को ओदन का हस्तावनेजन कहा गया है ।

संदर्भ की पूर्णता के लिए, वैदिक साहित्य में ऋतम् के संदर्भ में उपलब्ध अतिरिक्त सूचनाओं की जानकारी का उल्लेख उपयोगी होगा । तैत्तिरीय संहिता  १.१.९.३, बौधायन श्रौत सूत्र  १.११ आदि में वेदी का स्फ्य नामक काष्ठ के शस्त्र से विभिन्न दिशाओं में स्पर्श करते हैं । दक्षिण दिशा में वेदी ऋतम् होती है, पश्चिम दिशा में ऋतसदन और उत्तर दिशा में ऋतश्री । ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में ऋत के सदन का उल्लेख आता है । सदन उस स्थान को कहते हैं जहां देवता आकर विराजमान हो सकते हैं । ऋतम् के संदर्भ में सदन की क्या विशेषताएं हैं, यह अन्वेषणीय है । ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में ऋत के सदन के उल्लेख आए हैं, जैसे १.८४.४ ( इन्द्र के संदर्भ में ), १.१६४.४७ (सुपर्णों के संदर्भ में ), २.३४.१३ ( मरुतों के संदर्भ में ), ३.७.२ ( अग्नि के संदर्भ में ), ३.५५.१२ ( द्यावापृथिवी ० ), ३.५५.१४ (विश्वेदेवों ० ), ४.२१.३ ( इन्द्र ० ), ४.४२.४ ( ? ) , ४.५१.८ ( उषा ० ), ५.४१.१ ( मित्रावरुण ० ), ७.३६.१ (विश्वेदेवों ० ), ७.५३.२( द्यावापृथिवी ० ), ८.५९.४ ( सप्त स्वसार: ० ), ९.१२.१ ( सोम ० ), १०.१००.१० ( गौ ० ) । शतपथ ब्राह्मण ३.३.४.२९, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १०.३१.२, कात्यायन श्रौत सूत्र ७.९.२५ आदि में सोम राजा की यज्ञ में स्थापना के लिए औदुम्बरी आसन्दी / मंच को ऋतसदनी और आसन्दी पर बिछे कृष्णाजिन को ऋतसदन कहा गया है ।

ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं में ऋत के पथ व पन्थ का उल्लेख आता है । पौराणिक साहित्य में यह प्रसिद्ध है कि सूर्य , चन्द्र आदि ऋत के पथ से गमन करते हैं । ऋग्वेद १.१२८.२ में अग्नि, १.७९.३ में अग्नि, ६.४४.८ में इन्द्र, ७.६५.३ में मित्रावरुण, ८.२२.७ में अश्विनौ, ९.७.१ में इन्दव:, ९.८६.३३ में सोम, १०.३१.२ में मर्त्य, १०.७०.२ में नराशंस, १०.११०.२ में तनूनपात्, १०.१३३.६ में इन्द्र तथा शतपथ ब्राह्मण ४.३.४.१६ में चन्द्र से ऋत के पथ से गमन की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ७.६५.३ में तो ऋत के पथ की तुलना नौका से की गई है । ऋत के पन्थ के संदर्भ में ऋग्वेद १.४६.११ में अश्विनौ, १.१२४.३ में उषा, १.१३६.२ में मित्रावरुण, ५.८०.४ में उषा, ७.४४.५ में दधिक्रा, ८.१२.३ में इन्द्र, ८.३१.१३ में मित्रावरुण और अर्यमा, ९.७३.६ में दुष्कृत, ९.९७.३२ में सोम, १०.६६.१३ में विश्वेदेवों, अथर्ववेद ८.९.१३ में तीनों उषाओं, अथर्ववेद १८.४.३ में पितृमेध, तैत्तिरीय संहिता ४.३.११.१ में ३ उषाओं आदि के संदर्भ में ऋत के पन्थ का उल्लेख है । ऋग्वेद ३.१२.७ में इन्द्राग्नी, ३.३१.५ में इन्द्र, ९.९५.२ में पवमान सोम तथा १०.८०.६ में अग्नि के संदर्भ में ऋत की पथ्या का उल्लेख आया है ।

ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में विभिन्न देवताओं के संदर्भ में ऋत की योनि के उल्लेख हैं । ऋत की योनि क्या है , यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.७.२ के अनुसार क्षत्र ही ऋत की योनि है । शतपथ ब्राह्मण १.३.४.१६ के अनुसार यज्ञ ऋत की योनि है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१०४ के अनुसार ग्रह ( यज्ञ पात्र ) ऋत की योनि हैं । ऋग्वेद १.६५.४ में अग्नि, ३.१.११ में अग्नि, ३.५४.६ में विश्वेदेवों, ३.६२.१३ में सोम, ३.६२.१८ में मित्रावरुण, ४.१.१२ में अग्नि, ५.२१.४ में अग्नि, ६.१६.२५ में अग्नि, ९.८.३, ९.१३.९, ९.३२.४, ९.३९.६, ९.६४.११, ९.६४.१७, ९.६४.२०, ९.६४.२२, ९.६६.१२, ९.७२.६, ९.७३.१, ९.८६.२५, ९.१०७.४ में सोम, १०.८.३ में अग्नि, १०.६५.७ में विश्वेदेवों, १०.६५.८ में पितर, १०.६८.४ में बृहस्पति, १०.८५.२४ में सूर्या विवाह के संदर्भ में ऋत की योनि के उल्लेख हैं ।

ऋत से सत्य को प्राप्त करने के संदर्भ में ऋग्वेद ३.५४.३ व ४ ( रोदसी के संदर्भ में ),  ४.५१.७ ( उषा ० ), ५.६३.१ ( मित्रावरुण ० ), ५.६७.४ ( मित्रावरुण ० ), ६.५०.२ ( विश्वेदेवों ० ), ७.५६.१२ ( मरुतों ० ), ७.७६.४ ( उषा ० ), ९.११३.२ व ४ ( वाक् ० ), १०.१२.१ (द्यावापृथिवी ० ),  १०.८५.१ ( आदित्यों व भूमि ० ), १०.१९०.१ ( तप से ऋत व सत्य की उत्पत्ति ० ), तैत्तिरीय संहिता  ५.१.५.८ ( ऋत पृथिवी तथा सत्य द्युलोक ० ), अथर्ववेद ११.७.१७ ( उच्छिष्ट में ऋत व सत्य ० ),  १२.१.१ ( सत्य बृहद्, ऋत उग्र ० ), १२.५.१ ( ब्रह्मगवी के ऋत में श्रित तथा सत्य से आवृत होने के ० ), १५.६.५ ( ऊर्ध्वा दिशा के ऋत व सत्य से संबेधित होने ) में ऋत व सत्य के उल्लेख आए हैं ।

ऋग्वेद  १.११७.२२ में दधीचि ऋषि द्वारा ऋत में स्थित होकर अश्विनौ को मधु विद्या का उपदेश देने का उल्लेख आता है ।

प्रथम लेखन : १-१-२००५ ई.


Rita and ritam words have been used in Rigveda quite often.According to the information given by Dr. G.N.Bhat in his book ‘Vedic Nighantu’, the word ritam and its forms(including compounds) occurs in Rigveda in 572 places. Sayana interprets the word ritam as water(because the word has been classified under synonyms for water ). The word ritasya yonih occurs in Rigveda at 8 places and has been interpreted as birth place of water. In two hundred places the word is used in the sense of truth, including those which are used as adjectives (because the word is listed in satyanamani). In some places it is used in the sense of yajna/sacrifice. Moreover, Nighantu classifies the word ritam under synonyms for wealth also and nowhere has been assigned this sense in his interpretations by Sayana. Ritah word occurs under synonyms for pada or stages. The authority of vedic words Yaska says in his book Nirukta that the word ritam is a synonym of water, because it pervades everything. This just indicates what confusion prevailed even at earlier times about the actual meaning of words rita and ritam. 

At present also, there is confusion about what is rita and what is satya/truth. There are some references in vedic texts which differentiate between non-truth/anrita, half- truth/rita, and truth/satyam. These have been given the shape of a tree whose root is anrita, stem or unripe fruits are rita and ripe fruits are satya. This simile is well known in astrological literature and it’s meaning has been clarified by the websites attributed to an old astrologer Steiner. According to him, the unripe and ripe fruits pertain to different stages of consciousness. Different planets take the consciousness to a particular level. Jupiter or Brihaspati takes to the highest level. The root has perhaps been attributed to Saturn. So, on one side, ritam is connected to the root or anrita, which can be called those forces which sustain our basic structure. On the other side, rita is connected to truth. It seems that rita word may be the origin of word rhythm in English language. 

The present study collects specific references to rita and its compound forms in puraanic and vedic literature and comments on these to the extent possible. 

 

REFERENCE

G.N.Bhat 

Vedic Nighantu 

(Mangalore University, Karnataka - 574199, ) price 125/- 

 

संदर्भ

ऋत

*राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्। वर्धमानं स्वे दमे ॥ (दे. : अग्निः) - ऋ. १.१.८

*ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा। क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥ मित्रा- वरुणौ - ऋ.१.२.८

*वि श्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः। अद्या नूनं च यष्टवे ॥ - ऋ.१.१३.६

*तान् यजत्राँ ऋतावृधो ऽग्ने पत्नीवतस्कृधि। मध्वः सुजिह्व पायय ॥ - ऋ.१.१४.७

*ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती। ता मित्रावरुणा हुवे। - ऋ.१.२३.५

*युवोर्हि पूर्वं सवितोषसो रथमृताय चित्रं घृतवन्तमिष्यति ॥ - ऋ.१.३४.१०

*यमग्निं मेध्यातिथिः कण्व ईध ऋतादधि। तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस् तमग्निं वर्धयामसि ॥ - ऋ.१.३६.११

*दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥ -ऋ. १.३६.१९

*सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते। नात्रावखादो अस्ति वः ॥ - ऋ. १.४१.४

*यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन् धामन्नृतस्य। मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेद ॥ - ऋ.१.४३.९

*शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवो ऽग्निजिह्वा ऋतावृधः। - ऋ.१.४४.१४

*अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया। अदर्शि व स्रुतिर्दिवः ॥ - ऋ.१.४६.११

*युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत्। ऋता वनथो अक्तुभिः ॥ (अश्विनौ) - ऋ.१.४६.१४

*अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा। (अश्विनौ) - ऋ.१.४७.१

*अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा। - ऋ.१.४७.३

*ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥ - ऋ.१.४७.५

*ऋतस्य देवा, अनु व्रता गुर्भुवत्परिष्टिर्द्यौर्न भूम। वर्धन्तीमापः, पन्वा सुशिश्विमृतस्य योना, गर्भे सुजातम्। (अग्निः)- ऋ.१.६५.४

*सोमो न वेधा, ऋतप्रजातः पशुर्न शिश्वा, विभुर्दूरेभाः ॥ (अग्निः) - ऋ.१.६५.५

*य ईं चिकेत, गुहा भवन्तमा यः ससाद, धारामृतस्य। वि ये चृतन्त्यृता सपन्त आदिद् वसूनि, प्र ववाचास्मै ॥ (अग्निः) - ऋ.१.६७.८

*भजन्त विश्वे, देवत्वं नाम ऋतं सपन्तो, अमृतमेवैः ॥ (अग्निः)- ऋ.१.६८.४

*ऋतस्य प्रेषा, ऋतस्य धीतिर्विश्वायुर्विश्वे, अपांसि चक्रुः।(अग्निः)- ऋ.१.६८.५

*वर्धान्यं पूर्वीः, क्षपो विरूपाः स्थातुश्च रथमृतप्रवीतम्। (अग्निः) - ऋ.१.७०.८

*दधन्नृतं धनयन्नस्य धीतिमादिदर्यो दधिष्वो विभृत्राः। (अग्निः) -ऋ.१.७१.३

*स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन्। विदद् गव्यं सरमा दृह्ळमूर्वं येना नु कं मानुषी भोजते विट् ॥ (अग्निः)- ऋ.१.७२.८

*ऋतस्य हि धेनवो वावशानाः स्मदूध्नी पीपयन्त द्युभक्ताः।(अग्निः) - ऋ.१.७३.६

*यजा नो मित्रावरुणा यजा देवाँ ऋतं बृहत्। अग्ने यक्षि स्वं दमम् ॥ - ऋ.१.७५.५

* यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा होता यजिष्ठ इत कृणोति देवान् ॥ (अग्निः) - ऋ.१.७७.१

*यो अध्वरेषु शंतम ऋतावा होता तमू नमोभिरा कृणुध्वम्। - ऋ.१.७७.२

*एवाग्निर्गोतमेभिर्ऋतावा विप्रेभिरस्तोष्ट जातवेदाः। - ऋ.१.७७.५

*यदीमृतस्य पयसा पियानो नयन्नृतस्य पथिभी रजिष्ठैः।अर्यमा मित्रो वरुणः परिज्मा त्वचं पृञ्चन्त्युपरस्य योनौ ॥ - ऋ.१.७९.३

*इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्यं मदम्। शुक्रस्य त्वाभ्यक्षरन् धारा ऋतस्य सादने ॥ - ऋ.१.८४.४

*को अद्य युङ्क्ते धुरि गा ऋतस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायून्। (इन्द्रः) - ऋ.१.८४.१६

*मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ॥ - ऋ.१.९०.६

*त्वं सोम महे भगं त्वं यून ऋतायते। दक्षं दधासि जीवसे ॥ - ऋ.१.९१.७

*क्व ऋतं पूर्व्यं गतं कस्तद् बिभर्ति नूतनो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥ - ऋ.१.१०५.४

*कद् व ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ॥ - ऋ.१.१०५.५

*कद् व ऋतस्य धर्णसि कद् वरुणस्य चक्षणम्। कदर्यम्णो महस्पथाति क्रामेम दूढ्यो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥ - ऋ.१.१०५.६

*ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥ - ऋ.१.१०५.१२

*व्यूर्णोति हृदा मतिं नव्यो जायतामृतं वित्तं मे अस्य रोदसी ॥ - ऋ.१.१०५.१५

*अवन्तु नः पितरः सुप्रवाचना उत देवी देवपुत्रे ऋतावृधा। - ऋ.१.१०६.३

*ओम्यावती सुभरामृतस्तुभं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥ - ऋ.१.११२.२०

*यावयद्द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती। सुमङ्गलीर्बिभ्रती देववीतिमिहाद्योषः श्रेष्ठतमा व्युच्छ ॥ - ऋ.१.११३.१२

*आथर्वणायाश्विना दधीचे ऽश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतम्। स वां मधु प्र वोचदृतायन् त्वाष्ट्रं यद्दस्रावपिकक्ष्यं वाम् ॥ - ऋ.१.११७.२२

*अस्य मदे स्वर्यं दा ऋतायापीवृतमुस्रियाणामनीकम्। - ऋ.१.१२१.४

*स्वयं स यक्ष्मं हृदये नि धत्त आप यदीं होत्राभिर्ऋतावा ॥ - ऋ.१.१२२.९

*ऋतस्य योषा न मिनाति धामाहरहर्निष्कृतमाचरन्ती ॥ (उषाः) - ऋ.१.१२३.९

*ऋतस्य रश्मिमनुयच्छमाना भद्रंभद्रं क्रतुमस्मासु धेहि। उषो नो अद्य सुहवा व्युच्छास्मासु रायो मघवत्सु च स्युः ॥ - ऋ.१.१२३.१३

*एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि ज्योतिर्वसाना समना पुरस्तात्। ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ॥ (उषाः) - ऋ.१.१२४.३

*तं यज्ञसाधमपि वातयामस्यतृस्य पथा नमसा हविष्मता देवताता हविष्मता। (अग्निः) - ऋ.१.१२८.२

*तत् तु प्रयः प्रत्नथा ते शुशुक्वनं यस्मिन् यज्ञे वारमकृण्वत क्षयमृतस्य वारसि क्षयम्। - ऋ.१.१३२.३

*उभे पुनामि रोदसी ऋतेन द्रुहो दहामि सं महीरनिन्द्राः। (इन्द्रः) - ऋ.१.१३३.१

*अदर्शि गातुरुरवे वरीयसी पन्था ऋतस्य समयंस्त रश्मिभिश्चक्षुर्भगस्य रश्मिभिः। (मित्रावरुणौ) - ऋ.१.१३६.२

*तथा राजाना करथो यदीमह ऋतावाना यदीमहे ॥ - ऋ.१.१३६.४

*सुतो मित्राय वरुणाय पीतये चारुर्ऋताय पीतये ॥ - ऋ.१.१३७.२

*यद्ध त्यन्मित्रावरुणावृतादध्याददाथे अनृतं स्वेन मन्युना दक्षस्य स्वेन मन्युना। - ऋ.१.१३९.२

*यदीमुप ह्वरते साधते मतिर्ऋतस्य धेना अनयन्त सस्रुतः ॥ (अग्निः) - ऋ.१.१४१.१

*रश्मींरिव यो यमति जन्मनी उभे देवानां शंसमृत आ च सुक्रतुः ॥ - ऋ.१.१४१.११

*वि श्रयन्तामृतावृधः प्रयै देवेभ्यो महीः। पावकासः पुरुस्पृहो द्वारो देवीरसश्चतः ॥ - ऋ.१.१४२.६

*आ भन्दमाने उपाके नक्तोषासा सुपेशसा यह्वी ऋतस्य मातरा सीदतां बर्हिरा सुमत्। - ऋ.१.१४२.७

*घृतप्रतीकं व ऋतस्य धूर्षदमग्निं मित्रं न समिधान ऋञ्जते। - ऋ.१.१४३.७

*अभीमृतस्य दोहना अनूषत योनौ देवस्य सदने परीवृताः। (अग्निः) - ऋ.१.१४४.२

*अग्ने जुषस्व प्रति हर्य तद् वचो मन्द्र स्वधाव ऋतजात सुक्रतो। - ऋ.१.१४४.७

*व्यब्रवीद् वयुना मर्त्येभ्यो ऽग्निर्विद्वाँ ऋतचिद्धि सत्यः ॥ - ऋ.१.१४५.५

*उभे यत् तोके तनये दधाना ऋतस्य सामन् रणयन्त देवाः। - ऋ.१.१४७.१

*यदीमृताय भरथो यदर्वते प्र होत्रया शिम्या वीथो अध्वरम् ॥ (मित्रावरुणौ) - ऋ.१.१५१.३

*प्र सा क्षितिरसुर या महि प्रिय ऋतावानावृतमा घोषथो बृहत्। - ऋ.१.१५१.४

*आ वामृताय केशिनीरनूषत मित्र यत्र वरुण गातुमर्चथः। - ऋ.१.१५१.६

*युवां यज्ञैः प्रथमा गोभिरञ्जत ऋतावाना मनसो न प्रयुक्तिषु। - ऋ.१.१५१.८

*अवातिरतमनृतानि विश्व ऋतेन मित्रावरुणा सचेथे ॥ - ऋ.१.१५२.१

*गर्भो भारं भरत्या चिदस्य ऋतं पिपर्त्यनृतं नि तारीत् ॥ - ऋ.१.१५२.३

*पीपाय धेनुरदितिर्ऋताय जनाय मित्रावरुणा हविर्दे। - ऋ.१.१५३.३

*तमु स्तोतारः पूर्व्यं यथा विद ऋतस्य गर्भं जनुषा पिपर्तन। (विष्णुः) - ऋ.१.१५६.३

*वेधा अजिन्वत् त्रिषधस्थ आर्यमृतस्य भागे यजमानमाभजत् ॥ - ऋ.१.१५६.५

*प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी ऋतावृधा मही स्तुषे विदथेषु प्रचेतसा। - ऋ.१.१५९.१

*ते हि द्यावापृथिवी विश्वशंभुव ऋतावरी रजसो धारयत्कवी। - ऋ.१.१६०.१

*वधर्यन्तीं बहुभ्यः प्रैको अब्रवीदृता वदन्तश्चमसाँ अपिंशत ॥ (ऋभवः) - ऋ.१.१६१.९

*अत्रा ते भद्रा रशना अपश्यमृतस्य या अभिरक्षन्ति गोपाः ॥ (अश्वः) - ऋ.१.१६३.५

*माता पितरमृत आ बभाज धीत्यग्रे मनसा सं हि जग्मे। - ऋ.१.१६४.८

*द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य। - ऋ.१.१६४.११

*यदा मागन् प्रथमजा ऋतस्यादिद् वाचो अश्नुवे भागमस्याः ॥ - ऋ.१.१६४.३७

*कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति। त आववृत्रन् त्सदनादृतस्यादिद् घृतेन पृथिवी व्युद्यते ॥ - ऋ.१.१६४.४७

*मन्मानि चित्रा अपिवातयन्त एषां भूत नवेदा म ऋतानाम् ॥ (मरुत्वानिन्द्रः) - ऋ.१.१६५.१३

*त्वे राय इन्द्र तोशतमाः प्रणेतारः कस्य चिदृतायोः। - ऋ.१.१६९.५

*ये चिद्धि पूर्व ऋतसाप आसन् त्साकं देवेभिरवदन्नृतानि। - ऋ.१.१७९.२

*अन्तर्यद् वनिनो वामृतप्सू ह्वारो न शुचिर्यजते हविष्मान् ॥ (अश्विनौ) - ऋ.१.१८०.३

*उर्वी सद्मनी बृहती ऋतेन हुवे देवानामवसा जनित्री। - ऋ.१.१८५.६

*ऋतं दिवे तदवोचं पृथिव्या अभिश्रावाय प्रथमं सुमेधाः। - ऋ.१.१८५.१०

*तनूनपादृतं यते मध्वा यज्ञः समज्यते। दधत् सहस्रिणीरिषः ॥ (आप्रीसूक्तं) - ऋ.१.१८८.२

*वि घ त्वावाँ ऋतजात यंसद् गृणानो अग्ने तन्वे वरूथम्। - ऋ.१.१८९.६

*तवाग्ने होत्रं तव पोत्रमृत्वियं तव नेष्ट्रं त्वमग्निदृतायतः। - ऋ.२.१.२

*त्वे इन्द्राप्यभूम विप्रा धियं वनेम ऋतया सपन्तः। - ऋ.२.११.१२

*आ विबाध्या परिरापस्तमांसि च ज्योतिष्मन्तं रथमृतस्य तिष्ठसि। - (बृहस्पतिः) - ऋ.२.२३.३

*यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् ॥ (बृहस्पतिः) - ऋ.२.२३.१५

*स ऋणचिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि। - ऋ.२.२३.१७

*ऋतावानः प्रतिचक्ष्यानृता पुनरात आ तस्थुः कवयो महस्पथः। - ऋ.२.२४.७

*ऋतज्येन क्षिप्रेण ब्रह्मणस्पतिर्यत्र वष्टि प्र तदश्नोति धन्वना। - ऋ.२.२४.८

*दीर्घाधियो रक्षमाणा असुर्यमृतावानश्चयमाना ऋणानि ॥ (आदित्याः) - ऋ.२.२७.४

*ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ - ऋ.२.२७.८

*यो राजभ्य ऋतनिभ्यो ददाश यं वर्धयन्ति पुष्टयश्च नित्याः। - ऋ.२.२७.१२

*प्र सीमादित्यो असृजद् विधर्ताf ऋतं सिन्धवो वरुणस्य यन्ति। - ऋ.२.२८.४

*वि मच्छ्रथाय रशनामिवाग ऋध्याम ते वरुण खामृतस्य। - ऋ.२.२८.५

*अपो सु म्यक्ष वरुण भियसं मत् सम्राळृतावोऽनु मा गृभाय। - ऋ.२.२८.६

*ऋतं देवाय कृण्वते सवित्र इन्द्रायाहिघ्ने न रमन्त आपः। (इन्द्रः) - ऋ.२.३०.१

*अस्य मे द्यावापृथिवी ऋतायतो भूतमवित्री वचसः सिषासतः। - ऋ.२.३२.१

*ते क्षोणीभिररुणेभिर्नाञ्जिभी रुद्रा ऋतस्य सदनेषु वावृधुः। - ऋ.२.३४.१३

*यो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति। (अपांनपात्) - ऋ.२.३५.८

*अयं वां मित्रावरुणा सुतः सोम ऋतावृधा। ममेदिह श्रुतं हवम्। - ऋ.२.४१.४

*इमा ब्रह्म सरस्वति जुषस्व वाजिनीवति। या ते मन्म गृत्समदा ऋतावरि प्रिया देवेषु जुह्वति ॥ - ऋ.२.४१.१८

*ऋतस्य योनावशयद्दमूना जामीनामग्निरपसि स्वसqणाम् ॥ - ऋ.३.१.११

*वैश्वानराय धिषणामृतावृधे घृतं न पूतमग्नये जनामसि। - ऋ.३.२.१

*रथीर्ऋतस्य बृहतो विचर्षणिरग्निर्देवानामभवत्~ पुरोहितः ॥ - ऋ.३.२.८

*ऋतावानं यज्ञियं विप्रमुक्थ्यमा यं दधे मातरिश्वा दिवि क्षयम्। - ऋ.३.२.१३

*सप्त होत्राणि मनसा वृणाना इन्वन्तो विश्वं प्रति यन्नृतेन। - ऋ.३.४.५

*दैव्या होतारा प्रथमा न्यृञ्जे सप्त पृक्षासः स्वधया मदन्ति। ऋतं शंसन्त ऋतमित् त आहुरनु व्रतं व्रतपा दीध्यानाः ॥ -ऋ.३.४.७

*पूर्वीर्ऋतस्य संदृशश्चकानः सं दूतो अद्यौदुषसो विरोके। (अग्निः) - ऋ.३.५.२

*अधाय्यग्निर्मानुषीषु विक्ष्वपां गर्भो मित्र ऋतेन साधन्। - ऋ.३.५.३

*ऋतस्य वा केशिना योग्याभिर्घृतस्नुवा रोहिता धुरि धिष्व। - ऋ.३.६.६

*प्राची अध्वरेव तस्थतुः सुमेके ऋतावरी ऋतजातस्य सत्ये ॥ - ऋ.३.६.१०

*ऋतस्य त्वा सदसि क्षेमयन्तं पर्येका चरति वर्तनिं गौः ॥ (अग्निः) - ऋ.३.७.२

*ऋतं शंसन्त ऋतमित् त आहुरनु व्रतं व्रतपा दीध्यानाः ॥ (अग्निः) - ऋ.३.७.८

*त्वां यज्ञेष्वृत्विजमग्ने होतारमीळते। गोपा ऋतस्य दीदिहि स्वे दमे ॥ - ऋ.३.१०.२

*इन्द्राग्नी अपसस्पर्युप प्र यन्ति धीतयः। ऋतस्य पथ्या अनु। - ऋ.३.१२.७

*ऋतावा यस्य रोदसी दक्षं सचन्त ऊतयः। हविष्मन्तस्तमीळते तं सनिष्यन्तोऽवसे ॥ (अग्निः) - ऋ.३.१३.२

*अयामि ते नमउक्तिं जुषस्व ऋतावस्तुभ्यं चेतते सहस्वः। - (अग्निः) - ऋ.३.१४.२

*अग्ने त्री ते वाजिना त्री षधस्था तिस्रस्ते जिह्वा ऋतजात पूर्वीः। - ऋ.३.२०.२

*अग्निर्नेता भग इव क्षितीनां दैवीनां देव ऋतुपा ऋतावा। - ऋ.३.२०.४

*अग्निं यन्तुरमप्तुरमृतस्य योगे वनुषः। विप्रा वाजैः समिन्धते। - ऋ.३.२७.११

*शासद् वह्निर्दुहितुर्नप्त्यं गाद् विद्वाँ ऋतस्य दीधितिं सपर्यन्। (इन्द्रः) - ऋ.३.३१.१

*विश्वामविन्दन् पथ्यामृतस्य प्रजानन्नित्ता नमसा विवेश। (इन्द्रः) - ऋ.३.३१.५

*इदं चिन्नु सदनं भूर्येषां येन मासाँ असिषासन्नृतेन ॥ - ऋ.३.३१.९

*प्र सूनृता दिशमान ऋतेन दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वाः ॥ - ऋ.३.३१.२१

*रमध्वं मे वचसे सोम्याय ऋतावरीरुप मुहूर्तमेवैः। (नद्यः) - ऋ.३.३३.५

*त्रिर्यद् दिवः परि मुहूर्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा ॥ - ऋ.३.५३.८

*युवोर्ऋतं रोदसी सत्यमस्तु महे षु णः सुविताय प्र भूतम्। - ऋ.३.५४.३

*उतो हि वां पूर्व्या आविविद्र ऋतावरी रोदसी सत्यवाचः। - ऋ.३.५४.४

*कविर्नृचक्षा अभि षीमचष्ट ऋतस्य योना विधृते मदन्ती। - ऋ.३.५४.६

*सुकृत् सुपाणिः स्ववाँ ऋतावा देवस्त्वष्टावसे तानि नो धात्। - ऋ.३.५४.१२

*विद्युद्रथा मरुत ऋष्टिमन्तो दिवो मर्या ऋतजाता अयासः। - ऋ.३.५४.१३

*समिद्धे अग्नावृतमिद् वदेम महद् देवानामसुरत्वमेकम् ॥ - ऋ.३.५५.३

*ऋतस्य त सदसीळे अन्तर्महद् देवानामसुरत्वमेकम्।। - ऋ.३.५५.१२

*ऋतस्य सा पयसा पिन्वतेळा महद् देवानामसुरत्वमेकम् ॥ - ऋ.३.५५.१३

*ऋतस्य सद्म वि चरामि विद्वान् महद् देवानामसुरत्वमेकम्। - ऋ.३.५५.१४

*षड् भाराँ एको अचरन् बिभर्त्यृतं वर्षिष्ठमुप गाव आगुः। - ऋ.३.५६.२

*ऋतावरीर्योषणास्तिस्रो अप्यास्त्रिरा दिवो विदथे पत्यमानाः ॥ - ऋ.३.५६.५

*ऋतावान इषिरा दूळभासस्त्रिरा दिवो विदथे सन्तु देवाः ॥ - ऋ.३.५६.८

*सुयुग् वहन्ति प्रति वामृतेनोर्ध्वा भवन्ति पितरेव मेधाः। (अश्विनौ) - ऋ.३.५८.२

*रथो ह वामृतजा अद्रिजूतः परि द्यावापृथिवी याति सद्यः ॥ - ऋ.३.५८.८

*ऋतावरी दिवो अर्कैरबोध्या रेवती रोदसी चित्रमस्थात्। (उषाः) - ऋ.३.६१.६

*ऋतस्य बुध्न उषसामिषण्यन् वृषा मही रोदसी आ विवेश। - ऋ.३.६१.७

*सोमो जिगाति गातुविद् देवानामेति निष्कृतम्। ऋतस्य योनिमासदम् ॥ - ऋ.३.६२.१३

*गृणाना जमदग्निना योनावृतस्य सीदतम्। पातं सोममृतावृधा ॥ - ऋ.३.६२.१८

*ऋतावानमादित्य चर्षणीधृतं राजानं चर्षणीधृतम्। - ऋ.४.१.२

*प्र शर्ध आर्त प्रथमं विपन्याf ऋतस्य योना वृषभस्य नीळे। - ऋ.४.१.१२

*अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभि प्र सेदुर्ऋतमाशुषाणाः। - ऋ.४.१.१३

*यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा देवो देवेष्वरतिर्निधायि। (अग्निः) - ऋ.४.२.१

*अत्या वृधस्नू रोहिता घृतस्नू ऋतस्य मन्ये मनसा जविष्ठा। - ऋ.४.२.३

* रथं न क्रन्तो अपसा भुरिजोर्ऋतं येमु: सुध्य आशुषाणाः ॥ - ऋ.४.२.१४

*अधा यथा नः पितरः परासः प्रत्नासो अग्न ऋतमाशुषाणाः। - ऋ.४.२.१६

*अकर्म ते स्वपसो अभूम ऋतमवस्रन्नुषसो विभातीः। - ऋ.४.२.१९

*त्वं चिन्नः शम्या अग्ने अस्या ऋतस्य बोध्यृतचित् स्वाधीः। - ऋ.४.३.४

*कथा शर्धाय मरुतामृताय कथा सूरे बृहते पृच्छ्यमानः। - ऋ.४.३.८

*ऋतेन ऋतं नियतमीळ आ गोरामा सचा मधुमत् पक्वमग्ने। - ऋ.४.३.९

*ऋतेन हि ष्मा वृषभश्चिदक्तः पुमाँ अग्निः पयसा पृष्ठ्येन। - ऋ.४.३.१०

*ऋतेनाद्रिं व्यसन् भिदन्तः समङ्गिरसो नवन्त गोभिः। - ऋ.४.३.११

*ऋतेन देवीरमृता अमृक्ता अर्णोभिरापो मधुमद्भिरग्ने। - ऋ.४.३.१२

*ऋतस्य पदे अधि दीद्यानं गुहा रघुष्यद् रघुयद् विवेद। - ऋ.४.५.९

*ऋतं वोचे नमसा पृच्छ्यमानस्तवाशसा जातवेदो यदीदम्। - ऋ.४.५.११

*परि त्मना मितद्रुरेति होता ऽग्निर्मन्द्रो मधुवचा ऋतावा। - ऋ.४.६.५

*ऋतावानं विचेतसं पश्यन्तो द्यामिव स्तृभिः। (अग्निः) - ऋ.४.७.३

*महाँ अग्निर्नमसा रातहव्यो वेरध्वराय सदमिदृतावा ॥ - ऋ.४.७.७

*स वेद देव आनमं देवाँ ऋतायते दमे। दाति प्रियाणि चिद् वसु ॥ (अग्निः) - ऋ.४.८.३

*अधा ह्यग्ने क्रतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधोः। रथीर्ऋतस्य बृहतो बभूथ ॥ - ऋ.४.१०.२

*कृतं चिद्धि ष्मा सनेमि द्वेषो ऽग्न इनोषि मर्तात्। इत्था यजमानादृतावः ॥ - ऋ.४.१०.७

* स्वे योनौ नि षदतं सरूपा वि वां चिकित्सदृतचिद्ध नारी ॥ (इन्द्रः) - ऋ.४.१६.१०

*एता अर्षन्त्यललामवन्तीर्ऋतावरीरिव संक्रोशमानाः। - ऋ.४.१८.६

*प्राग्रुवो नभन्वो न वक्वा ध्वस्रा अपिन्वद् युवतीर्ऋतज्ञाः। (इन्द्रः) - ऋ.४.१९.७

*आ यात्विन्द्रो दिव आ पृथिव्या मक्षू समुद्रादुत वा पुरीषात्। स्वर्णरादवसे नो मरुत्वान् परावतो वा सदनादृतस्य ॥ - ऋ.४.२१.३

*देवो भवन्नवेदा म ऋतानां नमो जगृभ्वाँ अभि यज्जुजोषत् ॥ - ऋ.४.२३.४

*ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीर्ऋतस्य धीतिर्वृजिनानि हन्ति। ऋतस्य श्लोको बधिरा ततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः ॥ ऋतस्य दृळ्हा धरुणानि सन्ति पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि। ऋतेन दीर्घमिषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमा विवेशुः ॥ ऋतं येमान ऋतमिद् वनोत्यतृस्य शुष्मस्तुरया उ गव्युः। ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते ॥ - ऋ.४.२३.८-१०

*उत स्य वाजी सहुरिर्ऋतावा शुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये। - ऋ.४.३८.७

*हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्। नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम् ॥ - ऋ.४.४०.५

*अहमपो अपिन्वमुक्षमाणा धारयं दिवं सदन ऋतस्य। ऋतेन पुत्रो अदितेर्ऋतावोत त्रिधातु प्रथयद्वि भूम ॥ - ऋ.४.४२.४

*ऋतस्य वा वनुषे पूर्व्याय नमो येमानो अश्विना ववर्तत् ॥ - ऋ.४.४४.३

*बृहस्पते या परमा परावदत आ त ऋतस्पृशो नि षेदुः। - ऋ.४.५०.३

*यूयं हि देवीर्ऋतयुग्भिरश्वैः परिप्रयाथ भुवनानि सद्यः। प्रबोधयन्तीरुषसः ससन्तं द्विपाच्चतुष्पाच्चरथाय जीवम् ॥ - ऋ.४.५१.५

*ता घा ता भद्रा उषसः पुरासुरभिष्टिद्युम्ना ऋतजातसत्याः। - ऋ.४.५१.७

*ऋतस्य देवीः सदसो बुधाना गवां न सर्गा उषसो जरन्ते ॥ - ऋ.४.५१.८

*अश्वेव चित्रारुषी माता गवामृतावरी। सखाभूदश्विनोरुषाः ॥ - ऋ.४.५२.२

*विधातारो वि ते दधुरजस्रा ऋतधीतयो रुरुचन्त दस्माः। - ऋ.४.५५.२

*ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरर्कैः ॥ - ऋ.४.५६.२

*पुनाने तन्वा मिथः स्वेन दक्षेण राजथः। ऊह्याथे सनादृतम् ॥ मही मित्रस्य साधथस्तरन्ती पिप्रती ऋतम्। परि यज्ञं नि षेदथुः ॥ - ऋ.४.५६.६-७

*मधुश्चुतं घृतमिव सुपूतमृतस्य नः पतयो मृळयन्तु ॥ - ऋ.४.५७.२

*युवा कविः पुरुनिःष्ठ ऋतावा धर्ता कृष्टीनामुत मध्य इद्धः ॥ (अग्निः) - ऋ.५.१.६

*आ यस्ततान रोदसी ऋतेन नित्यं मृजन्ति वाजिनं घृतेन ॥ (अग्निः) - ऋ.५.१.७

*कदा चिकित्वो अभि चक्षसे नो ऽग्ने कदाँ ऋतचिद् यातयासे ॥ - ऋ.५.३.९

*सुप्रतीके वयोवृधा यह्वी ऋतस्य मातरा। दोषामुषासमीमहे ॥ - ऋ.५.५.६

*सं यदिषो वनामहे सं हव्या मानुषाणाम्। उत द्युम्नस्य शवस ऋतस्य रश्मिमा ददे ॥ (अग्निः) -ऋ.५.७.३

*त्वामग्न ऋतायवः समीधिरे प्रत्नं प्रत्नास ऊतये सहस्कृत। - ऋ.५.८.१

*प्राग्नये बृहते यज्ञियाय ऋतस्य वृष्णे असुराय मन्म। - ऋ.५.१२.१

*ऋतं चिकित्व ऋतमिच्चिकिद्ध्यतृस्य धारा अनु तृन्धि पूर्वीः। - ऋ.५.१२.२

*कया नो अग्न ऋतयन्नृतेन भुवो नवेदा उचथस्य नव्यः। - ऋ.५.१२.३

*यस्ते अग्ने नमसा यज्ञमीट्ट ऋतं स पात्यरुषस्य वृष्णः। - ऋ.५.१२.६

*ऋतेन ऋतं धरुणं धारयन्त यज्ञस्य शाके परमे व्योमन्। (अग्निः) - ऋ.५.१५.२

*राय ऋताय सुक्रतो गोभिः ष्याम सधमादो वीरैः स्याम सधमादः ॥ (अग्निः) - ऋ.५.२०.४

*समिद्धः शुक्र दीदिह्यतृस्य योनिमासदः ससस्य योनिमासदः ॥ (अग्निः) - ऋ.५.२१.४

*अच्छा वो अग्निमवसे देवं गासि स नो वसुः। रासत् पुत्र ऋषूणामृतावा पर्षति द्विषः ॥ - ऋ.५.२५.१

*यो म इति प्रवोचत्यश्वमेधाय सूरये। दददृचा सनिं यते ददन्मेधामृतायते ॥ - ऋ.५.२७.४

*ऋतस्य वा सदसि त्रासीथां नो यज्ञायते वा पशुषो न वाजान् ॥ - ऋ.५.४१.१

*इषुध्यव ऋतसापः पुरंधीर्वस्वीर्नो अत्र पत्नीरा धिये धुः ॥ - ऋ.५.४१.६

*पितुर्न पुत्र उपसि प्रेष्ठ आ घर्मो अग्निमृतयन्नसादि ॥ - ऋ.५.४३.७

*सुगोपा असि न दभाय सुक्रतो परो मायाभिर्ऋत आस नाम ते ॥ - ऋ.५.४४.२

*प्र व एते सुयुजो यामन्निष्टये नीचीरमुष्मै यम्य ऋतावृधः। - ऋ.५.४४.४

*ऋतं यती सरमा गा अविन्दद् विश्वानि सत्याङ्गिराश्चकार ॥ - ऋ.५.४५.७

*उत्स आसां परमे सधस्थ ऋतस्य पथा सरमा विदद् गाः ॥ - ऋ.५.४५.८

*ऋतधीतय आ गत सत्यधर्माणो अध्वरम्। अग्नेः पिबत जिह्वया ॥ - ऋ.५.५१.२

*समच्यन्त वृजनातित्विषन्त यत् स्वरन्ति घोषं विततमृतायवः ॥ - ऋ.५.५४.१२

*हये नरो मरुतो मृळता नस्तुवीमघासो अमृता ऋतज्ञाः। - ऋ.५.५७.८, ५.५८.८

*प्र वः स्पळक्रन् त्सुविताय दावने ऽर्चा दिवे प्र पृथिव्या ऋतं भरे। (मरुतः) - ऋ.५.५९.१

*को वेद नूनमेषां यत्रा मदन्ति धूतयः। ऋतजाता अरेपसः ॥ - ऋ.५.६१.१४

*ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यश्वान्। (मित्रावरुणौ) - ऋ.५.६२.१

*ऋतस्य गोपावधि तिष्ठथो रथं सत्यधर्माणा परमे व्योमनि। - ऋ.५.६३.१

*ऋतेन विश्वं भुवनं वि राजथः सूर्यमा धत्थो दिवि चित्र्यं रथम् ॥ (मित्रावरुणौ) - ऋ.५.६३.७

*ता सत्पती ऋतावृध ऋतावाना जने जने ॥ (मित्रावरुणौ) - ऋ.५.६५.२

*आ चिकितान सुक्रतू देवौ मर्त रिशादसा। वरुणाय ऋतपेशसे दधीत प्रयसे महे ॥ (मित्रावरुणौ) - ऋ.५.६६.१

*तदृतं पृथिवि बृहच्छ्रव एष ऋषीणाम्। ज्रयसानावरं पृथ्वति क्षरन्ति यामभिः ॥ (मित्रावरुणौ) - ऋ.५.६६.५

*ते हि सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जनेजने। सुनीथासः सुदानवोंऽहोश्चिदुरुचक्रयः ॥ (मित्रावरुणौ) - ऋ.५.६७.४

*प्र वो मित्राय गायत वरुणाय विपा गिरा। महिक्षत्रावृतं बृहत् ॥ - ऋ.५.६८.१

*ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते। अद्रुहा देवौ वर्धेते। - ऋ.५.६८.४

*द्युतद्यामानं बृहतीमृतेन ऋतावरीमरुणप्सुं विभातीम्। (उषाः) - ऋ.५.८०.१

*ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति। (उषाः) - ऋ.५.८०.४

*अग्ने स क्षेषदृतपा ऋतेजा उरु ज्योतिर्नशते देवयुष्टे। - ऋ.६.३.१

*मूर्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृत आ जातमग्निम्। - ऋ.६.७.१

*अयं स सूनुः सहस ऋतावा दूरात् सूर्यो न शोचिषा ततान ॥ (अग्निः) - ऋ.६.१२.१

*अग्ने मित्रो न बृहत ऋतस्याऽसि क्षत्ता वामस्य देव भूरेः ॥ (अग्निः) - ऋ.६.१३.२

*यं त्वं प्रचेत ऋतजात राया सजोषा नप्त्रापां हिनोषि ॥ - ऋ.६.१३.३

*देवानामुत यो मर्त्यानां यजिष्ठः स प्र यजतामृतावा ॥ (अग्निः) - ऋ.६.१५.१३

*ऋता यजासि महिना वि यद्भूर्हव्या वह यविष्ठ या ते अद्य ॥ (अग्निः) - ऋ.६.१५.१४

*आ देवान् वक्ष्यमृताँ ऋतावृधो यज्ञं देवेषु पिस्पृशः ॥ - ऋ.६.१५.१८

*गर्भे मातुः पितुष्पिता विदिद्युतानो अक्षरे। सीदन्नतृस्य योनिमा। (अग्निः) - ऋ.६.१६.३५

*अधारयो रोदसी देवपुत्रे प्रत्ने मातरा यह्वी ऋतस्य ॥ (इन्द्रः) - ऋ.६.१७.७

*ये अग्निजिह्वा ऋतसाप आसुर्ये मनुं चक्रुरुपरं दसाय ॥ (इन्द्रः) - ऋ.६.२१.११

*अयमुशानः पर्यद्रिमुस्रा ऋतधीतिभिर्ऋतयुग्युजानः। (इन्द्रः) - ऋ.६.३९.२

*अयमीयत ऋतयुग्भिरश्वैः स्वर्विदा नाभिना चर्षणिप्राः ॥ (इन्द्रः) - ऋ.६.३९.४

*ऋतस्य पथि वेधा अपायि श्रिये मनांसि देवासो अक्रन्। (इन्द्रः) - ऋ.६.४४.८

*यमापो अद्रयो वना गर्भमृतस्य पिप्रति। सहसा यो मथितो जायते नृभिः पृथिव्या अधि सानवि ॥ (अग्निः) - ऋ.६.४८.५

*नू नो रयिं रथ्यं चर्षणिप्रां पुरुवीरं मह ऋतस्य गोपाम्। - ऋ.६.४९.१५

*द्विजन्मानो य ऋतसापः सत्याः स्वर्वन्तो यजता अग्निजिह्वाः ॥ - ऋ.६.५०.२

*विश्वे देवा ऋतावृधो हुवानाः स्तुता मन्त्राः कविशस्ता अवन्तु ॥ - ऋ.६.५०.१४

*ऋतस्य शुचि दर्शतमनीकं रुक्मो न दिव उदिता व्यद्यौत् ॥ - ऋ.६.५१.१

*स्तुष उ वो मह ऋतस्य गोपानदितिं मित्रं वरुणं सुजातान्। - ऋ.६.५१.३

*ऋतस्य वो रथ्यः पूतदक्षानृतस्य पस्त्यसदो अदब्धान्। - ऋ.६.५१.९

*सुक्षत्रासो वरुणो मित्रो अग्निर्ऋतधीतयो वक्मराजसत्याः ॥ - ऋ.६.५१.१०

*विश्वेदेवा ऋतावध ऋतुभिर्हवनश्रुतः। जुषन्तां युज्यं पयः ॥ - ऋ.६.५२.१०

*एहि वा विमुचो नपादाघृणे सं सचावहै। रथीर्ऋतस्य नो भव ॥ (पूषा) - ऋ.६.५५.१

*य इन्द्राग्नी सुतेषु वां स्तवत् तेष्वृतावृधा। - ऋ.६.५९.४

*सा नो विश्वा अति द्विषः स्वसॄरन्या ऋतावरी। अतन्नहेव सूर्यः ॥ (सरस्वती) - ऋ.६.६१.९

*अश्वा न या वाजिना पूतबन्धू ऋता यद्गर्भमदितिर्भरध्यै। (मित्रावरुणौ) - ऋ.६.६७.४

*मघोनां मंहिष्ठा तुविशुष्म ऋतेन वृत्रतुरा सर्वसेना ॥ (इन्द्रावरुणौ) - ऋ.६.६८.२

*स इत् सुदानुः स्ववां ऋतावेन्द्रा यो वां वरुण दाशति त्मन्। (इन्द्रावरुणौ) - ऋ.६.६८.५

*यो अद्रिभित् प्रथमजा ऋतावा बृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान्। - ऋ.६.७३.१

*पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत ॥ - ऋ.६.७५.१०

*मा नः क्षुधे मा रक्षस ऋतावो मा नो दमे मा वन आ जुहूर्थाः। (अग्निः) - ऋ.७.१.१९

*यो मर्त्येषु निध्रुविर्ऋतावा तपुर्मूर्धा घृतान्नः पावकः ॥ - ऋ.७.३.१

*विशामधायि विश्पतिर्दुरोणे ऽग्निर्मन्द्रो मधुवचा ऋतावा ॥ - ऋ.७.७.४

*प्र ये विशस्तिरन्त श्रोषमाणा आ ये मे अस्य दीधयन्नृतस्य ॥ - ऋ.७.७.६

*आ न ऋते शिशीहि विश्वमृत्विजं सुशंसो यश्च दक्षते ॥ - ऋ.७.१६.६

*यज्ञैर्य इन्द्रे दधते दुवांसि क्षयत् स राय ऋतपा ऋतेजाः ॥ (इन्द्रः) - ऋ.७.२०.६

*स शर्धदर्यो विषुणस्य जन्तोर्मा शिश्नदेवा अपि गुर्ऋतं नः ॥ (इन्द्रः) - ऋ.७.२१.५

*आपश्चित् पिप्युः स्तर्यो न गावो नक्षन्नृतं जरितारस्त इन्द्र। - ऋ.७.२३.४

*ह्वयामि देवाँ अयातुरग्ने साधन्नृतेन धियं दधामि ॥ - ऋ.७.३४.८

*मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धान्मा यज्ञो अस्य स्रिधदृतायोः ॥ - ऋ.७.३४.१७

*ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः। ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥ - ऋ.७.३५.१५

*प्र ब्रह्मैतु सदनादृतस्य वि रश्मिभिः ससृजे सूर्यो गाः। - ऋ.७.३६.१

*यजन्ते अस्य सख्यं वयश्च नमस्विनः स्व ऋतस्य धामन्। - ऋ.७.३६.५

*उदु तिष्ठ सवितः श्रुध्यस्य हिरण्यपाणे प्रभृतावृतस्य। - ऋ.७.३८.२

*वाजेवाजेऽवत वाजिनो नो धनेषु विप्रा अमृता ऋतज्ञाः। अस्य मध्वः पिबत मादयध्वं तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः ॥ - ऋ.७.३८.८

*भेजाते अद्री रथ्येव पन्थामृतं होता न इषितो यजाति ॥ - ऋ.७.३९.१

*नू रोदसी अभिष्टुते वसिष्ठैर्ऋतावानो वरुणो मित्रो अग्निः। - ऋ.७.३९.७

*अयं हि नेता वरुण ऋतस्य मित्रो राजानो अर्यमापो धुः। - ऋ.७.४०.४

*नू रोदसी अभिष्टुते वसिष्ठैर्ऋतावानो वरुणो मित्रो अग्निः। - ऋ.७.४०.७

*ते सीषपन्त जोषमा यजत्रा ऋतस्य धाराः सुदुघा दुहानाः। - ऋ.७.४३.४

*आ नो दधिक्राः पथ्यामनक्त्वृतस्य पन्थामन्वेतवा उ। - ऋ.७.४४.५

*प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य। (द्यावापृथिवी) - ऋ.७.५३.२

*ऋतेन सत्यमृतसाप आयञ्छुचिजन्मानः शुचयः पावकाः ॥ (मरुतः) - ऋ.७.५६.१२

*इम ऋतस्य वावृधुर्दुरोण शग्मासः पुत्रा अदितेरदब्धाः ॥ - ऋ.७.६०.५

*प्र वां स मित्रावरुणावृतावा विप्रो मन्मानि दीर्घश्रुदियर्ति। - ऋ.७.६१.२

*वि नः सहस्रं शुरुधो रदन्त्वृतावानो वरुणो मित्रो अग्निः। (सूर्यः) - ऋ.७.६२.३

*आ राजाना मह ऋतस्य गोपा सिन्धुपती क्षत्रिया यातमर्वाक्। (मित्रावरुणौ) - ऋ.७.६४.२

*ऋतस्य मित्रावरुणा पथा वामपो न नावा दुरिता तरेम ॥ - ऋ.७.६५.३

*बहवः सूरचक्षसो ऽग्निजिह्वा ऋतावृधः। (मित्रावरुणौ) - ऋ.७.६६.१०

*तद् वो अद्य मनामहे सूक्तैः सूर उदिते। यदोहते वरुणो मित्रो अर्यमा यूयमृतस्य रथ्यः ॥ - ऋ.७.६६.१२

*ऋतावान ऋतजाता ऋतावृधो घोरासो अनृतद्विषः। (आदित्याः) - ऋ.७.६६.१३

*आ यातं मित्रावरुणा जुषाणावाहुतिं नरा। पातं सोममृतावृधा ॥ - ऋ.७.६६.१९

*आ यातं मित्रावरुणा जुषाणावाहुतिं नरा। पातं सोममृतावृधा ॥ - ऋ.७.६६.१९

*स्यूमगभस्तिमृतयुग्भिरश्वैराश्विना वसुमन्तं वहेथाम् ॥ - ऋ.७.७१.३

*व्युषा आवो दिविजा ऋतेनाऽऽविष्कृण्वाना महिमानमागात्। - ऋ.७.७५.१

*त इद् देवानां सधमाद आसन्नृतावानः कवयः पूर्व्यासः। गूळ्हं ज्योतिः पितरो अन्वविन्दन् त्सत्यमन्त्रा अजनयन्नुषासम् ॥ - ऋ.७.७६.४

*अवध्रं ज्योतिरदितेर्ऋतावृधो देवस्य श्लोकं सवितुर्मनामहे ॥ (इन्द्रावरुणौ) - ऋ.७.८२.१०, ७.८३.१०

*स सुक्रतुर्ऋतचिदस्तु होता य आदित्य शवसा वां नमस्वान्। (इन्द्रावरुणौ) - ऋ.७.८५.४

*सर्गो न सृष्टो अर्वतीर्ऋतायञ्चकार महीरवनीरहभ्यः ॥ (वरुणः) - ऋ.७.८७.१

*ऋतावानः कवयो यज्ञधीराः प्रचेतसो य इषयन्त मन्म ॥ (वरुणः) - ऋ.७.८७.३

*अयमु ते सरस्वति वसिष्ठो द्वारावृतस्य सुभगे व्यावः। - ऋ.७.९५.६

*तन्म ऋतं पातु शतशारदाय यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥ - ऋ.७.१०१.६

*कदु स्तुवन्त ऋतयन्त देवत ऋषिः को विप्र ओहते। (इन्द्रः) - ऋ.८.३.१४

*प्रजामृतस्य पिप्रतः प्र यद्भरन्त वह्नयः। विप्रा ऋतस्य वाहसा ॥ - ऋ.८.६.२

*गुहा सतीरुप त्मना प्र यच्छोचन्त धीतयः। कण्वा ऋतस्य धारया ॥ (इन्द्रः) - ऋ.८.६.८

*अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजनि ॥ - ऋ.८.६.१०

*इमास्त इन्द्र पृश्नयो घृतं दुहत आशिरम्। एनामृतस्य पिप्युषीः ॥ - ऋ.८.६.१९

*नहि ष्म यद्ध वः पुरा स्तोमेभिर्वृक्तबर्हिषः। शर्धाf ऋतस्य जिन्वथ ॥ (मरुतः) - ऋ.८.७.२१

*त्रीणि पदान्यश्विनोराविः सान्ति गुहा परः। कवी ऋतस्य पत्मभिरर्वाग्जीवेभ्यस्परि ॥ - ऋ.८.८.२३

*येन सिन्धुं महीरपो रथाf इव प्रचोदयः। पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे ॥ (इन्द्रः) - ऋ.८.१२.३

*यं विप्रा उक्थवाहसो ऽभिप्रमन्दुरायवः। घृतं न पिप्य आसन्यतृस्य यत् ॥ उत स्वराजे अदितिः स्तोममिन्द्राय जीजनत्। पुरुप्रशस्तमूतय ऋतस्य यत् ॥ अभि वह्नय ऊतये ऽनूषत प्रशस्तये। न देव विव्रता हरी ऋतस्य यत् ॥ - ऋ.८.१२.१३-१५

*इन्द्र त्वमवितेदसीत्था स्तुवतो अद्रिवः। ऋतादियर्मि ते धियं मनोयुजम् ॥ - ऋ.८.१३.२६

*वयं ते वो वरुण मित्रार्यमन् त्स्यामेदृतस्य रथ्यः ॥ - ऋ.८.१९.३५

*उप नो वाजिनीवसू यातमृतस्य पथिभिः। (अश्विनौ) - ऋ.८.२२.७

*यज्ञेभिरद्भुतक्रतुं यं कृपा सूदयन्त इत्। मित्रं न जने सुधितमृतावनि ॥ ऋतावानमृतायवो यज्ञस्य साधनं गिरा। उपो एनं जुजुषुर्नमसस्पदे ॥ (अग्निः) - ऋ.८.२३.८-९

*अग्ने त्वं यशा अस्या मित्रावरुणा वह। ऋतावाना सम्राजा पूतदक्षसा ॥ - ऋ.८.२३.३०

*ता वां विश्वस्य गोपा देवा देवेषु यज्ञिया। ऋतावाना यजसे पूतदक्षसा ॥ (मित्रावरुणौ) - ऋ.८.२५.१

*ता माता विश्ववेदसा ऽसुर्या प्रमहसा। मही जजानादितिर्ऋतावरी ॥ महान्ता मित्रावरुणा सम्राजा देवावसुरा। ऋतावानावृतमा घोषतो बृहत् ॥ - ऋ.८.२५.३-४

*तव वायवृतस्पते त्वष्टुर्जामातरद्भुत। अवांस्या वृणीमहे ॥ - ऋ.८.२६.२१

*यदद्य सूर्य उद्यति प्रियक्षत्रा ऋतं दध। - ऋ.८.२७.१९

*यद्वाभिपित्वे असुरा ऋतं यते छर्दिर्येम वि दाशुषे। - ऋ.८.२७.२०

*यथा नो मित्रो अर्यमा वरुणः सन्ति गोपाः। सुगा ऋतस्य पन्थाः ॥ - ऋ.८.३१.१३

*पूर्वीर्ऋतस्य बृहतीरनूषत स्तोतुर्मेधा असृक्षत ॥ - ऋ.८.५२.९

*घृतप्रुषः सौम्या जीरदानवः सप्त स्वसारः सदन ऋतस्य। (इन्द्रावरुणौ) - ऋ.८.५९.४

*त्वमित् सप्रथा अस्यग्ने त्रातर्ऋतस्कविः। (अग्निः) - ऋ.८.६०.५

*त्वं न इन्द्र ऋतयुस्त्वानिदो नि तृम्पसि। - ऋ.८.७०.१०

*उदीराथामृतायते युञ्जाथामश्विना रथम्। अन्ति षद्भूतु वामवः। - ऋ.८.७३.१

*अरुणप्सुरुषा अभूदकर्ज्योतिर्ऋतावरी। अन्ति षद्भूतुवामवः ॥ - ऋ.८.७३.१६

*त्वं ह यद्यविष्ठ्य सहसः सूनवाहुत। ऋतावा यज्ञियो भुवः ॥ - ऋ.८.७५.३

*वाचमष्टापदीमहं नवस्रक्तिमृतस्पृशम्। इन्द्रात् परि तन्वं ममे ॥ (इन्द्रः) - ऋ.८.७६.१२

*विदद्यत् पूर्व्यं नष्टमुदीमृतायुमीरयत्। प्रेमायुस्तारीदतीर्णम्। - ऋ.८.७९.६

*अति नो विष्पिता पुरु नौभिरपो न पर्षथ। यूयमृतस्य रथ्यः ॥ - ऋ.८.८३.३

*ऋतेन देवः सविता शमायत ऋतस्य शृङ्गमुर्विया वि पप्रथे। ऋतं सासाह महि चित् पृतन्यतो मा नो वि यौष्टं सख्या मुमोचतम् ॥ (अश्विनौ) - ऋ.८.८६.५

*दस्रा हिरण्यवर्तनी शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥ - ऋ.८.८७.५

*बृहदिन्द्राय गायत मरुतो वृत्रहंतमम्। येन ज्योतिरजन्यन्नृतावृधो देवं देवाय जागृवि ॥ - ऋ.८.८९.१

*इन्द्र यस्ते नवीयसी गिरं मन्द्रामजीजनत्। चिकित्विन्मनसं धियं प्रत्नामृतस्य पिप्युषीम् ॥ - ऋ.८.९५.५

*तन्म ऋतमिन्द्र शूर चित्र पात्वपो न वज्रिन् दुरिताति पर्षि भूरि। - ऋ.८.९७.१५

*ऋतस्य मा प्रदिशो वर्धयन्त्यादर्दिरो भुवना दर्दरीमि ॥ (इन्द्रः) - ऋ.८.१००.४

*आ यन्मा वेना अरुहन्नृतस्यँ एकमासीनं हर्यतस्य पृष्ठे। (इन्द्रः) - ऋ.८.१००.५

*प्र मित्राय प्रार्यम्णे सचथ्यमृतावसो। वरूथ्यं वरुणे छन्द्यं वचः स्तोत्रं राजसु गायत ॥ - ऋ.८.१०१.५

*प्र मंहिष्ठाय गायत ऋताव्ने बृहते शुक्रशोचिषे। उपस्तुतासो अग्नये ॥ (अग्निः) - ऋ.८.१०३.८

*एष देवो विपन्युभिः पवमान ऋतायुभिः। हरिर्वाजाय मृज्यते ॥ - ऋ.९.३.३

*असृग्रमिन्दवः पथा धर्मन्नृतस्य सुश्रियः। विदाना अस्य योजनम् ॥ - ऋ.९.७.१

*इन्द्रस्य सोम राधसे पुनानो हार्दि चोदय। ऋतस्य योनिमासदम् ॥ - ऋ.९.८.३

*स सूनुर्मातरा शुचिर्जातोv जाते अरोचयत्। महान् मही ऋतावृधा ॥ - ऋ.९.९.३

*सोमा असृग्रमिन्दवः सुता ऋतस्य सादने। इन्द्राय मधुमत्तमाः ॥ - ऋ.९.१२.१

*अपघ्नन्तो अराव्णः पवमाना स्वर्दृशः। योनावृतस्य सीदत ॥ - ऋ.९.१३.९

*मधोर्धारामनुक्षर तीव्रः सधस्थमासदः। चारुर्ऋताय पीतये ॥ - ऋ.९.१७.८

*उभे सोमावचाकशन् मृगो न तक्तो अर्षसि। सीदन्नृतस्य योनिमा ॥ - ऋ.९.३२.४

*अभि द्रोणानि बभ्रवः शुक्रा ऋतस्य धारया। वाजं गोमन्तमक्षरन्। - ऋ.९.३३.२

*अभि ब्रह्मीरनूषत यह्वीर्ऋतस्य मातरः। मर्मृज्यन्ते दिवः शिशुम् ॥ - ऋ.९.३३.५

*अभीमृतस्य विष्टपं दुहते पृश्निमातरः। चारु प्रियतमं हविः ॥ - ऋ.९.३४.५

*शुम्भमान ऋतायुभिर्मृज्यमानो गभस्त्योः। पवते वारे अव्यये ॥ - ऋ.९.३६.४

*समीचीना अनूषत हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः। योनावृतस्य सीदत ॥ - ऋ.९.३९.६

*अभि विश्वानि वार्या ऽभि देवाँ ऋतावृधः। सोमः पुनानो अर्षति ॥ - ऋ.९.४२.५

*विश्वस्मा इत् स्वर्दृशे साधारणं रजस्तुरम्। गोपामृतस्य विर्भरत् ॥ - ऋ.९.४८.४

*परि सोम ऋतं बृहदाशुः पवित्रे अर्षति। विघ्नन् रक्षांसि देवयुः ॥ - ऋ.९.५६.१

*पवमान ऋतः कविः सोमः पवित्रमासदत्। दधत् स्तोत्रे सुवीर्यम् ॥ - ऋ.९.६२.३०

*एते असृग्रमाशवो ऽति ह्वरांसि बभ्रवः। सोमा ऋतस्य धारया ॥ - ऋ.९.६३.४

*एते धामान्यार्या शुक्रा ऋतस्य धारया। वाजं गोमन्तमक्षरन् ॥ - ऋ.९.६३.१४

*वृषणं धीभिरप्तुरं सोममृतस्य धारया। मती विप्राः समस्वरन् ॥ - ऋ.९.६३.२१

*शुम्भमाना ऋतायुभिर्मृज्यमाना गभस्त्योः। पवन्ते वारे अव्यये ॥ - ऋ.९.६४.५

*ऊर्मिर्यस्ते पवित्र आ देवावीः पर्यक्षरत्। सीदन्नृतस्य योनिमा ॥ - ऋ.९.६४.११

*मर्मृजानास आयवो वृथा समुद्रमिन्दवः। अग्मन्नृतस्य योनिमा ॥ - ऋ.९.६४.१७

*आ यद्योनिं हिरण्ययमाशुर्ऋतस्य सीदति। जहात्यप्रचेतसः ॥ - ऋ.९.६४.२०

*इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः। ऋतस्य योनिमासदम् ॥ - ऋ.९.६४.२२

*अच्छा समुद्रमिन्दवो ऽस्तं गावो न धेनवः। अग्मन्नृतस्य योनिमा ॥ - ऋ.९.६६.१२

*पवमान ऋतं बृहच्छुक्रं ज्योतिरजीजनत्। कृष्णा तमांसि जङ्घनत् ॥ - ऋ.९.६६.२४

*सं दक्षेण मनसा जायते कविर्ऋतस्य गर्भो निहितो यमा परः। - ऋ.९.६८.५

*अव्ये वधूयुः पवते परि त्वचि श्रथ्नीते नप्तीरदितेर्ऋतं यते। - ऋ.९.६९.३

*त्रिरस्मै सप्त धेनवो दुदुह्रे सत्यामाशिरं पूर्व्ये व्योमनि। चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत ॥ - ऋ.९.७०.१

*जानन्नृतं प्रथमं यत् स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतुः ॥ - ऋ.९.७०.६

*समी गावो मतयो यन्ति संयत ऋतस्य योना सदने पुनर्भुवः ॥ - ऋ.९.७२.६

*स्रह्मेù द्रप्सस्य धमतः समस्वरन्नृतस्य योना समरन्त नाभयः। त्रीन् त्स मूर्ध्नो असुरश्चक्र आरभे सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन् ॥ - ऋ.९.७३.१

*अपानक्षासो बधिरा अहासत ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः ॥ - ऋ.९.७३.६

*ऋतस्य तन्तुर्विततः पवित्र आ जिह्वाया अग्रे वरुणस्य मायया। धीराश्चित् तत् समिनक्षन्त आशताऽत्रा कर्तमव पदात्यप्रभुः ॥ - ऋ.९.७३.९

*महि प्सरः सुकृतं सोम्यं मधूर्वी गव्यूतिरदितेर्ऋतं यते। - ऋ.९.७४.३

*आत्मन्वन्नभो दुह्यते घृतं पय ऋतस्य नाभिरमृतं वि जायते। - ऋ.९.७४.४

*ऋतस्य जिह्वा पवते मधु प्रियं वक्ता पतिर्धियो अस्या अदाभ्यः। दधाति पुत्रः पित्रोरपीच्यं नाम तृतीयमधि रोचने दिवः ॥ - ऋ.९.७५.२

*अभीमृतस्य दोहना अनूषताऽधि त्रिपृष्ठ उषसो वि राजति ॥ - ऋ.९.७५.३

*विश्वस्य राजा पवते स्वर्दृश ऋतस्य धीतिमृषिषाळवीवशत्। - ऋ.९.७६.४

*अभीमृतस्य सुदुघा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः ॥ - ऋ.९.७७.१

*सोमस्य धारा पवते नृचक्षस ऋतेन देवान् हवते दिवस्परि। - ऋ.९.८०.१

*अपामुपस्थे अध्यायवः कविमृतस्य योना महिषा अहेषत ॥ - ऋ.९.८६.२५

*नयन्नृतस्य प्रशिषो नवीयसीः पतिर्जनीनामुप याति निष्कृतम् ॥ - ऋ.९.८६.३२

*राजा सिन्धूनां पवते पतिर्दिव ऋतस्य याति पथिभिः कनिक्रदत्। - ऋ.९.८६.३३

*राजा सिन्धूनामवसिष्ट वास ऋतस्य नावमारुहद्रजिष्ठाम्। - ऋ.९.८९.२

*द्विता व्यूर्ण्वन्नमृतस्य धाम स्वर्विदे भुवनानि प्रथन्त। धियः पिन्वानाः स्वसरे न गाव ऋतायन्तीरभि वावश्र इन्दुम् ॥ - ऋ.९.९४.२

*हरिः सृजानः पथ्यामृतस्येयर्ति वाचमरितेव नावम्। - ऋ.९.९५.२

*पवस्व सोम मधुमाँ ऋतावा ऽपो वसानो अधि सानो अव्ये। - ऋ.९.९६.१३

*प्र दानुदो दिव्यो दानुपिन्व ऋतमृताय पवते सुमेधाः। - ऋ.९.९७.२३

*द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत् सुभृतं चार्विन्दुः ॥ - ऋ.९.९७.२४

*कनिक्रददनु पन्थामृतस्य शुक्रो वि भास्यमृतस्य धाम। - ऋ.९.९७.३२

*तिस्रो वाच ईरयति प्र वह्निर्ऋतस्य धीतिं ब्रह्मणो मनीषाम्। - ऋ.९.९७.३४

*आ जागृविर्विप्र ऋता मतीनां सोमः पुनानो असदच्चमूषु। - ऋ.९.९७.३७

*अप्सु स्वादिष्ठो मधुमाँ ऋतावा देवो न यः सविता सत्यमन्मा ॥ - ऋ.९.९७.४८

*क्राणा शिशुर्महीनां हिन्वन्नृतस्य दीधितिम्। विश्वा परि प्रिया भुवध द्विता ॥ - ऋ.९.१०२.१

*यमी गर्भमृतावृधो दृशे चारुमजीजनन्। कविं मंहिष्ठमध्वरे पुरुस्पृहम् ॥ - ऋ.९.१०२.६

*समीचीने अभि त्मना यह्वी ऋतस्य मातरा। तन्वाना यज्ञमानुषग्यदञ्जते ॥ - ऋ.९.१०२.७

*क्रत्वा शुक्रेभिरक्षभिर्ऋणोरप व्रजं दिवः। हिन्वन्नृतस्य दीधितिं प्राध्वरे ॥ - ऋ.९.१०२.८

*पुनानः सोम धारया ऽपो वसानो अर्षसि। आ रत्नधा योनिमृतस्य सीदस्युत्सो देव हिरण्ययः ॥ - ऋ.९.१०७.४

*तरत् समुद्रं पवमान ऊर्मिणा राजा देव ऋतं बृहत्। अर्षन्मित्रस्य वरुणस्य धर्मणा प्र हिन्वान ऋतं बृहत् ॥ - ऋ.९.१०७.१५

*सहस्रधारं वृषभं पयोवृधं प्रियं देवाय जन्मने। ऋतेन य ऋतजातो विवावृधे राजा देव ऋतं बृहत् ॥ - ऋ.९.१०८.८

*अजीजनो अमृत मर्त्येष्वाँ ऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुणः। - ऋ.९.११०.४

*एष पुनानो मधुमाँ ऋतावेन्द्रायेन्दुः पवते स्वादुरूर्मिः। वाजसनिर्वरिवोविद्वयोधाः ॥ - ऋ.९.११०.११

*त्वं त्यत् पणीनां विदो वसु सं मातृभिर्मर्जयसि स्व आ दम ऋतस्य धीतिभिर्दमे। - ऋ.९.१११.२

*ऋतवाकेन सत्येन श्रद्धया तपसा सुत इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ - ऋ.९.११३.२

*ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन् त्सत्यकर्मन्। श्रद्धां वदन् त्सोम राजन् धात्रा सोम परिष्कृतं इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ - ऋ.९.११३.४

*वेषि होत्रमुत पोत्रं जनानां मन्धातासि द्रविणोदा ऋतावा। (अग्निः) - ऋ.१०.२.२

*ऋतस्य पदं कवयो नि पान्ति गुहा नामानि दधिरे पराणि ॥ (अग्निः) - ऋ.१०.५.२

*ऋतायिनी मायिनी सं दधाते मित्वा शिशुं जज्ञतुर्वर्धयन्ती। - ऋ.१०.५.३

*ऋतस्य हि वर्तनयः सुजातमिषो वाजाय प्रदिवः सचन्ते। - ऋ.१०.५.४

*अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्च धेनुः ॥ - ऋ.१०.५.७

*यो भानुभिर्विभावा विभात्यग्निर्देवेभिर्ऋतावाजस्रः। - ऋ.१०.६.२

*ऋतावा स रोहिदश्वः पुरुक्षुर्द्युभिरस्मा अहभिर्वाममस्तु ॥ (अग्निः) - ऋ.१०.७.४

*अस्य पत्मन्नरुषीरश्वबुध्ना ऋतस्य योनौ तन्वो जुषन्त ॥ - ऋ.१०.८.३

*उषउषो हि वसो अग्रमेषि त्वं यमयोरभवो विभावा। ऋताय सप्त दधिषे पदानि जनयन् मित्रं तन्वे स्वायै ॥ - ऋ.१०.८.४

*भुवश्चक्षुर्मह ऋतस्य गोपा भुवो वरुणो यदृताय वेषि। भुवो अपां नपाज्जातवेदो भुवो दूतो यस्य हव्यं जुजोष ॥ - ऋ.१०.८.५

*न यत् पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम। (यम -यमी) - ऋ.१०.१०.४

*द्यावा ह क्षामा प्रथमे ऋतेनाऽभिश्रावे भवतः सत्यवाचा। (अग्निः) - ऋ.१०.१२.१

*देवो देवान् परिभूर्ऋतेन वहा नो हव्यं प्रथमश्चिकित्वान्। - ऋ.१०.१२.२

*अक्षरेण प्रति मिम एतामृतस्य नाभावधि सं पुनामि ॥ (हविर्धाने) - ऋ.१०.१३.३

*सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्। - ऋ.१०.१३.५

*उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु ॥ - ऋ.१०.१५.१

*यो अग्निः क्रव्यवाहनः पितॄन् यक्षदृतावृधः। - ऋ.१०.१६.११

*ऋतस्य योगे वि ष्यध्वमूधः श्रुष्टीवरीर्भूतनास्मभ्यमापः ॥ - ऋ.१०.३०.११

*परि चिन्मर्तो द्रविणं ममन्यादृतस्य पथा नमसा विवासेत्। - ऋ.१०.३१.२

*प्र कृष्णाय रुशदपिन्वतोधर्ऋतमत्र नकिरस्मा अपीपेत् - ऋ.१०.३१.११

*तस्मै कृणोमि न धना रुणध्मि दशाहं प्राचीस्तदृतं वदामि ॥ - ऋ.१०.३४.१२

*पिपर्तु मा तदृतस्य प्रवाचनं देवानां यन्मनुष्या अमन्महि। - ऋ.१०.३५.८

*द्यौश्च नः पृथिवी च प्रचेतस ऋतावरी रक्षतामंहसो रिषः। - ऋ.१०.३६.२

*नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतं सपर्यत। - ऋ.१०.३७.१

*उज्जायतां परशुर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत्। - ऋ.१०.४३.९

*प्र सप्तगुमृतधीतिं सुमेधां बृहस्पतिं मतिरच्छा जिगाति। (वैकुण्ठ इन्द्रः) - ऋ.१०.४७.६

*शं रोदसी सुबन्धवे यह्वी ऋतस्य मातरा। (द्यावापृथिवी) - ऋ.१०.५९.८

*मक्षु कनायाः सख्यं नवग्वा ऋतं वदन्त ऋतयुक्तिमग्मन्। - ऋ.१०.६१.१०

*मक्षू कनायाः सख्यं नवीयो राधो न रेत ऋतमित् तुरण्यन्। - ऋ.१०.६१.११

*अग्निर्ह नामोत जातवेदाः श्रुधी नो होतर्ऋतस्य होताध्रुक् ॥ - ऋ.१०.६१.१४

*द्विजा अह प्रथमजा ऋतस्येदं धेनुरदुहज्जायमाना ॥ - ऋ.१०.६१.१९

*य उदाजन् पितरो गोमयं वस्वृतेनाभिन्दन् परिवत्सरे वलम्। - ऋ.१०.६२.२

*य ऋतेन सूर्यमारोहयन् दिव्यप्रथयन् पृथिवीं मातरं वि। - ऋ.१०.६२.३

*एवा कविस्तुवीरवाँ ऋतज्ञा द्रविणस्युर्द्रविणसश्चकानः। - ऋ.१०.६४.१६

*तेषां हि मह्ना महतामनर्वणां स्तोमाँ इयर्म्यृतज्ञा ऋतावृधाम्। (विश्वेदेवाः) - ऋ.१०.६५.३

*दिवक्षसो अग्निजिह्वा ऋतावृध ऋतस्य योनिं विमृशन्त आसते। (विश्वे देवाः) - ऋ.१०.६५.७

*परिक्षिता पितरा पूर्वजावरी ऋतस्य योना क्षयतः समोकसा। - ऋ.१०.६५.८

*विश्वे देवा सह धीभिः पुरंध्या मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः। - ऋ.१०.६५.१४

*ये वावृधुः प्रतरं विश्ववेदस इन्द्रज्येष्ठासो अमृता ऋतावृधः ॥ (विश्वे देवाः) - ऋ.१०.६६.१

*अदितिर्द्यावापृथिवी ऋतं महदिन्द्राविष्णू मरुतः स्वर्बृहत्। - ऋ.१०.६६.४

*वृषणा द्यावापृथिवी ऋतावरी वृषा पर्जन्यो वृषणो वृषस्तुभः ॥ - ऋ.१०.६६.६

*अग्निहोतार ऋतसापो अद्रुहो ऽपो असृजन्ननु वृत्रतूर्ये ॥ - ऋ.१०.६६.८

*दैव्या होतारा प्रथमा पुरोहित ऋतस्य पन्थामन्वेमि साधुया। - ऋ.१०.६६.१३

*इमां धियं सप्तशीर्ष्णीं पिता न ऋतप्रजातां बृहतीमविन्दत्। तुरीयं स्विज्जनयद्विश्वजन्यो ऽयास्य उक्थमिन्द्राय शंसन् ॥ - ऋ.१०.६७.१

*ऋतं शंसन्त ऋजु दीध्याना दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः। - ऋ.१०.६७.२

*आप्रुषायन् मधुन ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्योः। (बृहस्पतिः) - ऋ.१०.६८.४

*ऋतस्य पथा नमसा मियेधो देवेभ्यो देवतमः सुषूदत् ॥ - ऋ.१०.७०.२

*मन्दमान ऋतादधि प्रजायै सखिभिरिन्द्र इषिरेभिरर्थम्। - ऋ.१०.७३.५

*प्रज्ञातारो न ज्येष्ठाः सुनीतयः सुशर्माणो न सोमा ऋतं यते ॥ (मरुतः) - ऋ.१०.७८.२

*तद्वामृतं रोदसी प्र ब्रवीमि जायमानो मातरा गर्भो अत्ति। (अग्निः) - ऋ.१०.७९.४

*अग्निर्गान्धवीं‰ पथ्यामृतस्याऽग्नेर्गव्यूतिर्घृत आ निषत्ता ॥ (अग्निः) - ऋ.१०.८०.६

*सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः। ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधि श्रितः ॥ - ऋ.१०.८५.१

*ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोके ऽरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि ॥ - ऋ.१०.८५.२४

*वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ - ऋ.१०.८६.१०

*त्रिर्यातुधानः प्रसितिं त एत्वृतं यो अग्ने अनृतेन हन्ति। - ऋ.१०.८७.११

*तवाग्ने होत्रं तव पोत्रमृत्वियं तव नेष्ट्रं त्वमग्निदृतायतः। - ऋ.१०.९१.१०

*ऋतस्य हि प्रसितिर्द्यौरुरु व्यचो नमो मह्यरमतिः पनीयसी। - ऋ.१०.९२.४

*स सनीळेभिः प्रसहानो अस्य भ्रातुर्न ऋते सप्तथस्य मायाः ॥ (इन्द्रः) - ऋ.१०.९९.२

*ऊर्जं गावो यवसे पीवो अत्तन ऋतस्य याः सदने कोशे अङ्ध्वे। तनूरेव तन्वो अस्तु भेषजमा सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ॥ - ऋ.१०.१००.१०

*ऊती शचीवस्तव वीर्येण वयो दधाना उशिज ऋतज्ञाः। - ऋ.१०.१०४.४

*वंसगेव पूषर्या शिम्बाता मित्रेव ऋता शतरा शातपन्ता। - ऋ.१०.१०६.५

*दूरमित पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीर्ऋतेन। बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळ्हाः सोमो ग्रावाण ऋषयश्च विप्राः ॥ - ऋ.१०.१०८.११

*वीळुहरास्तप उग्रो मयोभूरापो देवीः प्रथमजा ऋतेन ॥ - ऋ.१०.१०९.१

*तनूनपात् पथ ऋतस्य यानान् मध्वा समञ्जन्त्स्र्वया सुजिह्व। - ऋ.१०.११०.२

*अस्य होतुः प्रदिश्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः ॥ - ऋ.१०.११०.११

*ऋतस्य हि सदसो धीतिरद्यौत् सं गार्ष्टेयो वृषभो गोभिरानट्। - ऋ.१०.१११.२

*मित्रासो न ये सुधिता ऋतायवो द्यावो न द्युम्नैरभि सन्ति मानुषान् ॥ - ऋ.१०.११५.७

*अग्ने घृतस्नुस्त्रिर्ऋतानि दीद्यद्वर्तिर्यज्ञं परियन्त्सुक्रतूयसे ॥ - ऋ.१०.१२२.६

*ऋतस्य सानावधि विष्टपि भ्राट् समानं योनिमभ्यनूषत व्राः ॥ - ऋ.१०.१२३.२

*ऋतस्य सानावधि चक्रमाणा रिहन्ति मध्वो अमृतस्य वाणीः ॥ - ऋ.१०.१२३.३

*ऋतेन यन्तो अधि सिन्धुमस्थुर्विदद्गन्धर्वो अमृतानि नाम। - ऋ.१०.१२३.४

*पश्यन्नन्यस्या अतिथिं वयाया ऋतस्य धाम वि मिमे पुरूणि। - ऋ.१०.१२४.३

*ऋतेन राजन्ननृतं विविञ्चन् मम राष्ट्रस्याधिपत्यमेहि ॥ (वरुणः) - ऋ.१०.१२४.५

*ऋतस्य नः पथा नयाऽति विश्वानि दुरिता नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥ - ऋ.१०.१३३.६

*तव त्य इन्द्र सख्येषु वह्नय ऋतं मन्वाना व्यदर्दिरुर्वलम्। - ऋ.१०.१३८.१

*अवर्धयो वनिनो अस्य दंससा शुशोच सूर्य ऋतजातया गिरा ॥ - ऋ.१०.१३८.२

*विश्वावसुं सोम गन्धर्वमापो ददृशुषीस्तदृतेना व्यायन्। - ऋ.१०.१३८.४

*विश्वावसुं सोम गन्धर्वमापो ददृशुषीस्तदृतेना व्यायन्। (आत्मा) - ऋ.१०.१३९.४

*ऋतावानं महिषं विश्वदर्शतमग्निं सुम्नाय दधिरे पुरो जनाः। - ऋ.१०.१४०.६

*त्यं चिदत्रिमृतजुरमर्थमश्वं न यातवे। कक्षीवन्तं यदी पुना रथं न कृणुथो नवम् ॥ (अश्विनौ) - ऋ.१०.१४३.१

*ये चित् पूर्व ऋतसाप ऋतावान ऋतावृधः। पितॄन् तपस्वतो यम ताँश्चिदेवापि गच्छतात् ॥ - ऋ.१०.१५४.४

*अपां सखा प्रथमजा ऋतावा क्व स्विज्जातः कुत आ बभूव ॥ (वायुः) - ऋ.१०.१६८.३

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ऋत

*पतङ्गो वाचं मनसा बिभर्ति तां गन्धर्वोववदद्गर्भे अन्तः। तां द्योतमानां स्वर्यं मनीषामृतस्य पदे कवयो नि पान्ति ॥ - ऋ.१०.१७७.२

*श्रातं मन्य ऊधनि श्रातमग्नौ सुश्रातं मन्ये तदृतं नवीयः। माध्यंदिनस्य सवनस्य दध्नः पिबेन्द्र वज्रिन् पुरुकृज्जुषाणः ॥ - ऋ.१०.१७९.३

*ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ - ऋ.१०.१९०.१

*सिस्रतां नार्यृतप्रजाता वि पर्वाणि जिहतां सूतवा उ ॥ - अथर्ववेद१.११.१

*सूर्यमृतं तमसो ग्राह्या अधि देवा मुञ्चन्तो असृजन्निरेणसः। - अथर्ववेद २.१०.८

*परि द्यावापृथिवी सद्य आयमुपातिष्ठे प्रथमजामृतस्य। - अ.२.१.४

*परि विश्वा भुवनान्यायमृतस्य तन्तुं विततं दृशे कम्। - अ.२.१.५

*ऋतेन स्थूणामधि रोह वंशोग्रो विराजन्नप वृङ्क्ष्व शत्रून्। - अ.३.१२.६

*इदं व आपो हृदयमयं वत्स ऋतावरीः। - अ.३.१३.

*स हि दिवः स पृथिव्या ऋतस्था मही क्षेमं रोदसी अस्कभायत्। - अ.४.१.४

*मन्वे वां मित्रावरुणावृतावृधौ सचेतसौ द्रुह्वणो यौ नुदेथे। प्र सत्यावानमवथो भरेषु तौ नो मुञ्चतमंहसः॥ - अ.४.२९.१

*यमोदनं प्रथमजा ऋतस्य प्रजापतिस्तपसा ब्रह्मणेऽपचत्। यो लोकानां विधृतिर्नाभिरेषात् तेनौदनेनाति तराणि मृत्युम् ॥ - अ.४.३५.१

*तनूनपात् पथ ऋतस्य यानान् मध्वा समञ्जनत्स्वदया सुजिह्व। - अ.५.१२.२

*अस्य होतुः प्रशिष्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः ॥ - अ.५.१२.११

*एका च मे दश च मेऽपवक्तार ओषधे। ऋतजात ऋतावरि मधु मे मधुला करः ॥ - अ.५.१५.१

*सप्त च मे सप्ततिश्च मेऽपवक्तार ओषधे। ऋतजात ऋतावरि मधु मे मधुला करः ॥ अष्ट च मेऽशीतिश्च मेऽपवक्तार ओषधे। ऋतजात ऋतावरि मधु मे मधुला करः ॥ -- - - - - - - - - - - - - - - - अ५.१५.७-११

*वीडुहरास्तप उग्रं मयोभूरापो देवीः प्रथमजा ऋतस्य ॥ - अ.५.१७.१

*कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत् पतन्ति। त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद् घृतेन पृथिवीं व्यूदुः ॥ - अ.६.२२.१

*बृहत्पलाशे सुभगे वर्षवृद्ध ऋतावरि। मातेव पुत्रेभ्यो मृड केशेभ्यः शमि ॥ - अ.६.३०.३

*ऋतावानं वैश्वानरमृतस्य ज्योतिषस्पतिम्। अजस्रं घर्ममीमहे ॥ - अ.६.३६.१

*इदं तृतीयं सवनं कवीनामृतेन ये चमसमैरयन्त। - अ.६.४७.३

*द्यावापृथिवी पयसा पयस्वती ऋतावरी यज्ञिये नः पुनीताम् ॥ - अ.६.६२.१

*यद्देवा देवहेडनं देवासश्चकृमा वयम्। आदित्यास्तस्मान्नो यूयमृतस्यर्तेन मुञ्चत ॥ ऋतस्यर्तेनादित्या यजत्रा मुञ्चतेह नः। यज्ञं यद्यज्ञवाहसः शिक्षन्तो नोपशेकिम ॥ - अ.६.११४.१-२

*एतं भागं परि ददामि विद्वान् विश्वकर्मन् प्रथमजा ऋतस्य। - अ.६.१२२.१

*अयं वज्रस्तर्पयतामृतस्यावास्य राष्ट्रमप हन्तु जीवितम्। - अ.६.१३४.१

*धीती वा ये अनयन् वाचो अग्रं मनसा वा येऽवदन्नृतानि। तृतीयेन ब्रह्मणा वावृधानास्तुरीयेणामन्वत नाम धेनोः ॥ - अ.७.१.१

*महीमू षु मातरं सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हवामहे। - अ.७.६.२

*सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवृतन्नृतानि। - अ.७.५९.२/५७.२

*श्रातं मन्य ऊधनि श्रातमग्नौ सुशृतं मन्ये तदृतं नवीयः। माध्यन्दिनस्य सवनस्य दध्नः पिबेन्द्र वज्रिन् पुरुकृज्जुषाणः ॥ - अ.७.७५.३/७२.३

*त्रिर्यातुधानः प्रसितिं त एत्वृतं यो अग्ने अनृतेन हन्ति। - अ.८.३.११

*ऋतस्य पन्थामनु तिस्र आगुस्त्रयो घर्मा अनु रेत आगुः। - अ.८.९.१३

*षड् जाता भूता प्रथमजर्तस्य षडु सामानि षडहं वहन्ति। - अ.८.९.१६

*अष्ट जाता भूता प्रथमजर्तस्याष्टेन्द्रर्त्विजो दैव्या ये। - अ.८.९.२१

*प्रतीचीं त्वा प्रतीचीनः शाले प्रैम्यहिंसतीम्। अग्निर्ह्यन्तरापश्चर्तस्य प्रथमा द्वाः। - अ.९.३.२२

*सत्यं चर्तं च चक्षुषी विश्वं सत्यं श्रद्धा प्राणो विराट् शिरः। एष वा अपरिमितो यज्ञो यदजः पञ्चौदनः॥ - अ.९.५.२१

*माता पितरमृत आ बभाज धीत्यग्रे मनसा सं हि जग्मे। - अ.९.९.८

*द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य। - अ.९.९.१३

*तं आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद् घृतेन पृथिवीं व्यूदुः ॥ - अ.९.१५.२२

*अपादेति प्रथमा पद्वतीनां कस्तद् वां मित्रावरुणा चिकेत। गर्भो भारं भरत्या चिदस्या ऋतं पिपर्त्यनृतं नि पाति ॥ - अ.९.१५.२३

*कस्मिन्नङ्गे तपो अस्याधि तिष्ठति कस्मिन्नङ्ग ऋतमस्याध्याहितम्। - अ.१०.७.१

*ऋतं च यत्र श्रद्धा चापो ब्रह्म समाहिताः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ - अ.१०.७.११

*स्कम्भे लोकाः स्कम्भे तपः स्कम्भेऽध्यृतमाहितम्। स्कम्भ त्वा वेद प्रत्यक्षमिन्द्रे सर्वं समाहितम् ॥ इन्द्रे लोका इन्द्रे तप इन्द्रेऽध्यृतमाहितम्। इन्द्रं त्वा वेद प्रत्यक्षं स्कम्भे सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ - अ.१०.७.२९-३०

*अविर्वै नाम देवतर्तेनास्ते परीवृता। तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः ॥ - अ.१०.८.३१

*यदादित्यैर्हूयमानोपातिष्ठ ऋतावरि। इन्द्रः सहस्रं पात्रान्त्सोमं त्वापाययद्वशे ॥ - अ.१०.१०.९

*अभीवृता हिरण्येन यदतिष्ठ ऋतावरि। अश्वः समुद्रो भूत्वाध्यस्कन्दद् वशे त्वा ॥ - अ.१०.१०.१६

*ब्राह्मणेभ्यो वशां दत्त्वा सर्वांल्लोकान्त्समश्नुते। ऋतं ह्यस्यामार्पितमपि ब्रह्माथो तपः ॥ - अ.१०.१०.३३

*ऋतेन तष्टा मनसा हितैषा ब्रह्मौदनस्य विहिता वेदिरग्रे।।अंसद्री शुद्धामुप धेहि नारि तत्रौदनं सादय दैवानाम् ॥ - अ.११.१.२३

*ऋतं हस्तावनेजनं कुल्योपसेचनम्। (बार्हस्पत्य ओदनम्) - अ.११.३.१३

*विश्वान् देवानिदं ब्रूमः सत्यसंधानृतावृधः। विश्वाभिः पत्नीभिः सह ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥ सर्वान् देवानिदं ब्रूमः सत्यसंधानृतावृधः। सर्वाभिः पत्नीभिः सह ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥ - अ.११.८.१९-२०

*ऋतं सत्यं तपो राष्ट्रं श्रमो धर्मश्च कर्म च। भूतं भविष्यदुच्छिष्टे वीर्यं लक्ष्मीर्बलं बले ॥ - अ.११.७.१७

*सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥ - अ.१२.१.१

*त्वमस्यावपनी जनानामदितिः कामदुघा पप्रथाना। यत् त ऊनं तत् त आ पूरयाति प्रजापतिः

प्रथमजा ऋतस्य ॥ - अ.१२.१.६१

*श्रमेण तपसा सृष्टा ब्रह्मणा वित्तर्ते श्रिता। सत्येनावृता श्रिया प्रावृता यशसा परीवृता ॥ - अ.१२.५.१

*त आववृत्रन्त्सदनादृतस्य तस्य देवस्य। क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। - अ.१३.३.९

*ऋतस्य तन्तुं मनसा मिमानः सर्वा दिशः पवते मातरिश्वा तस्य देवस्य। - अ.१३.३.१९

*सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः। ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधि श्रितः ॥ - अ.१४.१.१

*ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोके स्योनं ते अस्तु सहसंभलायै ॥ - अ.१४.१.१९

*युवं भगं सं भरतं समृद्धमृतं वदन्तावृतोद्येषु। ब्रह्मणस्पते पतिमस्यै रोचय चारु संभलो वदतु वाचमेताम् ॥ - अ.१४.१.३१

*य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः। संधाता संधिं मघवा पुरूवसुर्निष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥ - अ.१४.२.४७

*स ऊर्ध्वां दिशमनु व्यचलत्। तमृतं च सत्यं च सूर्यश्च चन्द्रश्च नक्षत्राणि चानुव्यचलन्। ऋतस्य च वै स सत्यस्य च सूर्यस्य च चन्द्रस्य च नक्षत्राणां च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥ - अ.१५.६.५

*जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमृतमस्माकं तेजोऽस्माकं ब्रह्मास्माकं स्वरस्माकं यज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजा अस्माकं वीरा अस्माकम्। - - - - - - - -अ.१६.७.१- २७

*त्वमिमा विश्वा भुवनानु तिष्ठस ऋतस्य पन्थामन्वेषि विद्वांस्तवेद् विष्णो बहुधा वीर्याणि। - अ.१७.१.१६

*ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम्। मा मा प्रापत् पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥ - अ.१७.१.२९

*न यत् पुरा चकृमा कद्ध नूनमृतं वदन्तो अनृतं रपेम। - अ.१८.१.४

*द्यावा ह क्षामा प्रथमे ऋतेनाभिश्रावे भवतः सत्यवाचा। - अ.१८.१.२९

*देवो देवान् परिभूर्ऋतेन वहा नो हव्यं प्रथमश्चिकित्वान्। - अ.१८.१.३०

*ये चित् पूर्व ऋतसाता ऋतजाता ऋतावृधः। ऋषीन् तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात् ॥ - अ.१८.२.१५

*अधा यथा नः पितरः परासः प्रत्नासो अग्न ऋतमाशशानाः। - अ.१८.३.२१

*अकर्म ते स्वपसो अभूम ऋतमवस्रन्नुषसो विभातीः। विश्वं तद् भद्रं यदवन्ति देवा बृहद् वदेम विदथे सुवीराः ॥ - अ.१८.३.२४

*त्रीणि पदानि रुपो अन्वरोहच्चतुष्पदीमन्वैतद् व्रतेन। अक्षरेण प्रति मिमीते अर्कमृतस्य नाभावभि सं पुनाति ॥ - अ.१८.३.४०

*ऋतस्य पन्थामनु पश्य साध्वङ्गिरसः सुकृतो येन यन्ति। तेभिर्याहि पथिभिः स्वर्गं यत्रादित्या मधु भक्षयन्ति तृतीये नाके अधि वि श्रयस्व ॥ - अ.१८.४.३

*आपश्चित् पिप्यु स्तर्यो न गावो नक्षन्नृतं जरितारस्त इन्द्र। याहि वायुर्न नियुतो नो अच्छा त्वं हि धीभिर्दयसे वि वाजान् ॥ - अ.२०.१२.४

*उज्जायतां परशुर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत्। - अ.२०.१७.९

*कदु स्तुवन्त ऋतयन्त देवत ऋषिः को विप्र ओहते। कदा हवं मघवन्निन्द्र सुन्वतः कदु स्तुवत आ गमः ॥ - अ.२०.५०.२

*येन सिन्धुं महीरपो रथाf इव प्रचोदयः। पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे ॥ - अ.२०.६३.९

*इमां धियं सप्तशीर्ष्णीं पिता न ऋतप्रजातां बृहतीमविन्दत्। तुरीयं स्विज्जनयद्विश्वजन्यो ऽयास्य उक्थमिन्द्राय शंसन् ॥ ऋतं शंसन्त ऋजु दीध्याना दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः। विप्रं पदमङ्गिरसो दधाना यज्ञस्य धाम प्रथमं मनन्त ॥ - अ.२०.९१.१-२

*अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजनि ॥ - अ.२०.११५.१

*अस्तावि मन्म पूर्व्यं ब्रह्मेन्द्राय वोचत। पूर्वीर्ऋतस्य बृहतीरनूषत स्तोतुर्मेधा असृक्षत ॥ - अ.२०.११९.१

*प्रजामृतस्य पिप्रतः प्र यद्भरन्त वह्नयः। विप्रा ऋतस्य वाहसा ॥ - अ.२०.१३८.२

*ऋतस्य वा वनुषे पूर्व्याय नमो येमानो अश्विना ववर्तत् ॥ - अ.२०.१४३.३

*सोऽभिमृशति - ध्रुवा असदन् -इति। ध्रुवा ह्यसदन्। ऋतस्य योनौ इति। यज्ञो वा ऋतस्य योनिः, यज्ञे ह्यसदन्। - शतपथ १.३.४.१६

*इडाकर्म : उपहूते द्यावापqथिवी पूर्वजे ऋतावरी देवी देवपुत्रे इति। तदिमे द्यावापृथिवी उपह्वयते - ययोरिदं सर्वमधि। - श.१.८.१.२९

*अग्निहोत्रे बृहदुपस्थानम् : राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्। वर्द्धमानं स्वे दमे इति। स्वं वै त इदं - यन्मम। - श.२.३.४.२९

दीक्षितधर्माः :-- अथ व्रतं व्रतयित्वा नाभिमुपस्पृशति - श्वात्राः पीता भवत् यूयमापो अस्माकमन्तरुदरे सुशेवाः। ता अस्मभ्यमयक्ष्मा अनमीवा अनागसः स्वदन्तु देवीरमृता ऋतावृधः - इति। - श.३.२.२.१९

*सोमानयनम् : तस्मिन् (अजे) वाचयति - नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतं सपर्यत। दूरेदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शंसत इति। नम एवास्माऽएतत्करोति। - श.३.३.४.२४

*सोमानयनम् :ताम् (औदुम्बरीं आसन्दीं)अभिमृशति - वरुणस्यऽऋतसदन्यसि इति। अथ कृष्णाजिनमास्तृणाति - वरुणस्यऽऋतसदनमसि इति . अथैनमासादयति वरुणस्य ऽऋतसदनमासीद इति। स यदाह -वरुणस्यऽऋतसदनमासीदेति। वरुण्यो ह्येष एतर्हि भवति। - श.३.३.४.२९

*प्रवर्ग्यकर्मणि तानूनप्त्रम् : तस्मादु ह न स्वा ऋतीयेरन्। य एषां परस्तरामिव भवति - स एनाननुव्यवैति। ते प्रियं द्विषतां कुर्वन्ति। द्विषद्भ्यो रध्यन्ति। तस्मान्नऽर्तीयेरन्। - श.३.४.२.३

*प्रवर्ग्य कर्मणि अवान्तरदीक्षा :ते निह्नुवते। एष्टा रायः प्रेषे भगाय ऋतमृतवादिभ्यः इति। सत्यं सत्यवादिभ्य इत्येवैतदाह। - श.३.४.३.२१

*पशु नियोजन प्रकारः :- पाशं कृत्वा प्रतिमुञ्चति। ऋतस्य त्वा देवहविः पाशेन प्रति मुञ्चामि इति वरुण्या वाऽएषा यद्रज्जु:। तदेनमेतदृतस्यैव पाशेन प्रतिमुञ्चति। तथो हैनमेषा वरुण्या रज्जुर्न हिनस्ति। - श.३.७.४.१

*धिष्ण्य पदार्थ विधानं : ते हऽर्तीयमाने (कलहायमाने) ऽऊचतुः - यतरा नौ दवीयः परापश्याद् - आत्मानं नौ सा जयादिति। तथेति। सा ह कद्रूरुवाच - परेक्षस्वेति - श.३.६.२.३

*संज्ञपनान्तरभावि प्रयोगकथनं :अनर्वा प्रेहि इति। असपत्नेन प्रेहीत्येवैतदाह। घृतस्य कुल्याऽउपऽऋतस्य पथ्याऽअनु इति साधूपेत्येवैतदाह। - श.३.८.२.३

*मैत्रावरुण ग्रहः :- अथातो गृह्णात्येव - अयं वां मित्रावरुणा सुतः सोम ऋतावृधा। ममेदिह श्रुतं हवम्। उपयामगृहीतोऽसि मित्रावरुणाभ्यां त्वा इति। - श.४.१.४.७

*मैत्रावरुण ग्रहः :- - - - - -एष ते योनिर्ऋतायुभ्यां त्वा इति सादयति। स यदाह - ऋतायुभ्यां त्वेति। ब्रह्म वा ऋतम्। ब्रह्म हि मित्रः। ब्रह्मो ह्यतृम्। वरुण एवायुः, संवत्सरो हि वरुणः, संवत्सर आयुः। तस्मादाह एष ते योनिर्ऋतायुभ्यां त्वेति। - श.४.१.४.१०

*ध्रुवग्रहः :- अथातो गृह्णात्येव - मूर्धानं दिवोऽअरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृतऽआजातमग्निम्। कविं सम्राजमतिथिं जनानामासन्ना पात्रं जनयन्त देवाः। - - - - इति सादयति। - श.४.२.४.२४

*दक्षिणादानम् : ऋतस्य पथा प्रेत इति। यो वै देवानां पथैति - स ऋतस्य पथैति। चन्द्रदक्षिणाः इति। तदेतेन ज्योतिषा यन्ति। - श.४.३.४.१७

*आजिधावनं, रथचक्राधिरोहणं : वाजेवाजेऽवत वाजिनो नो धनेषु विप्रा, अमृता, ऋतज्ञाः। अस्य मध्वःपिबत, मादयध्वम्। तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः - इति। - श.५.१.५.२४

*अभिषेकोत्तरकर्माणि :सोऽवतिष्ठति - हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथि- र्दुरोणसत्। नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् इति। एताम- तिच्छन्दसं जपन्। - श.५.४.३.२२

*उखा सम्भरणे पश्वभिमन्त्रणविधानं : अथाजस्य।ऋतं सत्यमृतं सत्यम् इति। अयं वाऽअग्निर्ऋतम्, असावादित्यः सत्यम्।। यदि वाऽसावृतमयं सत्यम्। उभयम्वेतदयमग्निः। तस्मादाह - ऋतं सत्यमृतं सत्यमिति। तदेनमजेन सम्भरति। - श.६.४.४.१०

*उख्याग्ने उपस्थानम् : हंसः शुचिषत् इति - - - - - - ऋतसद् इति। सत्यसदित्येतत्। - - - - श.६.७.३.११

*लोगेष्टका उपधानम् :अथोत्तरतः - इषमूर्जमहमित आदम् इति। इषमूर्जमहमित आददऽइत्येतत्। ऋतस्य योनिम् इति। सत्यं वाऽऋतम्। सत्यस्य योनिमित्येतत्। - श.७.३.१.२३

*लोगेष्टकोपधानम् : ऋतावानम् इति। सत्यावानमित्येतत्। महिषम् इति। अग्निर्वै महिषः - - - -श.७.३.१.३४

*आग्निक सौमिककर्मणोर्व्यतिषङ्गं :तस्मादश्वः शुक्ल उदुष्टमुख इव। अथो ह दुरक्षो भावुकः। तमु वाऽऋत्वेव हिंसित्वेव मेने। तमु होवाच - वरं ते ददामीति। - श.७.३.२.१४

*मधु वाता ऋतायते इति। यां वै देवतामृगभ्यनूक्ता, यां यजुः - सैव देवता सऽर्क्, सो देवता तद्यजुः। - श.७.५.१.४

*पञ्चचूडेष्टकोपधानम् : यद्वै सेनायां च समितौ चऽर्तीयन्ते - ते दङ्क्ष्णवः पशवः। - श.८.६.१.१६

*ऋतव स्थ इति। ऋतवो ह्येताः। ऋतावृधः इति। सत्यवृध इत्येतत्। ऋतुश्व स्थ ऋतावृध इति। अहोरात्राणि वा इष्टकाः। ऋतुषु वा अहोरात्राणि तिष्ठन्ति। - श.९.१.२.१८

*अथ वैश्वकर्मणीं जुहोति। विश्वकर्माऽयमग्निः। - - - - -वीतिहोत्रा ऋतावृध इति। सत्यवृध इत्येतत्। - श.९.२.३.४२

*सुत्याह कर्माणि : अथोत्तरे। इन्दुर्दक्षः श्येन ऋतावा हिरण्यपक्षः शकुनो भुरण्यु: इति। अमृतं वै हिरण्यम्। - श.९.४.४.५

*दर्शपूर्णमासः :- ऋतमेव पूर्व आघारः। सत्यमुत्तरः। अव ह वा ऋतसत्ये रुन्धे। अथो यत्किंचर्तसत्याभ्यां जय्यम्। सर्वं हैव तज्जयति ॥ - श.११.२.७.९

*अश्वमेधः :- व्यृद्धमु वा एतद्यज्ञस्य। यदयजुष्केण क्रियते। इमामगृभ्णन् रशनामृतस्य इत्यश्वाभिधानीमादत्ते। - श.१३.१.२.१

*अथातस्तृतीयसवनम्। अतिच्छन्दा एव प्रतिपत् वैश्वदेवस्य - - - -को नु वां मित्रावरुणावृतायन् इति वैश्वदेवं शस्त्वाऐकाहिके निविदं दधाति। - श.१३.५.१.११

*घर्मोद्वासनं : नाभिर्ऋतस्य सप्रथाः इति। सत्यं वा ऋतम्। सत्यस्य नाभिः सप्रथाः इत्येवैतदाह। - श.१४.३.१.१८

*मधु ब्राह्मणम् :इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच। तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत् - आथर्वणायाश्विना दधीचे अश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतम्। स वां मधु प्रवोचदृतायन्त्वाष्ट्रं यद्दस्रावपि कक्ष्यं वाम् इति। - श.१४.५.५.१७

*आर्तभागब्राह्मणं वा जारत्कारवब्राह्मणम् : अथ हैनं जारत्कारव आर्तभागः पप्रच्छ। याज्ञवल्क्येति होवाच। कति ग्रहाः कत्यतिग्रहा इति। अष्टौ ग्रहाः। अष्टावतिग्रहाः। - - - - श.१४.६.२.१

*आर्तभागेति होवाच। आवमेवैतद्वेदिष्यावः। न नावेतत्सजन इति। तौ होत्क्रम्य मन्त्रयाञ्चक्रतुः। - - - श.१४.६.२.१४

*श्रीमन्थ कर्म ब्राह्मणम् : अथैनमाचामति - तत्सवितुर्वरेण्यम्। मधु वाता ऋतायते मधु क्षरंति सिंधवः। माध्वीर्नः संत्वोषधीः। भूः स्वाहा। - श.१४.९.३.११

*स्त्रीप्रधानो विद्यावंशः :- वाकादरुणीपुत्र आर्तभागीपुत्रात्। आर्तभागीपुत्रः शौंगीपुत्रात् - श.१४.९.४.३१

*अग्निहोत्रम् : अग्मन्न् ऋतस्य योनिम् आ इति। ग्रहा ह वा ऋतस्य योनिः। एतस्य ह वा इदम् अक्षरस्य कृतो जाताः प्रजा गच्छन्ति चाच गच्छन्ति। - जैमिनीय ब्राह्मण १.१०४

*आ रत्नधा योनिम् ऋतस्य सीदसि इति। अन्तरिक्षं वा ऋतम्। अन्तरिक्षम् एवैतेनात्यायन्। - जै.ब्रा.१.१२१

*स यो ऽनूचानस् सन्न् अयश ऋतो भवति - अमुं ह वै तस्य लोकं यशो गतं भवति - तद् एतेन पुनर् आह्रियते। - जै.ब्रा.१.१६८

*यौ वै युध्येते याव् ऋतीयेते ताव् आहुर् व्यगासिष्ठाम् इति। - जै.ब्रा.१.२६४

*पुनानस् सोम धारया इति प्रस्तौति। अपो वसानो अर्षसि इत्य् अष्टाक्षराणि। अ रत्नधा योनिम् ऋत - इत्य् अष्टेन तानि षोडश। -स्य सीदसि इति चत्वारि। ततो यानि षोडश स एव षोडशकलः पशुः। - जै.ब्रा.१.३२२

*उपोदको नाम लोको यस्मिन्न् अयम् अग्निर् ऋतधाम यस्मिन् वायुर् अपराजितो यस्मिन्न् आदित्यो ऽभिद्युर् - - - - - जै.ब्रा.१.३३४

*माम् अभ्य् अस्तम् अयेति प्रतीची दिक् प्रायच्छद् ऋतं च रात्रिं च। - जै.ब्रा.२.२५

*अथैष ऋतपेयः। देवेभ्यो वा ऊर्ग् अन्नाद्यम् उदक्रामत्। सोमाहुतिर् ह वा एभ्यस् सोच्चक्राम। सो एव विराट्। - - - - - जै.ब्रा.२.१५८

*ऋतं सत्यं वदन्तो भक्षयन्ति। ऋतेन हि ते तां सत्येनान्वविन्दन्। ऋतम् अमृतम् इत्य् आह। ऋतेन हि ते तद् अमृतम् अन्वविन्दन्। - जै.ब्रा.२.१६०

*तस्मै वै म ऋतं कुरुतेति। तस्या ऋतनिधनेनैवर्तम् अकुर्वन्, ईनिधनेनापायन् - - - जै.ब्रा.२.२५४

*ऋतेन मित्रावरुणाव् ऋतावृधाव् ऋतस्पृशा। क्रतुं बृहन्तम् आशाथे। कवी नो मित्रावरुणा इति वीति भवत्य् अन्तरिक्षस्य रूपम्। - जै.ब्रा.३.३८

*वाचम् अष्टापदीम् अहं नवस्रक्तिम् ऋतावृधम्। इन्द्रात् परि तन्वं ममे ॥ इति गायत्री वै वाग् अष्टापदी। तस्यै त्रिवृद् एव स्तोम स्रक्तयः। - जै.ब्रा.३.८९

*नि त्वाम् अग्ने मनुर् दधे ज्योतिर् जनाय शश्वते। दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥ - - -जै.ब्रा.३.९८

*शुम्भमाना ऋतायुभिर् मृज्यमाना गभस्त्योः। पवन्ते वारे अव्यये ॥ इति रूति रेवतीनां रूपम्। - जै.ब्रा.३.१३६

*वैश्वानरम् ऋत आ जातम् अग्निम् इत्य् अग्निर् एव वैश्वानरः प्रत्यक्षं भवति। - जै.ब्रा.३.१७७

*वैश्वानरम् ऋत आ जातम् अग्निम् इत्य् अग्नेर् वैश्वानरस्यान्त्यायातयाम्नी परमा गुह्या तनूः। - जै.ब्रा.३.१७८

*यजिष्ठं दूतम् अध्वरे कृणुध्वम्। यो मर्त्येषु निध्रुविर् ऋतावा तपुर्मूर्धा घृतान्नः पावकः ॥ इति। एतद् वा अग्नेः प्रियं धाम यद् घृतम्। - जै.ब्रा.३.२०७

*तरत् समुद्रं पवमान ऊर्मिणा राजा देव ऋतं बृहत्। - - - -इति चतुर्ऋचं भवति - चतुष्पदा वै पशवः। - जै.ब्रा.३.२१३

*अथ प्रमंहिष्ठीयम्। - - - - प्र मंहिष्ठाय गायत ऋताव्ने बृहते शुक्रशोचिषे। उपस्तुतासो अग्नये ॥ - जै.ब्रा.३.२२५

*अथैता भवन्त्य् आ जागृविर् विप्र ऋतं मतीनाम् इत्य् आवतीर् उत्थानीये ऽहन्। - जै.ब्रा.३.२९१

*स उपोदको नाम लोको यस्मिन्न् अयम् अग्निः। अथर्तधामा यस्मिन् वायुः। अथ शिवो यस्मिंश् चन्द्रमाः - - - - -जै.ब्रा.३.३४७

*उपोदको नाम लोको ऽन्ने विष्ठो, मनुष्या गोप्तारो, अग्निर् अधिपतिर् ,- - - - -। ऋतधामा नाम लोको वयोभिर् विष्ठो, गन्धर्वाप्सरसो गोप्तारो, वायुर् अधिपति, श्वेतं रूपं, प्राणे प्रतिष्ठितः। - जै.ब्रा.३.३४८

*लोहितं रूपं यद्गौरवछदायै यद् वा माहारोहणस्य वासस, ऋते प्रतिष्ठितो यन् नार्च्छति तस्मिन्। - जै.ब्रा.३.३४९

*नासद् आसीन् नो सद् आसीत् तदानीं - - - - तस्मिन्न् असति सति न कस्मिंश् चन सत्य् ऋतं ज्योतिष्मद् उदप्लवत, सत्यं ज्योतिष्मद् उदप्लवत, तपो ज्योतिष्मद् उदप्लवत। तद् यद् ऋतम् इति वाक् सा, यत् सत्यम् इति प्राणस् सो, यत् तप इति मनस् तत्। - जै.ब्रा.३.३६०

*क्षत्रं च राष्ट्रं चर्तं च सत्यं च तान्य् अवस्तात् तपश् च तेजश्च स्वधा चामृतं च तान्य् उ परस्तात्। - - - अथ यद्राष्ट्रं यद्देवविशो मरुतस् तत् तत्। ऋतं रात्रिः। सत्यं तद् अहः। तपो विद्युत्। - जै.ब्रा.३.३७३

*क्षत्रं राष्ट्रम् ऋतं सत्यं ब्रह्मणो निहितावराः। तपस् तेज स्वधामृतं त ऊर्ध्वास आसते, मध्ये ब्रह्म विराजति ॥ - जै.ब्रा.३.३७३

*स यद्भूर् भुव स्वर् इति व्याहरत् त एवेमे त्रयो लोका अभवन्न् उपोदक ऋतधामा ऽपराजितः। - जै.ब्रा.३.३८४

*घृतप्रतीकं च ऋतस्य धूर्षदम्। अग्निं मित्रं न समिधान ऋञ्जते। इन्धानो अक्रो विदथेषु दीद्यत्। शुक्रवर्णामुदु नो यंसते धियम् ॥ -तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.१.१२

*गवामयनशेषविधिः :- मही विश्पत्नी सदने ऋतस्य। अर्वाची एतं धरुणे रयीणाम्। अन्तर्वत्नी जन्यं जातवेदसम्। अध्वराणां जनयथः पुरोगाम्।(इत्यरणी आह्रियमाणे यजमानः प्रतीक्षते)। - तै.ब्रा.१.२.१.१३

*आरोहतं दशतं शक्वरीर्मम। ऋतेनाग्न आयुषा वर्चसा सह। ज्योग्जीवन्त उत्तरामुत्तराँ समाम्। दर्शमहं पूर्णमासं यज्ञं यथा यजै (इति हस्ताभ्यां प्रतिगृह्य)। - - - - अनृतात्सत्यमुपैमि। मानुषाद्दैव्यमुपैमि। दैवीं वाचं यच्छामि। - तै.ब्रा.१.२.१.१४

*शुद्धि हेतवः प्रकृतौ विनयोक्तव्या यजमानेन जपनीया मन्त्राः :- वैश्वानरो रश्मिभिर्मा पुनातु। वातःप्राणेनेषिरो मयोभूः। द्यावापृथिवी पयसा पयोभिः। ऋतावरी यज्ञिये मा पुनीताम्। - तै.ब्रा.१.४.८.३

*नक्षत्रेष्टका। चातुर्मास्य शेषभूत वपन मन्त्राः :- ऋतमेव परमेष्ठि। ऋतं नात्येति किंचन। ऋते समुद्र आहितः। ऋते भूमिरियं श्रिता। अग्निस्तिग्मेन शोचिषा। तप आक्रान्तमुष्णिहा। शिरस्तपस्याहितम्। वैश्वानरस्य तेजसा। ऋतेनास्य निवर्तये। सत्येन परिवर्तये। तपसाऽस्यानुवर्तये। शिवेनास्योपवर्तये। शग्मेनास्याभिवर्तये। तदृतं तत्सत्यम्। तद्व्रतं तच्छकेयम्। तेन शकेयं तेन राध्यासम्। - तै.ब्रा.१.५.५.१, १.५.५.४, १.५.५.७

*राजसूयः। देवसुवां हविर्विधिः :- अमन्महि महत ऋतस्य नामेत्याह। मनुत एवैनम्। - तै.ब्रा.१.७.४.३

*असूषुदन्त यज्ञिया ऋतेनेत्याह। स्वदयत्येवैनम्। - तै.ब्रा.१.७.४.४

*सायं प्रातःकालभेदेन समन्त्रक परिषेचन विधिः :- ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामीति सायं परिषिञ्चति। सत्यं त्वर्तेन परिषिञ्चामीति प्रातः। अग्निर्वा ऋतम्। असावादित्यः सत्यम्। अग्निमेव तदाऽऽदित्येन सायं परिषिञ्चति। - तै.ब्रा.२.१.११.१

*वैश्वकर्मणि उपहोमम् : तमु स्तोतारः पूर्व्यं यथा विद ऋतस्य। गर्भं हविषा पिपर्तन। आऽस्य जानन्तो नामचिद्विवक्तन। बृहत्ते विष्णो सुमतिं भजामहे। - तै.ब्रा.२.४.३.९

*पापक्षयार्थ कर्मोपयोगि मन्त्राः :- यद्देवा देव हेडनम्। देवासश्चकृमा वयम्। आदित्यास्तस्मान्मा यूयम्। ऋतस्यर्तेन मुञ्चत। - तै.ब्रा.२.४.४.८

*ऋतस्यर्तेनाऽऽदित्याः। यजत्रा मुञ्चतेह मा। यज्ञैर्वा यज्ञवाहसः। आशिक्षन्तो न शेकिम। - तै.ब्रा.२.४.४.८

*ऐन्द्रे सौमिके कर्मणि विनियुक्ताः मन्त्राः :- वृषा सो अंशुः पवते हविष्मान्त्सोमः। इन्द्रस्य भाग ऋतयुः शतायुः। स मा वृषाणं वृषभं कृणोतु। प्रियं विशां सर्ववीरं सुवीरम्। - तै.ब्रा.२.४.५.१

*आग्नेय कर्मणि विनियोक्तव्यौ मन्त्रौ : ब्रह्म ज्येष्ठा वीर्या संभृतानि। ब्रह्माग्रे ज्येष्ठं दिवमाततान। ऋतस्य ब्रह्म प्रथमोत जज्ञे। तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः। - तै.ब्रा.२.४.७.१०

*सूर्यमृतं तमसो ग्राह्या यत्। देवा अमुञ्चन्नसृजन्व्येनसः। एवमहमिमं क्षेत्रियाज्जामिशंसात्। द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्।- तै.ब्रा.२.५.६.३

*बृहदिन्द्राय गायत। मरुतो वृत्रहन्तमम्। येन ज्योतिरजनयन्नृतावृधः। देवं देवाय जागृवि। - तै.ब्रा.२.५.८.३

*सौत्रामणेः कौकिल्या अभिधानम् : सोमो राजाऽमृतं सुतः। ऋजीषेणाजहान्मृत्युम्। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। विपानं शुक्रमन्धसः। इन्द्रस्येद्रियम्। इदं पयोऽमृतं मधु। - तै.ब्रा.२.६.२.१

*सोममद्भ्यो व्यपिबत्। छन्दसा हंसः शुचिषत्। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। अद्भ्यः क्षीरं व्यपिबत्। क्रुङ्ङाङ्गिरसो धिया। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। अन्नात्परिस्रुतो रसम्। ब्रह्मणा व्यपिबत्क्षत्रम्। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। - तै.ब्रा.२.६.२.१

*रेतो मूत्रं विजहाति। योनिं प्रविशदिन्द्रियम्। गर्भो जरायुणाऽऽवृतः। उल्बं जहाति जन्मना। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। वेदेन रूपे व्यकरोत्। सतासती प्रजापतिः। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। - तै.ब्रा.२.६.२.२

*सोमेन सोमौ व्यपिबत्। सुतासुतौ प्रजापतिः। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्। सत्यानृते प्रजापतिः। अश्रद्धामनृतेऽदधात्। श्रद्धां सत्ये प्रजापतिः। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। - तै.ब्रा.२.६.२.३

*दृष्ट्वा परिस्रुतो रसम्। शुक्रेण शुक्रं व्यपिबत्। पयः सोमं प्रजापतिः। ऋतेन सत्यमिन्द्रियम्। विपानं शुक्रमन्धसः। इन्द्रस्येन्द्रियम्। इदं पयोऽमृतं मधु। - तै.ब्रा.२.६.२.३

*मैत्रावरुणेन पठनीया एकादश प्रयाज प्रैषाः :- होता यक्षदोजो न वीर्यम्। सहो द्वार इन्द्रमवर्धयन्। सुप्रायणा विश्रयन्तामृतावृधः। द्वार इन्द्राय मीढुषे। वियन्त्वाज्यस्य होतर्यज। - तै.ब्रा.२.६.७.३

*होता यक्षद्व्यचस्वती। सुप्रायणा ऋतावृधः। द्वारो देवीर्हिरण्ययी:। ब्रह्माण इन्द्रं वयोधसम्। पङ्क्तिं छन्द इहेन्द्रियम्। तुर्यवाहं गां वयो दधत्। - तै.ब्रा.२.६.१७.३

*अग्निष्टुदाख्ये क्रतौ मैत्रावरुण ग्रहस्य पुरोरुक् :- यजा नो मित्रावरुणा। यजा देवां ऋतं बृहत्। अग्ने यक्षि स्वं दमम्। - तै.ब्रा.२.७.१२.१

*शुक्रग्रहस्य पुरोरुक् :- स सूर आ जनयञ्ज्योतिरिन्द्रम्। अया धिया तरणिरद्रिबर्हाः। ऋतेन शुष्मीनवमानो अर्कैः। व्युस्रिधो अस्रो अद्रिर्बिभेद। - तै.ब्रा.२.७.१३.२

*पशोः सूक्ते वपाया याज्या :- रयीणां पतिं यजतं बृहन्तम्। अस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ। प्रजापतिं प्रथमजामृतस्य। यजाम देवमधि नो ब्रवीतु। - तै.ब्रा.२.८.१.३

*वायव्यादिपशुसूक्ताभिधानम्। हविषो याज्या :-यो राय ईशे शतदाय उक्थ्यः। यः पशूनां रक्षिता विष्ठितानाम्। प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य। सहस्रधामा जुषताँ हविर्नः। - तै.ब्रा.२.८.१.४

*काम्य पशूनां वपाया याज्या :- ते सूनवो अदितेः पीवसामिषम्। घृतं पिन्वत्प्रतिहर्यन्नृतेजाः। प्र यज्ञिया यजमानाय येमुरे। आदित्याः कामं पितुमन्तमस्मे। - तै.ब्रा.२.८.२.१

*काम्य पशूनां वपाया याज्या :- प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिः। गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य। आ नो द्यावापृथिवी दैव्येन। जनेन यातं महि वां वरूथम्। - तै.ब्रा.२.८.४.७

*पशोः सूक्ते वपाया पुरोनुवाक्या :- शुची वो हव्या मरुतः शुचीनाम्। शुचि हिनोम्यध्वरं शुचिभ्यः। ऋतेन सत्यमृतसाप आयन्। शुचिजन्मानः शुचयः पावकाः। - तै.ब्रा.२.८.५.५

*पशोः सूक्ते वपायाः पुरोनुवाक्या :- अहमस्मि प्रथमजा ऋतस्य। पूर्वं देवेभ्यो अमृतस्य नाभिः। यो मा ददाति स इदेव माऽऽवाः। अहमन्नमन्नमदन्तमद्मि। - तै.ब्रा.२.८.८.१

*हविषः पुरोनुवाक्या :- वागक्षरं प्रथमजा ऋतस्य। वेदानां माताऽमृतस्य नाभिः। सा नो जुषाणोपयज्ञमागात्। अवन्ती देवी सुहवा मे अस्तु। - तै.ब्रा.२.८.८.५

*दर्शपूर्णमासेष्टिविधिः। दोहनसंबंधि विधिः:- संपृच्यध्वमृतावरीरित्याह। अपां चैवौषधीनां च रसं संसृजति। - तै.ब्रा.३.२.३.१०

*दर्शपूर्णमासेष्टिः। वेदिका संबंधि विधिः :- ऋतमस्यृतसदनमस्यृत श्रीरसीत्याह। यथायजुरेवैतत्। - तै.ब्रा.३.२.९.१२

*मनुष्य पशूनां विधिः :- ऋत्यै स्तेनहृदयम्। - तै.ब्रा.३.४.७.१

*ऋत्यै जनवादिनम्। - तै.ब्रा.३.४.१४.१

*इष्टिहौत्रस्य मन्त्राः, होतुर्जपः :- सत्यं प्रपद्ये। ऋतं प्रपद्ये। अमृतं प्रपद्ये। - तै.ब्रा.३.५.१.१

*इष्टिहौत्रस्य मन्त्राः याज्यानुवाक्याः :- ऋता यजासि महिना वियद्भूः। हव्या वह यविष्ठया ते अद्य ॥ - तै.ब्रा.३.५.७.६

*उपहूते द्यावापृथिवी। पूर्वजे ऋतावरी। देवी देवपुत्रे। उपहूतोऽयं यजमानः। - तै.ब्रा.३.५.८.३

*इष्टिहौत्रस्य मन्त्राः। पत्नी संयाजः :- यजिष्ठः स प्र यजतामृतावा। - तै.ब्रा.३.५.१२.१

*इष्टिहौत्रस्य मन्त्राः। इडाह्वानम् :- उपहूते द्यावापृथिवी। पूर्वजे ऋतावरी। देवी देवपुत्रे। उपहूतेयं यजमाना। - तै.ब्रा.३.५.१३.३

*पाशुक होत्रे प्रयाज विषये मैत्रावरुण प्रैषाः :- होता यक्षददुर ऋष्वाः कवष्योऽकोषधावनीरुदाताभिर्जिहतां वि पक्षोभिः श्रयन्ताम्। सुप्रायणा अस्मिन्यज्ञे विश्रयन्तामृतावृधो वियन्त्वाज्यस्य होतर्यज। - तै.ब्रा.३.६.२.२

*आप्री संज्ञका होत्रा पठनीयाः :- तनूनपात्पथ ऋतस्य यानान्। मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजिह्व। - - - तै.ब्रा.३.६.३.१

*आप्री संज्ञका होत्रा पठनीयाः :- सद्योजातो व्यमिमीत यज्ञम्। अग्निर्देवानामभवत्पुरोगाः। अस्य होतुः प्रदिश्यतृस्य वाचि। स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः। - तै.ब्रा.३.६.३.३

*स्विष्टकृतां मैत्रावरुणेन वक्तव्याः वनस्पतेः पुरोनुवाक्या :- देवेभ्यो वनस्पते हवींषि। हिरण्यपर्णे प्रदिवस्ते अर्थम्। प्रदक्षिणिद्रशनया नियूय। ऋतस्य वक्षि पथिभी रजिष्ठैः। - तै.ब्रा.३.६.११.२

*वनस्पतेः स्विष्टकृतश्च याज्या : पावक शोचे वेष्ट्वं हि यज्वा। ऋता यजासि महिना वि यद्भूः। हव्या वह यविष्ठ या ते अद्य। - तै.ब्रा.३.६.१२.२

*सोमाङ्गभूता मन्त्राः। दैवतोपस्थानम् :- सक्षेदं पश्य। विधर्तरिदं पश्य। नाकेदं पश्य। रमतिः पनिष्ठा। ऋतं वर्षिष्ठम्। अमृता यान्याहुः। - तै.ब्रा.३.७.७.१

*क्षौममहतं महद्वासस्य प्रतिग्रहे मन्त्रम् :- ब्रह्मासि क्षत्त्रस्य योनिः। क्षत्त्रमस्यतृस्य योनिः। ऋतमसि भूरारभे श्रद्धां मनसा। - तै.ब्रा.३.७.७.२

*कृष्णाजिनमारूढस्य जप्यं मन्त्रम् :- आऽहं दीक्षामरुहमृतस्य पत्नीम्। गायत्रेण छन्दसा ब्रह्मणा च। ऋतं सत्येऽधायि। सत्यमृतेऽधायि। ऋतं च मे सत्यं चाभूताम्। - तै.ब्रा.३.७.७.४

*सन्नानां ग्राव्णामभिमन्त्रणे मन्त्रम् :- अपां क्षया ऋतस्य गर्भाः। भुवनस्य गोपाः श्येना अतिथयः - - - - तै.ब्रा.३.७.९.१

*दर्भपुञ्जीलै: पाव्यमानस्य यजमानस्य जपार्था मन्त्राः :- यद्देवा देवहेडनम्। देवासश्चकृमा वयम्। आदित्यास्तम्मान्मा मुञ्चत। ऋतस्यर्तेन मामुत। - तै.ब्रा.३.७.१२.१

*ऋतेन द्यावापृथिवी। ऋतेन त्वं सरस्वति। ऋतान्मा मुञ्चताँहसः। यदन्यकृतमारिम। - तै.ब्रा.३.७.१२.२

*रशनयाऽश्वबन्धनम् :- व्यृद्धं वा एतद्यज्ञस्य। यदयजुष्केण क्रियते। इमामगृभ्णन्रशनामृतस्येत्यधिवदति यजुष्कृत्यै। यज्ञस्य समृद्ध्यै। - तै.ब्रा.३.८.३.२

*अश्वमेधे प्रथममहः। रशनया अश्वबन्धनम् :- ऋतस्य सामन्सरमारपन्तीत्याह। सत्यं वा ऋतम्। सत्येनैवैनमृतेनाऽऽरभते। - तै.ब्रा.३.८.३.५

*सावित्रचयनाभिधानम् :-इन्दुर्दक्षः श्येन ऋतावा। हिरण्यपक्षः शकुनो भुरण्यु:। महान्त्सधस्थे ध्रुव आनिषत्तः। नमस्ते अस्तु मा मा हिंसीः। - तै.ब्रा.३.१०.४.३

*वैश्वसृज चयनांगभूता पाद्याख्येष्टीनाम् याज्या :- श्रद्धा देवी प्रथमजा ऋतस्य। विश्वस्य भर्त्री जगतः प्रतिष्ठा। ताँ श्रद्धां हविषा यजामहे। सा नो लोकममृतं दधातु। ईशाना देवी भुवनस्याधि पत्नी। - तै.ब्रा.३.१२.३.२

*वैश्वसृज दक्षिणा चयनाभिधानम् :- अशंसद्ब|ह्मणस्तेजः। अच्छावाकोऽभवद्यशः। ऋतमेषां प्रशास्ताऽऽसीत्। यद्विश्वसृज आसत। - तै.ब्रा.३.१२.९.४

*विधाय लोकान्विधाय भूतानि। विधाय सर्वाः प्रदिशो दिशश्च। प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य। आत्मनाऽऽत्मानमभिसंविवेशेति। - तैत्तिरीय आरण्यक १.२३.९

*पापक्षयार्थ कूष्माण्डहोमाङ्गभूता मन्त्राः :- यद्देवा देवहेळनं देवासश्चकृमा वयम्। आदित्यास्तस्मान्मा मुञ्चतर्तस्यर्तेन मामित। देवा जीवनकाम्या यत्रचाऽनृतमूदिम। तस्मान्न इह मुञ्चत विश्वे देवाः सजोषसः। ऋतेन द्यावापृथिवी ऋतेन त्वं सरस्वति। कृतान्नः पाह्येनसो यत्किंचानृतमूदिम ॥ - तै.आ.२.३.१

*अमी ये सुभगे दिवि विचृतौ नाम तारके। प्रेहामृतस्य यच्छतामेतद्बद्धकमोचनम्। - तै.आ.२.६.१

*स प्रजानन्प्रतिगृभ्णीत विद्वान्प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य। अस्माभिर्दत्तं जरसः परस्तादच्छिन्नं तन्तुमनुसंचरेम। - तै.आ.२.६.१

*होतृहृदय मन्त्राः :- इन्द्रं राजानं सवितारमेतम्। वायोरात्मानं कवयो निचिक्यु:। रश्मिं रश्मीनां मध्ये तपन्तम्। ऋतस्य पदे कवयो निपान्ति। - तै.आ.३.११.४

*येनर्तवः पञ्चधोत क्लृप्ताः। उत वा षड्धा मनसोत क्लृप्ताः। तं षड्ढोतारमृतुभिः कल्पमानम्। ऋतस्य पदे कवयो निपान्ति। (चन्द्रमा) - तै.आ.३.११.४

*पतङ्गो वाचं मनसा बिभर्ति। तां गन्धर्वोऽवदद्गर्भे अन्तः। तां द्योतमानां स्वर्यं मनीषाम्। ऋतस्य पदे कवयो निपान्ति ॥ (आदित्यः) - तै.आ.३.११.११

*प्र पूर्व्यं मनसा वन्दमानः। नाधमानो वृषभं चर्षणीनाम्। यः प्रजानामेकराण्मानुषीणाम्। मृत्युं यजे प्रथमजामृतस्य ॥ - तै.आ.३.१५.२

*देवीर्वम्रीरस्य भूतस्य प्रथमजा ऋतावरीः ॥(इति वल्मीकवपाम् अभिमन्त्रयत) - तै.आ.४.२.३

*महावीरस्य सिंचन - अभिपूरण हेतु मन्त्रः :- अञ्जन्ति यं प्रथयन्तो न विप्राः। वपावन्तं नाग्निना तपन्तः। पितुर्न पुत्र उपसि प्रेष्ठः। आघर्मो अग्निमृतयन्नसादीत्। (इति स्रुवेण महावीरमन्क्त्यभिपूरयति च) - तै.आ.४.५.२

*उत्तरवेदि अभिमर्शनम्:- चतुःस्रक्तिर्नाभिर्ऋतस्य।- तै.आ.४.११.४

*प्रवर्ग्यमुपतिष्ठन्ते :-चिदसि समुद्रयोनिः। इन्दुर्दक्षः श्येन ऋतावा। हिण्यपक्षः शकुनो भुरण्युः। महान्त्सधस्थे ध्रुव आनिषत्तः। नमस्ते अस्तु मा मा हिंसीः। विश्वावसुं सोमगन्धर्वम्। आपो ददृशुषीः। तदृतेना व्यायन्। तदन्ववैत्। इन्द्रो रारहाण आसाम्। परि सूर्यस्य परिधींरपश्यत्। - तै.आ.४.११.६

*भिन्नं महावीरस्य संश्लेषण हेतु मन्त्रः :- यदृते चिदभिश्रिषः। पुरा जर्तृभ्य आतृदः। संधाता संधिं मघवा पुरोवसुः। निष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥ - तै.आ.४.२०.१

*आरण्याः पशवः कनीयांसः। शुचा ह्यृताः। - तै.आ.५.२.१२

*चतुःस्रक्तिर्नाभिर्ऋतस्येत्याह। इयं वा ऋतम्। तस्या एष एव नाभिः। यत्प्रवर्ग्यः। तस्मादेवमाह। - तै.आ.५.९.६

*नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि। ऋतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवन्तु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्। - तै.आ.७.१.१

*ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। - - - - - तै.आ.७.९.१

*ब्रह्मतत्त्वविद्याया अनुष्ठानानामवसाने शान्तिमन्त्रं :- - - - - ऋतमवादिषम्। सत्यमवादिषम्। तन्मामावीत् - - - शं नः शीक्षां सह नौ यश्छन्दसां भूः स यः पृथिव्योमित्यृतं चाहं वेदमनूच्य शं नो द्वादश।- तै.आ.७.१२.१

*उपास्य स्वरूपं :- स वा एष पुरुषविध एव। तस्य पुरुषविधताम्। अन्वयं पुरुषविधः। तस्य श्रद्धैव शिरः। ऋतं दक्षिणः पक्षः। सत्यमुत्तरः पक्षः। योग आत्मा। महः पुच्छं प्रतिष्ठा। - तै.आ.८.४.१

*साम स्वरूपं :- - - - - अहमस्मि प्रथमजा ऋता३स्य। पूर्वं देवेभ्यो अमृतस्य ना३भायि। यो मा ददाति स इदेव मा३ऽऽवाः। अहमन्नमन्नमदन्तमा३द्मि। - - - तै.आ.९.१०.६

*सर्वजगदात्मत्मकत्वम् :- तदेवर्तं तदु सत्यमाहुस्तदेव ब्रह्म परमं कवीनाम्। इष्टापूर्तं बहुधा जातं जायमानं विश्वं बिभर्ति भुवनस्य नाभिः ॥ - तै.आ.१०.१.२

*परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः परि लोकान्परि दिशः परि सुवः। ऋतस्य तन्तुं विततं विचृत्य तदपश्यत्तदभवत्प्रजासु -तै.आ.१०.१.४

*जले निमग्नस्य प्राणायामार्थमघमर्षणसूक्तम् :-ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्रिरजायत ततः समुद्रो अर्णवः। - - - - - - -तै.आ.१०.१.१३

*तपसिद्ध्यर्थं जप्यं मन्त्रम् :- ऋतं तपः सत्यं तपः श्रुतं तपः शान्तं तपो दानं तपो यज्ञं तपो भूर्भुवः सुवर्ब|ह्मैतदुपास्स्यैतत्तपः। - तै.आ.१०.८.१

*हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्। नृषद्वरसदृतसद् व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ (ऋते सत्ये वैदिके कर्मणि फलरूपेण सीदतीति ऋतसत् - सायणः) - तै.आ.१०.१०.२

*उपास्यदेवतानमस्कारार्थमेकामृचम् :- ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्। ऊर्ध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपाय वै नमः ॥ - तै.आ.१०.१२.१

*हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्। नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्। - तै.आ.१०.५०.१

*संन्यासेन प्राप्ततत्त्वज्ञानं पुरुषं प्रशंसति :- - - - स भूतं स भव्यं जिज्ञासक्लृप्त ऋतजा रयिष्ठाः श्रद्धा सत्यो महस्वान्तमसोपरिष्टात्। - तै.आ.१०.६३.१

*यदध्यवर्युर्यजुषा करोति, अन्तरिक्षं तेनाप्याययति। तस्मिन् वायुर्न निविशते कतमच्चनाहरिति। तदप्येतदृचोक्तम् - अन्तरिक्षे पथिभिर्ह्रीयमाणो न नि विशते कतमच्चनाहः। अपां योनिः प्रथमजा ऋतस्य क्व स्विज्जातः कुत आ बभूव ॥ - गोपथ ब्राह्मण १.२.९

*अनर्वाणश्च ह वा ऋतावन्तश्च पितरः स्वधायामावृषायन्त - वयं वदामहै वयं वदामहा इति। सो ऽयात् स्वायंभुवो वा ऋतावन्तो मदेयातां न वयं वदामहा इति। - गो.ब्रा.१.५.२१

*एष्टा राय एष्टा वामानि प्रेषे भगाय, ऋतमृतवादिभ्यो, नमो दिवे नमः पृथिव्या इति। - गो.ब्रा.२.२.४

*वैश्वानराय धिषणामृतावृध इत्याग्निमारुतस्य प्रतिपदन्तो वै धिषणान्त एतदहरेतस्याह्नो रूपम्। - ऐतरेय आरण्यक १.५.३

*ऋतस्पृशमिति सत्यं वै वागृचा स्पृष्टा। - ऐ.आ.२.३.६

*अथ यः कश्च गेष्णः सः स्वर ओ३मिति सत्यं नेत्यनृतम्। तदेतत्पुष्पं फलं वाचो यत्सत्यं स हेश्वरो यशस्वी कल्याणकीर्तिर्भवितोः पुष्पं हि फलं वाचः सत्यं वदति। अथैतन्मूलं वाचो यदनृतं तद्यथा वृक्ष आविर्मूलः शुष्यति स उद्वर्तत एवमेवानृतं वदन्नाविर्मूलमात्मानं करोति स शुष्यति स उद्वर्तते। - ऐ.आ.२.३.६

*वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् - - - - - तेनाहोरात्रान्संदधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु - - - - - - ऐ.आ.२.७.१

*तमूतये हवामहे जेतारमपराजितम्। स नः पर्षदति द्विषः क्रतुश्छन्द ऋतं बृहत् ॥ - ऐ.आ.४.६

*इन्द्रः कर्माक्षितममृतं व्योम ऋतं सत्यं विजिग्यानं विवाचनम्। - ऐ.आ.५.३.२

*अथो खल्वाहुः कोऽर्हति मनुष्यः सर्वं सत्यं वदितुं सत्यसंहिता वै देवा अनृतसंहिता मनुष्या इति। विचक्षणवती वाचं वदेत। चक्षुर्वै विचक्षणं वि ह्येनेन पश्यति। एतद्ध वै मनुष्येषु सद्यं निहितं यच्चक्षुः। तस्मादाचक्षाणमाहुरद्रागिति स यद्यदर्शमित्याहाथास्य श्रद्दधति यद्यु वै स्वयं पश्यति न बहूनां चनान्येषां श्रद्दधाति। - ऐतरेय ब्राह्मण १.६

*ऋतं वाव दीक्षा सत्यं दीक्षा तस्माद्दीक्षितेन सत्यमेव वदितव्यम्। - ऐ.ब्रा.१.६

*निह्नवं :-द्यावापृथिव्योर्वा एष गर्भो यत्सोमो राजा तद्यदेष्टा राय एष्टा वामानि प्रेषे भगाय। ऋतमृतवादिभ्यो नमो दिवे नमः पृथिव्या इति प्रस्तरे निह्नवते द्यावापृथिवीभ्यामेव तं नमस्कुर्वन्ति - ऐ.ब्रा.१.२६

*ऋतावा यस्य रोदसी शंसति चक्षुर्वा ऋतं तस्माद्यतरो विवदमानयोराहाहमनुष्ठ्या चक्षुषाऽदर्शमिति तस्य श्रद्दधति चक्षुरेव तत्संभावयति चक्षु संस्कुरुते। - ऐ.ब्रा.२.४०

*ऋतावा यस्य रोदसी इति शंसति द्यावापृथिवी वै रोदसी द्यावापृथिवी एव तत्कल्पयति द्यावापृथिवी अप्येति। - ऐ.ब्रा.२.४१

*यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजातेति दीदायेव वै ब्रह्मवर्चसम्। - ऐ.ब्रा.४.११

*हंसः शुचिषद्- - - - -ऋतसदित्येष वै सत्यसत् - - - - ऋतजा इत्यैष वै सत्यजाः। अद्रिजा इत्येष वा अद्रिजाः। ऋतमित्येष वै सत्यम्। - ऐ.ब्रा.४.२०

*प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी ऋतावृधेति द्यावापृथिवीयं प्रेति प्रथमेऽहनि प्रथमस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा.४.३०

*वायो ये ते सहस्त्रिण इति प्रउगं सूतः सोम ऋतावृधेति वृधन्वद् द्वितीये ऽहनि द्वितीयस्याह्नो रूपम्। - ऐ.ब्रा.४.३१

*वैश्वानराय धिषणामृतावृध इत्याग्निमारुतस्य प्रतिपदन्तो वै धिषणाऽन्तस्तृतीयमहः - ऐ.ब्रा.५.२

*ऋतावानं वैश्वानरमित्याग्निमारुतस्य प्रतिपदग्निर्वैश्वानरो महानिति महद्वदष्टमेऽहन्यष्टमस्याह्नो रूपम् - ऐ.ब्रा.५.१९

*दोहनार्था मन्त्राः :- सं पृच्यध्वमृतावरीरूर्मिणीर्मधुमत्तमा मन्द्रा धनस्य सातये सोमेन त्वाऽऽतनच्मीन्द्राय दधि विष्णो हव्यं रक्षस्व। - तैत्तिरीय संहिता १.१.३.१

*वेदिकरणार्था मन्त्राः :- (उत्तरं परिग्राहं परिगृह्णाति ऋतमसीति दक्षिणत ऋतसदनमसीति पश्चादृतश्रीरसीत्युत्तरतः) ऋतमस्यतृसदनमस्यतृश्रीरसि धा असि - - - -तै.सं.१.१.९.३

*दर्शपूर्णमासविकृतिभूतकाम्येष्टीनां याज्या मन्त्राः :- क्षेत्रस्य पते मधुमन्तमूर्मिं धेनुरिव पयो अस्मासु धुक्ष्व। मधुश्चुतं घृतमिव सुपूतमृतस्य नः पतयो मृडयन्तु ॥ - तै.सं.१.१.१४.३

*शकटारोपितस्य सोमस्य प्राचीनवंशं प्रति गमनम् :- (अथाग्रेण शालां तिष्ठन्नोह्यमानं राजानं प्रति मन्त्रयते) - नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतं सपर्यत। दूरेदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शंसत। - तै.सं.१.२.९.१

*सोमकरणकरिष्यमाणयागविघ्नकार्यसुरपराभवार्थोपसद्वर्णनम्" :- (न प्रस्तरायाऽऽआवयति न बर्हिरनुप्रहरति तं दक्षिणार्थे वेद्यै निधाय तस्मिन्दक्षिणोत्तरेण निह्नुवते) - एष्टा रायः प्रेषे भगायर्तमृतवादिभ्यो नमो दिवे नमः पृथिव्या। - तै.सं.१.२.११.१

*अग्नीषोमीयपश्वभिधानायाग्नीषोमप्रणयनार्थवैसर्जनहोमाभिधानम् :-(ब्रह्मणो राजानमादाय पूर्वया द्वारा हविर्धानं प्रपादयति) - सोमो जिगाति गातुवित् देवानामेति निष्कृतमृतस्य योनिमासदमदित्याः सदोऽस्यदित्याः सद आ सीद् - - -तै.सं.१.३.४.२

*उपाकृताग्नीषोमीयपशुविशसनाभिधानम् :-(हे रशने ! त्वाम्) आ दद ऋतस्य त्वा देवहविः पाशेनाऽऽरभे - -(इति दक्षिणेऽर्धशिरसि पाशेनाक्ष्णया प्रतिमुच्य)- - - तै.सं.१.३.८.१

*काम्ययाज्यापुरोनुवाक्याः : - (अग्नये सुरभिमते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यस्य गावो वा पुरुषा वा प्रमीयेरन्) - अग्निर्होतो निषसादा यजीयानुपस्थे मातुः सुरभावु लोके। युवा कविः पुरुनिष्ठः ऋतावा धर्ता कृष्टीनामुत मध्य इद्धः ॥ - तै.सं.१.३.१४.२

*मैत्रावरुणग्रहाभिधानम् :-अयं वां मित्रावरुणा सुतः सोम ऋतावृधा। ममेदिह श्रुतं हवम्। उपयामगृहीतोऽसि मित्रावरुणाभ्यां त्वैष ते योनिर्ऋतायुभ्यां त्वा। (इति मैत्रावरुणं गृहीत्वा शृतशीतेन पयसा श्रीत्वा, एष ते योनि- - इति सादयति)। - तै.सं.१.४.५.१

*ध्रुवग्रहाभिधानम् :-मूर्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृताय जातमग्निम्। कविँ सम्राजमतिथिं जनानामासन्ना पात्रं जनयन्त देवाः। (इति स्थाल्या ध्रुवं पूर्णं गृह्णाति) - तै.सं.१.४.१३.१

*दक्षिणावर्णनम् :- ऋतस्य पथा प्रेत चन्द्रदक्षिणा - तै.सं.१.४.४३.२

*पुनराधानसंबन्ध्यङ्गजातनिरूपणम् :-वीरहा वा एष देवानां योऽग्निमुद्वासयते न वा एतस्य ब्राह्मणा ऋतायवः पुराऽन्नमक्षन्पङ्क्त्यो याज्यानुवाक्या भवन्ति - - -। - तै.सं.१.५.२.१

*अग्न्युपस्थानम् :राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्। वर्धमानं स्वे दमे। (इति गायत्रीभिर्गार्हपत्यमुपतिष्ठते)। - तै.सं.१.५.६.२

*काम्ययाज्यापुरोनुवाक्याभिधानम् :- (प्रथम हविषः याज्या) -ऋतावानं वैश्वानरमृतस्य ज्योतिषस्पतिम्। अजस्रं घर्ममीमहे। - तै.सं.१.५.११.१

*राजसूयविषयाणां देवसुवां हविषामभिधानम् :- अमन्महि महत ऋतस्य नाम - तै.सं.१.८.१०.२

*राजसूयविषयाणामभिषेकार्थजलसंस्कारमन्त्राणामभिधानम् :-आविन्नौ मित्रावरुणावृतावृधावाविन्ने द्यावापृथिवी धृतव्रते (इति यजमानं वाचयन्बहिरुदानीय) - - तै.सं.१.८.१२.२

*राजसूयविषयदिग्व्यास्थापनमन्त्राणामभिधानम् :शुक्रज्योतिश्च चित्रज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्मांश्च सत्यश्चर्तपाश्च अत्यंहाः। (इतिमारुतमेकविँशतिकपालं निर्वपति वैश्वदेवीमामिक्षां)- तै.सं.१.८.१३.२

*राजसूयविषयस्य रथेन विजयस्याभिधानम् :- हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्। नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ॥ (इति सह संग्रहीत्रा रथवाहने रथमत्यादधाति) - तै.सं.१.८.१५.२

*काम्ययाज्यापुरोनुवाक्याभिधानम् :-यद्दीदयच्छवसा ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्। (बृहस्पतिः) - तै.सं.१.८.२२.२

*काम्येष्टियाज्याविधानम् :- सं यदिषो वनामहे सं हव्या मानुषाणाम्। उत द्युम्नस्य शवसः ऋतस्य रश्मिमा ददे। - तै.सं.२.१.११.३

*दीर्घाधियो रक्षमाणाः असुर्यमृतावानश्चयमाना ऋणानि। - तै.सं.२.१.११.४

*अभिशस्तादिकर्तव्येष्टिविधिः :- न वा एतस्य ब्राह्मणा ऋतायवः पुराऽन्नमक्षन्नाग्नेयमष्टाकपालं निर्वपेद् - तै.सं.२.२.५.५

*राजयक्ष्मगृहीतस्येष्टिविधिः :- स (प्रजापतिः) (चन्द्रमसं)ऽब्रवीदृतममीष्व यथा समावच्छ उपैष्याम्यथ ते पुनर्दास्यामीति स ऋतमामीत्ता अस्मै पुनरददात्तासां रोहिणामेवोप ऐत्तं यक्ष्म आर्छद् - तै.सं.२.३.५.१

*चक्षुष्कामस्य ऽऽग्नेये कर्मणि याज्यानुवाक्याभिधानम् :- विश्वे देवा ऋतावृध ऋतुभिर्हवनश्रुतः। जुषन्तां युज्यं पयः। - तै.सं.२.४.१४.५

*इडोपाह्वानविधितन्मन्त्रव्याख्यानयोः प्रस्तावः :- उपहूते द्यावापृथिवी इत्याह द्यावापृथिवी एवोप ह्वयते पूर्वजे ऋतावरी इत्याह पूर्वजे ह्येते ऋतावरी देवी देवपुत्रे इत्याह - - - - तै.सं.२.६.७.५

*संवर्गेष्टिहौत्रे सामिधेन्या मन्त्राभिधानम् :- त्वं ह यद्यविष्ठ्य सहसः सूनवाहुत। ऋतावा यज्ञियो भुवः। - तै.सं.२.६.११.१

*पितृयज्ञहविर्हौत्रत्रमन्त्राभिधानम् :- उदीरतामवर उतपरास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। असुम् य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु। - तै.सं.२.६.१२.३

*सवनाहुत्यादिमन्त्राणामभिधानम् :- इदं तृतीयं सवनं कवीनामृतेन ये चमसमैरयन्त। ते सौधन्वनाः सुवरानशानाः स्विष्टिं नो अभिवसीयो नयन्तु। (इति संस्थिते सवन आहुतिं जुहोति) - तै.सं.३.१.९.२

*स्तुतशस्त्राभिधानम् :- तनूपात्साम्नः सत्या व आशिषः सन्तु सत्या आकूतय ऋतं च सत्यं च वदत स्तुत - तै.सं.३.२.७.१

*तृतीयसवनमाध्यंदिसवनगतहोमविशेषमन्त्राभिधानम्:-अभिगूर्ताय नम ऋतमृपाः सुवर्वाट्स्स्वाहा वा~त्स्वयमभिगूर्ताय। - तै.सं.३.२.८.१

*प्रतिनिर्ग्राह्यमन्त्राभिधानम् :- उपयामगृहीतोऽस्यृतसदसि चक्षुष्पाभ्यां त्वा क्रतुपाभ्यामस्य यज्ञस्य - - - - -तै.सं.३.२.१०.१

*विकृतिरूपद्वादशाहशेषपृश्निग्रहाभिधानम् :- ऋतमसि सत्यं नामेन्द्रस्याऽऽधिपत्ये क्षत्त्रं मे दा भूतमसि भव्यं नाम पितृणामाधिपत्ये ऽपामोषधीनां गर्भं धा ऋतस्य त्वा व्योमन ऋतस्य त्वा विभूमन ऋतस्य त्वा विधर्मण ऋतस्य त्वा सत्यायर्तस्य त्वा ज्योतिषे - - - - - - - -ऋतमसि सत्यं नामेत्याह क्षत्त्रमेवाव रुन्धे - - - - - ऋतस्य त्वा व्योमन इत्याहेयं वा ऋतस्य व्योमेमामेवाभि जयत्यृतस्य त्वा विभूमन इत्याहान्तरिक्षं वा ऋतस्य विभूमान्तरिक्षमेवाभि जयत्यृतस्य त्वा विधर्मण इत्याह द्यौर्वा ऋतस्य विधर्म दिवमेवाभि जयत्यृतस्य त्वा सत्यायेत्याह दिशो वा ऋतस्य सत्यं दिश एवाभि जयत्यृतस्य त्वा ज्योतिष इत्याह सुवर्गो वै लोक ऋतस्य ज्योतिः सुवर्गमेव लोकमभि जयति। -तै.सं.३.३.५.१

*राष्ट्रभृन्मन्त्राभिधानम् :- ऋताषाडतृधामाऽग्निर्गन्धर्वस्तस्योषधयोऽप्सरस ऊर्जो नाम - - - तै.सं.३.४.७.१

*पत्नीविषया मन्त्राः :- प्रेह्युदेह्यृतस्य वामीरन्वग्निस्तेऽग्रं नयत्वदितिर्मध्यं ददतों (इति नेष्टा पत्नीमुदानयति)- - - तै.सं.३.५.५.२

*दधिग्रहणमन्त्रोक्तिः :- - - - - रातं देवेभ्योऽग्निजिह्वेभ्यस्त्वर्तायुभ्य इन्द्रज्येष्ठेभ्यो - - - तै.सं.३.५.८.१

*दधिग्रहमन्त्रव्याख्यानम् : :-अग्निजिह्वेभ्यस्त्वर्तायुभ्य इत्याहैतावतीर्वै देवतास्ताभ्य एवैनं सर्वाभ्यो गृह्णाति - तै.सं.३.५.९.२

*मृदाक्रान्त्याभिधानम् :-इमामगृभ्णन्रशनामृतस्य पूर्व आयुषि विदथेषु कव्या। तया देवा सुतमा बभूवुर्ऋतस्य सामन्त्सरमारपन्ती (इति अश्वाभिधानीं रशनामादाय) - तै.सं.४.१.२.१

*मृदाहरणाभिधानम् :अग्न आ याहि वीतय ऋतं सत्यम् (इति तिसृभिरत्वरमाणा अश्वप्रथमा प्रत्यायन्ति)। - तै.सं.४.१.४.४

*चातुर्मास्यगतवैश्वदेवाख्यपर्वविहितहविषां याज्यापुरोनुवाक्याभिधानम् :प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिकृणुध्वं सदने ऋतस्य। - तै.सं.४.१.११.४

*आसन्द्यामुखाग्निस्थापनप्रतिपादनम् :- हंसः शुचिषद् - - - - नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् (इति आसन्द्याम् चतसृभिरुख्यं सादयति) - तै.सं.४.२.१.५

*आसन्दीस्थापिताग्नेरुपस्थानम् :-तृतीये त्वा रजसि तस्थिवांसमृतस्य योनौ महिषा अहिन्वन् (इति वात्सप्रेणोपतिष्ठते)। - तै.सं.४.२.१.१

*आहवनीयचयनार्थलोष्टक्षेपाद्यभिधानम् :- इषमूर्जमहमित आ दद ऋतस्य धाम्नो अमृतस्य योनेः (इति दिग्भ्यो लोष्टान्त्समस्यति)। - तै.सं.४.२.७.१

*ऋतावानं महिषं विश्वचर्षणिमग्निं सुम्नाय दधिरे पुरो जनाः (इति षड्भिः सिकता न्युप्य) - तै.सं.४.२.७.३

*स्वयमातृण्णादीष्टकोपधानाभिधानम् :- मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नःसन्त्वोषधीः (इति तिसृभिर्दध्ना मधुमिश्रेण कूर्ममभ्यज्य)। - तै.सं.४.२.९.३

*वरुण प्रघासे याज्यानुवाक्याभिधानम् :- को अद्य युङ्क्ते धुरि गा ऋतस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायून्। - तै.सं.४.२.११.३

*व्युष्टिनामकेष्टकाभिधानम् :-ऋतस्य पन्थामनु तिस्र आऽगुस्त्रयो घर्मासो अनु ज्योतिषाऽगुः। - तै.सं.४.३.११.१

*ऋतस्य गर्भः प्रथमा व्यूषुष्यपामेका महिमानं बिभर्ति। सूर्यस्यैका चरति निष्कृतेषु घर्मस्यैका सवितैकां नि यच्छति। - तै.सं.४.३.११.५

*चातुर्मास्येषु साकमेधाख्ये तृतीये पर्वणि याज्यानुवाक्याभिधानम् :- ऋता यजासि महिना वि यद्भूर्हव्या वह यविष्ठ या ते अद्य। - तै.सं.४.३.१३.५

*छन्दोभिधेष्टकाभिधानम् :- अधा ह्यग्ने क्रतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधोः। रथीर्ऋतस्य बृहतो बभूथ ॥ - तै.सं.४.४.४.७

*ऋतव्याख्येष्टकाभिधानम् :- ऋतस्थाः स्थर्तावृधो घृतश्चुतो मधुश्चुत ऊर्जस्वतीः स्वधाविनीस्ता मे अग्न इष्टका धेनवः सन्तु (इतीष्टका धेनूर्यजमानः कुरुते)।- - - तै.सं.४.४.११.४

*अग्निस्थापनाभिधानम् :- ऋतजिच्च सत्यजिच्च सेनजिच्च सुषेणश्चान्त्यमित्रश्च दूरेअमित्रश्च गणः। ऋतश्च सत्यश्च ध्रुवश्च धरुणश्च - - - (मरुद्गणाः) - तै.सं.४.६.५.६

*होमाभिधानम् :- अत्रा ते भद्रा रशना अपश्यमृतस्य या अभिरक्षन्ति गोपाः (इत्येतैः त्रिस्रिभिरनुवाकैः षट्-त्रिंशतमश्वस्तोमीयाञ्जुहोति - तै.सं.४.६.७.२

*वसोर्धाराभिधानम् :- - - - ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च मे- - - - -तै.सं.४.७.३.२

*अग्नियोगाभिधानम् :- इन्दुर्दक्षः श्येन ऋतावा। हिरण्यपक्षः शकुनो भुरण्युर्महान्त्सधस्थे ध्रुव आ निषत्तः। (इति तिसृभिरभिमृशन्नग्निं युनक्ति) - तै.सं.४.७.१३.१

*मृत्खननगमनपूर्वकमश्वेन भूम्याक्रमणम् :-इमामगृभ्णन्रशनामृतस्ये- त्यश्वाभिधानीमादत्ते५ यजुष्कृत्यै यज्ञस्य समृद्ध्यै - तै.सं.५.१.२.१

*मृदा खननपूर्वकं चर्मपत्रयोः संभरणम् :- आरण्याः पशवः कनीयांसः शुचा ह्यृता लोमतः सं भरति - - - तै.सं.५.१.४.३

*संभृतमृदो यज्ञभूमौ समाहरणम् :-ऋतंसत्यमित्याहेयं वा ऋतमसौ सत्यमनयौरेवैनं प्रतिष्ठापयति - तै.सं.५.१.५.८

*अश्वमेधसंबन्धिप्रयाजयाज्याभिधानम् :- उषासा वाम् सुहिरण्ये सुशिल्पे ऋतस्य योनाविह सादयामि। - तै.सं.५.१.११.३

*स्वयमातृण्णास्थापनम् :- वास्तव्यो वा एष यत् कूर्मो मधु वाता ऋतायत इति दध्ना मधुमिश्रेणाभ्यनक्ति स्वदयत्येवैनं - - - - तै.सं.५.२.८.५

*उखादिस्थापनम् :- आरण्याः पशव कनीयांसः शुचा ह्यृताः - तै.सं.५.२.९.५

*रेतःसिगाद्यभिधानम् :-चित्तं जुहोमि मनसा घृतेन यथा देवा इहाऽऽगमन् वीतिहोत्रा ऋतावृधः - तै.सं.५.५.४.३

*पशुनियोजनम् :- ऋतस्य त्वा देवहविः पाशेनाऽऽरभ इत्याह सत्यं वा ऋतं सत्येनैवैनमृतेनाऽऽरभते - तै.सं.६.३.६.३

*ध्रुवग्रहः :- वैश्वानरमृताय जातमग्निमित्याह वैश्वानरं हि देवतयाऽऽयुरुभयतोवैश्वानरो गृह्यते - तै.सं.६.५.२.१

*दक्षिणाहोमकथनम् :- ऋतस्य पथा प्रेत चन्द्रदक्षिणा इत्याह सत्यं वा ऋतं सत्येनैवैना ऋतेन वि भजति - तै.सं.६.६.१.३

*अश्वमेधमन्त्रकथनम् :-इमामगृभ्णन्रशनामृतस्य पूर्व आयुषि विदथेषु कव्या। तया देवाः सुतमा बभूवर्ऋतस्य सामन्त्सरमारपन्ती - तै.सं.७.१.११.१

*अश्वमेधमन्त्रकथनम् :- ऋतस्य पथ्याऽसि - तै.सं.७.१.१८.१

*आऽहं दीक्षामरुहमृतस्य पत्नीं गायत्रेण छन्दसा ब्रह्मणा चर्तँ सत्येऽधां सत्यमृतेऽधाम् (इति ऋतुदीक्षाभिः कृष्णाजिनमारोहन्तमभिमन्त्रयते)। - तै.सं.७.१.१८.२

*अग्नये स्वाहा वायवे स्वाहा सूर्याय स्वाहर्तमस्यृतस्यर्तमसि सत्यमसि सत्यस्य सत्यमस्यृतस्य पन्था असि देवानां छायाऽमृतस्य नाम - तै.सं.७.१.२०.१

*दर्शपूर्णमासः :- उत्तरं परिग्राहं परिगृह्णात्यृतमसीति दक्षिणत ऋतसदनमसीति पश्चादृतश्रीरसीत्युत्तरतो - बौधायन श्रौत सूत्र १.११

*अग्न्याधेयः (उपवसथगवि) :-असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेष्विति - बौ.श्रौ.सू.२.८

*अग्न्याधेयः (उपवसथगवि) :- यदग्ने कव्यवाहन पितॄन्यक्ष्यृतावृधः। - बौ.श्रौ.सू.२.१०

*अग्निहोत्रम् :- ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामीति सायं परिषिञ्चति सत्यं त्वर्तेन परिषिञ्चामीति प्रातः - बौ.श्रौ.सू.३.५

*आग्रयणम् (अग्निभ्यः प्रवासः) :- एतेन ह स्म वै पूर्वे श्रोत्रिया ऋतायवस्तेजस्कामा यशस्कामा ब्रह्मवर्चसकामा उपतिष्ठन्ते - बौ.श्रौ.सू.३.१४

*चातुर्मास्यानि (वैश्वदेवः) :- - - - यजमानायतन उपविश्य त्रेण्या शलल्या लोहितायसस्य च क्षुरेण शीर्षन्नि च वर्तयते परि च वपत ऋतमेव परमेष्ठ्यृतं नात्येति किं चन। - शतपथ ब्राह्मण १.१.२.७


*त्वं सोम महे भगं त्वं यून ऋतायते। दक्षं दधासि जीवस इति जीववन्तौ। - आप.श्रौ.सू.८.१४.२४

*अग्निष्टोम प्रातसवनम् :- आहं दीक्षामरुहमृतस्य पत्नीं गायत्रेण छन्दसा ब्रह्मणा चर्तं सत्ये ऽधायि सत्यमृते ऽधाय्यृतं च मे सत्यं चाभूतां - - - आप.श्रौ.सू.१०.९.३

*- - - अपरेणाहवनीयं दक्षिणातिहृत्य वरुणस्यर्तसदन्यसीति दक्षिणेनाहवनीयं राजासन्दी प्रतिष्ठापयति - आप.श्रौ.सू.१०.३१.२

*मदन्ति देवीरमृता ऋतावृध इत्याग्नीध्रः प्रत्याह। - आप.श्रौ.सू.११.१.९

*अग्निष्टोम प्रातसवनम् :- ऋतधामासि सुवर्ज्योतिरित्यौदुम्बरीम् - आप.श्रौ.सू.११.१४.१०

*अयं वां मित्रावरुणेति मैत्रावरुणं गृहीत्वा - - - एष ते योनिर~ऋतायुभ्यां त्वेति सादयति। - आप.श्रौ.सू.१२.१४.१२

*प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी ऋतावृधेत्यभिज्ञायोभयतो मोदं प्रतिगृणाति- - - - - आप.श्रौ.सू.१३.१३.८

*यो मत्येrषु निध्रुविर~ऋतावा तपुर्मूर्धा घृतान्नः पावकः। - आप.श्रौ.सू.१४.१७.१

*अग्निचयनम् :- मधु वाता ऋतायत इति तिसृभिर्दध्ना मधुमिश्रेण कूर्ममभ्यज्य - - - आप.श्रौ.सू.१६.२५.१

*अग्निचयनम् :- ऋतसदसि सत्य सदसि तेजःसदसि वर्चःसदसि - - - आप.श्रौ.सू.१६.२९.२

*अग्निचयनम् :- ऋतमस्यृताय त्वर्तेभ्यस्त्वर्ते सीद। सत्यमसि सत्याय त्वा सत्येभ्यस्त्वा सत्ये सीद। - आप.श्रौ.सू.१६.३१.१

*ऋताषाडृतधामेति पर्यायमनुद्रुत्य तस्मै स्वाहेति प्रथमामाहुतिं जुहोति। ताभ्यः स्वाहेत्युत्तराम्। - आप.श्रौ.सू.१७.२०.१

*ऋतपेयेनाग्निष्टोमेन बृहत्साम्ना स्वर्गकामः। - आप.श्रौ.सू.२२.९.११

*नक्तमाहवनीयमभ्यावृत्यास्ते। दिवादित्यम्। ऋतमुक्त्वा प्रसर्पन्ति। ऋतं वदन्तो भक्षयन्ति। - आप.श्रौ.सू.२२.९.१७

*वेषि होत्रमुत पोत्रं जनानां मन्धातासि द्रविणोदा ऋतावा - आप.श्रौ.सू.२४.१३.३

*पिण्ड पितृpयज्ञः :- परिक्षालनमानयति °° सम्पृच्यध्वमृतावरीरूर्मिणा मधुमत्तमा। पृच्छतीर्मधुना पयो मन्द्रा धनस्य सातय °° इति। - कात्यायन श्रौत सूत्र ४.२.३२

*सोमयागः :-अभिमृशत्येनां (आसन्दीं)वरुणस्य ऋतसदन्यसीति। कृष्णाजिनमस्यामास्तृणाति वरुणस्य ऋतसदनमसीति। तस्मिन् सोमं निदधाति वरुणस्य ऋतसदनमासीदेति। - कात्या.श्रौ.सू.७.९.२५

*चयनम् :- द्वादशगृहीतं विग्राहं जुहोत्यृताषाडिति प्रतिस्वाहाकारं राष्ट्रभृतो वाट्कारान्तः पूर्वः पूर्वो मन्त्रः। - कात्यायन श्रौत सूत्र १८.५.१६

*एकाहा: :- स्वर्गकामस्यर्तपेयः। - कात्या.श्रौ.सू.२२.८.१०

*°°ऋतस्य पन्थामन्वेमि होते°°त्यभिक्रम्यांसेऽध्वर्युमन्वारभेत पार्श्वस्थेन पाणिना। - आश्वलायन श्रौत सूत्र १.३.२५

*इळोपह्वान मन्त्राः :- उपहूते द्यावापृथिवी पूर्वजे ऋतावरी - - आश्व.श्रौ.सू.१.७.८

*ऋतसत्यशीलः सोमसुत्सदा (अग्निहोत्रं) जुहुयात् - आश्व.श्रौ.सू.२.१.५

*अग्निहोत्रहोमः :- ऋतसत्याभ्यां त्वा पर्युक्षामीति जपित्वा पर्युक्षेत्त्रिस्त्रिरेकैकं पुनः पुनरुदकमादाय। - आश्व.श्रौ.सू.२.२.११

*- - - - ऽऽचम्य नाभिमालभेतामोऽसि प्राण तदृतं ब्रवीम्यमासि सर्वानसि प्रविष्टः। - आश्व.श्रौ.सू.२.९.१०

*तव वायवृतस्पते - - - - ऋतं दिवे तदवोचं पृथिव्या इति द्वे - - - प्र द्यावायज्ञैः पृथिवी ऋतावृधा - - - इति (अष्टदश षळृच आम्नाताः। तैरष्टादश पशवो विहिता भवन्ति)। - आश्व.श्रौ.सू.३.८.१

*स्पृष्ट्वोदकं निह्नवन्ते (नमस्कारं कुर्वन्ति)- - - एष्टा राय एष्टा वामानि प्रेषे भगाय। ऋतमृतवादिभ्यो नमो दिवे नमः पृथिव्या इति - आश्व.श्रौ.सू.४.५.८

*त्वामग्न ऋतायव - - - (प्रातरनुवाकार्थम्) - आश्व.श्रौ.सू.४.१३.७

*स्तुत देवेन सवित्रा प्रसूता ऋतं च सत्यं च वदत - - - - इति जपित्वा मैत्रावरुणः स्तुध्वमित्युच्चैः। - आश्व.श्रौ.सू.५.२.१४

*क्रतुच्छन्द ऋतं बृहत् - - -(निविदः) - आश्व.श्रौ.सू.६.२.९

*ऋतावानं वैश्वानरमृतस्य ज्योतिषस्पतिम्। अजस्रं घर्ममीमहे। - आश्व.श्रौ.सू.८.१०.३

*यः कामयेत नैष्णिह्यं पाप्मन इयामिति स ऋतपेयेन यजेत। ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीरिति सूक्तमुखीये सत्येन चमसान्भक्षयन्ति। - आश्व.श्रौ.सू.९.७.३५

*दर्शपूर्णमास प्रकरणम् (इळोपह्वाननिगदः) :- उपहूते द्यावापृथिवी पूर्वजे ऋतावरी देवी देवपुत्रे। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र १.१२.१

*ऽग्निहोत्रप्रकरणम् :- ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामीति त्रिस्त्रिरेकैकं पर्युक्ष्य हुत्वा च। सत्यं त्वर्तेन परिषिञ्चामीति प्रातः। - शां.श्रौ.सू.२.६.१०

*अग्निहोत्रं :-पश्चादन्वाहार्यपचनाद्यजमानः प्रत्यङ्तिष्ठन्नादित्यमुपतिष्ठते सत्य ऋताय त्वा दक्षिणां नयानीति सायम्। ऋत सत्याय त्वा दक्षिणां नयानीत्याहवनीयं प्रातः। - शां.श्रौ.सू.२.७.१३

*अभ्युद्द्रष्टेष्टिप्रकरणम् :- ऋतावानं वैश्वानरमृतस्य ज्योतिषस्पतिम्। अजस्रं भानुमीमहे। (वैश्वानरस्य पुरोनुवाक्या) - शां.श्रौ.सू.३.३.५

*चातुर्मास्यान्तर्गत शुनासीर्यपर्वप्रकरणम् :-तव वायवृतस्पतेऽध्वर्यवश्चकृवांसः (इति वायोः पयोहविषि पुरोनुवाक्या) - शां.श्रौ.सू.३.१८.५

*ज्योतिष्टोमे आतिथ्येष्टिप्रकरणम् :-एष्टा रायः प्रेषे भगाय ऋतमृतवादिभ्यो नमो द्यावापृथिवीभ्यां इति पाणीन्प्रस्तरे निधाय निह्नुवते - शां.श्रौ.सू.५.८.५

*ज्योतिष्टोमे धिष्ण्योपस्थानप्रकरणम् :-ऋतस्य द्वारौ मा मा संताप्तमिति द्वार्यौ संमृश्य (प्रविशेयुः) - शां.श्रौ.सू.६.१२.१३

*ऋतधामासि स्वर्ज्योतिरित्यौदुम्बरीम् (अवेक्ष्योपतिष्ठन्ते) - शां.श्रौ.सू.६.१२.२३

*ज्योतिष्टोमे वैश्वदेवशस्त्रप्रकरणम् :- प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी ऋतावृधेति द्यावापृथिवीयम् (सनिवित्कं शंसेत्) - शां.श्रौ.सू.८.३.११

*दशरात्रेऽष्टममहः :- विश्वे देवा ऋतावृध इति तिस्र इति वैश्वदेवे विकारः। - - - - - ऋतावानं वैश्वानरम् - शां.श्रौ.सू.१०.१०.८

*अभिप्लवषळहप्रकरणम् :- त्वामग्न ऋतायव (इति जातवेदसीयम्) - शां.श्रौ.सू.११.६.८

*अभिप्लवषळहप्रकरणम् :- विश्वे देवा ऋतावृध इति तृचानि। - शां.श्रौ.सू.११.८.३

*एकाह प्रकरणम् :-ऋतपेयेन तेजस्कामो यजेत। द्वादश दीक्षा द्वादशोपसदः।- - - - -ऋतं सत्यं वदन्तो भक्षयेयुः। - - - -मन्दमान ऋतादधि प्रजाया ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीरित्यृतवती तदेतस्याह्नो रूपम्। - -शां.श्रौ.सू.१४.१६.१

*एकाहप्रकरणम् :- त्वामग्न ऋतायव इति सप्त प्रस्थितानाम् (याज्या) - शां.श्रौ.सू.१४.५६.४

*वाजपेयप्रकरणम् :- धीती वा ये अनयन्वाचो अग्रं मनसा वा येऽवदन्नृतानि -- - - - - (एताः पच्छःशंसेत्) - शां.श्रौ.सू.१५.३.७

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ऋतधामा

टिप्पणी : पुराणों में इन्द्र, मनु एवं व्यास को ऋतधामा नाम दिया गया है । वैदिक साहित्य में ऋत का धाम कौन सा है, इसकी व्याख्या मात्र उपलब्ध होती है । वहां इन्द्र,मनु अथवा व्यास का नाम नहीं है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३८४ के अनुसार भू, भुव: और स्व: लोक में भुव: लोक ऋत का धाम है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३४७ के अनुसार ऋत का धाम वायु का लोक है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१२१ तथा तैत्तिरीय संहिता ३.३.५.४ के अनुसार यह अन्तरिक्ष लोक है । तैत्तिरीय संहिता ४.२.७.२ में अग्नि के लिए ऋत के धाम से इष व ऊर्ज का सम्पादन किया जाता है । ऋग्वेद १.४३.९ में ऋत के धाम में सोम की प्रजाओं का उल्लेख आता है । इसके अतिरिक्त ऋग्वेद ४.७.७, ७.३६.५ तथा १०.१२४.३ में भी ऋत के धाम का उल्लेख आता है । अन्तरिक्ष मधु का स्थान है ।

ऋतध्वज

 टिप्पणी : ऋतध्वज के संदर्भ में वैदिक साहित्य में कोई प्रत्यक्ष उल्लेख उपलब्ध नहीं है । आप्टे के संस्कृत - अंग्रेजी कोश में रुद्र के ऋतध्वज नाम का उल्लेख है । यदि ऋत लोक को वायु का लोक माना जाए तो वायु लोक की चरम सीमा तृतीय नेत्र है । अतः इसे ऋतध्वज कहा जा सकता है । ऋग्वेद ५.४३.७, अथर्ववेद ६.३६.१, तैत्तिरीय संहिता १.५.११.१ तथा तैत्तिरीय आरण्यक ४.५.२ के आधार पर ऋतध्वज को घर्म भी कह सकते हैं । ऋतध्वज द्वारा शूकर रूप धारी पातालकेतु राक्षस को बाण से वेधन के प्रसंग के संदर्भ में, पौराणिक साहित्य में यज्ञ को यज्ञवराह / शूकर का रूप दिया जाता है । सायण भाष्य में ऋत का अर्थ स्थान - स्थान पर यज्ञ किया गया है । डा. फतहसिंह के अनुसार यज्ञ के कईं स्तर हैं । निचले स्तर पर, मर्त्य स्तर पर वरुण का यज्ञ चलता है । ऋतध्वज द्वारा पातालकेतु का पीछा करते हुए गर्त में प्रवेश करने से तात्पर्य अपने व्यक्तित्व के निचले कोशों मे, स्तरों में प्रवेश से हो सकता है ।

ऋतध्वज - पत्नी मदालसा, जिसे कुण्डला की सखी कहा गया है और जिसे ऋतध्वज गर्त में प्रवेश करने के पश्चात् पाता है, के सम्बन्ध में वैदिक साहित्य से कोई प्रत्यक्ष संकेत नहीं मिलता । परोक्ष संकेत बौधायन श्रौत सूत्र ६.१९, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ११.१.१० से इस प्रकार प्राप्त होता है कि अग्निष्टोम यज्ञ के प्रातःसवन में आग्नीध्र नामक ऋत्विज से पूछा जाता है कि आपः मद उत्पन्न करते हैं या नहीं ? आग्नीध्र उत्तर देता है कि ' मदन्ति देवी अमृता ऋतावृध ।' तब आग्नीध्र से कहा जाता है कि उन्हें ले आओ । तब आग्नीध्र मदन्ती नामक पात्र को छूकर, हिरण्य रखकर सोम का सिंचन करता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.१३.८ में भी द्युलोक के यज्ञ द्वारा तथा पृथिवी में ऋत द्वारा वर्धन होने पर मोद का उल्लेख आता है । इन प्रसंगों में मदन्ती मदालसा का रूप हो सकता है । मदालसा के बारे में दूसरा परोक्ष संकेत ऋग्वेद १.१६१.९ से मिल सकता है जहां ऋभुगण ऋता को बोलते हुए चमसों / यज्ञपात्रों का निर्माण करते हैं । जैसा कि महाभारत में स्पष्ट किया गया है, ऋता सत्त्व के १८ गुणों से युक्त प्रकृति का नाम है । इसकी सहायता से ऋभुगण एक चमस के ४ चमस बना देते हैं । चार चमस मदालसा के ४ पुत्रों के संकेत हो सकते हैं।


ऋतम्भर

 टिप्पणी : ऋतम्भर राजा की धेनु ऋतम्भरा प्रज्ञा है, वह प्रज्ञा जिसके द्वारा यह ज्ञात हो जाए कि किस समय कौन सा कार्य करना है, त्रिकाल दृष्टि । जाबालि ऋषि उपनिषदों में सत्यकाम है जो जबाला का पुत्र है । सत्यकाम से गुरु ने पूछा कि वह किसका पुत्र है ? उसने उत्तर दिया कि मेरी माता कहती है कि उसने बहुत से ऋषियों की सेवा की है । पता नहीं वह किसका पुत्र है । ऋषि का अर्थ ज्ञानवृत्ति है । अज का अर्थ है जिसका जन्म नहीं , जो अजात है । जबाला के ज का अर्थ है वह सत्य जो जायमान है, जन्म ले सकता है । बाला का अर्थ है जिसने जायमान सत्य को बल दिया हो, उसे प्रज्वलित कर दिया हो । ऐसी जबाला ने सत्य को, ज्ञान को विभिन्न ऋषियों से एकत्र किया है । तभी सत्य उत्पन्न हो सकता है । उसी का पुत्र सत्यकाम है । वह जाबालि ऋषि है , वही ऋतम्भर को सत्य बता सकता है । जंगल से व्याघ्र का आना ऋतंभरा प्रज्ञा में अहंकार का उत्पन्न होना है । मैं प्रज्ञावान हूं, ऐसा अहंकार ऋतम्भरा प्रज्ञा रूपी गौ को खा जाता है । इस अहंकार को नष्ट करने का उपाय अयोध्यापति ऋतुपर्ण बताता है - रामभक्ति । इससे अहंकार नष्ट हो जाएगा । फिर राजा गौ की सेवा करे तो सन्तान उत्पन्न होगी । चित्तवृत्तियाँ जो अन्तर्मुखी हैं, गौ कहलाती हैं । - फतहसिंह

वैदिक साहित्य में केवल ऋग्वेद ५.५९.१ व ९.९७.२४ में ही ऋतम्भर शब्द का उल्लेख आया है । इस ऋचा में द्युलोक व पृथिवी से ऋत के भरण के लिए मरुतों की अर्चना की जाती है । पुराणों में ऋतम्भर की कथा वैदिक साहित्य की किस ग्रन्थि को सुलझाती है, यह अन्वेषणीय है । ऋतम्भर को सत्यवान् रूपी पुत्र प्राप्ति की चिन्ता है जिसके लिए वह जाबालि ऋषि के पास जाता है । उपनिषदों में जाबालि का नाम सत्यकाम जाबालि आया है जो जबाला का पुत्र है । जबाला / जभारा ऋषियों से सत्य का भरण / सम्पादन करती है । ऋतम्भर द्वारा गौ की सेवा के संदर्भ में, यह कहा जा सकता है कि अश्व का सम्बन्ध सत्य के साथ होगा और गौ का ऋत के साथ । ऋग्वेद १.८४.१६, ३.७.२, ३.५६.२, ४.४०.५, ५.४५.७ व ८, ७.३६.१, ९.६६.१२, ९.७२.६, ९.९४.२, १०.१००.१०, १०.१०८.११, अथर्ववेद १०.१०.३३, २०.१७.९, तैत्तिरीय संहिता ४.२.११.३ में भी ऋत के साथ गौ का उल्लेख आया है । इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद १.७३.६, १.१४१.१, १.१५३.३, ४.२३.१०, ९.७०.१, ९.७७.१, अथर्ववेद ७.१.१ में ऋत के साथ धेनु या धेना शब्द प्रकट हुआ है । ऋग्वेद ४.३.९ व ४.२३.९ में उल्लेख आता है कि ऋत से ऋत की स्तुति की जाती है । जिस प्रकार गौ कच्चा खाकर उसे मधु समान दुग्ध में रूपान्तरित कर देती है , ऐसे ही ऋत को पकाकर उसे मधु का रूप प्रदान करना है । यह मधु रूप ही सत्य का रूप हो सकता है जिसकी ऋतम्भर को अभिलाषा है । आगे की कथा का तात्पर्य अन्वेषणीय है ।

अथर्ववेद १०.८.३१ तथा शतपथ ब्राह्मण ६.४.४.१० के आधार पर एक प्रबल संभावना यह बनती है कि ऋत भक्ति के अज और अवि प्रकारों से सम्बन्धित है । इससे आगे की भक्तियां गौ और अश्व होती हैं । अतः पुराणों में ऋतम्भर की कथा के माध्यम से इस परोक्ष तथ्य को स्पष्ट किया गया है ।


 ऋतम्भरा

 टिप्पणी : केवल पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद ४८ में ऋतम्भरा प्रज्ञा का उल्लेख आया है । स्वामी ओमानन्द कृत पातञ्जल योग प्रदीप के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ऋतम्भरा प्रज्ञा सविकल्प समाधि की स्थिति है । इससे उच्चतर स्थिति निर्विकल्प समाधि है । निर्विकल्प समाधि के पश्चात् व्युत्थान हो तो इस प्रकार से हो कि समाधि से तारतम्य जुडा रहे , यह अभीष्ट है । तब योगी पथ भ्रष्ट नहीं होता ।


ऋतवाक्

 टिप्पणी : ऋग्वेद १.१७९.२, १.१८५.१०, ३.३१.२१, ३.५५.३, ४.५.११, ४.६.५, ९.११३.२, ९.११३.४, १०.१२.१, १०.३५.८, १०.६१.१०, १०.११०.११, १०.१३८.२, १०.१७७.२, अथर्ववेद ७.१.१, १४.१.३१, १८.१.२९, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.८.५, जैमिनीय ब्राह्मण ३.१६०, ३.८९, ३.३६० आदि में ऋतवाक् के उल्लेख आए हैं । ऋग्वेद ४.२३.८ के अनुसार ऋत का श्लोक बधिर को भी सुनाई पडता है । सायण ने ऋत का अर्थ स्तोत्र भी किया है । अतः यह कहा जा सकता है कि ऋतवाक् सामञ्जस्य की कोई अवस्था है जिससे ऐतरेय आरण्यक के संकेतों के अनुसार सत्यवाक् रूपी पुष्प और फल उत्पन्न होते हैं । पुराणों में ऋतवाक् मुनि द्वारा रेवती के पातन की कथा का रहस्य अन्वेषणीय है ।

ऋता

 टिप्पणी :ऋग्वेद १.४६.१४, १.६७.८, १.१६१.९, ६.१५.१४, ६.६७.४, ९.९७.३७, १०.१०.४, १०.१०६.५ में ऋता शब्द प्रकट हुआ है । ऋग्वेद में अन्य स्थानों पर ऋतावृध:, ऋतावाना, ऋतावरी आदि शब्द प्रकट हुए हैं जिनका पद पाठ ऋतऽवृध: , ऋतऽवाना, ऋतऽवरी आदि रूपों में किया गया है । वैदिक साहित्य में अन्य किसी स्थान पर ऋता की व्याख्या उपलब्ध नहीं होती । यह अन्वेषणीय है कि क्या ऋतम्भरा प्रज्ञा और ऋतध्वज - पत्नी मदालसा को ऋता से जोडा जा सकता है ? ऋग्वेद १.४६.१४ की ऋचा में ऋता का सायण भाष्य यज्ञगत हवियां किया गया है ।

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ऋतु

टिप्पणी : उणादि कोश १.७२/१.७१ में ऋतु की परिभाषा अर्तेश्च तु:, अर्थात् पुनः - पुनः ऋच्छति गच्छति - आगच्छति इति ऋतु के रूप में की गई है । यह संकेत करता है कि ऋतु इस संसार में पुनः - पुनः आवागमन का मार्ग है । इसके विपरीत मोक्ष का सीधा मार्ग भी है और वैदिक साहित्य में यह दोनों मार्ग साथ - साथ मिलते हैं । उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण  १०.२.५.७ में प्रवर्ग्य याग के साथ उपसद इष्टि का उल्लेख है । प्रवर्ग्य को आदित्य कहा गया है जबकि उपसद को ऋतुएं । इन यागों को एक साथ करने का अभिप्राय यह दिया गया है कि आदित्य की ऋतुओं में प्रतिष्ठा करते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण  १.२३ में देवगण उपसदों की सहायता से विभिन्न लोकों, ऋतुओं, मासों, अर्धमासों, अहोरात्रों आदि से असुरों को भगाते हैं । तैत्तिरीय आरण्यक  ५.६.१ में प्रवर्ग्य को यज्ञ का शिर और उपसद को ग्रीवा कहा गया है । वायु पुराण अध्याय  ३०.२२ में ऋत् से ऋतु के जन्म का उल्लेख है । ऋत् शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि ऋत् शब्द को अंग्रेजी भाषा के शब्द रिदम या हार्मोनी, जगत की व्यवस्था में सामञ्जस्य के आधार पर समझा जा सकता है । ऋत् शब्द का मूल शृत् , पका हुआ हो सकता है । भौतिक जगत में संवत्सर ऋतुओं द्वारा फलों, अन्नों, ओषधियों आदि को पकाने का कार्य करता है । आन्तरिक जगत में ऋतु हमारे इस व्यक्तित्व का पाक करेगी जिसका वर्णन सारे वैदिक और पौराणिक साहित्य में किया गया है । शतपथ ब्राह्मण  ६.४.४.१७ में गर्भ के ऋतुओं द्वारा पकने का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण  ७.१.१.२८ में योनि को ऋतव्या बनाने का निर्देश है । लेकिन कठिनाई यह है कि वैदिक सूत्र का वर्णन बहुत संक्षिप्त, सूत्र रूप में है जिसे समझना बहुत कठिन है । दूसरी ओर पुराणों की कथाएं रहस्यगर्भित हैं जिनके रहस्य समझ में नहीं आते । लेकिन वैदिक साहित्य को आधार बनाकर पुराणों की कथाओं से ऋतुओं के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । उदाहरण के रूप में इसका एक प्रयास यहां किया गया है ।

काल की टिप्पणी में यह उल्लेख किया गया है कि काल का अस्तित्व सूर्य, पृथिवी और चन्द्रमा की परस्पर गतियों से है । यदि पृथिवी सूर्य की परिक्रमा न करे तो अकाल की स्थिति होगी, काल से रहित । अध्यात्म में सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा का रूपान्तर क्रमशः प्राण, वाक् व मन के रूप में किया जा सकता है । भौतिक जगत में तो पृथिवी और सूर्य आदि के बीच स्वाभाविक आकर्षण है, लेकिन लगता है कि अध्यात्म में इस आकर्षण को उत्पन्न करना पडेगा । भौतिक विज्ञान की दृष्टि से आकर्षण उत्पन्न होना ऋतुओं को समझने की कुञ्जी प्रतीत होती है । भौतिक विज्ञान में २ प्रकार के कण होते हैं - एक तो वह जिनके बीच आकर्षण - विकर्षण होता है । उन्हें फर्मी कण नाम दिया गया है । दूसरे वह होते हैं जिनके बीज आकर्षण - विकर्षण नहीं होता । उन्हें बोस कण नाम दिया गया है । ऊर्जा की कोई किरण किसी स्थूल कण से कितने अंशों में टकराएगी, यह उस कण की प्रकृति पर निर्भर करता है । अभी स्थिति यह है कि जैव रूप में सक्रिय द्रव्यों को एक साथ मिलाकर सूर्य की किरणों में रखा जाता है और सूर्य की किरणों द्वारा फोटोसंश्लेषण आदि क्रियाएं होने के पश्चात् उस द्रव्य में सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं । लेकिन कठिनाई यह है कि सूक्ष्म जीव उत्पन्न होने की आपेक्षिक संभावना बहुत कम होती है । यदि एक किलोग्राम द्रव्य को मिलाकर सूर्य की किरणों में रखा गया है तो हो सकता है कि संख्या में गिने चुने कणों में ही जीव उत्पन्न हो । इसी प्रक्रिया को ऋतुओं द्वारा पकाने के संदर्भ में भी सोचा जा सकता है । ऋतुओं के प्राप्त वर्णनों से ऐसा लगता है कि वाक् में प्राण और मन की प्रतिष्ठा करना, उनका विकास करना ही ऋतुओं का कार्य है । लेकिन विशेष बात यह है कि ऋतुएं केवल मन, प्राण और वाक् के त्रिक् तक ही सीमित नहीं हैं । इनके साथ कम से कम पर्जन्य, आपः, पयः, चक्षु, श्रोत्र आदि को स्वतन्त्र रूप में और जोडा गया है ।

वैदिक साहित्य में पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग को ऋतुएं कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण  १२.१.३.११(गवामयन),  १३.३.२.१, जैमिनीय ब्राह्मण  २.१०८,  २.१०९,  २.१६२,  २.३५६,  २.३७५,  ३.१५४, तैत्तिरीय संहिता  ७.२.१.१,  ७.४.७.२, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.९.१, ऐतरेय ब्राह्मण  ४.१६ ) और इसके ६ दिनों के कृत्यों की व्याख्या ६ ऋतुओं के आधार पर की गई है । प्रत्येक ऋतु को समझने में हम इस वर्णन में दिए गए ऋतुओं के लक्षणों की सहायता लेंगे । यहां यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि यद्यपि ऋतुओं के लक्षण वैदिक साहित्य में कईं स्थानों पर मिलते हैं ( शतपथ ब्राह्मण  ५.२.१.४,  ५.४.१.३,  ८.१.१.५, जैमिनीय ब्राह्मण २.५१, तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१, ४.४.७.२, ४.४.१२.१, ७.३.१०.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१, तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.५ ), लेकिन मैत्रायण्युपनिषद  ७.१ में दिए गए लक्षण सबसे अधिक स्पष्ट हैं । ऐसा लगता है कि पृष्ठ्य षडह के ६ दिनों के लक्षणों के आधार पर ही भागवत पुराण के ६ आरम्भिक स्कन्धों की रचना हुई है । अतः वर्तमान लेखन में भागवत के ६ स्कन्धों की कथाओं का मुक्त रूप से उल्लेख किया जाएगा । जैसा कि सर्वविदित है, वसन्त ऋतु में प्रकृति में पुष्प खिलते हैं । अध्यात्म में इसका तात्पर्य यह लिया गया है कि वसन्त के माध्यम से जड प्रकृति में, जिसे वाक् कहा जा सकता है, प्राणों का, सूर्य का प्रवेश कराना है, वाक् में प्राणों की प्रतिष्ठा करनी है । वैदिक साहित्य में प्राणों की प्रतिष्ठा का कार्य वसिष्ठ ऋषि को सौंपा गया है । पृष्ठ्य षडह याग का यह प्रथम दिन है जिसके लक्षण रथन्तर साम, गायत्री छन्द, अज पशु आदि होते हैं । भागवत प्रथम स्कन्ध में परीक्षित् का जन्म अश्वत्थामा के बाण से मृत गर्भ के कृष्ण द्वारा पुनरुज्जीवित किए जाने से हुआ है । यह वाक् में प्राणों को प्रतिष्ठित करने के वैदिक कथन का पौराणिक रूपान्तर हो सकता है । फिर पुष्पित होने के रूपान्तर में परीक्षित् शृङ्गी ऋषि के दर्शन करता है । शृङ्ग का अर्थ सूर्य की किरणें, अतिमानसिक चेतना आदि हो सकते हैं । लेकिन परीक्षित् इस शृङ्गी को समुचित आदर देने में असमर्थ है क्योंकि उसके सिर पर मुकुट में कलि का वास है । कलि का अर्थ हो सकता है काल के साथ क्षय को प्राप्त होने वाली स्थिति । अतः इस स्थिति से बाहर निकलने का उपाय है अज, आज्य स्थिति को प्राप्त होना । अज का शाब्दिक अर्थ है कि जहां कोई जन्म न हो, जहां से कोई ऊर्जा बाहर भी न निकले । आधुनिक विज्ञान में ऊर्जा को धारण करने के लिए केविटी बनाने का प्रयास किया जाता है । यदि हम सूर्य की किरणों को संधारित करना चाहें तो हमें आमने - सामने २ दर्पण लगाने होंगे । ऋग्वेद पुरुष सूक्त  १०.९०.६ में वसन्त ऋतु को आज्य कहा गया है । कर्मकाण्ड में आज्य में बन्द चक्षुओं से अपनी छाया का दर्शन किया जाता है । अतः यह आज्य अन्तर्मुखी होने की अवस्था है जिसे परीक्षित् द्वारा शुक ऋषि को प्राप्त कर लेने के रूप में दिखाया गया है । सोमयाग में यजमान - पत्नी रथ के पहिए के धुरे में आज्य लगाती है जिससे नाभि पर पहिए के घर्षण से आसुरी वाक् न निकले ।

वैदिक साहित्य ( शतपथ ब्राह्मण  १.३.२.८,  १.५.३.१, तैत्तिरीय संहिता  १.६.११.५,  २.६.१.१ ) में ५ प्रयाजों को ५ ऋतुएं कहा गया है । इनमें प्रथम प्रयाज का लक्षण समित् या समिधा है ( तैत्तिरीय संहिता  २.६.१.१) । ऐसा कहा जा सकता है कि सारे जड जगत में एक काम, विकसित होने की कामना विद्यमान है । हो सकता है कि वसन्त को समित् कहने से तात्पर्य इस बिखरे हुए काम को समित् का, समिति का रूप देने से हो । डा. फतहसिंह का विचार है कि एक सभा होती है जहां प्रत्येक सदस्य के विचार भिन्न हो सकते हैं । लेकिन समिति में सभी के समान विचार होते हैं । अतः बिखरे हुए काम को एक इकाई बनाना है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.६ से इसकी पुष्टि होती है । शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.८ में प्रयाजकृत्य में वर्षण करने की जो प्रक्रिया है – जैसे पुरोवात का उत्पन्न करना, मेघों का प्लावयन, स्तनयन्, विद्योतन आदि, इन सब प्रक्रियाओं को एक – एक ऋतु का नाम दे दिया गया है।

शतपथ ब्राह्मण  ५.२.१.४ में परोक्ष रूप में वसन्त को आयु कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में प्राण को वसन्त कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में वसन्त को यावा कहा गया है तथा ७.३.१०.१ में वसन्त रस प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ के अनुसार वसन्त में वसुओं की स्तुति का निर्देश है । तैत्तिरीय आरण्यक १.३.२ में वसन्त में साराग वस्त्रों का उल्लेख है ।

ग्रीष्म ऋतु के संदर्भ में, ग्रीष्म शब्द ग्रसन से बना है । ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथिवी के रस को ग्रस लेता है । द्वितीय प्रयाज का नाम तनूनपात् है, तनु की रक्षा करने वाला । पृष्ठ्य षडह के द्वितीय दिन को ग्रीष्म कहा गया है । इस दिन के लक्षण बृहत् साम, पञ्चदश स्तोम, त्रिष्टुप् छन्द, भरद्वाज ऋषि, रुद्र देवता ( शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.७) आदि हैं । भरद्वाज ऋषि मन से सम्बन्धित है और भरद्वाज का कार्य बल, वीर्य का सम्पादन करना, दोषियों को दण्ड देना आदि है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८) । शरीर से स्तर पर हमें पता है कि क्रोध से हमारे अन्दर गर्मी उत्पन्न हो जाती है । अतः हो सकता है कि क्रोध में व्यय होने वाली ऊर्जा को ही सम्यक् रूप से नियन्त्रित करके मन के विकास में लगाना पडता हो । वैसे शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार क्रोध रक्त में उत्पन्न होता है, मन्यु अण्डों या वीर्य में । क्रोध हमें जलाता है जबकि तनूनपात् प्रयाज कहता है कि तनु की रक्षा करनी है । पुराणों में ग्रीष्म ऋतु में कृष्ण द्वारा कालिय नाग के दमन की कथा आती है जिसको उपरोक्त आधार पर समझा जा सकता है । भागवत पुराण का द्वितीय स्कन्ध सृष्टि से सम्बन्धित है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.८ में ग्रीष्म का स्तनयन/गर्जन से तादात्म्य कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.९ में ग्रीष्म के संदर्भ में मन को एक इकाई बनाने का निर्देश है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में वाक् या अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में ग्रीष्म को अयावा कहा गया है, ४.४.१२.२ में सगर वात द्वारा ग्रीष्म से रक्षा का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता में ग्रीष्म ऋतु यव प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ में ग्रीष्म में रुद्रों की स्तुति का निर्देश है ।

वर्षा ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह याग के तृतीय अह के लक्षणों में वैरूप साम, सप्तदश स्तोम, जगती छन्द, चक्षु, पर्जन्य ( शतपथ ब्राह्मण  ८.१.२.१ ) आदि हैं । प्रयाजों में तृतीय प्रयाज का नाम इड है । यह विचित्र है कि चक्षु वर्षा से सम्बन्धित है ( शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४) । कहा गया है कि जैसे वर्षा आर्द्र है, वैसे ही चक्षु भी आर्द्र है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में सप्तदश स्तोम के साथ जमदग्नि ऋषि को सम्बद्ध किया गया है जिसका कार्य भूमा बनना, भूमानन्द प्राप्त करना है । भागवत पुराण के तृतीय स्कन्ध में कर्दम ऋषि व उसकी पत्नी देवहूति विष्णु के अवतार कपिल को पुत्र रूप में प्राप्त करते हैं तथा कपिल उन्हें मोक्ष की शिक्षा देते हैं । इस कथा के संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि वैदिक साहित्य में यह प्रसिद्ध है कि वर्षा मण्डूक आदि की अभीप्सा के फलस्वरूप होती है, वैसे ही जैसे भौतिक जगत में वर्षा जलती हुई पृथिवी और वृक्षों की अभीप्सा के फलस्वरूप होती है । भागवत पुराण में इस अभीप्सा को कर्दम - पत्नी देवहूति, देवों का आह्वान करने वाली के रूप में दिखाया गया है, ऐसा प्रतीत होता है । यह ध्यान देने योग्य है कि पृष्ठ्य षडह के केवल तृतीय दिन के ही नहीं, अपितु कईं दिनों के कईं मन्त्रों में देवहूति शब्द प्रकट होता है । आनन्द की वर्षा से कम्पन उत्पन्न होता है लेकिन इस कथा में कपिल के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि इस कम्पन को, कपि को नियन्त्रित करना है । अन्य कथा में कपिल के सामने अश्व स्थिर हो जाता है, लेकिन कपिल अपने क्रोध की अग्नि से, तृतीय चक्षु से सगर - पुत्रों को भस्म कर देते हैं । दूसरी ओर सहस्रबाहु अर्जुन द्वारा जमदग्नि की कामधेनु गौ को मांगने की कथा है जिसमें जमदग्नि सहस्रबाहु को कामधेनु देना अस्वीकार कर देते हैं लेकिन स्वयं सहस्रबाहु का प्रतिरोध नहीं करते, अपने क्रोध चक्षु का प्रयोग नहीं करते । तृतीय दिन के लक्षणों में जगती छन्द है जिसका चिह्न शतवत् सहस्रवत् होता है , किसी बडी शक्ति का शतवत्, सहस्रवत् होकर व्यक्तित्व के निचल स्तरों में बिखरना । वर्षा भी शतवत् सहस्रवत् होती है । लेकिन यह विचित्र है कि इस दिन का यह लक्षण होते हुए भी जमदग्नि सहस्रबाहु को यह अवसर नहीं देते । इस दिन के साम का नाम भी वैरूप है और यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि चक्षु का वैदिक साहित्य में क्या तात्पर्य हो सकता है । एक अर्थ तो सम्यक् दर्शन, सुदर्शन हो सकता है । सामान्य चक्षु बाहर से प्राप्त प्रकाश से देखते हैं, लेकिन आन्तरिक चक्षु स्वयं अपने अन्दर से उत्पन्न प्रकाश से देखता है । लेकिन यह चक्षु शतवत् सहस्रवत् क्यों नहीं बना, यह अन्वेषणीय है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.७ में वर्षा ऋतु में अन्य सब ऋतुओं के समावेश को दिखाया गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में पर्जन्य को या चक्षु को वर्षा कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में वर्षा ऋतु को एवा कहा गया है, ४.४.१२.२ में सलिल वात द्वारा वर्षा ऋतु की रक्षा का उल्लेख है, ७.३.१०.२ में वर्षा ओषधि प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ में वर्षा ऋतु में आदित्यों की स्तुति का निर्देश है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से तथा हेमन्त मद से सम्बन्धित हो सकती है । इस क्रम से वर्षा या शरद् ऋतु लोभ से सम्बन्धित होनी चाहिए । हो सकता है कि सहस्रबाहु द्वारा जमदग्नि की कामधेनु मांगने में लोभ निहित हो ।

शरद ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह के चतुर्थ अह के लक्षणों में वैराज साम, एकविंश स्तोम, अनुष्टुप् छन्द, अक्षर, श्रोत्र आदि हैं ( शतपथ ब्राह्मण  ८.१.२.४ ) । चतुर्थ प्रयाज का लक्षण बर्हि है । इस ऋतु के ऋषि के संदर्भ में मतभेद हो सकता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में एकविंश स्तोम से गोतम ऋषि को सम्बद्ध किया गया है जिसकी कामना प्रजा के लिए श्रद्धा प्राप्त करने की है । श्रद्धा का अर्थ है शृत, पके हुए को धारण करने वाला, अन्य शब्दों में सबसे अधिक पका हुआ अन्न, सोम । भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में पृथु द्वारा पृथिवी को नियन्त्रित करके उसे गौ का रूप धारण करने तथा सारी प्रजा, देव, ऋषि, गन्धर्व, सर्प आदि के लिए दुग्ध देने का वर्णन है । अन्य संदर्भों में कृष्ण द्वारा इन्द्रयष्टि याग को रोककर गौ व गोवर्धन पूजा और इन्द्र द्वारा क्रोध से अतिवृष्टि करने आदि का वर्णन है । इन सभी कथाओं में अन्नाद्य प्राप्ति का वैदिक और पौराणिक वर्णन स्पष्ट रूप से समान है । इसके अतिरिक्त चतुर्थ स्कन्ध में ध्रुव की कथा है । पृष्ठ्य षडह के चतुर्थ दिवस के कृत्यों में तृतीय सवन में षोडशी ग्रह की प्रतिष्ठा की जाती है । षोडशी ग्रह अक्षर होता है । हो सकता है कि षोडशी ग्रह का ध्रुव से सम्बन्ध हो । शरद ऋतु के लक्षणों में श्रोत्र ( शतपथ ब्राह्मण  ५.२.१.४) का सम्मिलित होना उतना ही विचित्र है जितना वर्षा ऋतु में चक्षु का । जाबालदर्शनोपनिषद  २.६ का कथन है कि श्रौत और स्मार्त से उत्पन्न विश्वास को आस्तिक्य कहा जाता है । शरद ऋतु में केवल श्रोत्र का उल्लेख है । श्रोत्र का अर्थ हो सकता है कि यदि हमारे व्यक्तित्व में आनन्द का कोई छोटा सा भी स्पन्दन उत्पन्न हो तो हम उसे सुरक्षित रखने में, उसका परिवर्धन करने में समर्थ हों, वैदिक साहित्य के अनुसार श्रोत्र दिशाओं में बदल जाएं । पौराणिक रूप में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई लगती है कि कार्तिक माहात्म्य में जालन्धर के आख्यान में पहले शिव के क्रोध की ज्वाला से ज्वालन्धर या जालन्धर की उत्पत्ति होती है और उसके पश्चात् शङ्खचूड की कथा आती है जिसके पास शिव का एक रक्षा कवच है जिससे वह अजेय है । कवच का अर्थ होता है चेतना के एक भाग का विशेष रूप से विकसित होकर सारे शरीर के अङ्गों की रक्षा में संलग्न होना । लगता है वैदिक साहित्य का श्रोत्र पौराणिक साहित्य में शङ्खचूड के रूप में प्रकट हुआ है ।

भागवत पुराण आदि में शरद ऋतु में कृष्ण के गोपियों से रास के संदर्भ में, शरद ऋतु के मासों का नाम इष व ऊर्ज है । सोमयाग में सदोमण्डप के मध्य में उदुम्बर काष्ठ के औदुम्बरी नामक स्तम्भ की स्थापना की जाती है जो पृथिवी के ऊर्क् का प्रतीक है । वैदिक साहित्य में उदुम्बर शब्द की निरुक्ति इस रूप में की जाती है कि जो सब पापों से मुक्त कर दे ( अयं में सर्वस्मात् पापात् उदभार्षीद् इति ) । औदुम्बरी स्तम्भ के नीचे बैठकर सामवेदी ऋत्विज स्तोत्र गान करते हैं । अतः वैदिक साहित्य के अनुसार यह स्थिति गान की, रास की है । औदुम्बरी के पाप को दूर करने का तथ्य इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मैत्रायणी उपनिषद  ७.४ आदि में शरद ऋतु के लक्षणों में पवित्र का उल्लेख है । वाल्मीकि रामायण व तुलसीदास के रामचरितमानस में भी शरद् ऋतु में पाप से पवित्र होने, वर्षा ऋतु के जल के स्वच्छ होने आदि का वर्णन आता है ( वर्षा विगत शरद ऋतु आई । लक्ष्मण देखहु परम सुहाई । उदित अगस्त्य पन्थ जल सोखा । आदि ) । दीपावली पर्व पर गणेश और लक्ष्मी की साथ - साथ अर्चना भी यहां रहस्यपूर्ण है । लगता है पवित्र करने का कार्य गणेश का और आनन्द की स्थिति उत्पन्न करने का कार्य श्री का है । इस संदर्भ में चातुर्मास याग के अन्तिम चतुर्थ पर्व शुनासीर याग का भी उल्लेख यहां महत्त्वपूर्ण है । वैदिक साहित्य में शुनः का अर्थ शुनम् या शून्य और सीर का अर्थ श्री किया गया है । शरद् ऋतु से सम्बन्धित चतुर्थ प्रयाज के बर्हि लक्षण के संदर्भ में, जैसा कि अन्यत्र भी कहा जा चुका है, वैदिक साहित्य में एक प्रस्तर होता है, एक बर्हि । प्रस्तर को सीमित रोमांच और बर्हि को सार्वत्रिक रोमांच कहा जा सकता है । तैत्तिरीय संहिता  २.६.१.२ से इसकी पुष्टि होती प्रतीत होती है । इसके अनुसार बर्हि से देवयान पथ की प्राप्ति होती है । यह आगे देखना होगा कि क्या पितरों से सम्बन्धित स्वधा का बर्हि से कोई सम्बन्ध है ? क्योंकि हेमन्त ऋतु के प्रयाज का लक्षण देवों से सम्बन्धित स्वाहा है । दूसरी ओर शरद को बर्हि कहा गया है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.८ में विद्योतन को शरद कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.२.६ में विश्वामित्र ऋषि को श्रोत्र व शरद के साथ सम्बद्ध किया गया है । तैत्तिरीय संहिता  ४.४.७.१ में शरद को ऊमा कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ७.३.१०.२ में शरद व्रीहि प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण  २.६.१९.२ के अनुसार शरद् में ऋभुओं की स्तुति की जाती है । तैत्तिरीय आरण्यक  १.४.१ में शरद ऋतु के संदर्भ में ऋभुओं के कनक समान वर्ण वाले वस्त्रों का उल्लेख है । शरद ऋतु में दु:खित नेत्रों के प्रसन्न हो जाने, शरद द्वारा अन्न प्रदान करने, जीवन प्रदान करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय आरण्यक  ५.६.६ में शरद ऋतु के लिए हृदे त्वा मनसे त्वा का उल्लेख है । ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं में पूर्वी शरद: का उल्लेख आता है । यह पूर्वी शरद: कौन सी हैं, यह अन्वेषणीय है । इसके अतिरिक्त कई ऋचाओं में १०० शरदों द्वारा आयु प्राप्त करने के भी उल्लेख आते हैं ।

पञ्चम हेमन्त ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह के पञ्चम दिन के लक्षणों में महानाम्नी साम, त्रिणव स्तोम, पंक्ति छन्द आदि हैं ( शतपथ ब्राह्मण  ८.१.२.८ ) । वैदिक साहित्य में कहीं - कहीं हेमन्त व शिशिर ऋतुओं को मिला दिया गया है । मैत्रायणी उपनिषद में इस ऋतु के लक्षणों में विगत निद्रा, विजर, विमृत्यु, विशोक आदि भी हैं । पृष्ठ्य षडह में पंचम दिन महानाम्नी साम का गान होता है जिसके संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण में व्याख्या की गई है कि प्राण उत्पन्न होकर प्रजापति से नाम और अन्न की मांग करते हैं और प्रजापति उन्हें ५ बार नाम आदि प्रदान करते हैं । इस ऋतु का रहस्य विष्णुधर्मोत्तर पुराण में हेमन्त में वास्तु प्रतिष्ठा करने और शिशिर में नगर प्रवेश के निर्देश से खुलता है । शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि वास्तु रूप रौद्र प्राणों को स्विष्टकृत् बनाना है, वह अग्नि जो केवल इष्ट ही करे, अनिष्ट नहीं । नाम देने के संदर्भ में कहा गया है कि नाम वह है जिसे सुनकर सोए हुए प्राण जाग उठते हैं । भागवत के पञ्चम स्कन्ध में भरत के जन्मान्तरों का तथा अन्तिम जन्म में जड भरत द्वारा सौवीरराज की शिबिका का वहन व उसे शिक्षा देने का वर्णन है । भरत का अर्थ है, दिव्य ज्योति का, आनन्द का भरण करने वाला । लेकिन विशेष बात यह है कि जहां कपिल कम्पन को केवल नियन्त्रित करता है, जड भरत तो आनन्द से भी जड अवस्था में ही रहता है ।

भागवत के दशम स्कन्ध में हेमन्त ऋतु के संदर्भ में कृष्ण द्वारा गोपियों के चीर हरण की कथा है । इस कथा की एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि गोपियां नग्न होकर आनन्द के जल में स्नान कर रहीं हैं । विद्या प्राप्ति रूपी वस्त्र इस आनन्द को नियन्त्रित कर सकता है । भागवत के पांचवें स्कन्ध में च्यवन व सुकन्या का आख्यान भी है और जैमिनीय ब्राह्मण में इस आख्यान को च्यवन के वास्तु में स्थित होने के रूप में वर्णन किया गया है । आख्यान में च्यवन इन्द्र पर नियन्त्रण करने के लिए मद असुर को उत्पन्न करता है । जैसा कि पहले कहा गया है, वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से सम्बन्धित हो सकती है । अतः इस ऋतु के संदर्भ में मद का उल्लेख विचारणीय है ।

शतपथ ब्राह्मण  ५.२.१.४ में हेमन्त को पृष्ठ कहा गया है । पृष्ठ दृष्टि से परे होता है। हो सकता है कि वर्तमान काल में प्रचलित अचेतन मन की प्राचीन संज्ञा पृष्ठ हो। जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में हेमन्त को मन कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में हेमन्त को सब्दा: कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ७.३.१०.२ में हेमन्त व शिशिर माष व तिल प्राप्त करती हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.२ में हेमन्त में मरुतों की स्तुति का निर्देश है । तैत्तिरीय आरण्यक १.४.२ में हेमन्त में अक्रुद्ध योद्धा की क्रुद्ध लोहित वर्ण की अक्षियों का उल्लेख है ।

शिशिर ऋतु के संदर्भ में, पृष्ठ्य षडह के छठे दिन के लक्षणों में रैवत वारवन्तीयं साम, त्रयस्त्रिंशत् स्तोम आदि हैं । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इस ऋतु में नगर में प्रवेश का निर्देश है । स्कन्द पुराण का नागर खण्ड ( या षष्ठम् स्कन्ध ) नगर शब्द की निरुक्ति न - गर, गर से रहित के रूप में करता है । इस खण्ड के वर्णन के अनुसार नगर में सर्पों के विष से उपद्रव उत्पन्न नहीं होना चाहिए, सर्प पाताल में चले जाने चाहिएं । इसके अतिरिक्त इस खण्ड में तक्षक - पत्नी रेवती के जन्मान्तरों का भी वर्णन है । हानि पहुंचाने वाली तक्षक - पत्नी रेवती जन्मान्तर में क्षेमङ्करी बनी । इसके अतिरिक्त पुराणों में रेवती की विभिन्न कथाएं आती हैं । एक कथा में रेवती बहुत ऊंची थी, बलराम ने उसे हल की नोक से खींच कर छोटी बना लिया । व्यावहारिक रूप में रेवती क्या है, उसका नियन्त्रण कैसे करना है, यह अन्वेषणीय है । नागर खण्ड में पिप्पलाद आदि की उत्पत्ति के जो अन्य आख्यान हैं, उनकी भी सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । भागवत पुराण दशम स्कन्ध में हेमन्त ऋतु तक की तो कथा आती है, उससे आगे अक्रूर के व्रज गमन और कृष्ण के मथुरा आगमन का वृत्तान्त आरम्भ हो जाता है । तैत्तिरीय आरण्यक के आधार पर ऐसा लगता है कि यहां अक्रूर का उल्लेख शिशिर ऋतु से ही सम्बन्धित है तथा कृष्ण का मथुरा नगर में प्रवेश भी शिशिर ऋतु के संदर्भ में ही सोचा जाना चाहिए । शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४ में शिशिर को यज्ञ कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में दिव्य आपः को शिशिर कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में शिशिर को सगर ( तुलनीय पुराणों का नगर ) कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.१२.४ में शिशिर के संदर्भ में विवस्वत् वात का उल्लेख है । तैत्तिरीय आरण्यक १.४.३ में शिशिर ऋतु में देवलोक में दुर्भिक्ष, मनुओं के गृहों में उदक की उपलब्धि तथा वैद्युत प्रकृति का उल्लेख है । इस ऋतु में अक्षि अति ऊर्ध्व, अतिरश्ची रहती है । न रूप दिखाई देता है, न वस्त्र, न चक्षु ।

वैदिक साहित्य में बहुत से स्थानों ( शतपथ ब्राह्मण  २.४.४.२४, ५.४.१.३, ८.१.१.५, ८.६.१.१६, जैमिनीय ब्राह्मण २.५२, तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१, ४.४.१२.१ ) पर ऋतुओं का वर्णन दिशाओं के सापेक्ष किया गया है - वसन्त ऋतु पूर्व में, ग्रीष्म दक्षिण, वर्षा पश्चिम, शरद् उत्तर, हेमन्त व शिशिर मध्य में या ऊर्ध्व - अधो दिशाओं में । शतपथ ब्राह्मण १०.४.५.२ में ऋतुओं की कल्पना संवत्सर अग्नि के अङ्गों के रूप में की गई है । लेकिन शतपथ ब्राह्मण  ६.१.२.१८,  ७.४.२.२९(वसन्त),  ८.२.१.१६(ग्रीष्म),  ८.३.२.५(वर्षा, शरद),  ८.४.२.१४(हेमन्त),  ८.७.१.५(शिशिर),  १०.४.३.१५,  १३.६.१.१०(५ चितियां), तैत्तिरीय संहिता ४.४.११.१, ५.३.१.१, ५.३.११.३, ५.४.२.१ आदि में चिति निर्माण के संदर्भ में चितियों का चयन ऊर्ध्वमुखी दिशा में करते हैं जिसमें वसन्त ऋतु प्रथम चिति में होती है और हेमन्त व शिशिर सबसे ऊपर की चिति में । इन्हें ऋतव्येष्टका नाम दिया गया है । यह अन्वेषणीय है कि क्या दिशाओं के सापेक्ष ऋतुओं का वर्णन तिर्यक दिशा में प्रगति को और ऊर्ध्व दिशा में ऋतव्येष्टकाओं का चयन ऊर्ध्वमुखी प्रगति को निर्दिष्ट करता है ? ऊर्ध्व दिशा में इष्टका चयन का अर्थ होगा कि जड तत्त्व में चेतन तत्त्व को लगातार प्रबल बनाया जा रहा है । जड तत्त्व में चेतन तत्त्व के प्रवेश के रूप में उषा को सर्वप्रथम लिया जाता है (तैत्तिरीय संहिता  ४.३.११.५ में उषा को ऋतुओं की पत्नी कहा गया है ) । फिर जैसे - जैसे दिन का विकास होता है, चेतन तत्त्व प्रबल होता जाता है । शतपथ ब्राह्मण  २.२.३.९ में दिन के विकास का विभाजन ऋतुओं में किया गया है । वसन्त ऋतु प्रातःकाल, संगव ग्रीष्म, मध्यन्दिन वर्षा, अपराह्न शरत् और अस्त को हेमन्त कहा गया है । सोमयाग के एक दिन में स्तोमों का विभाजन भी इसी प्रकार है ।

ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रायः ऋतुथा शब्द प्रकट हुआ है ( उदाहरणार्थ ऋग्वेद २.४३.१, ५.३२.१२, ६.९.३ आदि ) । तैत्तिरीय संहिता में संभवतः ऋतुस्था शब्द के द्वारा ऋतुथा शब्द की व्याख्या की गई है । शतपथ ब्राह्मण २.२.३.८ आदि में वर्षा ऋतु में अन्य सब ऋतुओं का समावेश दिखाया गया है और यह विचारणीय है कि इस आधार पर ऋतुथा का रूप क्या हो सकता है । तैत्तिरीय संहिता २.१.११.२ में इन्द्र द्वारा मरुतों की सहायता से ऋतुधा करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ४.६.९.३ में अश्व के ऋतुथा बनाए गए अङ्गों का ही अग्नि में हवन करने का निर्देश है । तैत्तिरीय संहिता ५.२.१२.१ में शमिता द्वारा पशु के अङ्गों को ऋतुधा काटने का निर्देश है । तैत्तिरीय संहिता ५.५.८.१ में यज्ञायज्ञीय साम द्वारा ऋतुस्था स्थिति की प्राप्ति का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ५.७.६.५ व तैत्तिरीय आरण्यक ४.१९.१ में ऋतुस्था अग्नि के रूप के कल्पन में उसके शिर आदि अङ्गों में वसन्त आदि ऋतुओं की प्रतिष्ठा की गई है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.२.२ में स्वधिति/छुरी द्वारा वनस्पति से यूप के तक्षण के संदर्भ में ऋतुथा होकर स्वाद ग्रहण करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.३.४ में वनस्पति रूपी अग्नि द्वारा स्वयं ऋतुथा होकर हवि के आस्वादन का निर्देश है । अथर्ववेद १३.३.२ में वातों को ऋतुथा बनाने का निर्देश है । अथर्ववेद २०.१२५.३ में स्थूल के ऋतुथा बनने की संभावना को नकारा गया है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.४.४.२५,  ११.२.७.२,  ११.२.७.३२ आदि में ५ ऋतुओं का तादात्म्य ५ ऋत्विजों से स्थापित किया गया है । शतपथ  ११.२.७.३२ में ऋतुओं का ऋत्विजों से जो तादात्म्य है, वह ऋग्वेद  २.३६ के क्रम से भिन्न है। शतपथ ब्राह्मण  ४.२.५.९ के अनुसार यजमान सूर्य है और ऋत्विज ऋतुएं । ऋतु रूपी ऋत्विज सूर्य रूपी यजमान को द्युलोक में स्थापित करते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.९.४ में वैश्वसृज दक्षिणा के संदर्भ में ऋतुओं के सदस्य बनने का उल्लेख है ।

यज्ञ कर्म में ऋतुओं के प्रयोग के संदर्भ में, सोमयाग में प्रातःकाल सर्वप्रथम ऋतुयाज नामक कृत्य होता है जिसमें विभिन्न ऋत्विज ऋतुग्रहों द्वारा सोम की आहुति देते हैं । इस संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण  ४.३.१.३, तैत्तिरीय संहिता  ६.५.३.१, ऋग्वेद १.१५, २.३७ द्रष्टव्य हैं । विशेष बात यह है कि ऋतु ग्रहों के पाद अश्व के खुर जैसे होते हैं और उन्हें द्विमुखी कहा गया है । यह प्रसिद्ध है कि अश्व अपने खुरों से सोम का, सुरा का सम्पादन, सिञ्चन करता है । शतपथ ब्राह्मण  ४.३.१.७ में ऋतुग्रहों को द्विमुखी बताया गया है । पुराणों में द्विमुखी गौ के दान के निर्देश आते हैं । कहा जाता है कि प्रसूत काला गौ, जिसकी योनि से वत्स का सिर बाहर निकल रहा हो, वह द्विमुखी गौ है । ऋतुओं के संदर्भ में इस तथ्य की सम्यक व्याख्या अपेक्षित है । ऋतु याज में वौषट् उच्चारण के संदर्भ में ऐतरेय ब्राह्मण  ३.६ का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि वौषट् शब्द के उच्चारण में असौ तो वौ हो सकता है और षट् ६ ऋतुएं । इस प्रकार संवत्सर को ऋतुओं में प्रतिष्ठित करते हैं । यज्ञ में वौषट् कहकर असुरों का नाश किया जाता है । ऋतुयाज में अनुवषट्कार ( सोमस्याग्ने वीहि वौषट् ) के उच्चारण का निषेध है ( शतपथ ब्राह्मण  ४.३.१.८, ऐतरेय ब्राह्मण  २.२९ ) । शतपथ ब्राह्मण  ४.५.५. ८ में ऋतुग्रहों का सम्बन्ध एकशफ पशुओं से जोडा गया है, अन्य प्रकार के पशुओं का अन्य पात्रों से । जैमिनीय ब्राह्मण  १.२४६ में ऋतुओं को मृत्यु - रूप संवत्सर के मुख कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता  २.६.९.१ व ६.६.१.५ में अग्नि को ऋतुओं के मुख कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ६.५.५.१ के अनुसार वृत्र का वध करते समय इन्द्र से ऋतुएं दूर भाग गई । तब ऋतुपात्र द्वारा मरुत्वतीय ग्रहण करने पर उसने ऋतुओं को जाना । ऐतरेय ब्राह्मण  २.२९ में ऋतुयाज के संदर्भ में ऋतुना को प्राण से और ऋतुभि: को अपान व व्यान से सम्बद्ध किया गया है ।

शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.२८ में अश्वमेध के संदर्भ में प्रत्येक ऋतु में आलभन किए जाने वाले पशुओं के देवता आदि दिए गए हैं । तैत्तिरीय संहिता ५.५.१८.१ में ऋतुओं के पशु जहका का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.९.३ में अश्वमेध में ऋतुओं की पुनः प्राप्ति के लिए ३ पिशङ्ग वासन्त पशुओं के आलभन का निर्देश है ।

तैत्तिरीय आरण्यक  ५.६.५ आदि में प्रवर्ग्य के संदर्भ में ऋतुओं के लक्षणों का कथन है । प्रवर्ग्य इष्टि घर्म के विकास से सम्बन्धित होती है । अतः इसमें ऋतुओं सम्बन्धी कथन भी घर्म द्वारा उत्पन्न ऋतुओं से सम्बन्धित होने चाहिएं । ऐसा लगता है कि ऋतुएं स्थूल भौतिक स्तर से लेकर ऊपर के सूक्ष्म होते जाते स्तरों के विषय में भी ठीक बैठती हैं । अथर्ववेद  ९.५.३१ में ऋतुओं के नाम क्रमशः निदाघ, संयन्त, पिन्वन्त, उद्यन्त, अभिभू हैं । यह नाम अज पञ्चौदन को पकाने के संदर्भ में हैं । अथर्ववेद  ११.३.१७ में बार्हस्पत्य ओदन को पकाने के संदर्भ में ऋतुओं को पकाने वाली, आर्त्तवों को समिन्धन करने वाले तथा घर्म को अभीन्धन करने वाला कहा गया है ।

शतपथ ब्राह्मण  २.१.३.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.१०.५ आदि में वसन्त, ग्रीष्म व वर्षा को देव ऋतुएं व शरद, हेमन्त व शिशिर को पितर ऋतुएं कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण  २.६.१.२ के अनुसार वसन्त, ग्रीष्म व वर्षा वृत्र से लडने में जीत गई, लेकिन शरद्, हेमन्त व शिशिर की मृत्यु हो गई । उन्हें पितृयज्ञ द्वारा पुनः जीवित करना पडता है । शतपथ ब्राह्मण  २.६.१.४ में ६ ऋतुओं को ही पितर कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण  ७.१.१.४३ में उखा के संदर्भ में ऋतुओं को विश्वेदेवा कहा गया है (विश्वेदेवा पितरों का समष्टिरूप होते हैं) । तैत्तिरीय संहिता में षड्-वा ऋतव: वाक्य की अत्यधिक पुनरावृत्ति की गई है जो इस वाक्य के अन्तर्निहित महत्त्व की ओर इंगित करता है ।

यह विचारणीय विषय है कि ऋतुओं की व्याख्या में सरस्वती रहस्योपनिषद का परिचित सूत्र अस्ति, भाति, प्रिय, नाम व रूप कितना सहायक हो सकता है । अन्य चिर परिचित सूत्र अन्नमय, प्राणमय आदि ५ कोशों का है । अन्य सूत्र मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का हो सकता है ।


प्रथम लेखन : २१-१२-२००४ ई.

All of us face ritus or seasons which change every year. Apparently it is so simple. But mystically, the whole Indian mythology has been woven around ritu and year. In mythology, ritus are supposed apparently to ripen the food. A deeper meaning of this statement can be sought from sacred vedic and puranic texts. Sun is the donor and ritus/seasons are the acceptors of energy.This way, cereals or foods are prepared in nature. One can extend this statement even further. The combination of sun, moon and seasons can be considered as soul, mind and body. Consciousness has to be firmly established in body. And the level of consciousness goes from lower to higher and still higer stages. This is the ripening of food about which sacred texts may be talking of(for details,one can read websites related to Steiner's work on astrology. He has attributed different stages of consciousness to different planets).Let this human being be fully ripe with supermental powers. An attempt will be made here to unravel the mystry of ritu - what it may signify in vedic, sacrificial and puranic literature. There seems to be no direct revelation either in puranic or vedic literature of what ritu/season can be. Only guess can be made. The best picture can be formed when we know the nature of different chhandas or meters.

संदर्भ

ऋतु

*वेदे: परिग्रहः :- स वै त्रिः पूर्वं परिग्रहं परिगृह्णाति, त्रिरुत्तरम्। तत् षट्कृत्वः, षड् वा ऋतवः संवत्सरस्य। संवत्सरो यज्ञः प्रजापतिः - - - शतपथ ब्राह्मण १.२.५.१२

*यज्ञस्य पुरुषतादात्म्येन स्तुतिः :- अथ यान्याज्यानि गृह्यन्ते - ऋतुभ्यस्तद् गृह्णाति, प्रयाजेभ्यो हि तद् गृह्णाति। ऋतवो हि प्रयाजाः , तत्तदनादिश्य - आज्यस्यैव रूपेण गृह्णाति - अजामितायै। जामि ह कुर्याद् - यद्वसन्ताय त्वा ग्रीष्माय त्वेति गृह्णीयात् तस्मादनादिश्य - आज्यस्यैव रूपेण गृह्णाति। - श.ब्रा.  १.३.२.७

*परिधि परिधानम् : अथ यां द्वितीयां समिधमभ्यादधाति वसन्तमेव तया समिन्धे। स वसन्तः समिद्धोऽन्यानृतून् समिन्धे। ऋतवः समिद्धाः प्रजाश्च प्रजनयन्ति, ओषधीश्च पचन्ति। सोऽभ्यादधाति - समिदसि इति। समिद्धि वसन्तः। - श.ब्रा.  १.३.४.७

*प्रयाज ब्राह्मणम् : अथ स्वाहा - स्वाहा इति यजति। अन्तो वै यज्ञस्य स्वाहाकारः, अन्त ऋतूनां हेमन्तः - वसन्ताद्धि परार्द्ध्यः। - - - - - - - तद्वा एतद् - वसन्त एव हेमन्तात् पुनरसुः, एतस्माद्ध्येष पुनर्भवति। - श.ब्रा.  १.५.३.१३

प्रयाजानामिष्टौ प्राथम्यम् : ऋतवो ह वै देवेषु यज्ञे भागमीषिरे, आ नो यज्ञे भजत, मा नो यज्ञादन्तर्गत, अस्त्वेव नोऽपि यज्ञे भाग इति। तद्वै देवा न जज्ञुः। त ऋतवो देवेष्वजानत्स्वसुरानुपावर्तन्त - अप्रियान् देवानां द्विषतो भ्रातृव्यान्। - - - - - - - - ते (देवाः) होचुः - ऋतूनेवानुमन्त्रयामहै इति। केनेति। प्रथमानेवैनान् यज्ञे यजाम इति। - - - - - - - ते देवा अग्निमब्रुवन् - परेहि, एनांस्त्वमेवानुमन्त्रयस्व इति। स हेत्याग्निरुवाच - ऋतवः, अविंद वै वो देवेषु यज्ञे भागमिति। कथं नोऽविदः इति, प्रथमानेव वो यज्ञे यक्ष्यन्ति इति। त ऋतवोऽग्निमब्रुवन् आ वयं त्वामस्मासु भजामो यो नो देवेषु यज्ञे भागमविद इति। स एषोऽग्निर्ऋतुष्वाभक्तः - समिधोऽअग्ने - तनूनपादग्ने - इडोऽअग्ने, बर्हिरग्ने, स्वाहाग्निम् इति। - - - - - अग्निमते ह वा अस्मा अग्निमन्त ऋतव ओषधीः पचन्तीदं सर्वम् , य एवमेतमग्निमृतुष्वाभक्तं वेद। - श.ब्रा.  १.६.१.५-८

*पूर्णमासोपचारः :- स वै संवत्सर एव प्रजापतिः, तस्यैतानि पर्वाणि - अहोरात्रयोः सन्धी, पौर्णमासी च अमावास्या च ऋतुमुखानि। - - - - - - - - चातुर्मास्यैरेवर्तुमुखानि तत्पर्वाभिषज्यन् - तत् समदधुः। - श.ब्रा. १.६.३.३५

*अग्न्याधाने सम्भरण ब्राह्मणम् : तान्वा एतान् पञ्च सम्भारान् सम्भरति। पाङ्क्तो यज्ञः। पाङ्क्तः पशुः। पञ्चर्तवः संवत्सरस्य। तदाहुः - षडेवर्त्तवः संवत्सरस्य इति। न्यूनमु तर्हि मिथुनं प्रजननं क्रियते। न्यूनाद्वा इमाः प्रजाः प्रजायन्ते। - - - - - यद्यु षडेवर्तवः संवत्सरस्येति। अग्निरेवैतेषां षष्ठः, तथो एवैतदन्यूनं भवति। - श.ब्रा.  २.१.१.१३

*पुनराधानम् : (अग्नयेऽनुब्रूहि , हविषोऽग्निं यज, अग्नये स्विष्टकृतेऽनुब्रूहि, अग्निं स्विष्टकृतं यज , देवान् यज, अग्नीन् यजेत्येवैतदाह) ता वा एताः षड् विभक्तीर्यजति। चतस्रः प्रयाजेषु, द्वे अनुयाजेषु। षड् वा ऋतवः। ऋतून् प्राविशत्। ऋतुभ्य एवैनमेतन्निर्मिमीते। - - - - - सम्वत्सरमृतून् प्राविशत्। ऋतुभ्य एवैनमेतत् संवत्सरान्निर्म्मिमीते - श.ब्रा.  २.२.३.२६

*दाक्षायण यज्ञो वसिष्ठ यज्ञः :- अथ दिशो व्याघारयति। दिशः प्रदिश आदिशो विदिश उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा इति। पञ्ज दिशः। पञ्चर्तवः। तदृतुभिरेवैतद्दिशो मिथुनीकरोति। - श.ब्रा.  २.४.४.२४

*तद्वै पञ्चैव भक्षयन्ति - होता च, अध्वर्युश्च, ब्रह्मा च, अग्नीच्च, यजमानः। पञ्च वा ऋतवः। तदृतूनामेवैतद्रूपं क्रियते। तदृतुष्वेवैतद्रेतः सिक्तं प्रतिष्ठापयति। प्रथमो यजमानो भक्षयति। प्रथमो रेतः परिगृह्णानीति। - -- - - - - - श.ब्रा.  २.४.४.२५

*सर्वशेषः :- स यस्मिन् ह ऋतावमुं लोकमेति। स एनमृतुः परस्मा ऋतवे प्रयच्छति। पर उ परस्मा ऋतवे प्रयच्छति। स परममेव स्थानं, परमां गतिं गच्छति, चातुर्मास्ययाजी - श.ब्रा.  २.६.४.९

*आग्नावैष्णवीष्टिः :- तद्यत्पञ्चकृत्व आनक्ति। संवत्सरसंमितो वै यज्ञः। पञ्च वा ऋतवः संवत्सरस्य तं पञ्चभिराप्नोति। - श.ब्रा.  ३.१.३.१७

*ग्रहयागाः :- तमंशुभिः पावयति - पूतोऽसदिति। षड्भिः पावयति। षड् वाऽऋतवः। - श.ब्रा. ४.१.१.३

*अथ यदत्र बहिष्पवमानेन स्तुवते। अत्र ह वाऽअसावग्रऽआदित्य आस। तमृतवः परिगृह्यैवात ऊर्ध्वाः स्वर्गं लोकमुपोदक्रामन्। स एष ऋतुषु प्रतिष्ठितस्तपति। तथोऽएवैतदृत्विजो यजमानं परिगृह्यैवात ऊर्ध्वाः स्वर्गं लोकमुपोत्क्रामन्ति। - श.ब्रा. ४.२.५.९

*ऋतुग्रहा: :- स वै सन्नेऽच्छावाके ऋतुग्रहैश्चरति। तद् यत्सन्नेऽच्छावाकऽऋतुग्रहैश्चरति। मिथुनं वाऽअच्छावाकः। ऐन्द्राग्नो ह्यच्छावाकः। द्वौ हीन्द्राग्नी। द्वंद्वं हि मिथुनं प्रजननम्। - - - - - यद्वेव सन्नेऽच्छावाके ऋतुग्रहैश्चरति। सर्वं वाऽऋतवः संवत्सरः। सर्वमेवैतत्प्रजनयति। तस्मात्सन्नेऽच्छावाकऽऋतुग्रहैश्चरति। - श.ब्रा.  ४.३.१.३

*द्रोणकलशाद् गृह्णाति। प्रजापतिर्वै द्रोणकलशः। स एतस्मात्प्रजापतेर~ऋतून् संवत्सरं प्रजनयति। उभयतोमुखाभ्यां पात्राभ्यां गृह्णाति। कुतस्तयोरतो - येऽउभयतोमुखे। तस्मादयमनन्तः संवत्सरः परिप्लवते। तं गृहीत्वा न सादयति। तस्मादयमसन्नः संवत्सरः। - श.ब्रा.  ४.३.१.६

*नानुवाक्यामन्वाह। ह्वयति वाऽअनुवाक्यया। आगतो ह्येवायमृतुः। यदि दिवा। यदि नक्तम्। नानु वषट् करोति - नेदृतूनपवृणजाऽइति। - श.ब्रा. ४.३.१.८

*तौ वाऽऋतुनेति षट् प्रचरतः। तद् देवा अहरसृजन्त। ऋतुभिरिति चतुः। तद्रात्रिमसृजन्त। - - - - - - - - तौ वाऽऋतुनेत्युपरिष्टाद्द्विश्चरतः। तद् देवाः परस्तादहरददुः। तस्मात् इदम् अद्याहः। - श.ब्रा.  ४.३.१.११

*ऋतुनेति वै देवा मनुष्यानसृजन्त, ऋतुभिरिति पशून्। स यत्तन्मध्ये - येन पशूनसृजन्त। तस्मादिमे पशव उभयतः परिगृहीता वशमुपेता मनुष्याणाम्। तौ वाऽऋतुनेति षट् प्रचर्य्य, इतरथा पात्रे विपर्यस्येते। ऋतुभिरिति चतुश्चरित्वा - इतरथा पात्रे विपर्यस्येते। - - - -श.ब्रा.  ४.३.१.१२

*अथातो गृह्णात्येव - उपयामगृहीतोऽसि मधवे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि माधवाय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव वासन्तिकौ। स यद्वसन्तऽओषधयो जायन्ते, वनस्पतयः पच्यन्ते। - - - - उपयामगृहीतोऽसि शुक्राय त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि शुचये त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव ग्रैष्मौ। स यदेतयोर्बलिष्ठं तपति - तेनो हैतौ शुक्रश्च शुचिश्च। उपयामगृहीतोऽसि नभसे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि नभस्याय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव वार्षिकौ, अमुतो वै दिवो वर्षति - तेनो हैतौ नभश्च नभस्यश्च। उपयामगृहीतोऽसि इषे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽस्यूर्जे त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव शारदौ। स यच्छरद्यूर्ग्रस ओषधयः पच्यन्ते - तेनो हैताविषश्चोर्जश्च। उपयाम गृहीतोऽसि सहसे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि सहस्याय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव हैमन्तिकौ। स यद्धेमन्त इमाः प्रजाः सहसेव स्वं वशमुपनयते। तेनो हैतौ सहश्च सहस्यश्च। उपयामगृहीतोऽसि तपसे त्वा इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि तपस्याय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव शैशिरौ। स यदेतयोर्बलिष्ठं श्यायति - तेनो हैतौ तपश्च तपस्यश्च। उपयाम गृहीतोऽसि अंहसस्पतये त्वा। इति त्रयोदशं ग्रहं गृहणाति - यदि त्रयोदशं गृह्णीयात् - - - - -। न वाऽऋतुग्रहाणामनुवषट्कुर्वन्ति। एतेभ्यो वाऽऐन्द्राग्नं ग्रहं ग्रहीष्यन्भवति। - श.ब्रा.  ४.३.१.१४-२१

*यद्वेवैन्द्राग्नं ग्रहं गृह्णाति। सर्वं वाऽइदं प्राजीजनत् - य ऋतुग्रहानग्रहीत्। - - - - - श.ब्रा. ४.३.१.२२

*क्षत्रं वाऽइन्द्रः, विशो मरुतः। विशा वै क्षत्रियो बलवान्भवति। तस्मादाश्वत्थेऽऋतुपात्रे स्याताम्। कार्ष्मर्यमये त्वेव भवतः। - श.ब्रा. ४.३.३.६

*यद्वेवैन्द्राग्नं ग्रहं गृह्णाति। सर्वं वाऽइदं प्राजीजनत् - य ऋतुग्रहानग्रहीत्। - - - - - श.ब्रा. ४.३.१.२२

*क्षत्रं वाऽइन्द्रः, विशो मरुतः। विशा वै क्षत्रियो बलवान्भवति। तस्मादाश्वत्थेऽऋतुपात्रे स्याताम्। कार्ष्मर्यमये त्वेव भवतः। - श.ब्रा.  ४.३.३.६

*सावित्रग्रहः :- ऋतवो वै संवत्सरो यज्ञः। तेऽदः प्रातःसवने प्रत्यक्षमवकल्प्यन्ते - यदृतुग्रहान्गृह्णाति। अथैतत्परोऽक्षं माध्यन्दिने सवनेऽवकल्प्यन्ते - यदृतुपात्राभ्यां मरुत्वतीयान्गृह्णाति। न वाऽअत्रऽर्तुभ्य इति कञ्चन ग्रहं गृह्णन्ति। नऽर्तुपात्राभ्यां कश्चन ग्रहो गृह्यते। - श.ब्रा.  ४.४.१.२

*एष वै सविता य एष तपति। एष उऽएव सर्वऽऋतवः। तद् ऋतवः संवत्सरस्तृतीयसवने प्रत्यक्षमवकल्प्यन्ते। तस्मात्सावित्रं गृह्णाति। - श.ब्रा. ४.४.१.३

*यज्ञात्मक प्रजापतिः :- ऋतुपात्रमेवान्वेकशफं प्रजायते। तद्वै तत् पुनर्यज्ञे प्रयुज्यते। - - - - -इतीव वाऽऋतुपात्रम्। इति वैकशफस्य शिरः - श.ब्रा. ४.५.५.८

*पञ्च ह त्वेव तानि पात्राणि - यानीमाः प्रजा अनु प्रजायन्ते - समानमुपांश्वन्तर्यामयोः, शुक्रपात्रम्, ऋतुपात्रम्, आग्रयणपात्रम्, उक्थ्यपात्रम्। पञ्च वाऽऋतवः संवत्सरस्य। सम्वत्सरः प्रजापतिः। प्रजापतिर्यज्ञः। यद्यु षडेवऽर्तवः संवत्सरस्य - इत्यादित्यपात्रमेवैतेषां षष्ठम्। - श.ब्रा. ४.५.५.१२

*यूपारोहणम् : आयुर्यज्ञेन कल्पताम्, प्राणो यज्ञेन कल्पताम्, चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्, श्रोत्रं यज्ञेन कल्पताम्, पृष्ठं यज्ञेन कल्पताम्, यज्ञो यज्ञेन कल्पताम् इति। एताः षट् क्लृप्तीर्वाचयति। षड्वाऽऋतवः संवत्सरस्य। - श.ब्रा.  ५.२.१.४

*केशवपुरुषस्य प्रसंगः :- अथैनं दिशः समारोहयति - प्राचीमारोह गायत्री त्वाऽवतु रथन्तरं साम त्रिवृत्स्तोमो वसन्त ऋतुर्ब्रह्म द्रविणम्। दक्षिणामारोह त्रिष्टुप्त्वाऽवतु बृहत्साम पञ्चदश स्तोमो ग्रीष्म ऋतुः क्षत्रं द्रविणम्। प्रतीचीमारोह जगती त्वाऽवतु वैरूपं साम सप्तदश स्तोमो वर्षा ऋतुः, विड् द्रविणम्। उदीचीमारोहानुष्टुप्त्वाऽवतु। वैराजं साम, एकविंश स्तोमः, शरदृतुः, फलं द्रविणम्। ऊर्ध्वामारोह पङ्क्तिस्त्वाऽवतु शाक्वररैवते सामनी त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ हेमन्तशिशिरावृतू वर्चो द्रविणम् इति। तद्यदेनं दिशः समारोहयति। ऋतूनामेवैतद्रूपम्। - - - - श.ब्रा.  ५.४.१.३

*प्रजापतेश्चित्याग्निरूपता : तदेता वाऽअस्य ताः पञ्च तन्वो व्यस्रंसन्त - लोम, त्वक्, मांसम्, अस्थि, मज्जा। ता एवैताः पञ्च चितयः। - - - - - - - -अथ या अस्यैताः पञ्च तन्वो व्यस्रंसन्त - ऋतवस्ते। पञ्च वाऽऋतवः। पञ्चैताश्चितयः। तद्यत्पञ्च चितीश्चिनोति - ऋतुभिरेवैनं तच्चिनोति। - - - - - - - - अथ या अस्य ता ऋतवः पञ्च तन्वो व्यस्रंसन्त - दिशस्ताः। पञ्च वै दिशः। - - - - अथ यश्चितेऽग्निर्निधीयते - असौ स आदित्यः। स एष एवैषोऽग्निश्चितः। - श.ब्रा.  ६.१.२.१७

*प्राजापत्य पश्वनुष्ठानम् : मास आप्त ऋतुमाप्नोति। ऋतुः संवत्सरम्। तत्संवत्सरमग्निमाप्नोति। - श.ब्रा. ६.२.२.३५

*उखासम्भरणे पश्वभिमन्त्रणविधानं : अयं वो गर्भ ऋत्वियः प्रत्नं सधस्थमासदत् इति। अयं वो गर्भ ऋतव्यः सनातनं सधस्थमासददित्येतत्। - श.ब्रा. ६.४.४.१७

*वात्सप्रेण सूक्तेन उपस्थानम् : विष्णुक्रमैर्वै प्रजापतिर्ऋतूनसृजत। वात्सप्रेण संवत्सरम्। - श.ब्रा.  ६.७.४.७

*गार्हपत्याग्निचयनम् : अयं ते योनिर्ऋत्वियो यतो जातोऽअरोचथाः इति। अयं ते योनिर्ऋतव्यः सनातनो यतो जातोऽदीप्यथा इत्येतत्। - श.ब्रा.  ७.१.१.२८

*गार्हपत्याग्निचयनं : ता उभय्य एकविंशतिः सम्पद्यन्ते - द्वादश मासाः, पञ्चर्तवः, त्रय इमे लोकाः, असावादित्य एकविंशः। अमुं तदादित्यमस्मिन्नग्नौ प्रतिष्ठापयति। - श.ब्रा.  ७.१.१.३४

*मातेव पुत्रं पृथिवी पुरीष्यम् इति। - - - -अग्निं स्वे योनावभारुखा इति अग्निं स्वे योनावभार्षीदुखेत्येतत्। तां विश्वैर्देवैर्ऋतुभिः संविदानः प्रजापतिर्विश्वकर्मा विमुञ्चतु इति। ऋतवो वै विश्वे देवाः। तदेनां विश्वैर्देवैर्ऋतुभिः संविदानः प्रजापतिर्विश्वकर्मा विमुञ्चति। - श.ब्रा.  ७.१.१.४३

*ऋतव्येष्टकाद्वयोपधानम् : अथऽर्तव्येऽउपदधाति। ऋतव एते यदृतव्ये। ऋतूनेवैतदुपदधाति। मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू इति। - - - - -तस्यायमेव लोकः प्रथमा चितिः। अयमस्य लोको वसन्त ऋतुः। - श.ब्रा.  ७.४.२.३०

*प्रजा वै विश्वज्योतिः। अनन्तर्हितास्तत्प्रजा ऋतुभ्यो दधाति। तस्मात्प्रजा ऋतूनेवानुप्रजायन्ते। ऋतुभिर्ह्येव गर्भे सन्तं पश्यन्ति - ऋतुभिर्जातम्। - श.ब्रा.  ७.४.२.३१

*यद्वपस्याः पञ्च पुरस्तादुपदधाति। अन्नं वाऽआपः। अनपिहिता वाऽअन्नेन प्राणाः। तामनन्तर्हितामृतव्याभ्यामुपदधाति। ऋतुषु तद्वाचं प्रतिष्ठापयति। सेयं वागृतुषु प्रतिष्ठिता वदति। तदाहुः - यत्प्रजा विश्वज्योतिः, वागषाढा, अथ कस्मादन्तरेणऽर्तव्येऽउपदधातीति। संवत्सरो वाऽऋतव्ये। - - - - - - - श.ब्रा.  ७.४.२.३८

*पञ्चाशत्प्राणभृदिष्टकोपधानम् : तस्य प्राणो भौवायनः इति। प्राणं तस्माद्रूपादग्नेर्निरमिमीत। वसन्तः प्राणायनः इति। वसन्तमृतुं प्राणान्निरमिमीत। गायत्री वासन्ती इति - - - - - - - - - तस्य मनो वैश्वकर्मणम् इति। - - - - ग्रीष्मो मानसः इति। ग्रीष्ममृतुं मनसो निरमिमीत। त्रिष्टुब् ग्रैष्मी इति। - - - - - - - श.ब्रा.  ८.१.१.५

*पञ्चचितिकायां प्रथमा चितिः :- - - - - - अर्धमासास्ते कल्पन्ताम्। मासास्ते कल्पन्ताम्। ऋतवस्ते कल्पन्ताम्। संवत्सरस्ते कल्पताम्। - - - - सुपर्णचिदसि तया देवतयाऽङ्गिरस्वद्ध्रुवः सीद इति। - श.ब्रा.  ८.१.४.८

*ऋतव्येष्टकोपधानम् : अथऽर्तव्येऽउपदधाति। ऋतव एते - यदृतव्ये। ऋतूनेवैतदुपदधाति। शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू इति। नामनीऽएनयोरेते। नामभ्यामेवैनेऽएतदुपदधाति। द्वेऽइष्टके भवतः। द्वौ हि मासावृतुः । सकृत्सादयति। एकं तदृतुं करोति। - - - - - संवत्सर एषोऽग्निः। इम उ लोकाः संवत्सरः। तस्य यदूर्ध्वं पृथिव्याः, अर्वाचीनमन्तरिक्षात् - तदस्यैषा द्वितीया चितिः। तद्वस्य ग्रीष्म ऋतुः। तद्यदेते अत्रोपदधाति। यदेवास्यैतेऽआत्मनः - तदस्मिन्नेतत्प्रतिदधाति। श.ब्रा.  ८.२.१.१६

*एतद्वै प्रजापतिरेतस्मिन्नात्मनः प्रतिहितेऽकामयत - प्रजाः सृजेय, प्रजायेयेति। स ऋतुभिः – अद्भिः - प्राणैः - संवत्सरेण - अश्विभ्यां सयुग्भूत्वैताः प्रजाः प्राजनयत्। - - - - - - सजूर्ऋतुभिः इति। तद्ऋतून्प्राजनयत्। ऋतुभिर्वै सयुग्भूत्वा प्राजनयत्। - श.ब्रा.  ८.२.२.८

*चतुर्ऋतव्येष्टकोपधानम् : अथऽर्तव्या उपदधाति। ऋतव एते यदृतव्याः। ऋतूनेवैतदुपदधाति। नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू इति। - - - - - - - - - -एकं तदृतुं करोति। अवकासूपदधाति। अवकाभिः प्रच्छादयति। आपो वाऽअवकाः। अपस्तदेतस्मिन्नृतौ दधाति। तस्मादेतस्मिन्नृतौ भूयिष्ठं वर्षति। अथोत्तरे - इषश्चोर्जश्च शारदावृतू इति। - - - - - तस्मादेतस्यऽर्तोः पुरस्ताद्वर्षति। नोपरिष्टात्प्रच्छादयति। तस्मान्न तथेवोपरिष्टाद्वर्षति। - - - - - -संवत्सर उ प्रजापतिः। तस्य मध्यमेव मध्यमा चितिः। मध्यमस्य वर्षाशरदावृतू। - श.ब्रा.  ८.३.२.५-८

*ता वाऽएताश्चतस्र ऋतव्या मध्यमायां चिताऽउपदधाति, द्वे द्वे इतरासु चितिषु। - - - - - श.ब्रा.  ८.३.२.९

* ता वाऽएताश्चतस्र ऋतव्याः। तासां विश्वज्योतिः पञ्चमी। पञ्च दिश्याः। तद्दश। दशाक्षरा विराट्। - श.ब्रा. ८.३.२.१३

*तं यत्र देवाः समस्कुर्वन् - तदस्मिन्नेतानि भूतानि मध्यतोऽदधुः। तथैवास्मिन्नयमेतद्दधाति। ता अनन्तर्हिता ऋतव्याभ्य उपदधाति। ऋतुषु तत्सर्वाणि भूतानि प्रतिष्ठापयति। - श.ब्रा. ८.३.३.१२

*ऋतव्येष्टकोपधानम् : अथऽर्तव्ये उपदधाति। ऋतव एते - यदृतव्ये। ऋतूनेवैतदुपदधाति। सहश्च सहस्यश्च हैमन्तिकावृतू इति। - - - - - - सकृत्सादयति। एकं तदृतुं करोति। - - - - इम उ लोकाः संवत्सरः। तस्य यदूर्ध्वमन्तरिक्षाद्, अर्वाचीनं दिवः - तदस्यैषा चतुर्थी चितिः। तद्वस्य हेमन्त ऋतुः। - - - - संवत्सर उ प्रजापतिः। तस्य यदूर्ध्वं मध्याद्, अवाचीनं शीर्ष्णः - तदस्यैषा चतुर्थी चितिः। तद्वस्य हेमन्त ऋतुः। - - - - श.ब्रा.  ८.४.२.१५

*सृष्टीष्टकाः :- एकादशभिरस्तुवत इति। दश प्राणाः, आत्मैकादशः। तेनैव तदस्तुवत। ऋतवोऽसृज्यन्त इति। ऋतवोऽत्रासृज्यन्त। आर्तवा अधिपतय आसन् इति। आर्तवा अत्राधिपतय आसन्। - श.ब्रा. ८.४.३.८

*सम्वत्सरो वा ऋतव्याः। सम्वत्सरः स्वर्गो लोकः। - श.ब्रा. ८.६.१.४

*द्वयोर~ऋतव्येष्टकयोरुपधानम् : ऋतव एते - यदृतव्याः, ऋतूनेवैतदुपदधाति। तदेतत्सर्वं - यदृतव्याः। संवत्सरो वा ऋतव्याः। संवत्सर इदं सर्वम्। - - - - -यद्वेवर्तव्या उपदधाति। क्षत्रं वा ऋतव्याः, विश इमा इतरा इष्टकाः। क्षत्त्रं तद्विश्यत्तारं दधाति। - - - - -यद्वेवर्तव्या उपदधाति। संवत्सर एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। संवत्सरमेवैतदृतुभिः संतनोति सन्दधाति। ता वै नानाप्रभृतयः समानोदर्काः। ऋतवो वा असृज्यन्त। ते सृष्टा नानैवासन्। - श.ब्रा.  ८.७.१.१

*तेऽब्रुवन् - न वा इत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनयितुम्, रूपैः समायामेति। त एकैकम् ऋतुं रूपैः समायन्। तस्मादेकैकस्मिन्नृतौ सर्वेषामृतूनां रूपम्। ता यन्नानाप्रभृतयो - नाना ह्यसृज्यन्त। - श.ब्रा.  ८.७.१.४

*स उपदधाति। तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू इति। नामनी एनयोरेते। - - - - असौ वा आदित्यस्तपः। तस्मादेतावृतू अनन्तर्हितौ। तत् यदेतस्मादेतावृतू अनन्तर्हितौ। तस्मादेतौ तपश्च तपस्यश्च। - श.ब्रा.  ८.७.१.५

*अग्नेरन्तःश्लेषोऽसि इति। संवत्सर एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। संवत्सरमेवैतदृतुभिः संतनोति, सन्दधाति। कल्पेतां द्यावापृथिवी, कल्पन्तामाप ओषधयः इति। इदमेवैतत्सर्वमृतुभिः कल्पयति। -- - - - - - - - - शैशिरावृतू अभिकल्पमाना इन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु इति। यथेन्द्रं देवा अभिसंविष्टाः, एवमिमावृतू ज्यैष्ठ्यायाभिसंविशन्त्वित्येतत्। द्वे इष्टके भवतः। द्वौ हि मासावृतुः। सकृत्सादयति। एकं तदृतुं करोति। - श.ब्रा. ८.७.१.६

*संवत्सर एषोऽग्निः। इम उ लोकाः संवत्सरः। तस्य द्यौरेव पञ्चमी चितिः। द्यौरस्य शिशिर ऋतुः। - - - - - - - - -- संवत्सर उ प्रजापतिः। तस्य शिर एव पञ्चमी चितिः। शिरोऽस्य शिशिर ऋतुः। - श.ब्रा. ८.७.१.७

*स पुरस्तात्स्वयमातृण्णायै च विश्वज्योतिषश्चऽर्तव्येऽउपदधाति। द्यौर्वा उत्तमा स्वयमातृण्णा। आदित्य उत्तमा विश्वज्योतिः। अर्वाचीनं तद्दिवश्चादित्याच्चर्तून्दधाति। तस्मादर्वाचीनमेवातः ऋतवः।- - - - - श.ब्रा.  ८.७.१.९

*इयं वै प्रथमा स्वयमातृण्णा। अग्निः प्रथमा विश्वज्योतिः। तदूर्ध्वानृतून्दधाति। तस्मादित ऊर्ध्वा ऋतवः। - - - - ता न व्यूहेत्। नेदृतून्व्यूहानीति। यो वै मि|यते - ऋतवो ह तस्मै व्युह्यन्ते। - श.ब्रा. ८.७.१.१०

*अथो इमे वै लोका ऋतव्याः। इमांस्तल्लोकानूर्ध्वांश्चितिभिश्चिनोति। अथो क्षत्रं वा ऋतव्याः। क्षत्त्रं तदूर्ध्वै चितिभिश्चिनोति। अथो संवत्सरो वा ऋतव्याः। संवत्सरं तदूर्ध्वं चितिभिश्चिनोति। - श.ब्रा. ८.७.१.१२

*ता हैता एव संयान्यः। एतद्वै देवा ऋतव्याभिरेवेमांल्लोकान्त्समयुः। इतश्चोर्ध्वान्, अमुतश्चार्वाचः। तथैवैतद्यजमान ऋतव्याभिरेवेमांल्लोकान्त्संयाति - इतश्चोर्ध्वान्, अमुतश्चार्वाचः। - श.ब्रा. ८.७.१.१३

*शतरुद्रियं : द्वादश मासाः, पञ्चर्तवः, त्रय इमे लोकाः, असावादित्य एकविंशः - एतामभिसम्पदम्। - श.ब्रा. ९.१.१.२६

*परिषेकधेनूकरणावकर्षणादिकं : ऋतव स्थ इति। ऋतवो ह्येताः। ऋतावृधः इति। सत्यवृध इत्येतत्। ऋतुष्ठा स्थ ऋतावृधः इति। अहोरात्राणि वा इष्टकाः। ऋतुषु वा अहोरात्राणि तिष्ठन्ति। - श.ब्रा. ९.१.२.१८

*अथ यानि षट्। षड्वा ऋतवः। तदृतूनां रात्रीराप्नोति। - - - -श.ब्रा. ९.३.३.१८

*अभिषेकः :- षट्पुरस्ताज्जुहोति, षडुपरिष्टात्। षड्वाऽऋतवः। ऋतुभिरेवैनमेतत् सुषुवाणमुभयतः परिगृह्णाति। बृहस्पतिः पूर्वेषामुत्तमो भवति, इन्द्र उत्तरेषां प्रथमः। ब्रह्म वै बृहस्पतिः, क्षत्रमिन्द्रः। - श.ब्रा. ९.३.४.१८

*मैत्रावरुणी पयस्या : इमे वै लोकाः स्वयमातृण्णाः। इम उ लोका एषो ऽग्निश्चितः। ऋतव्या एवोपदधीत। संवत्सरो वा ऋतव्याः। संवत्सर एषोऽग्निश्चितः। - श.ब्रा. ९.५.१.५८

*एकशतधा वा असावादित्यो विहितः - सप्तस्वृतुषु, सप्तसु स्तोमेषु, सप्तसु पृष्ठेषु, सप्तसु छन्दःसु, सप्तसु प्राणेषु, सप्तसु दिक्षु प्रतिष्ठितः। तथैवैतद्यजमान एकशतधाऽऽत्मानं विधायैतस्मिन्त्सर्वस्मिन्प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १०.२.४.५

*चयनमीमांसा : अथ यदि षट्। षड्वाऽऋतवः। ऋतव उपसदः, आदित्यः प्रवर्ग्यः। अमुं तदादित्यमृतुषु प्रतिष्ठापयति। तस्मादेष ऋतुषु प्रतिष्ठितः। - - - - - - मासं प्रथमा चितिः। मासं पुरीषम्। एतावान्वासन्तिक ऋतौ कामः। तद् यावान्वासन्तिक ऋतौ कामः - तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। - श.ब्रा. १०.२.५.७

*मासं द्वितीया। मासं पुरीषम्। एतावान् ग्रैष्म ऋतौ कामः। तद् यावान्ग्रैष्म ऋतौ कामः- तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। - श.ब्रा. १०.२.५.१०

*मासं तृतीया। मासं पुरीषम्। एतावान्वार्षिक ऋतौ कामः। तद्यावान्वार्षिक ऋतौ कामः - तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। मासं चतुर्थी। मासं पुरीषम्। एतावाञ्छारद ऋतौ कामः। तद् यावाञ्छारद ऋतौ कामः - तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। - - - - -तूष्णीं मासं स्तोमभागापुरीषमभिहरन्ति। एतावान्हैमन्तिक ऋतौ कामः। तद्यावान्हैमन्तिक ऋतौ कामः - तं तत्सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। मासं षष्ठी। मासं पुरीषम्। एतावाञ्छैशिर ऋतौ कामः। तद् यावाञ्छैशिर ऋतौ कामः - तं तत्सर्वामात्मानमभिसञ्चिनुते। एतावान्वै द्वादशसु मासेषु कामः षट्स्वृतुषु। तद् यावान्द्वादशसु मासेषु कामः षट्स्वततुषु। तं तत् सर्वमात्मानमभिसञ्चिनुते। - श.ब्रा.  १०.२.५.११-१४

*अथ यत्प्रवर्ग्येण, तदु तस्मिन्नृतावादित्यं प्रतिष्ठापयति। एतावान्वै त्रयोदशसु मासेषु कामः सप्तस्वृतुषु। - श.ब्रा. १०.२.५.१५

*संवत्सरो वै प्रजापतिरेकशतविधः। तस्याहोरात्राणि अर्धमासाः, मासाः, ऋतवः। - - - - - चतुर्विंशतिरर्धमासाः, त्रयोदश मासाः, त्रयः ऋतवः। ताः शतं विधाः। संवत्सर एवैकशततमी विधा। -श.ब्रा. १०.२.६.१

*स ऋतुभिरेव सप्तविधः - षडृतवः, संवत्सर एव सप्तमी विधा। तस्यैतस्य संवत्सरस्यैतत्तेजो - य एष तपति। तस्य रश्मयः शतं विधाः। - - - - - - - - श.ब्रा. १०.२.६.२

*परिश्रिद्भिरेवास्य रात्रीराप्नोति। यजुष्मतीभिरहानि। अर्धमासान्, मासान्, ऋतून्। लोकंपृणाभिर्मुहूर्तान्। - - - - - अथ यजुष्मत्यः - दर्भस्तम्बः, लोगेष्टकाः, - - - - - - विश्वज्योतिः, ऋतव्ये, अषाढा, - - - - - श.ब्रा. १०.४.३.१२

*अथ द्वितीया - पञ्चाश्विन्यः, द्वे ऋतव्ये, पञ्च वैश्वदेव्यः, पञ्च प्राणभृतः, पञ्चापस्याः। - - - - - -

अथ तृतीया - स्वयमातृण्णा, पञ्च दिश्याः, विश्वज्योतिः, चतस्र ऋतव्याः, दश प्राणभृतः, षट्त्रिंशच्छन्दस्याः, चतुर्दश वालखिल्याः। - - - - अथ चतुर्थी - - - - - -। अथ पञ्चमी - - - - - - अष्टौ पुनश्चितिः, ऋतव्ये, विश्वज्योतिः, - - - - -। - श.ब्रा. १०.५.३.१५

*ता उ द्वे द्वे ह ऋतुलोकाः ऋतूनामशून्यतायै। - श.ब्रा. १०.४.३.१९

*सम्वत्सर एवाग्निः - तस्य वसन्तः शिरः , ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षः, वर्षा उत्तरः, शरदृतुर्मध्यम्, आत्मा हेमन्तशिशिरावृतू। - - - - - - - श.ब्रा.  १०.४.५.२

*तस्मिन् (चन्द्रमसि) सर्वे देवा वसन्ति। सर्वाणि भूतानि। सर्वा देवताः। सर्व ऋतवः। सर्वे स्तोमाः। सर्वाणि पृष्ठानि। सर्वाणि छन्दांसि। - श.ब्रा. ११.१.१.५

*सर्वेषु ह वा अस्य देवेषु। सर्वेषु भूतेषु। सर्वासु देवतासु। सर्वेषु ऋतुषु। - - - - - अग्नी आहितौ भवतः। - श.ब्रा. ११.१.१.६

*तानि वा एतानि पंचाक्षराणि। तान्पंच ऋतूनकुरुत। त इमे पंच ऋतवः। स एवमिमान् लोकान् जातान् संवत्सरे प्रजापतिरभ्युदतिष्ट्त्। तस्मादु संवत्सर एव कुमार उत्तिष्ठासति। - श.ब्रा. ११.१.६.५

*ऋतव ऋत्विजः। स यो ह वा ऋतव ऋत्विज इति वेद। अंते हैवास्यर्तूनामिष्टं भवति। अथो यत्किंचर्तुषु क्रियते। सर्वं हैवास्य तदाप्तमवरुद्धमभिजितं भवति। - श.ब्रा. ११.२.७.२

*देवविद्याब्राह्मणम् : अथ यत्पृष्ठ्यं षडहमुपयन्ति। ऋतूनेव देवता यजन्ते। ऋतवो देवता भवन्ति। ऋतूनां सायुज्यं सलोकतां जयन्ति। - श.ब्रा.  १२.१.३.११

*द्वौ द्वौ समासं हुत्वा। सते संस्रवान् समवनयति। अहोरात्राण्येवैतदर्धमासान् ऋतून् संवत्सरे प्रतिष्ठापयति। - श.ब्रा. १२.८.३.१४

*अथर्त्विक्षूपहवमिष्ट्वा भक्षयति। ऋतवो वा ऋत्विजः। ऋतुष्वेवैतदुपहवमिच्छते। - श.ब्रा. १२.८.३.३०

*ऋषभो वा एष ऋतूनां यत्संवत्सरः। तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपम्। ऋषभ एष यज्ञानां यदश्वमेधः। - श.ब्रा.  १३.१.२.२

*तिस्रो ऽन्यो गाथा गायति। तिस्रोऽन्यः। षट् संपद्यन्ते। षट् ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १३.१.५.६

*एकविंशतिः संपद्यन्ते। द्वादश मासाः। पञ्चर्तवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविंशः। तद्दैवं क्षत्त्रं। सा श्रीः। - श.ब्रा. १३.१.७.३

*- - - - - अथो धुवत एवैनम् त्रिः परियन्ति। त्रयो वा इमे लोकाः। एभिरेवैनं तल्लोकैर्धुवते। त्रिः पुनः परियन्ति। षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभिरेवैनं धुवते। - श.ब्रा. १३.२.८.घ्४

*अश्वस्य प्राजापत्याक्षिप्रभवत्वं, ब्रह्महत्याप्रायश्चित्तिश्च : एकविंशात्प्रतिष्ठाया उत्तरमहर~ऋतूनन्वारोहति। ऋतवो वै पृष्ठानि। ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १३.३.२.१

*अश्वमेधस्य फलाधिकारिकालादिकम् : तदाहुः - कस्मिन् ऋतौ अभ्यारंभ इति। ग्रीष्मेऽभ्यारभेत - इत्यु हैक आहुः। ग्रीष्मो वै क्षत्रियस्यर्तुः। क्षत्रिययज्ञ उ वा एषः। यदश्वमेधः। - श.ब्रा. १३.४.१.२

*द्वादश मासाः। पंच ऋतवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविंशः। सोऽश्वमेधः। एष प्रजापतिः। - श.ब्रा. १३.४.४.११

*एकविंशो वा एषः। य एष तपति। द्वादश मासाः। पंचर्तवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविंशः। - श.ब्रा. १३.५.४.२६

*अथोत्तरं संवत्सरमृतुपशुभिर्यजते। षड्भिराग्नेयैर्वसंते। षड्भ~भिरैन्द्रैर्ग्रीष्मे। षड्भिः पार्जन्यैर्वा मारुतैर्वा वर्षासु। षड्भिर्मैत्रावरुणैः शरदि। षड्भिरैन्द्रावैष्णवैर्हेमन्ते। षड्भिरैन्द्राबार्हस्पत्यैः शिशिरे। षड् ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १३.५.४.२८

*स वा एष पुरुषमेधः पंचरात्रो यज्ञक्रतुर्भवति। पांक्तो यज्ञः। पांक्तः पशुः। पंचर्तवः संवत्सरः। - श.ब्रा. १३.६.१.७

*पुरुषमेधः :- तस्यायमेव लोकः प्रथममहः। अयमस्य लोको वसंत ऋतुः। यदूर्ध्वमस्माल्लोकादर्वाचीनमंतरिक्षात्। तत् द्वितीयमहः। तद्वस्य ग्रीष्म ऋतुः। अन्तरिक्षमेवास्य मध्यममहः। अंतरिक्षमस्य वर्षाशरदावृतू। यदूर्ध्वमन्तरिक्षादर्वाचीनं दिवः। तच्चतुर्थमहः। तद्वस्य हेमन्त ऋतुः। द्यौरेवास्य पंचममहः। द्यौरस्य शिशिर ऋतुः। इत्यधिदेवतम्। अथाध्यात्मम्। प्रतिष्ठैवास्य प्रथममहः। प्रतिष्ठो अस्य वसंत ऋतुः। यदूर्ध्वं प्रतिष्ठाया अवाचीनं मध्यात्। तत् द्वितीयमहः। तद्वस्य ग्रीष्म ऋतुः। मध्यमेवास्य मध्यममहः। मध्यमस्य वर्षाशरदावृतू। यदूर्ध्वं मध्यादवाचीनं शीर्ष्णः। तच्चतुर्थमहः। तद्वस्य हेमन्त ऋतुः। शिशिर एवास्य पंचममहः। शिरोऽस्य शिशिर ऋतुः। एवमिमे च लोकाः संवत्सरश्च आत्मा च पुरुषमेधमभिसंपद्यन्ते। - श.ब्रा.  १३.६.१.११

*षड्गवं भवति। षड् ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेवैनमेतत् संवत्सरे प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठापयति। - श.ब्रा. १३.८.२.६

*तिस्रो रात्रीर्व्रतं चरति। त्रयो वा ऋतवः संवत्सरस्य संवत्सर एषः। य एष तपति। एष उ प्रवर्ग्यः। - श.ब्रा.  १४.१.१.२८

*तान्वा एतान्पंच संभारान्त्संभरति। पाङ्क्तो यज्ञः। पाङ्क्तः पशुः। पंचर्तवः संवत्सरस्य। - श.ब्रा. १४.१.२.१४

*वाचक्नवी ब्राह्मणं, अक्षर ब्राह्मणं वा सृष्टिप्रवेश ब्राह्मणम् : एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि अहोरात्राणि अर्द्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा विधृतास्तिष्ठन्ति। - श.ब्रा. १४.६.८.९

*दर्शपूर्णमासविकृतिभूतकाम्येष्टीनां याज्यापुरोनुवाक्यामन्त्राः :- अग्निर्विद्वान्त्स यजात् सेदु होता सो अध्वरान्त्स ऋतून्कल्पयाति। - तैत्तिरीय संहिता १.१.१४.३

*पुनराधानम् : पञ्चकपालः पुरोडाशो भवति पञ्च वा ऋतव ऋतुभ्य एवैनमवरुध्याऽऽधत्ते। - तै.सं. १.५.१.४

*गार्हपत्याहवनीययोरुपस्थानम् : पशवो वै रयिः पशूनेवावरुन्धे षड्भिरुप तिष्ठते षड् वै ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठति षडभिरुत्तराभिरुप तिष्ठते द्वादश सं पद्यन्ते द्वादश मासाः संवत्सरः - तै.सं. १.५.७.३

*एष वै छन्दस्यः प्रजापतिरा श्रावयास्तु श्रौषड् यज ये यजामहे वषट्कारो य एवं वेद पुण्यो भवति वसन्तम् ऋतूनां प्रीणामीत्याहर्तवो वै प्रयाजा ऋतूनेव प्रीणाति तेऽस्मै प्रीता यथापूर्वं कल्पन्ते कल्पन्तेऽस्मा ऋतवो य एवं वेद - - - - - तै.सं. १.६.११.४

*काम्येष्टियाज्यापुरोनुवाक्याविधानम् : इन्द्रो मरुद्भिर्ऋतुधा कृणोत्वादित्यैर्नो वरुणः सं शिशातु। - तै.सं. २.१.११.२

*याज्यानुवाक्याभिधानम् : विश्वे देवा ऋतावृध ऋतुभिर्हवनश्रुतः। जुषन्ता युज्यं पयः। - तै.सं. २.४.१४.५

*प्रयाज विधिः :- समिधो यजति वसन्तमेवर्तूनामव रुन्धे तनूनपातं यजति ग्रीष्ममेवाव रुन्ध इडो यजति वर्षा एवाव रुन्धे बर्हिर्यजति शरदमेवाव रुन्धे स्वाहाकारं यजति हेमन्तमेवाव रुन्धे तस्मात्स्वाहाकृता हेमन्पशवोऽव सीदन्ति समिधो यजत्युषस एव देवतानामव रुन्धे तनूनपातं यजति यज्ञमेवाव रुन्धे इडो यजति पशूनेवाव रुन्धे बर्हिर्यजति प्रजामेवाव रुन्धे समानयत उपभृतस्तेजो वा आज्यं प्रजा बर्हिः प्रजास्वेव तेजो दधाति स्वाहाकारं यजति वाचमेवाव रुन्धे दश सं पद्यन्ते दशाक्षरा विराडन्नं विराड्विराजैवान्नाद्यमव रुन्धे समिधो यजत्यस्मिन्नेव लोके प्रति तिष्ठति तनूनपातं यजति यज्ञ एवान्तरिक्षे प्रति तिष्ठतीडो यजति पशुष्वेव प्रति तिष्ठति बर्हिर्यजति य एव देवयानाः पन्थानस्तेष्वेव प्रति तिष्ठति स्वाहाकारं यजति सुवर्ग एव लोके प्रति तिष्ठति - - - - - - -यो वै प्रयाजानां मिथुनं वेद प्र प्रजया पशुभिर्मिथुनैर्जायते समिधो बह्वीरिव यजति तनूनपातमेकमिव मिथुनं तदिडो बह्वीरिव यजति बर्हिरेकमिव मिथुनं तदेतद्वै प्रयाजानां मिथुनं य एवं वेद - - - -तै.सं. २.६.१०.१

*अनूयाजसूक्तवाकानामभिधानम् : अग्नीध आ दधात्यग्निमुखानेवर्तून्प्रीणाति समिधमा दधात्युत्तरासामाहुतीनां प्रतिष्ठित्या - तै.सं  २.६.९.१

*राष्ट्रभृन्मन्त्राणां काम्यप्रयोगाभिधानम् : इदमहममुष्या ऽऽमुष्यायणस्यान्नाद्यं हरामीत्याहान्नाद्यमेवास्य हरति षड्भिर्हरति षड्वा ऋतवः प्रजापतिनैवास्यान्नाद्यमादायर्तवोऽस्मा अनु प्र यच्छन्ति - तै.सं. ३.४.८.६

*पञ्च पश्वङ्गभूताग्निक सामिधेन्यभिधानम् : समास्त्वाऽग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयो यानि सत्या। सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्वा आ भाहि प्रदिशः पृथिव्याः। (इति दशाऽऽग्निकीः) - तै.सं. ४.१.७.१

*आहवनीयचयनार्थं भूकर्षणाभिधानम् : मातेव पुत्रं पृथिवी पुरीष्यमग्निं स्वे योनावभारुखा। तां विश्वैर्देवैर्ऋतुभिः संविदानः प्रजापतिर्विश्वकर्मा वि मुञ्चतु। (इति शिक्यादुखां निरूह्य) - तै.सं. ४.२.५.२

*पशु (ऋषभ)शीर्षोपधानाभिधानम् : अजस्रमिन्दुमरुषं भुरण्युमग्निमीडे पूर्वचित्तौ नमोभिः। स पर्वभिर्ऋतुशः कल्पमानो गा मा हिंसीरदितिं विराजम्। - तै.सं. ४.२.१०.२

*अपानभृदिष्टकाभिधानम् : प्राची दिशां वसन्त ऋतूनामग्निर्देवता ब्रह्म द्रविणं त्रिवृत्स्तोमः स उ पञ्चदशवर्तनिस्त्र्यविर्वयः कृतमयानां पुरोवातो वातः सानग ऋषिर्दक्षिणा दिशां ग्रीष्म ऋतूनामिन्द्रो देवता क्षत्त्रं द्रविणं पञ्चदशः स्तोमः स उ सप्तदशवर्तनिर्दित्यवाड्वयस्त्रेताऽयानां दक्षिणाद्वातो वातः सनातन ऋषिः प्रतीची दिशां वर्षा ऋतूनां विश्वे देवा देवता विट् द्रविणं सप्तदशः स्तोमः स उवेकविँशवर्तनिस्त्रिवत्सो वयो द्वापरोऽयानां पश्चाद्वातो वातोऽहभून ऋषिरुदीची दिशां शरदृतूनां मित्रावरुणौ देवता पुष्टं द्रविणमेकविँशः स्तोमः स उ त्रिणववर्तनिस्तुर्यवाड्वय आस्कन्दोऽयानामुत्तराद्वातो वातः प्रत्न ऋषिरूर्ध्वा दिशां हेमन्तशिशिरावृतूनां बृहस्पतिर्देवता वर्चो द्रविणं त्रिणवः स्तोमः स उ त्रयस्त्रिंशवर्तनिः पष्टवाड्वयोऽभिभूरयानां विष्वग्वातो वातः सुपर्ण ऋषिः पितरः पितामहाः परेऽवरे ते नः पान्तु ते नो ऽवन्त्वस्मिन्ब्रह्मन्नस्मिन्क्षत्त्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन्कर्मन्नस्या देवहूत्याम्। - तै.सं. ४.३.३.१

*द्वितीयचितावश्विन्याख्येष्टकाभिधानम् : सजूर्ऋतुभिः सजूर्विधाभिः सजूर्वसुभिः सजू रुद्रैः सजूरादित्यैः - - - - - - अग्नये त्वा वैश्वानरायाश्विनाऽध्वर्यू सादयतामिह त्वा। (इति पञ्चर्तव्या आश्विनीरनूपधाय) - तै.सं. ४.३.४.३

*सृष्टिशब्दाभिधेयेष्टकाभिधानम् : एकादशभिरस्तुवर्तवोऽसृज्यन्ताऽऽर्तवोऽधिपतिरासीत् त्रयोदशभिरस्तुवत मासा असृज्यन्त संवत्सरोऽधिपतिः आसीत् - तै.सं. ४.३.१०.१

*व्युष्टिनामकेष्टकाभिधानम् : त्रिंशत्स्वसार उप यन्ति निष्कृतं समानं केतुं प्रतिमुञ्चमानाः। ऋतूंस्तन्वते कवयः प्रजानतीर्मध्येछन्दसः परि यन्ति भास्वतीः। - तै.सं. ४.३.११.३

*ऋतूनां पत्नी प्रथमेयमाऽगादह्नां नेत्री जनित्री प्रजानाम्। एका सती बहुधोषो व्युच्छस्यजीर्णा त्वं जरयसि सर्वमन्यत् ॥ - तै.सं. ४.३.११.५

*याज्यानुवाक्याभिधानम् : पिप्रीहि देवां उशतो यविष्ठ विद्वां ऋतुर्ऋतुपते यजेह। - तै.सं. ४.३.१३.४

*भूयस्कृदादीष्टकाभिधानम् : यावा अयावा एवा ऊमाः सब्दः सगरः सुमेकः (इति सप्तर्तव्याः) - तै.सं. ४.४.७.२

*इन्द्रतन्वाख्येष्टकाभिधानम् : - - - - गोभिर्यज्ञं दाधार क्षत्त्रेण मनुष्यानश्वेन च रथेन च वज्र्यृतुभिः प्रभुः संवत्सरेण परिभूस्तपसाऽनाधृष्टः सूर्यः सन्तनूभिः। - तै.सं. ४.४.८.१

*ऋतव्याख्येष्टकाभिधानम् : मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू इषश्चोर्जश्च शारदावृतू सहश्च सहस्यश्च हैमन्तिकावृतू तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू अग्नेरन्तःश्लेषोऽसि कल्पेता द्यावापृथिवी कल्पन्तामाप ओषधीः - - - - - - येऽग्नयः समनसोऽन्तरा द्यावापृथिवी शैशिरावृतू अभिकल्पमाना इन्द्रमिव देवा अभि सं विशन्तु संयच्च प्रचेताश्चाग्नेः सोमस्य सूर्योग्रा च भीमा च पितृpणां यमस्येन्द्रस्य ध्रुवा च पृथिवी च - - - - - - - तै.सं. ४.४.११.१

*याज्यानुवाक्याभिधानम् : उग्रा दिशामभिभूतिर्वयोधाः शुचिः शुक्रे अहन्योजसीना। इन्द्राधिपतिः पिपृतादतोv नो महि क्षत्त्रं विश्वतो धारयेदम्। - - - - - - प्राची दिशां सहयशा यशस्वती विश्वे देवाः प्रावृषाऽह्नां सुवर्वती। इदं क्षत्त्रं दुष्टरमस्त्वोजोऽनाधृष्टं सहस्रियं सहस्वत्। - - - - - - - मित्रावरुणा शरदाऽह्नं चिकित्नू अस्मै राष्ट्राय महि शर्म यच्छतम्। - - - - -सम्राड्दिशां सहसाम्नी सहस्वत्यृतुर्हेमन्तो विष्ठया नः पिपर्तु। - - - - - - तै.सं. ४.४.१२.१

*अश्वस्तोमीयमन्त्राणामभिधानम् : यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषाः पर्यश्वं नयन्ति। अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञं देवेभ्यः प्रतिवेदयन्नजः। - तै.सं. ४.६.८.२

*अवशिष्टाश्वस्तोत्रमन्त्राभिधानम् : एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथर्तुः या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानां प्र जुहोम्यग्नौ। - तै.सं. ४.६.९.३

*वसोर्धाराद्यभिधानम् : - - - वैश्वानरश्च म ऋतुग्रहाश्च मे - तै.सं. ४.७.७.१

*वसोर्धाराद्यभिधानम् : तपश्च म ऋतुश्च मे व्रतं च मे - तै.सं. ४.७.९.१

*वाजप्रसवीयहोमाभिधानम् : वाजः पुरस्तादुत मध्यतो नो वाजो देवां ऋतुभिः कल्पयाति। (इति गवीधुकहोमाय) - तै.सं. ४.७.१२.२

*संभृतमृदो यज्ञभूमौ समाहरणम् : तस्माद्वायुप्रच्युता दिवो वृष्टिरीर्ते तस्मै च देवि वषडस्तु तुभ्यमित्याह षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव वृष्टिं दधाति तस्मात्सर्वानृतून्वर्षति यद्वषट्कुर्याद्यातयामाऽस्यवषट्कारः स्याद्यन्न वषट्कुर्याद्रक्षांसि यज्ञं हन्युर्वडित्याह परोक्षमेव वषट्करोति - - तै.सं. ५.१.५.२

*उखासंस्कारः :- जनयस्त्वेत्याह देवानां वै पत्नीः जनयस्ताभिरेवैनां पचति षड्भिः पचति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनां पचति - तै.सं. ५.१.७.३

*वह्निपशवः : समास्त्वाऽग्न ऋतवो वर्धयन्त्वित्याह समाभिरेवाग्निं वर्धयति ऋतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ५.१.८.५

*षड्भिर्दीक्षयति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं दीक्षयति सप्तभिर्दीक्षयति सप्त छन्दांसि - तै.सं. ५.१.९.१

*उख्यधारणम् : एकविँशतिर्वै देवलोका द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्यः एकविँश - तै.सं. ५.१.१०.३

*षडुद्यामं शिक्यं भवति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनमुद्यच्छते यद्द्वादशोद्यामं संवत्सरेणैव - तै.सं. ५.१.१०.५

*अश्वमेधसंबन्धिप्रयाजयाज्याभिधानम् : अश्वो घृतेन त्मन्या समक्त उप देवा ऋतुशः पाथ एतु। - तै.सं. ५.१.११.४

*उख्याग्निसंवपनम् : यत्संन्यूप्य विहरति तस्माद्ब्रह्मणा क्षत्त्रं व्येत्यृतुभिः वा एतं दीक्षयन्ति स ऋतुभिरेव विमुच्यो मातेव पुत्रं पृथिवी पुरीष्यमित्याहर्तुभिरेवैनं दीक्षयित्वर्तुभिर्वि मुञ्चति - तै.सं. ५.२.४.१

*क्षेत्रकर्षणम् : षड्गवेन कृषति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं कृषति यद्द्वादश गवेन संवत्सरेणैव - तै.सं. ५.२.५.२

*क्षेत्रे सिकतादिवापः :- षड्भिर्नि वपति षड्वा ऋतवः संवत्सरः संवत्सरोऽग्निर्वैश्वानरः - तै.सं. ५.२.६.१

*विशसनाभिधानम् : ऋतवस्त ऋतुधा परुः शमितारो वि शासतु। - तै.सं. ५.२.१२.१

*द्वितीयचितगत अश्विन्यादीष्टकाचतुष्टयाभिधानम् : ऋतव्या उप दधात्यृतूनां क्लृप्त्यै पञ्चोप दधाति पञ्च वा ऋतवो यावन्त एवर्तवस्तान्कल्पयति समानप्रभृतयो भवन्ति समानोदर्कास्तस्मात्समाना ऋतव एकेन पदेन व्यावर्तन्ते तस्मादृतवो व्यावर्तन्ते प्राणभृत उप दधात्यृतुष्वेव प्राणान्दधाति तस्मात्समानाः सन्त ऋतवो न जीर्यन्त्यथो प्र जन्यत्येवैनानेष वै वायुर्यत्प्राणो यदृतव्या उपदाय प्राणभृतः उपदधाति तस्मात्सर्वानृतूननु वायुरा वरीवर्ति - - - - - - यदेकधोपदध्यादेकमृतु वर्षेदनुपरिहारं सादयति तस्मात्सर्वानृतून्वर्षति - तै.सं. ५.३.१.१

*वृष्टिसन्यादीष्टकापञ्चकाभिधानम् : वृष्टिसनीरुप दधाति वृष्टिमेवाव रुन्धे यदेकधोपदध्यादेकमृतु वर्षेदनुपरिहारं सादयति तस्मात्सर्वानृतून्वर्षति - तै.सं. ५.३.१०.१

*भूयस्कृदादीष्टकाषट्काभिधानम् : - - - -पञ्चचितीकस्तस्मादेवमाहर्तव्या उप दधात्येतद्वा ऋतूनां प्रियं धाम यदृतव्या ऋतूनामेव प्रियं धामाव रुन्धे - तै.सं. ५.३.११.३

*ऋतव्यादीष्टकात्रयप्रोक्षणयोरभिधानम् : ऋतव्या उप दधात्यृतूनां क्लृप्त्यै द्वंद्वमुप दधाति तस्माद्द्वंद्वमृतवो - - - - - - - - अन्तःश्लेषणं वा एताश्चितीनां यदृतव्या यदृतव्या उपदधाति चितीनां विधृत्या - - - - - - - अथ षष्ठी चितिं चिनुते षड्वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठति - तै.सं. ५.४.२.१

*परिषेचनाद्यभिधानम् : तिस्र उत्तरा आहुतीर्जुहोति षट् सं पद्यन्ते षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं शमयति - तै.सं. ५.४.३.४

*परिषेचनाद्यभिधानम् : षट् संपद्यन्ते षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवास्य शुचं शमयति - तै.सं. ५.४.४.२

*समिदाधानादिविधिः :- षड्भिर्हरति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं हरति - तै.सं. ५.४.६.३

*वाजप्रसवीयाभिधानम् : षड्भिर्जुहोति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठति - तै.सं. ५.४.९.२

*काम्यचितीनामभिधानम् : षण्मार्जालीये षड्वा ऋतव ऋतवः खलु वै देवाः पितर ऋतूनेव देवान्पितॄन्प्रीणाति - तै.सं. ५.४.११.४

*द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविँश एष प्रजापतिः प्राजापत्योऽश्वः - तै.सं. ५.४.१२.२

*उपस्थानाद्यभिधानम् : ऋतुस्थायज्ञायज्ञियेन पुच्छमृतुष्वेव प्रति तिष्ठति - तै.सं. ५.५.८.१

*अश्वमेधशेषभूताष्टमपशुसंघविधिः :- ऋतूनां जहका - तै.सं. ५.५.१८.१

*दीक्षाविकल्पविधिः :- षड्रात्रीर्दीक्षितः स्यात्षड्वा ऋतवः संवत्सरः संवत्सरो विराड् - तै.सं. ५.६.७.१

*सप्तदश रात्रीर्दीक्षितः स्याद्द्वादश मासाः पञ्चर्तवः संवत्सरः संवत्सरो विराड् - तै.सं. ५.६.७.१ *

*प्रजापतिरग्निमचिनुतर्तुभिः संवत्सरं वसन्तेनैवास्य पूर्वाधर्मचिनुत ग्रीष्मेण दक्षिणं पक्षं वर्षाभिः पुच्छं शरदोत्तरं पक्षं हेमन्तेन मध्यं ब्रह्मणा वा अस्य तत्पूर्वार्धमचिनुत क्षत्त्रेण दक्षिणं पक्षं पशुभिः पुच्छं विशोत्तरं पक्षमाशया मध्यं य एवं विद्वानग्निं चिनुत ऋतुभिरेवैनं चिनुते - - - - - इयं वाव प्रथमा चितिरोषधयो वनस्पतय पुरीषमन्तरिक्षं द्वितीया वयांसि पुरीषमसौ तृतीया नक्षत्राणि पुरीषं यज्ञश्चतुर्थी दक्षिणा पुरीषं यजमानः पञ्चमी प्रजा पुरीषं -- - - - - - - संवत्सरो वै षष्ठी चितिर~ऋतवः पुरीषं षट् चितयो भवन्ति षट्पुरीषाणि - तै.सं. ५.६.१०.१

*ऋषभेष्टकाद्यभिधानम् : ग्रीष्मो हेमन्त उत नो वसन्तः शरद्वर्षाः सुवितं नो अस्तु। तेषामृतूनां शतशारदानां निवात एषामभये स्याम। - - - - - -ब्रह्मवादिनो वदन्ति यदर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सर ओषधीः पचन्त्यथ कस्मादन्याभ्यो देवताभ्य आग्रयणं निरुप्यत इत्येता हि तद्देवता उदजयन्यदृतुभ्यो निर्वपेद्देवताभ्यः समदं दध्यादाग्रयणं निरुप्यैता आहुतीर्जुहोतत्यर्धमासानेव मासानृतून्त्संवत्सरं प्रीणाति - तै.सं. ५.७.२.४

*व्रतचरणाद्यभिधानम् : यो वा अग्निमृतुस्थां वेदर्तुर्ऋतुरस्मै कल्पमान एति प्रत्यव तिष्ठति संवत्सरो वा अग्निः ऋतुस्थास्तस्य वसन्तः शिरो ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षो वर्षाः पुच्छं शरदुत्तरः पक्षो हेमन्तो मध्यं पूर्वपक्षाश्चितयोऽपरपक्षाः पुरीषमहोरात्राणीष्टका एष वा अग्निर्ऋतुस्था य एवं वेदर्तुर्ऋतुरस्मै कल्पमान एति - तै.सं. ५.७.६.५

*ऋतून्पृष्ठीभिर्दिवं पृष्ठेन - - - -तै.सं. ५.७.१७.१

*ओजो ग्रीवाभिः - - - - अहोरात्रयोर्द्वितीयोऽर्धमासानां तृतीयो मासां चतुर्थ ऋतूनां पञ्चमः संवत्सरस्य षष्ठः। - तै.सं. ५.७.१८.१

*- - - - -वातः प्राणश्चन्द्रमाः श्रोत्रं मासाश्चार्धमासाश्च पर्वाण्यृतवो ऽङ्गानि संवत्सरो महिमा - तै.सं. ५.७.२५.१

*क्षुरकर्मादिसंस्कृतस्य प्राग्वंशप्रवेशाभिधानम् : पाङ्क्तो यज्ञो यज्ञायैवैनं पवयति षड्भिः पवयति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं पवयति - तै.सं. ६.१.१.८

*वेद्यभिधानम् : तिस्र उपसद उपैति त्रय इमे लोका इमानेव लोकान्प्रीणाति षट्सं पद्यन्ते षड्वा ऋतव ऋतूनेव प्रीणाति - तै.सं. ६.२.३.४

*यूपखण्डनाभिधानम् : षडरत्निं प्रतिष्ठाकामस्य षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठति - तै.सं. ६.३.३.६

*सप्तदशान्वाह द्वादश मासाः पञ्चर्तवः स संवत्सरः संवत्सरं प्रजा अनु प्र जायन्ते - तै.सं. ६.३.७.१

*उपांशु ग्रहकथनम् : षड्भिरंशुभिः पवयति षड्वा ऋतव ऋतुभिरेवैनं पवयति - तै.सं. ६.४.५.७

*ऋतुग्रहकथनम् : यज्ञेन वै देवाः सुवर्गं लोकमायन्तेऽमन्यन्त मनुष्या नो ऽन्वाभविष्यन्तीति ते संवत्सरेण योपयित्वा सुवर्गं लोकमायन्तमृषय ऋतुग्रहैरेवानु प्राजानन्यदृतुग्रहा गृह्यन्ते सुवर्गस्य लोकस्य प्रज्ञात्यै - - - - - - सह प्रथमौ गृह्येते सहोत्तमौ तस्माद्वौद्वावृतू उभयतोमुखमृतुपात्रं भवति कः हि तद्वेद यत ऋतूनां मुखमृतुना प्रेष्येति षट्कृत्व आह षड्वा ऋतव ऋतूनेव प्रीणात्यृतुभिरिति चतुश्चतुष्पद एव पशून्प्रीणाति द्विः पुनर्ऋतुनाऽऽह द्विपद एव प्रीणात्यृतुना प्रेष्येति षट्कृत्व आहर्तुभिरिति चतुस्तस्माच्चतुष्पादः पशव ऋतूनुप जीवन्ति द्विः पुनर्ऋतुनाऽऽह तस्माद्विपादश्चतुष्पदः पशूनुप जीवन्त्यृतुना प्रेष्येति षट्कृत्वा आहर्तुभिरिति चतुर्द्विः पुनर्ऋतुनाऽऽहक्रमणमेव तत्सेतु यजमानः कुरुते सुवर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै नान्योऽन्यमनु प्रपद्येत यदन्योऽन्यमनुप्रपद्येतर्तुर्ऋतुमनु प्रपद्येतर्तवो मोहुकाः स्युः - तै.सं.  ६.५.३.१

*सुवर्गाय वा एते लोकाय गृह्यन्ते यदृतुग्रहा ज्योतिरिन्द्राग्नी यदैन्द्राग्नमृतुपात्रेण गृह्णाति ज्योतिरेवास्मा उपरिष्टाद्दधाति - तै.सं. ६.५.४.१

*मरुत्वतीयमाहेन्द्रग्रहकथनम् : तस्य वृत्रं जघ्नुष ऋतवोऽमुह्यन्त्स ऋतुपात्रेण मरुत्वतीयानगृहणात्ततो वै स ऋतून्प्राजानाद्यदृतुपात्रेण मरुत्वतीया गृह्यन्त ऋतूनां प्रज्ञात्यै - तै.सं. ६.५.५.१

*अग्नीधे ददात्यग्निमुखानेवर्तून्प्रीणाति ब्रह्मणे ददाति प्रसूत्यै - तै.सं. ६.६.१.५

*समिष्टयजुर्होमकथनम् : षड्ऋग्मियाणि जुहोति षड्वा ऋतव ऋतूनेव प्रीणाति - तै.सं. ६.६.२.१

*चतुरः प्रयाजान्यजति द्वावनूयाजौ षट्संपद्यन्ते षड्वा ऋतवः ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठति - तै.सं. ६.६.३.३

*षोडशिग्रहकथनम् : षडक्षराण्यति रेचयन्ति षड्वा ऋतव ऋतूनेव प्रीणाति - तै.सं. ६.६.११.५

*अतिरात्रविध्युन्नयनम् : यस्य त्रिणवमन्तर्यन्त्यृतूंश्च तस्य नक्षत्रियां च विराजमन्तर्यन्त्यpतुषु मे ऽप्यसन्नक्षत्रियायां च विराजीति खलु वै यज्ञेन यजमानो यजते - तै.सं. ७.१.३.२

*पञ्चरात्राभिधानम् : संवत्सरो वा इदमेक आसीत्सोऽकामयतर्तून्त्सृजेयेति स एतं पञ्चरात्रमपश्यत्तमाऽहरत्तेनायजत ततो वै स ऋतूनसृजत य एवं विद्वान्पञ्चरात्रेण यजते प्रैव जायते त ऋतवः सृष्टा न व्यावर्तन्त त एतं पञ्चरात्रमपश्यन्तमाऽहरन्तेनायजन्त ततो वै ते व्यावर्तन्त - - - - - - - पञ्चरात्रो भवति पञ्च वा ऋतवः संवत्सरः ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठत्यथो पञ्चाक्षरा पङ्क्तिः - तै.सं. ७.१.१०.४

*षड्रात्रकथनम् : षड्रात्रो भवति षड्वा ऋतवः षट्पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्य् ऋतुभिः संवत्सरं - तै.सं.  ७.२.१.१

*एकादशरात्रकथनम् : ऋतवो वै प्रजाकामाः प्रजां नाविन्दन्त तेऽकामयन्त प्रजां सृजेमहि प्रजामव रुन्धीमहि प्रजां विन्देमहि प्रजावन्तः स्यामेति त एतमेकादशरात्रमपश्यन्तमाऽहरन्तेनायजन्त - - - - - ऋतवोऽभवन्तदार्तवानामार्तवत्वमृतूनां वा एते पुत्रास्तस्मात् आर्तवा उच्यन्ते - - - - - पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट् पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ७.२.६.१

*एकादशरात्रो भवति पञ्च वा ऋतव आर्तवाः पञ्चर्तुष्वेवाऽऽर्तवेषु संवत्सरे प्रतिष्ठाय प्रजामव रुन्धतेऽतिरात्रावभितो भवतः - तै.सं. ७.२.६.३

*द्वादशरात्रकथनम् : ते देवा एतं वैश्वानरं पर्यौहन्त्सुवर्गस्य लोकस्य प्रभूत्या ऋतवो वा एतेन प्रजापतिमयाजयन्तेष्वार्ध्नोदधि तदृध्नोति ह वा ऋत्विक्षु य एवं विद्वान्द्वादशाहेन यजते तेऽस्मिन्नैच्छन्त स रसमह वसन्ताय प्रायच्छत् यवं ग्रीष्मायोषधीर्वर्षाभ्यो व्रीहीञ्शरदे माषतिलौ हेमन्तशिशिराभ्यां तेनेन्द्रं प्रजापतिरयाजयत्ततो वा इन्द्र इन्द्रोऽभवत्- तै.सं. ७.२.१०.१

*अहीनद्वादशाहकथनम् : किं पष्ठेनेति षड्ऋतूनिति - तै.सं. ७.३.२.१

*सप्तदशरात्रकथनम् : पञ्चाहो भवति पञ्च वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्त्यथा पञ्चाक्षरा पङ्क्तिः - तै.सं. ७.३.८.१

*एकविंशतिरात्रकथनम् : त एकविँशतिरात्रमासीरन्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविँश एतावन्तो वै देवलोकाः - तै.सं. ७.३.१०.५

*द्वितीय चतुर्विंशतिरात्रकथनम् : - - - - - - श्रीर्हि मनुष्यस्य देवी संसज्ज्योतिरतिरात्रो भवति सुर्वगस्य लोकस्यानुख्यात्यै पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः संवत्सरस्तं मासा अर्धमासा ऋतवः प्रविश्य देवीं संसदमगच्छन् - तै.सं. ७.४.२.२

*त्रिंशद्रात्रकथनम् : ज्योतिरतिरात्रो भवति सुवर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट्पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ७.४.३.२

*त्रयस्त्रिंशद्रात्रकथनम् : पञ्चाहा भवन्ति पञ्च वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्ति - तै.सं. ७.४.५.२

*षट्त्रिंशद्रात्रकथनम् : षडहा भवन्ति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठन्ति चत्वारो भवन्ति चतस्रो दिशो दिक्ष्वेव प्रति तिष्ठन्ति - - - - देवता एव पृष्ठैरव रुन्धते पशूञ्छन्दोमैरोजो वै वीर्यं पृष्ठानि पशवश्छन्दोमा - तै.सं. ७.४.६.२

*एकादशरात्रकथनम् : ऋतवो वै प्रजाकामाः प्रजां नाविन्दन्त तेऽकामयन्त प्रजां सृजेमहि प्रजामव रुन्धीमहि प्रजां विन्देमहि प्रजावन्तः स्यामेति त एतमेकादशरात्रमपश्यन्तमाऽहरन्तेनायजन्त - - - - - ऋतवोऽभवन्तदार्तवानामार्तवत्वमृतूनां वा एते पुत्रास्तस्मात् आर्तवा उच्यन्ते - - - - - पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट् पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ७.२.६.१

*एकादशरात्रो भवति पञ्च वा ऋतव आर्तवाः पञ्चर्तुष्वेवाऽऽर्तवेषु संवत्सरे प्रतिष्ठाय प्रजामव रुन्धतेऽतिरात्रावभितो भवतः - तै.सं. ७.२.६.३

*द्वादशरात्रकथनम् : ते देवा एतं वैश्वानरं पर्यौहन्त्सुवर्गस्य लोकस्य प्रभूत्या ऋतवो वा एतेन प्रजापतिमयाजयन्तेष्वार्ध्नोदधि तदृध्नोति ह वा ऋत्विक्षु य एवं विद्वान्द्वादशाहेन यजते तेऽस्मिन्नैच्छन्त स रसमह वसन्ताय प्रायच्छत् यवं ग्रीष्मायोषधीर्वर्षाभ्यो व्रीहीञ्शरदे माषतिलौ हेमन्तशिशिराभ्यां तेनेन्द्रं प्रजापतिरयाजयत्ततो वा इन्द्र इन्द्रोऽभवत्- तै.सं. ७.२.१०.१

*अहीनद्वादशाहकथनम् : किं षष्ठेनेति षड्ऋतूनिति - तै.सं. ७.३.२.१

*सप्तदशरात्रकथनम् : पञ्चाहो भवति पञ्च वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्त्यथा पञ्चाक्षरा पङ्क्तिः - तै.सं. ७.३.८.१

*एकविंशतिरात्रकथनम् : त एकविँशतिरात्रमासीरन्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविँश एतावन्तो वै देवलोकाः - तै.सं. ७.३.१०.५

*द्वितीय चतुर्विंशतिरात्रकथनम् : - - - - - - श्रीर्हि मनुष्यस्य देवी संसज्ज्योतिरतिरात्रो भवति सुर्वगस्य लोकस्यानुख्यात्यै पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः संवत्सरस्तं मासा अर्धमासा ऋतवः प्रविश्य देवीं संसदमगच्छन् - तै.सं. ७.४.२.२

*त्रिंशद्रात्रकथनम् : ज्योतिरतिरात्रो भवति सुवर्गस्य लोकस्यानुख्यात्यै पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट्पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - तै.सं. ७.४.३.२

*त्रयस्त्रिंशद्रात्रकथनम् : पञ्चाहा भवन्ति पञ्च वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्ति - तै.सं. ७.४.५.२

*षट्त्रिंशद्रात्रकथनम् : षडहा भवन्ति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठन्ति चत्वारो भवन्ति चतस्रो दिशो दिक्ष्वेव प्रति तिष्ठन्ति - - - - देवता एव पृष्ठैरव रुन्धते पशूञ्छन्दोमैरोजो वै वीर्यं पृष्ठानि पशवश्छन्दोमा - तै.सं. ७.४.६.२

*एकोनपञ्चाशद्रात्रकथनम् : पृष्ठ्यः षडहो भवति षड्वा ऋतवः षट्पृष्ठानि पृष्ठैरेवर्तूनन्वारोहन्त्यृतुभिः संवत्सरं - - - - - - - - - षडाश्विनानि भवन्ति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठन्ति - तै.सं.  ७.४.७.२

*मासगताहकथनम् : षडहेन यन्ति षड्वा ऋतव ऋतुष्वेव प्रति तिष्ठन्ति उभयतोज्योतिषा यन्त्युभयत एव सुवर्गे लोके प्रतितिष्ठन्तो यन्ति द्वौ षडहौ भवतः - तै.सं. ७.४.११.३

*संवत्सरसत्रकथनम् : षडहा भवन्ति षड्वा ऋतवः संवत्सर ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रति तिष्ठन्ति गौश्चाऽऽयुश्च मध्यतः स्तोमौ भवतः संवत्सरस्यैव तन्मिथुनं मध्यतः दधति प्रजननाय ज्योतिरभितो भवति विमोचनमेव - - - तै.सं. ७.५.१.४

*ऋतुभिर्वा एष छन्दोभिः स्तोमैः पृष्ठैश्चेतव्य इत्याहुर्यदेतानि हवींषि निर्वपत्यृतुभिरेवैनं छन्दोभिः स्तोमैः पृष्ठैश्चिनुते - तै.सं. ७.५.१५.२

*- - - पञ्चदशिनोऽर्धमासास्त्रिंशिनो मासाः क्लृप्ता ऋतवः शान्तः संवत्सरः। - तै.सं. ७.५.२०.१

*उषा वा अश्वस्य मेध्यस्य शिरः - - - - पर्वाणि मासाः संधानान्यृतवोऽङ्गानि संवत्सर आत्मा - - - - तै.सं. ७.५.२५.१

*ऋतुभिर्वर्धतु क्षयमित्यृतवो वै सोमस्य राज्ञो राजम्भ्रातरो यथा मनुष्यस्य तैरेवैनं तत्सहाऽवगमयति - ऐतरेय ब्राह्मण १.१३

*सप्तदशो वै प्रजापतिर्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्तावान्संवत्सरः। संवत्सरः प्रजापतिः - ऐ.ब्रा. १.१६

*ते वा एभ्यो लोकेभ्यो नुत्ता असुरा ऋतूनश्रयन्त ते देवा अब्रुवन्नुपसद एवोपायामेति तथेति त इमास्तित्रः सतीरुपसदो द्विर्द्विरेकैकामुपायंस्ताः षट् सम्पद्यन्त षड् वा ऋतवस्तान्वा ऋतवस्तान्वा ऋतुभ्योऽनुदन्त। ते वा ऋतुभ्यो नुत्ता असुरा मासानश्रयन्त ते देवा अब्रुवन्नुपसद एवोपायामेति तथेति त इमाः षट् सतीरुपसदो द्विर्द्विरेकैकामुपायंस्ता द्वादश समपद्यन्त- - - - ऐ.ब्रा. १.२३

*यां देवा एषु लोकेषु यामृतुषु यां मासेषु यामर्धमासेषु यामहोरात्रयोर्विजितिं व्यजयन्त तां विजितिं विजयते य एवं वेद - ऐ.ब्रा. १.२३

*एकविंशतिः संपद्यन्त एकविंशो वै प्रजापतिर्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः - ऐ.ब्रा. १.३०

*प्राणा वा ऋतुयाजास्तद्यदृतुयाजैश्चरन्ति प्राणानेव तद्यजमाने दधति। षड्ऋतुनेति यजन्ति प्राणमेव तद्यजमाने दधति। चत्वार ऋतुभिरिति यजन्त्यपानमेव तद्यजमाने दधति। द्विर्ऋतुनेत्युपरिष्टाद्व्यानमेव तद्यजमाने दधति। स वा अयं प्राणस्त्रेधा विहितः प्राणोऽपानो व्यान इति तद्यदृतुन ऋतुभिर्ऋतुनेति यजति प्राणानां संतत्यै प्राणानामव्यवच्छेदाय। प्राणा वा ऋतुयाजा नर्तुयाजानामनु वषट्कुर्यादसंस्थिता वा ऋतव एकैक एव। यदृतुयाजानामनु वषट्कुर्यादसंस्थितानृतून्संस्थापयेत्संस्था वा एषा यदनुवषट्कारो य एनं तत्र ब्रूयादसंस्थितानृतून्समतिष्ठिपद्दुःषमं भविष्यतीति शश्वत्तथा स्यात्तस्मान्नर्तुयाजानामनु वषट्कुर्यात् - ऐ.ब्रा.  २.२९

*षट्पदं तूष्णींशंसं शंसति षड्वा ऋतव ऋतूनेव तत्कल्पयत्यृतूनप्येति - ऐ.ब्रा.  २.४१

*षळिति वषट्करोति षड्वा ऋतव ऋतूनेव तत्कल्पत्यृतून्प्रतिष्ठापयत्यृतून्वै प्रतितिष्ठत इदं सर्वमनु प्रतितिष्ठति यदिदं किंच - - - - -वौषळिति वषट्करोत्यसौ वाव वावृतवः षळेतमेव तदृतुष्वादधात्यृतुषु प्रतिष्ठापयति यादृगिव वै देवेभ्यः करोति तादृगिवास्मै देवाः कुर्वन्ति - ऐ.ब्रा.  ३.६

*अथ हैते पोत्रीयाश्च नेष्ट्रीयाश्च चत्वार ऋतुयाजाः षळृचः सा विराड्दशिनी तद्विराजि यज्ञं दशिन्यां प्रतिष्ठापयन्ति - ऐ.ब्रा. ३.५०

*प्रथमं षळहमुपयन्ति षळहानि भवन्ति षड्वा ऋतव ऋतुश एव तत्संवत्सरमाप्नुवन्त्यृतुशः संवत्सरे प्रतितिष्ठन्तो यन्ति। द्वितीयं षळहमुपयन्ति द्वादशाहानि भवन्ति द्वादश वै मासा मासश एव तत्संवत्सरमाप्नुवन्ति- - - - - - - ऐ.ब्रा.  ४.१६

*गवामयनम् : अथ याः समापयिष्यामः संवत्सरमित्यासत तासामश्रद्धया शृङ्गाणि (न) प्रावर्तन्त ता एतास्तूपरा ऊर्जं त्वसुन्वंस्तस्मादु ताः सर्वानृतून्प्राप्त्वोत्तरमुत्तिष्ठन्त्यूर्जं ह्यसुन्वन्सर्वस्य वै गावः प्रेमाणं सर्वस्य चारुतां गताः - ऐ.ब्रा. ४.१७

*प्रजापतियज्ञो वा एष यद्द्वादशाहः - - - - सोऽब्रवीदृतूंश्च मासांश्च याजयत मा द्वादशाहेनेति तं दीक्षयित्वाऽनपक्रमं गमयित्वाऽब्रुवन्देहि नु नोऽथ त्वा याजयिष्याम इति तेभ्य इषमूर्जं प्रायच्छत्सैषोर्गृतुषु च मासेषु च निहिता ददतं वै ते तमयाजयंस्तस्माद्ददद्याज्यः प्रतिगृह्णन्तो वै ते तमयाजयंस्तस्मात्प्रतिगृह्णता याज्यम् - ऐ.ब्रा. ४.२५

*ते वा इम ऋतवश्च मासाश्च गुरव इवामन्यन्त द्वादशाहे प्रतिगृह्य तेऽब्रुवन्प्रजापतिं याजय नो द्वादशाहेनेति स तथेत्यब्रवीत्ते वै दीक्षध्वमिति ते पूर्वपक्षा पूर्वेऽदीक्षन्त ते पाप्मानमपाहत - - - ऐ.ब्रा. ४.२५

*स वा अयं प्रजापतिः संवत्सर ऋतुषु च मासेषु च प्रत्यतिष्ठत्ते वा इम ऋतवश्च मासाश्च प्रजापतावेव संवत्सरे प्रत्यतिष्ठंस्त एतेऽन्योऽन्यास्मिन्प्रतिष्ठिता - ऐ.ब्रा. ४.२५

*दीक्षा वै देवेभ्योऽपाक्रामत्तां वासन्तिकाभ्यां मासाभ्यामन्वयुञ्जत तां वासन्तिकाभ्यां मासाभ्यां नोदाप्नुवंस्ता ग्रैष्माभ्यां तां वार्षिकाभ्यां तां शारदाभ्यां तां हैमन्तिकाभ्यां मासाभ्यामन्वयुञ्जत तां हैमन्तिकाभ्यां मासाभ्यां नोदाप्नुवंस्तां शैशिराभ्यां मासाभ्यामन्वयुञ्जत तां शैशिराभ्यां मासाभ्यामाप्नुवन् - ऐ.ब्रा. ४.२६

*न वै देवा अन्योन्यस्य गृहे वसन्ति नर्तुर्ऋतोर्गृहे वसतीत्याहुस्तद्यथायथमृत्विज ऋतुयाजान्यजन्त्यसंप्रदायं तद्यथर्त्वृतूoन्कल्पयन्ति यथायथं जनताः। तदाहुर्नर्तुप्रेषैः प्रेषितव्यं नर्तुप्रैषैर्वषट्कृत्यं वाग्वा ऋतुप्रैषा आप्यते वै वाक्षष्ठेऽग्नीति। यदृतुप्रैषैः प्रेष्येयुर्यदृतुप्रैषैर्वषट्कुर्युर्वाचमेव तदाप्तां श्रान्तामृक्णवहीं वहराविणीमृच्छेयुः - ऐ.ब्रा. ५.९

*अथ ब्रह्मोद्यं वदन्ति अग्निर्गृहपतिरिति हैक आहुः सोऽस्य लोकस्य गृहपतिः - - - - -असौ वै गृहपतिर्योऽसौ तपत्येष पतिर्ऋतवो गृहाः। येषां वै गृहपतिं देवं विद्वान्गृहपतिर्भवति राध्नोति स गृहपती राध्नुवन्ति ते यजमानाः - ऐ.ब्रा.५.२५

*तद्वै षळृचं षड्वा ऋतव ऋतूनामाप्त्यै। तदुपरिष्टात्संपातानां शंसत्याप्त्वैव तत्स्वर्गं लोकं यजमाना अस्मिंलोके प्रतितिष्ठन्ति - ऐ.ब्रा. ६.२०

*अथ हायं धूमेन सहोर्ध्व उत्क्रामति। तस्य हैतस्यर्तवो द्वारपाः। तेभ्यो हैतेन प्रब्रुवीत। विचक्षणाद् ऋतवो रेत आभृतम् अर्धम स्यं प्रसुताद् पित्र्यावतः। - - - - - समं तद् विदे प्रति तद् विदे ऽहं तं मा ऋतवो ऽमृत आनयध्वम् ॥ इति। तं हर्तव आनयन्ते। यथा विद्वान् विद्वांसं यथा जानन्तम् एवं हैनम् ऋतव आनयन्ते। तं हात्यर्जयन्ते। स हैतम् आगच्छति तपन्तम्। - - - - - - -तस्मिन् हात्मन् प्रतिपत्त ऋतवस् संपलाय्य पद्गृहीतम् अपकर्षन्ति। तस्य हाहोरात्रे लोकम् आप्नुतः। - जैमिनीय ब्राह्मण १.१८

*तस्य हैतस्य देवस्याहोरात्रे अर्धमासा मासा ऋतवस् संवत्सरो गोप्ता य एष तपति। अहोरात्रे प्रचरे। तं हर्तूनाम् एको यः कूटहस्तो रश्मिना प्रत्यवेत्य पृच्छति को ऽसि पुरुषेति। - जै.ब्रा. १.४६

*ते अत्र मासे शरीरं चासुश् च संगच्छाते। तं हर्तूनाम् एको यः कूटहस्तो रश्मिना प्रत्यवेत्य पृच्छति को ऽसि पुरुषेति। तं प्रतिब्रूयात् - विचक्षणाद् ऋतवो रेत आभृतम् अर्धमास्यं प्रसुतात् पित्र्यावतः। - जै.ब्रा. १.४९

*अहर् मे पिता रात्रिर् माता ॥ सत्यम् अस्मि। ते मर्तवो ऽमृत आनयध्वम् इति। तं हर्तव आनयन्ते। यथा विद्वान् विद्वांसं यथा जानन् जानन्तम् एवं हैनम् ऋतव आनयन्ते। - जै.ब्रा. १.५०

*पङ्क्तिं गायति। ऋतवो वै पङ्क्तिः। तस्यै षड् अक्षराणि द्योतयति। षड् वा ऋतवः। ऋतुष्व~ एव तत् प्रतितिष्ठति। - जै.ब्रा. १.१०२

*पङ्क्त्यां प्रस्तुतायां गायत्रम् एव गायन्न् ऋतून् मनसा गच्छेत्। परोक्षेणैवैनान् तद् रूपेण गायति। - जै.ब्रा. १.१०४

*षड् अक्षराणि स्तोभति। षड् वा ऋतवः। ऋतुष्व~ एव तत् प्रतितिष्ठति। अथो षड् वै छन्दांसि। - जै.ब्रा. १.१३१

*स नवभिर् एकविंशैर् अमूर् ऊर्ध्वा उदृभ्नोत्। ताः परेण दिवं पर्यौहत्। ता एताः पर्यूढा ऋतुशो वर्षन्तीस् तिष्ठन्ति। - जै.ब्रा. १.२३७

*स यो ह स मृत्युस् संवत्सर एव सः। तस्य हर्तव एव मुखानि। तद् यद्वै किं च मि|यते न हास्यानृतौ मि|यते य एवं वेद। ऋतुषु वाव प्रजायते प्रजया पशुभिर् य एवं वेद। - जै.ब्रा. १.२४६

*ता एता नव बहिष्पवमान्यः। ताष् षड् बृहत्यः। षड् उ मृत्योर् मुखान्य् ऋतव एव। - - - - स बृहत्यैवर्तोर् मुखम् अपिदधाति। बृहत्य् ऋतोर् बृहत्य् ऋतोः। स यथा समेन विषमम् अतीत्य प्रत्यवेक्षेतैवम् एवैतं मृत्युं प्राङ् अतीत्य प्रत्यवेक्षते। - जै.ब्रा. १.२४७

*स हैवं विद्वान् अहोरात्रयोर् अर्धमासशो मासश ऋतुशस् संवत्सरश एतस्मिन् सर्वस्मिन्न् आत्मानम् उपसंधाय तं मृत्युं तरति यस् स्वर्गे लोके। - जै.ब्रा. १.२५२

*अथ यथो संवत्सरं भृत्वा गर्भं जनयेद् ऋतौ पक्वा ओषधी प्रचिनुयुस् तासां कामान् कुर्वीरन्न् एवं तद् यद् उपरिष्टात् संवत्सरस्य पृष्ठान्य् उपयन्ति। - जै.ब्रा. २.३

*द्वया ह वै पूर्व ऋतव आसुः - प्राणर्तवो देवर्तवः। अथेम एतर्ह्य् ऋतव एव। प्राण एव वसन्त आस। वाग् ग्रीष्मः। चक्षुर् वर्षाः। आर्द्रम् इव वै चक्षुर्, आर्द्र इव वर्षाः। श्रोत्रं शरत्। मनो हेमन्तः। या इमाः पुरुष आपस् स शिशिरः। अथ देवर्तवः। वायुर् एव वसन्त आस। अग्निर् ग्रीष्मः। पर्जन्यो वर्षाः। आदित्यश् शरत्। चन्द्रमा हेमन्तः। या अमूर् दिव्या आपस् स शिशिरः। स यस् स प्राणो वसन्त आस, यो वायुर् वसन्तस् , सो ऽयम् एतर्हि वसन्तः। - - - - - - - जै.ब्रा. २.५१

*त एते षड् ऋतवष् षड् दिशः। त एत ऋतवो दिग्भिर् मिथुना - वसन्तेनेयं प्राची दिङ् मिथुना, ग्रीष्मेणेयं, वर्षाभिर् इयं, शरदेयं, हेमन्तेनासौ, शिशिरेणेयम्। - - - - - - अथर्तून् अन्व् आरोहति। य ऋतव ऋतुभ्यो ऽध्य् आसन् पुरा सूर्याचन्द्रमसश् च पूर्वे। येभिः प्रजानन् प्रदिशो दिशश् च तान अन्व् आरोहामि तपसा ब्रह्मणा च। इति प्राणर्तून् अन्व् आरोहति। य ऋतवश् चन्द्रमसो ऽधि पूर्व ऋचं वाचं ब्रह्माणम् आबभूवुः। इत्य् एवंविदं ह्य् आभवन्। येभिः प्रजानन् प्रदिशो दिशश् च तान् अन्व् आरोहामि तपसा ब्रह्मणा च। इति देवर्तून् अन्व् आरोहति। य एक ऋतुस् त्रय ऋतवश् च ये षड् चतुर्विंशतिर् ऋतवो ये द्वादश सप्तदशान्य् उत विंशतिश् च तान् अन्व् आरोहामि तपसा ब्रह्मणा च। इतीमान् ऋतून् अन्व् आरोहति। स एवम् एतैस् तैर् ऋतुभिः परिगृहीतः। - - - - - - जै.ब्रा. २.५२

*एकविंशं च वा पञ्च प्राणं चादित्यं च। अथ ये द्वे अक्षरे ते बृहद्रथन्तर, ते अहोरात्रे। सो ऽर्धमासस् स मासस् स ऋतुस् स संवत्सरः। - - - - - कथं यजमानः प्राणैश् छन्दांस्य् अप्येति। छन्दोभि स्तोमान्, - - - - - - - अर्धमासेन मासं, मासेनर्तुम्, ऋतुना संवत्सरम्। - जै.ब्रा. २.६०

*स यत् संवत्सरभृता वा संवत्सरभृता वाग्निना चित्येन यजेत। स एताभ्यां यजेत। सद्यो हैवास्य संवत्सर ऋतुशो मासशो ऽर्धमासशो ऽन्विष्टो भवति। तद् यत् पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्त्य् - ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवस् - तेनर्तुशः। - जै.ब्रा. २.१०७

*तस्य पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्ति। ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवः। संवत्सरः प्रजननम्। - जै.ब्रा.  २.१०८

*स यस् संवत्सरभृता वा संवत्सरभृता वाग्निना चित्येन यजेत स एतेन यजेत। सद्यो हैवास्य संवत्सर ऋतुशो ऽर्धमासशो मासशो रात्रिशो ऽन्विष्टो भवति। तद् यत् पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्त्य् - ऋतवो वै पृष्ठानि, संवत्सर ऋतवस् - तेनर्तुशः। - जै.ब्रा.  २.१०९

*अथो आहु स्वर्गकाम एवैनेन यजेतेति। तस्य पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्त्य् - ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवः। - जै.ब्रा.  २.१६२

*स यस् संवत्सरभृता वा संवत्सरभृता वाग्निना चित्येन यजेत, स एतेन यजेत। सद्यो हैवास्य संवत्सर ऋतुशो मासशो ऽर्धमासशो रात्रिशो ऽन्विष्टो भवति। तद् यत् पृष्ठ्यस्य षडहस्य स्तोमा भवन्त्य् - ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवस् - तेनर्तुशः। - जै.ब्रा. २.१६३

*अथैत ऋतुष्टोमाः। ऋतवो वा अकामयन्त समानेन यज्ञेन समानीम् ऋद्धिम् ऋध्नुयामावान्नाद्यं रुन्धीमहि, पुनर्नवाः पुनर्नवा स्यामेति। त एतान् यज्ञान् अपश्यन्। तान् आहरन्त। तैर् अयजन्त। स वसन्तः प्रथमो ऽयजत। स एतेनायजत। स एताम् एवर्द्धिम् आर्ध्नोद् एतद् अन्नाद्यम् अवारुन्द्धैतां पुनर्नवतां यैषा वसन्तस्य। अथ शिशिर ऐक्षत - येनैवेमे पूर्वा इष्ट्वारात्सुस् तेनो एवाहं यजा इति। स तेनैवायजत। स एताम् एवार्द्धिम् आर्ध्नोद् एतद् अन्नाद्यम् अवारुन्द्धैतां पुनर्नवतां यैषा शिशिरस्य। - - - - जै.ब्रा. २.२११

*- - - - -स हर्तूनाम् एवैको भवति। ऋतून् एवाप्येत्य् अक्षय्यं हास्याव्यवच्छिन्नं सुकृतं भवति। पांक्तो यज्ञो, ये पांक्ताः पशवो, यत् पांक्तम् अन्नाद्यं, ये पंचर्तवो, यत् किं च पञ्च पञ्च तस्यैषा सर्वस्यर्द्धिस् तस्योपाप्तिः। तेषाम् उ एकैकस्य षष्टि षष्टि स्तोत्र्या भवन्ति। तावतीर् ऋतो रात्रयः। तेनर्तून् नातिष्टुवन्ति। - - - - - तेषु यान्य् ऋतुनिधनानि यान्य् ऋतुनिधनानि सामानि तान्य् अवकल्पयन्ति स्वर्ग्याणि - जै.ब्रा. २.२१३

*- - - - - - युवस् ते यज्ञस्याज्यम् असि धीष्णस् त्व् ऋतुस्था मनस्था मनसो ग्रामस्यामाविशनाभृत् ते ऽस्मि - - - जै.ब्रा. २.२५९

*अनृतौ वा एष प्रतिष्ठितो यत् षडहः। पञ्चाहो वै ऋतौ प्रतिष्ठित इति। वसन्तो वै प्रथम ऋतूनां, ग्रीष्मो द्वितीयो, वर्षास् तृतीयाश्, शरच् चतुर्थी, हेमन्तः पञ्चमश, शिशिरष षष्ठः। स एष श्रेष्ठ ऋतूनां यद्धेमन्तः पीवगुः पीवत्सः। तम् अनु पञ्चाहः प्रतितिष्ठन्न् एति। अथैष परिचक्ष्यैव यच् छिशिरः कृशगुः कृशपुरुषः। तम् अनु षडहः प्रतितिष्ठति। स य श्रेष्ठ ऋतूनां हेमन्तस् तस्य प्रतिष्ठाम् अनु प्रतितिष्ठन्तो ऽयामेति - जै.ब्रा.  २.३५६

*एतं वा एत आरभ्य यन्तीन्द्रं प्रजापतिं विप्रं पदम् ऋतुपात्रं विश्वान् देवान् स्वर्गं लोकम्। - जै.ब्रा. २.३७३

*- - - - स षडहो ऽभवत्। तस्मात् षडहात् षड् ऋतून् प्रजनयत्। षट्स्व~ ऋतुषु प्रत्यतिष्ठन्। तद् यद् एष षडहो भवति षड् एवैतस्माद् ऋतून् प्रजन्यन्ति, षट्स्व~ ऋतुषु प्रतितिष्ठन्ति। - जै.ब्रा.  २.३७५

*एतद् ध वै संवत्सरस्य व्याप्तं यद् ऋतवो यन् मासा यद् ऋतुसन्धयः। तद् उ वा आहुर् य ऋतवो ये मासा य ऋतुसन्धयो ऽहोरात्रे वाव तद् भवतः। - जै.ब्रा. २.४२२

*स (प्रजापतिः) तपो ऽतप्यत। स आत्मन्न ऋत्वियम् अपश्यत्। ततस् त्रीन् ऋतून् असृजतेमान् एव लोकान्। यद् ऋत्वियात् असृजत तद् ऋतूनाम् ऋतुत्वम्। यद् ऋत्वियात् अजनयत् तस्माद् ऋत्विज इत्य् आख्यायन्ते। स यत् प्रथमम् अतप्यत ततो ग्रीष्मम् असृजत। तस्मात् स बलिष्ठं तपति। यद्द्वितीयम् अतप्यत ततो वर्षा असृजत। तस्मात् ता उभयं कुर्वन्त्य् आ च तपन्ति वर्षन्ति च। यत् तृतीयम् अतप्यत ततो हेमन्तम् असृजत। तस्मात् स शीततम इव। त्रीन् सतो ऽभ्यतप्यत। तान् द्वेधा व्यौहत्। ते षड् ऋतवो ऽभवन्। स ग्रीष्माद् एव वसन्तं निरमिमीत, वर्षाभ्यश् शरदं, हेमन्ताच् छिशिरम्। तस्माद् एत ऋतूनाम् उपश्लेषा इव निर्मिता हि। - जै.ब्रा. ३.१

*तद् ऋतवः प्रसुते पश्चेवान्वबुध्यन्त - प्र हैभ्यो ऽदाद् इति। तम् अब्रुवन्न् - अस्मभ्यम् अपि दक्षिणां प्रयच्छेति। तेभ्यो ऽन्नाद्यं प्रायच्छत्। - - - - - तद् एतद् यथर्त्व् अन्नाद्यं पच्यते। - - - - प्रत्य् ऋतवो ऽगृह्णन् न मासाः प्रतिग्रहम् अकामयन्त। तस्मान् मासा आख्याततरा इव। आख्याततर उप ह्य् एवाप्रतिगृह्णन् भवति। तस्माद् ऋतवो ज्यायांसः। - जै.ब्रा. ३.२

*यो वै विराजम् ऋतुप्रतिष्ठितां वेदर्तूrन् विराजि प्रतिष्ठितान्, गच्छति प्रतिष्ठाम् अवान्नाद्यं रुन्द्धे। त्रिंशदक्षरा विराट्। षड् ऋतवः। एतद् वै विराड् ऋतुषु प्रतितिष्ठत्य्, ऋतवो विराजि। - जै.ब्रा. ३.५

*अथ महानाम्नयः। प्राणा वा अग्रे सप्त। तेभ्य एतां सप्तपदां शक्वरीं निरमिमीत। - - - - सप्तपदायै षट्पदाम् ऋतून् संवत्सरम्। ऋतुभ्य आत्मानं परिदत्ते य एवं वेद। - जै.ब्रा. ३.११०

*ऋतुमन्ति पञ्चाहान्य् अनृतु षष्ठम्। तद् यद्धोत्रा ऋतुयाजान् नाना वषट्कुर्वन्ति तेनैव षष्ठम् अहर् ऋतुमत् क्रियते। तासु वारवन्तीयम्। - - - - -अग्निर् वा एष वैश्वानरो यत् पृष्ठ्यष् षडहः। ऋतवो वै पृष्ठानि। संवत्सर ऋतवः। - जै.ब्रा. ३.१५४

*आधानप्रकरणम् : वसन्ता ब्राह्मणोऽग्निमादधीत। वसन्तो वै ब्राह्मणस्यर्तुः। स्व एवैनमृतावाधाय। ब्रह्मवर्चसी भवति। मुखं वा एतदृतूनाम्। यद्वसन्तः। - - - - ग्रीष्मे राजन्य आदधीत। ग्रीष्मो वै राजन्यस्यर्तुः। स्व एवैनमृतावाधाय। इन्द्रियावी भवति। शरदि वैश्य आदधीत। शरद्वै वैश्यस्यर्तुः। स्व एवैनमृतावाधाय। पशुमान्भवति। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.२.६

*अग्नीधे ददाति। अग्निमुखानेवर्तून्प्रीणाति। उपबर्हणं ददाति। रूपाणामवरुद्ध्यै। - तै.ब्रा. १.१.६.९

*येऽग्नयः समनसः। अन्तरा द्यावापृथिवी। वासन्तिकावृतू अभिकल्पमानाः। इन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु। - तै.ब्रा. १.२.१.१८

*- - - - -ते देवा विजित्य। अग्नीषोमावन्वैच्छन्। तेऽग्निमन्वविन्दन्नृतुषूत्सन्नम्। तस्य विभक्तीभिस्तेजस्विनीस्तनूरवारुन्धत। - - - - - - अनाग्नेयं वा एतत्क्रियते। यत्समिधस्तनूनपातमिडो बर्हिर्यजति। - तै.ब्रा. १.३.१.१

*वाजपेय ब्राह्मणे पिण्डपितृpयज्ञः :- त्रिर्निदधाति। षट् संपद्यन्ते। षड् वा ऋतवः। ऋतूनेव प्रीणाति। तूष्णीं मेक्षणमादधाति। अस्ति वा हि षष्ठ ऋतुर्न वा। देवान्वै पितृqन्प्रीतान्। मनुष्याः पितरोऽनु प्रपिपते। तिस्र आहुतीर्जुहोति। त्रिर्निदधाति। षट् संपद्यन्ते। षड् वा ऋतवः। ऋतूनेव देवान्पितॄन्प्रीणाति। तान्प्रीतान्। मनुष्याः पितरोऽनु प्रपिपते। - तै.ब्रा. १.३.१०.३

*नक्षत्रेष्टका :- - - - अङ्गेभ्य उक्थ्यम्। आयुषो ध्रुवम्। प्रतिष्ठाया ऋतुपात्रे। - तै.ब्रा. १.५.४.२

*अग्निहोत्रे उपयुक्त हविः संस्काराः :- द्विर्जुहोति। द्विर्निमार्ष्टि। द्विः प्राश्नाति। षट् संपद्यन्ते। षड् वा ऋतवः। ऋतूनेव प्रीणाति। - तै.ब्रा. २.१.४.५

*प्रजापतिर्वै दश होता। चतुर्होता पञ्चहोता। षड्ढोता सप्तहोता। ऋतवः संवत्सरः। प्रजाः पशव इमे लोकाः। - तै.ब्रा. २.२.३.२

*- - - - सो (इन्द्रो)ऽब्रवीत्। किं भागधेयमभिजनिष्य इति। ऋतून्संवत्सरम्। प्रजाः पशून्। इमाँल्लोकानित्यब्रुवन्। - तै.ब्रा. २.२.३.४

*संवत्सरो वै पञ्चहोता। संवत्सरः सुवर्गो लोकः। संवत्सर एवर्तुषु प्रतिष्ठाय। सुवर्गं लोकमेति। - तै.ब्रा. २.२.३.६

*द्वादश मासाः पञ्चर्तवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविँशः। एतस्मिन्वा एष श्रितः। - तै.ब्रा. २.२.३.७

*प्रायश्चित्ती वाग्घोvतेत्यृतुमुख ऋतुमुखे जुहोति। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। कल्पन्तेऽस्मा ऋतवः। क्लृप्ता अस्मा ऋतव आयन्ति। - तै.ब्रा. २.३.२.२

*केशनिवर्तनं : चन्द्रमा न्यवर्तयत। सोऽहोरात्रैरर्धमासैर्मासैर्ऋतुभिः संवत्सरेणापुष्यत्। - तै.ब्रा. २.३.३.२

*ययोरिदं विश्वं भुवनमाविवेश। ययोरानन्दो निहितो महश्च। शुनासीरावृतुभिः संविदानौ। इन्द्रवन्तौ हविरिदं जुषेथाम्। - तै.ब्रा. २.४.५.७

*नवं सोम जुषस्व नः। पीयूषस्येह तृप्णुहि। यस्ते भाग ऋता वयम्। - - - - नवं हविर्जुषस्व नः। ऋतुभिः सोम भूतमम्। तदङ्ग प्रतिहर्य नः। राजन्त्सोम स्वस्तये। - तै.ब्रा. २.४.८.२

*प्र हव्यानि घृतवन्त्यस्मै। हर्यश्वाय भरता सजोषाः। इन्द्रर्तुभिर्ब्रह्मणा वावृधानः। शुनासीरी हविरिदं जुषस्व। - तै.ब्रा. २.५.८.३

*पितृpयज्ञविषयक मन्त्राः :- अग्निष्वात्तानृतुमतो हवामहे। नराशंसे सोमपीथं य आशुः। ते नो अर्वन्तः सुहवा भवन्तु। शं नो भवन्तु द्विपदे शं चतुष्पदे। - तै.ब्रा. २.६.१६.१

*वान्यायै दुग्धे जुषमाणाः करम्भम्। उदीराणा अवरे परे च। अग्निष्वात्ता ऋतुभिः संविदानाः। इन्द्रवन्तो हविरिदं जुषन्ताम्। - तै.ब्रा. २.६.१६.२

*ऐन्द्रस्य पशोः वपायाः पुरोनुवाक्या : वसन्तेनर्तुना देवाः। वसवस्त्रिवृता स्तुतम् रथंतरेण तेजसा। हविरिन्द्रे वयो दधुः ॥ वपायाज्या : ग्रीष्मेण देवा ऋतुना रुद्राः पञ्चदशे स्तुतम्। बृहता यशसा बलम्। हविरिन्द्रे वयो दधुः। पुरोडाशस्य पुरोनुवाक्या : वर्षाभिर्ऋतुनाऽऽदित्याः। स्तोमे सप्तदशे स्तुतम्। वैरूपेण विशौजसा। हविरिन्द्रे वयो दधुः। पुरोडाशस्य याज्या : शारदेनर्तुना देवाः। एकविँश ऋभवः स्तुतम्। वैराजेन श्रिया श्रियम्। हविरिन्द्रे वयो दधुः। हविषः पुरोनुवाक्या : हेमन्तेनर्तुना देवाः। मरुतस्त्रिणवे स्तुतम्। बलेन शक्वरी सहः। हविरिन्द्रे वयो दधुः। हविषो याज्या : शैशिरेणर्तुना देवाः। त्रयस्त्रिंशेऽमृतं स्तुतम्। सत्येन रेवतीः क्षत्त्रम्। हविरिन्द्रे वयो दधुः। - तै.ब्रा. २.६.१९.१

*अग्निष्टुदाख्ये क्रतौ ग्रहाणां ग्रहकाले पुरोरुक्। आश्विन् ग्रहस्य पुरोरुक् : अश्विना पिबतं सुतम्। दीद्यग्नी शुचिव्रता। ऋतुना यज्ञवाहसा। - तै.ब्रा. २.७.१२.१

*चन्द्रमस इष्टिः :- चन्द्रमा वा अकामयत। अहोरात्रानर्धमासान्मासानृतून्त्संवत्सरमाप्त्वा१। चन्द्रमसः सायुज्यं सलोकतामाप्नुयामिति। स एतं चन्द्रमसे प्रतीदृश्यायै पुरोडाशं पञ्चदशकपालं निरवपत्। - तै.ब्रा. ३.१.६.१

*त्रीन्परिधीन्परिदधाति। ऊर्ध्वे समिधावादधाति। अनूयाजेभ्यः समिधमतिशिनष्टि। षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतूनेव प्रीणाति। - तै.ब्रा. ३.३.७.२

*इष्टिहौत्रस्य मन्त्राः :- विद्वां ऋतूंर्ऋतुपते यजेह। - तै.ब्रा. ३.५.७.५

*पत्नी संयाजः :- वियन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम्। - तै.ब्रा. ३.५.१२.१

*दशम प्रयाज : - - - - स्वदात्स्वधितिर्ऋतुथाऽद्य देवो देवेभ्यो हव्याऽवाड्वेत्वाज्यस्य होतर्यज। - तै.ब्रा. ३.६.२.२

*उपावसृत्तमन्या समञ्जन्। देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः। स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन। - तै.ब्रा. ३.६.३.४

*यत्पाकत्रा मनसा दीनदक्षा न। यज्ञस्य मन्वते मर्तासः। अग्निष्टद्धोता क्रतुविद्विजानन्। यजिष्ठो देवां ऋतुशो यजाति। - तै.ब्रा. ३.७.११.५

*तदाहुः। द्वादशारत्नी रशना कर्तव्या त्रयोदशारत्नीरिति। ऋषभो वा एष ऋतूनाम्। यत्संवत्सरः। तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपम्। ऋषभ एष यज्ञानाम्। - तै.ब्रा. ३.८.३.३

*एकविँशतिर्वै देवलोकाः। द्वादश मासाः पञ्चर्तवः। त्रय इमे लोकाः। असावादित्य एकविँशः। - - - - - भुवो देवानां कर्मणेत्यृतुदीक्षा जुहोति। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। - तै.ब्रा. ३.८.१७.२

*मृताश्वोपचारः :- त्रिः पुनः परियन्ति। षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभिरेवैनं धुवते। - तै.ब्रा. ३.९.६.२

*त्रिरात्रस्य द्वितीयेऽहनि पृष्ठस्तोत्रे शाक्वरं साम : एकविँशात्प्रतिष्ठाया ऋतूनन्वारोहति। ऋतवो वै पृष्ठानि ॥ ऋतवः संवत्सरः। ऋतुष्वेव संवत्सरे प्रतिष्ठाय। देवता अभ्यारोहति। - तै.ब्रा. ३.९.९.१

*ऋतुभिर्वा एष व्यृध्यते। योऽश्वमेधेन यजते। पिशङ्गास्त्रयो वासन्ता इत्यृतुपशूनालभते। ऋतुभिरेवाऽऽत्मानं समर्धयति। - तै.ब्रा. ३.९.१०.३

*वैश्वसृज चयनाभिधानम् : आर्तवा उपगातारः। सदस्या ऋतवोऽभवन्। अर्धमासाश्च मासाश्च। चमसाध्वर्यवोऽभवन्। - तै.ब्रा. ३.१२.९.४

*एकं हि शिरो नाना मुखे। कृत्स्नं तदृतुलक्षणम्। उभयतः सप्तेन्द्रियाणि जल्पितं त्वेव दिह्यते। - तैत्तिरीय आरण्यक १.२.३

*ऋतुर्ऋतुना नुद्यमानः। विननादाभिधावः। षष्टिश्च त्रिंशका वल्गाः। शुक्लकृष्णौ च षाष्टिकौ। सारागवस्त्रैर्जरदक्षः। वसन्तो वसुभिः सह। संवत्सरस्य सवितुः। प्रैषकृत्प्रथमः स्मृतः। - - - - -एतदेव विजानीयात्। प्रमाणं कालपर्यये। विशेषणं तु वक्ष्यामः। ऋतूनां तन्निबोधत। शुक्लवासा रुद्रगणः। ग्रीष्मेणाऽऽवर्तते सह। निजहन्पृथिवीं सर्वाम्। ज्योतिषाऽप्रतिख्येन सः। विश्वरूपाणि वासांसि। आदित्यानां निबोधत। संवत्सरीणं कर्मफलम्। वर्षाभिर्ददतां सह। अदुःखो दुःखचक्षुरिव। तद्मा पीत इव दृश्यते। शीतेनाव्यथयन्निव। रुरुदक्ष इव दृश्यते।ह्लादयते ज्वलतश्चैव। शाम्यतश्चास्य चक्षुषी। या वै प्रजा भ्रंश्यन्ते। संवत्सरात्ता भ्रंश्यन्ते। याः प्रतितिष्ठन्ति। संवत्सरे ताः प्रतितिष्ठन्ति। वर्षाभ्य इत्यर्थः। - तै.आ. १.३.२

*अक्षिदुःखोत्थितस्यैव। विप्रसन्ने कनीनिके। आङ्क्ते चाद्गणं नास्ति। ऋभूणां तन्निबोधत। कनकाभानि वासांसि। अहतानि निबोधत। अन्नमश्नीत मृज्मीत। अहं वो जीवनप्रदः। एता वाचः प्रयुज्यन्ते। शरद्यत्रोपदृश्यते। अभिधून्वन्तोऽभिघ्नन्त इव। वातवन्तो मरुद्गणाः। अमुतो जेतुमिषुमुखमिव। संनद्धाः सह ददृशे ह। अपध्वस्तैर्वस्तिवर्णैरिव। विशिखासः कपर्दिनः। अक्रुद्धस्य योत्स्यमानस्य। क्रुद्धस्येव लोहिनी। हेमतश्चक्षुषी विद्यात्। अक्ष्णयोः क्षिपणोरिव। दुर्भिक्षं देवलोकेषु। मनूनामुदकं गृहे। एता वाचः प्रवदन्तीः। वैद्युतो यान्ति शैशिरीः। - तै.आ. १.४.१

*अत्यूर्ध्वाक्षोऽतिरश्चात्। शिशिरः प्रदृश्यते। नैव रूपं न वासांसि। न चक्षुः प्रतिदृश्यते। अन्योन्यं तु न हिंस्रातः। सतस्तद्देवलक्षणम्। लोहितोऽक्ष्णि शार शीर्ष्णिः। सूर्यस्योदयनं प्रति।- - - - - - - - तस्मै सर्व ऋतवो नमन्ते मर्यादाकरत्वात्प्र पुरोधाम्। - तै.आ. १.६.१

*नैवंविदुषाऽऽचार्यान्तेवासिनौ। अन्योन्यस्मै द्रुह्याताम्। यो द्रुह्यति। भ्रश्यते स्वर्गाल्लोकात्। इत्यृतुमण्डलानि। सूर्यमण्डलान्याख्यायिकाः। - तै.आ. १.६.३

*तदप्याम्नायः। दिग्भ्राज ऋतून्करोति। - तै.आ. १.७.५

*नानालिङ्गत्वादृतूनां नानासूर्यत्वम् - तै.आ. १.७.६

*आरुणकेतुकमग्निं चेतुम् संवत्सर व्रतस्य नियमाः :- - - - - चन्द्रमसे नक्षत्रेभ्यः। ऋतुभ्यः संवत्सराय। वरुणायारुणायेति व्रतहोमाः। - तै.आ. १.३२.२

*षड्रात्रीर्दीक्षितो भवति षड्वा ऋतवः संवत्सरः संवत्सरादेवाऽऽत्मानं पुनीते - तै.आ. २.८.१

*चन्द्रमा षड्ढोता। स ऋतून्कल्पयाति। स मे ददातु प्रजां पशून्पुष्टिं यशः। ऋतवश्च मे कल्पन्ताम्। - तै.आ. ३.७.३

*येनर्तवः पञ्चधोत क्लृप्ताः। उत वा षड्धा मनसोत क्लृप्ताः। तं षड्ढोतारमृतुभिः कल्पमानम्। ऋतस्य पदे कवयो निपान्ति। - तै.आ. ३.११.५

*अध्वर्युरग्निमभिमृशति : - - - -इद्वसरोऽसि वत्सरोऽसि। तस्य ते वसन्तः शिरः। ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षः। वर्षा पुच्छम्। शरदुत्तरः पक्षः। हेमन्तो मध्यम्। पूर्वपक्षाश्चितयः। अपरपक्षाः पुरीषम्। अहोरात्राणीष्टकाः। तस्य ते मासाश्चार्धमासाश्च कल्पन्ताम्। ऋतवस्ते कल्पन्ताम्। संवत्सरस्ते कल्पताम्। - तै.आ. ४.१९.१

*त्रिः पुनः परियन्ति। षट्संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठन्ति। यो वै घर्मस्य प्रियां तनुवमाक्रामति - - - तै.आ. ५.४.१२

*षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभ्य एव यज्ञस्य शिरोऽवरुन्धे। - तै.आ. ५.६.२

*अत्र प्रावीर्मधुमाध्वीभ्यां मधुमाधूचीभ्यामित्याह। वासन्तिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। समग्निरग्निना गतेत्याह। ग्रैष्मावैवास्मा ऋतू कल्पयति। समग्निरग्निना गतेत्याह। अग्निर्ह्येवैषोऽग्निना संगच्छते। - - - - -धर्ता दिवो विभासि रजसः पृथिव्या इत्याह। वार्षिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। हृदे त्वा मनसे त्वेत्याह। शारदावेवास्मा ऋतू कल्पयति।- - - - - विश्वासां भुवां पत इत्याह। हैमन्तिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। देवश्रूस्त्वं देव घर्म देवान्पाहीत्याह। शैशिरावेवास्मा ऋतू कल्पयति। - तै.आ. ५.६.५

*इडा आह्वान : षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभिरेवैनामाह्वयति। - तै.आ. ५.७.२

*त्रिः पुनः पर्येति। षट् संपद्यन्ते। षड्वा ऋतवः। ऋतुभिरेवास्य शुचं शमयति। - तै.आ. ५.९.६

*धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्यादित्याह। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। - तै.आ. ५.९.१०

*यथाऽहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभिर्यन्ति क्लृप्ताः। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम्। - तै.आ. ६.१०.१

*सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि। कला मुहूर्ताः काष्ठाश्चाहोरात्राश्च सर्वशः। अर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरश्च कल्पताम्। स आपः प्रदुघे उभे इमे अन्तरिक्षमथो सुवः। - तै.आ. १०.१.२

*षष्ठी गायति। तस्या द्वे द्वे अक्षरे उदासं गायत्या षड्भ्योऽक्षरेभ्यः। षडृतव ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठति। - षड्विंश ब्राह्मण २.१.२८

*बहिष्पवमाने धूर्गानं : या षष्ठी तां पङ्क्तिमागां गायंस्तस्या द्वे द्वे अक्षरे उदासं गायत्याषड्भ्योऽक्षरेभ्यः। षडpतवः ऋतुष्वेव प्रतितिष्ठति। - षड्विंश ब्राह्मण २.२.१३

*तस्य ह वा एतस्य संवत्सरस्य साम्नोऽहोरात्राणि हिंकारोऽर्धमासाः प्रस्तावो मासा आदिर्ऋतव उद्गmथः पौर्णमास्यः प्रतिहारोऽष्टका उपद्रवोऽमावास्या निधनम्। - षड्विंश ब्राह्मण ३.४.२२

*तस्य ह वा एतस्य संवत्सरस्य साम्नो वसन्तो हिंकारो ग्रीष्मः प्रस्तावो वर्षा उद्गmथः शरत् प्रतिहारो हेमन्तो निधनम्। तस्माद्धेमन्तं प्रजा निधनकृता इवासते निधनरूपमेवैतर्हि। - षड्विंश ब्राह्मण ३.४.२३

*तस्यर्तवः शरीरम्। शिरः संवत्सरः। वेदा रूपाणि। संवत्सर एव प्रतितिष्ठति। य एवं वेद। - षड्विंश ब्राह्मण ५.४.१८

*षळृचं भवति षड्वा ऋतव ऋतूनामाप्त्यै। - ऐतरेय आरण्यक १.३.८

*इन्द्र सोमं पिब ऋतुना ऽऽत्वा विशन्त्विन्दवः। मत्सरासस्तदोकसः ॥ मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद् यज्ञं पुनीतन। यूयं हि ष्ठा सुदानवः। अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना। त्वं हि रत्नधा असि ॥ अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु। परि भूष पिब ऋतुना ॥ ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु। तवेद्धि सख्यमस्तृतम् ॥ युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम्। ऋतुना यज्ञमाशाथे ॥ - - - - - - द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत। नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत ॥ यत् त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे। अध स्मा नो ददिर्भव ॥ अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता। ऋतुना यज्ञवाहसा ॥ गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि। देवान् देवयते यज ॥ - ऋग्वेद  १.१५.१-१२

*वयश्चित् ते पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि। उषः प्रारनन्नृतूँरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥ - ऋ. १.४९.३

*को अग्निमीट्टे हविषा घृतेन स्रुचा यजाता ऋतुभिर्ध्रुवेभिः। कस्मै देवा आ वहानाशु होम को मंसते वीतिहोत्रः सुदेवः ॥ - ऋ.  १.८४.१८

*यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषाः पर्यश्वं नयन्ति। अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञं देवेभ्यः प्रतिवेदयन्नजः ॥ - ऋ. १.१६२.४

*एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथ ऋतुः। या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानां प्र जुहोम्यग्नौ ॥ - ऋ. १.१६२.१९

*त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम्। विश्वमेको अभि चष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम् ॥ - ऋ. १.१६४.४४

*त्वमीशिषे वसुपते वसूनां त्वं मित्राणां मित्रपते धेष्ठः। इन्द्र त्वं मरुद्भिः सं वदस्वाध प्राशान ऋतुथा हवींषि ॥ - ऋ. १.१७०.५

*दैव्या होतारा प्रथमा विदुष्टर ऋजु यक्षतः समृचा वपुष्टरा। देवान् यजन्तावृतुथा समञ्जतो नाभा पृथिव्या अधि सानुषु त्रिषु ॥ - ऋ. २.३.७

*ऋतुर्जनित्री तस्या अपस्परि मक्षू जात आविशद् यासु वर्धते। तदाहना अभवत्पिप्युषी पयों ऽशोः पीयूषं प्रथमं तदुक्थ्यम् ॥ - ऋ. २.१३.१

*वि मच्छ्रथाय रशनामिवाग ऋध्याम ते वरुण खामृतस्य। मा तन्तुश्छेदि वयतो धियं मे मा मात्रा शार्यपसः पुर ऋतोः ॥ - ऋ.  २.२८.५

*मन्दस्व होत्रादनु जोषमन्धसो ऽध्वर्यवः स पूर्णां वष्ट्यासिचम्। तस्मा एतं भरत तद्वशो ददिर्होत्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥ यमु पूर्वमहुवे तमिदं हुवे सेदु हव्यो ददिर्यो नाम पत्यते। अध्वर्युभिः प्रस्थितं सोम्यं मधु पोत्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥ मेद्यन्तु ते वह्नयो येभिरीयसे ऽरिषण्यन् वीळयस्वा वनस्पते। आयूया धृष्णो अभिगूर्या त्वं नेष्ट्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥ - ऋ.  २.३७.१-३

*जोष्यग्ने समिधं जोष्याहुतिं जोषि ब्रह्म जन्यं जोषि सुष्टुतिम्। विश्वेभिर्विश्वाँ ऋतुना वसो मह उशन् देवाँ उशतः पायया हविः ॥ - ऋ.  २.३७.६

*पुनः समव्यद्विततं वयन्ती मध्या कर्तोन्यदधाच्छक्म धीरः। उत् संहायास्थाद् व्यृतूँरदर्धररमतिः सविता देव आगात् ॥ - ऋ. २.३८.४

*प्रदक्षिणिदभि गृणन्ति कारवो वयो वदन्त ऋतुथा शकुन्तयः। उभे वाचौ वदति सामगा इव गायत्रं च त्रैष्टुभं चानु राजति ॥ - ऋ. २.४३.१

*अग्निर्नेता भग इव क्षितीनां दैवीनां देव ऋतुपा ऋतावा। स वृत्रहा सनयो विश्ववेदाः पर्षद् विश्वाति दुरिता गृणन्तम् ॥ - ऋ. ३.२०.४

*उत ऋतुभिर्ऋतुपाः पाहि सोममिन्द्र देवेभिः सखिभिः सुतं नः। याँ आभजो मरुतो ये त्वा ऽन्वहन् वृत्रमदधुस्तुभ्यमोजः ॥ - ऋ.  ३.४७.३

ऋतुभिः मरुद्भिः "देवेभिः देवैः – साभा.

*विदानासो जन्मनो वाजरत्ना उत ऋतुभिर्ऋभवो मादयध्वम्। सं वो मदा अग्मत सं पुरंधिः सुवीरामस्मे रयिमेरयध्वम् ॥ - ऋ.  ४.३४.२

*सजोषा इन्द्र वरुणेन सोमं सजोषाः पाहि गिर्वणो मरुद्भिः। अग्रेपाभिर्ऋतुपाभिः सजोषा ग्नास्पत्नीभी रत्नधाभिः सजोषाः ॥ - ऋ.  ४.३४.७

*आगन् देव ऋतुभिर्वर्धतु क्षयं दधातु नः सविता सुप्रजामिषम्। स नः क्षपाभिरहभिश्च जिन्वतु प्रजावन्तं रयिमस्मे समिन्वतु ॥ - ऋ.  ४.५३.७

*कया नो अग्न ऋतयन्नृतेन भुवो नवेदा उचथस्य नव्यः। वेदा मे देव ऋतुपा ऋतूनां नाहं पतिं सनितुरस्य रायः ॥ - ऋ. ५.१२.३

*त्वमुत्साँ ऋतुभिर्बद्बधानाँ अरंह ऊधः पर्वतस्य वज्रिन्। अहिं चिदुग्र प्रयुतं शयानं जघन्वाँ इन्द्र तविषीमधत्थाः ॥ - ऋ.  ५.३२.२

*एवा हि त्वामृतुथा यातयन्तं मघा विप्रेभ्यो ददतं शृणोमि। किं ते ब्रह्माणो गृहते सखायो ये त्वाया निदधुः काममिन्द्र ॥ - ऋ.  ५.३२.१२

*उत ग्ना व्यन्तु देवपत्नीरिन्द्राण्यग्नाय्यश्विनी राट्। आ रोदसी वरुणानी शृणोतु व्यन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम् ॥ - ऋ. ५.४६.८

*स इत् तन्तुं स वि जानात्योतुं स वक्त्वान्यृतुथा वदाति। य ईं चिकेतदमृतस्य गोपा अवश्चरन् परो अन्येन पश्यन् ॥ - ऋ. ६.९.३

*त्वं ह नु त्यददमायो दस्यूँरेकः कृष्टीरवनोरार्याय। अस्ति स्विन्नु वीर्यं तत् त इन्द्र न स्विदस्ति तदृतुथा वि वोचः ॥ - ऋ. ६.१८.३

*विश्वे देवा ऋतावृध ऋतुभिर्हवनश्रुतः। जुषन्तां युज्यं पयः ॥ - ऋ. ६.५२.१०

*य ईं राजानावृतुथा विदधद् रजसो मित्रो वरुणश्चिकेतत्। गम्भीराय रक्षसे हेतिमस्य द्रोघाय चिद् वचस आनवाय ॥ - ऋ. ६.६२.९

*देवहितिं जुगुपुर्द्वादशस्य ऋतुं नरो न प्र मिनन्त्येते। संवत्सरे प्रावृष्यागतायां तप्ता घर्मा अश्नुवते विसर्गम् ॥ - ऋ. ७.१०३.९

*स्तोता यत् ते अनुव्रत उक्थान्यृतुथा दधे। शुचिः पावक उच्यते सो अद्बुतः ॥ - ऋ. ८.१३.१९

*जुषाणो अङ्गिरस्तमेमा हव्यान्यानुषक्। अग्ने यज्ञं नय ऋतुथा ॥ - ऋ. ८.४४.८

*परि धामानि यानि ते त्वं सोमासि विश्वतः। पवमान ऋतुभिः कवे ॥ - ऋ. ९.६६.३

*अभि प्रियाणि पवते पुनानो देवो देवान् त्स्वेन रसेन पृञ्चन्। इन्दुर्धर्माण्यृतुथा वसानो दश क्षिपो अव्यत सानो अव्ये ॥ - ऋ. ९.९७.१२

*पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ठ विद्वाँ ऋतूँर्ऋतुपते यजेह। ये दैव्या ऋत्विजस्तेभिरग्ने त्वं होतॄणामस्यायजिष्ठः ॥ - ऋ.  १०.२.१

*आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनु प्रवोळ्हुम्। अग्निर्विद्वान् त्स यजात् सेदु होता सो अध्वरान् त्स ऋतून् कल्पयाति ॥ - ऋ.  १०.२.३

*यद्वो वयं प्रमिनाम व्रतानि विदुषां देवा अविदुष्टरासः। अग्निष्टद्विश्वमा पृणाति विद्वान् येभिर्देवाँ ऋतुभिः कल्पयाति ॥ यत् पाकत्रा मनसा दीनदक्षा न यज्ञस्य मन्वते मर्त्यासः। अग्निष्टद्धोता क्रतुविद्विजानन् यजिष्ठो देवाँ ऋतुशो यजाति ॥ - ऋ.  १०.२.४-५

*स्वयं यजस्व दिवि देव देवान् किं ते पाकः कृणवदप्रचेताः। यथायज ऋतुभिर्देव देवानेवा यजस्व तन्वं सुजात ॥ - ऋ.  १०.७.६

*वृषा वृष्णे दुदुहे दोहसा दिवः पयांसि यह्वो अदितेरदाभ्यः। विश्वं स वेद वरुणो यथा धिया स यज्ञियो यजतु यज्ञियाँ ऋतून् ॥ - ऋ.  १०.११.१

*यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथ ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥ - ऋ.  १०.१८.५

*कथा त एतदहमा चिकेतं गृत्सस्य पाकस्तवसो मनीषाम्। त्वं नो विद्वाँ ऋतुथा वि वोचो यमर्धं ते मघवन् क्षेम्या धूः ॥ - ऋ. १०.२८.५

*युवां मृगेव वारणा मृगण्यवो दोषा वस्तोर्हविषा नि ह्वयामहे। युवं होत्रामृतुथा जुह्वते नरेषं जनाय वहथः शुभस्पती ॥ - ऋ. १०.४०.४

*आ रोदसी अपृणादोत मध्यं पञ्च देवाँ ऋतुशः सप्तसप्त। चतुस्त्रिंशता पुरुधा वि चष्टे सरूपेण ज्योतिषा विव्रतेन ॥ - ऋ. १०.५५.३

*पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीळन्तौ परि यातो अध्वरम्। विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुनः ॥ - ऋ. १०.८५.१८

*आ नो द्रप्सा मधुमन्तो विशन्त्विन्द्र देह्यधिरथं सहस्रम्। नि षीद होत्रमृतुथा यजस्व देवान् देवापे हविषा सपर्य ॥ - ऋ. १०.९८.४

*एतान्यग्ने नवतिं सहस्रा सं प्र यच्छ वृष्ण इन्द्राय भागम्। विद्वान् पथ ऋतुशो देवयानानप्यौलानं दिवि देवेषु धेहि ॥ - ऋ. १०.९८.११

*अयं दशस्यन् नर्येभिरस्य दस्मो देवेभिर्वरुणो न मायी। अयं कनीन ऋतुपा अवेद्यमिमीताररुं यश्चतुष्पात्। - ऋ. १०.९९.१०

*उपावसृज त्मन्या समञ्जन् देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन ॥ - ऋ. १०.११०.१०

*नहि स्थूर्यृतुथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे संगमेषु। गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः ॥ - ऋ. १०.१३१.३

*समानां मासामृतुभिष्ट्वा वयं संवत्सरस्य पयसा पिपर्मि। इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामहृणीयमानाः। - अथर्ववेद १.३५.४

*समास्त्वाग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयो यानि सत्या। सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्वा आ भाहि प्रदिशश्चतस्रः ॥ - अ. २.६.१

*आ यातु मित्र ऋतुभिः कल्पमानः संवेशयन् पृथिवीमुस्रियाभिः। अथास्मभ्यं वरुणो वायुरग्निर्बृहद् राष्ट्रं संवेश्यं दधातु। - अ. ३.८.१

*ऋतून् यज ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्। समाः संवत्सरान् मासान् भूतस्य पतये यजे ॥ ऋतुभ्यष्ट्वार्तवेभ्यो माद्भ्यः संवत्सरेभ्यः। धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे ॥ - अ. ३.१०.९-१०

*उपावसृज त्मन्या समञ्जन् देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि। वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन ॥ - अ. ५.१२.१०

*अग्निः सूर्यश्चन्द्रमा भूमिरापो द्यौरन्तरिक्षं प्रदिशो दिशश्च। आर्तवा ऋतुभिः संविदाना अनेन मा त्रिवृता पारयन्तु ॥ - अ. ५.२८.२

*ऋतुभिष्ट्वार्तवैरायुषे वर्चसे त्वा। संवत्सरस्य तेजसा तेन संहनु कृण्मसि ॥ - अ. ५.२८.१३

*स विश्वा प्रति चाक्लृप ऋतूंरुत सृजते वशी। यज्ञस्य वय उत्तिरन् ॥ - अ. ६.३६.२

*अहं विवेच पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त साकम्। अहं सत्यमनृतं यद्वदाम्यहं दैवीं परि वाचं विशश्च ॥ अहं जजान पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त सिन्धून्। अहं सत्यमनृतं यद्वदामि यो अग्नीषोमावजुषे सखाया ॥ - अ. ६.६१.२-३

*उत ग्ना व्यन्तु देवपत्नीरिन्द्राण्यग्नाय्यश्विनी राट्। आ रोदसी वरुणानी शृणोतु व्यन्तु देवीर्य ऋतुर्जनीनाम् ॥ - अ. ७.५१.२

*पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम्। विश्वान्यो भुवना विचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥ - अ. ७.८६.१

*दिशश्चतस्रोऽश्वतर्यो देवरथस्य पुरोडाशाः शफ अन्तरिक्षमुद्धिः। द्यावापृथिवी पक्षसी ऋतवोऽभीशवोऽन्तर्देशाः किंकरा वाक् परिरथ्यम् ॥ - अ. ८.८.२२

*को विराजो मिथुनत्वं प्र वेद क ऋतून् क उ कल्पमस्याः। क्रमान् को अस्याः कतिधा विदुग्धान् को अस्या धाम कतिधा व्युष्टीः ॥ - अ. ८.९.१०

*पञ्च व्युष्टीरनु पञ्च दोहा गां पञ्चनाम्नीमृतवोऽनु पञ्च। पञ्च दिशः पञ्चदशेन क्लृप्तास्ता एकमूर्ध्नीरभि लोकमेकम् ॥ - अ. ८.९.१५

*षडाहुः शीतान् षडु मास उष्णानृतुं नो ब्रूत यतमोऽतिरिक्तः। सप्त सुपर्णाः कवयो नि षेदुः सप्त च्छन्दांस्यनु सप्त दीक्षाः ॥ सप्त होमाः समिधो ह सप्त मधूनि सप्तर्तवो ह सप्त। सप्ताज्यानि परि भूतमायन् ताः सप्तगृध्रा इति शुश्रुमा वयम् ॥ - अ. ८.९.१७-१८

*अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकाद् विप्रो विप्रस्य सहसो विपश्चित्। इष्टं पूर्तमभिपूर्तं वषट्कृतं तद् देवा ऋतुशः कल्पयन्तु ॥ - अ. ९.५.१३

*यो वै नैदाघं नामर्तुं वेद। एष वै नैदाघो नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ यो वै कुर्वन्तं नामर्तुं वेद। कुर्वतींकुर्वतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्त। एष वै कुर्वन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ यो वै संयन्तं नामर्तुं वेद। संयतींसंयतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वै संयन्नामर्तुर्यदजः पञ्जाwदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ - अ. ९.५.३१-३३

*यो वै पिन्वन्तं नामर्तुं वेद। पिन्वतीपिन्वतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वै पिन्वन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्जाwदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति। यो वा उद्यन्तं नामर्तुं वेद। उद्यतीमुद्यतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वा उद्यन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ यो वा अभिभुवं नामर्तुं वेद। अभिभवन्तीमभिभवन्तीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वा अभिभूर्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति। - अ. ९.५.३४-३६

*त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम्। विश्वमन्यो अभिचष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम् ॥ - अ. ९.१५.२६

*ऋतवस्तमबध्नतार्तवास्तमबध्नत। संवत्सरस्तं बद्ध्वा सर्वं भूतं वि रक्षति ॥ - अ. १०.६.१८

*क्वार्धमासाः क्व यन्ति मासाः संवत्सरेण सह संविदानाः। यत्र यन्त्यृतवो यत्रार्तवाः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ - अ. १०.७.५

*अग्ने चरुर्यज्ञियस्त्वाध्यरुक्षच्छुचिस्तपिष्ठस्तपसा तपैनम्। आर्षेया दैवा अभिसंगत्य भागमिमं तपिष्ठा ऋतुभिस्तपन्तु ॥ - अ. ११.१.१६

*बार्हस्पत्य ओदनम् : ऋतवः पक्तार आर्तवाः समिन्धते। चरुं पञ्चबिलमुखं घर्मोभीन्धे। - अ. ११.३.१७

*यत् प्राण ऋतावागतेऽभिक्रन्दत्योषधीः। सर्वं तदा प्र मोदते यत् किं च भूम्यामधि ॥ - अ. ११.६.४

*ऋतून् ब्रूम ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्। समाः संवत्सरान् मासांस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥ - अ. ११.८.१७

*या देवीः पञ्च प्रदिशो ये देवा द्वादशर्तवः। संवत्सरस्य ये दंष्ट्रास्ते नः सन्तु सदा शिवाः ॥ - अ. ११.८.२२

*अर्धमासाश्च मासाश्चार्तवा ऋतुभिः सह। उच्छिष्टे घोषिणीरापः स्तनयित्नुः श्रुतिर्मही ॥ - अ. ११.९.२०

*अजाता आसन्नृतवोऽथो धाता बृहस्पतिः। इन्द्राग्नी अश्विना तर्हिं कं ते ज्येष्ठमुपासत ॥ - अ. ११.१०.५

*ग्रीष्मस्ते भूमे वर्षाणि शरद्धेमन्त शिशिरो वसन्तः। ऋतवस्ते विहिता हायनीरहोरात्रे पृथिवि नो दुहाताम् ॥ - अ. १२.१.३६

*यथाहान्यनु पूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभिर्यन्ति साकम्। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥ - अ. १२.२.२५

*नवं बर्हिरोदनाय स्तृणीत प्रियं हृदश्चक्षुषो वल्ग्वस्तु। तस्मिन् देवाः सह दैवीर्विशन्त्विमं प्राश्नन्त्वृतुभिर्निषद्य ॥ - अ. १२.३.३२

*वाचस्पत ऋतवः पञ्च ये नौ वैश्वकर्मणाः परि ये संबभूवुः। इहैव प्राणः सख्ये नो अस्तु तं त्वा परमेष्ठिन् परि रोहित आयुषा वर्चसा दधातु ॥ - अ. १३.१.१८

*यस्माद् वाता ऋतुथा पवन्ते यस्मात् समुद्रा अधि विक्षरन्ति तस्य देवस्य। क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥ - अ. १३.३.२

*द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः। अथैकं चक्रं यद्गुहा तदद्धातय इद् विदुः ॥ - अ. १४.१.१६

*पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम्। विश्वान्यो भुवना विचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥ - अ. १४.१.२३

*सोऽनादिष्टां दिशमनु व्यचलत्। तमृतवश्चार्तवाश्च लोकाश्च लौक्याश्च मासाश्चार्धमासाश्चाहोरात्रे चानुव्यचलन्। ऋतूनां च वै स आर्तवानां च लोकानां च लौक्यानां च मासानां चार्धमासानां चाहोरात्रयोश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥ - अ. १५.६.१६-१८

*तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य पञ्चमो व्यानस्त ऋतवः। - अ. १५.१७.५

*यज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजा अस्माकं वीरा अस्माकम्। तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः। स ऋतूनां पाशान्मा मोचि ॥ - - - - -तस्मादमुं निर्भजामोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमसौ यः। स आर्तवानां पाशान्मा मोचि। - अ. १६.८.१७-१८

*ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम्। मा मा प्रापत् पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥ - अ. १७.१.२९

*वृषा वृष्णे दुदुहे दोहसा दिवः पयांसि यह्वो अदितेरदाभ्यः। विश्वं स वेद वरुणो यथा धिया स यज्ञियो यजति यज्ञियाँ ऋतून् ॥ - अ. १८.१.१८

*देवा यज्ञमृतवः कल्पयन्ति हविः पुरोडाशं स्रुचो यज्ञायुधानि। तेभिर्याहि पथिभिर्देवयानैर्यैरीजानाः स्वर्गं यन्ति लोकम् ॥ - अ. १८.४.२

*ऋतुभ्यष्ट्वार्तवेभ्यो माद्भ्यः संवत्सरेभ्यः। धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे ॥ - अ. १९.३७.४

*आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनुप्रवोढुम्। अग्निर्विद्वान्त्स यजात् स इद्धोता सो ऽध्वरान्त्स ऋतून् कल्पयाति ॥ - अ. १९.५९.३

*मरुतः पोत्रात् सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु। अग्निराग्नीध्रात् सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु। इन्द्रो ब्रह्मा ब्राह्मणात् सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु। देवो द्रविणोदाः पोत्रात् सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु। - अ. २०.२.१-४

*यमु पूर्वमहुवे तमिदं हुवे सेदु हव्यो ददिर्यो नाम पत्यते। अध्वर्युभिः प्रस्थितं सोम्यं मधु पोत्रात् सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः ॥ - अ. २०.६७.७

*नहि स्थूर्यृतुnथा यातमस्ति नोत श्रवो विविदे संगमेषु। गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः ॥ - अ. २०.१२५.३

*वसन्ते पर्वणि ब्राह्मण आदधीत। ग्रीष्मवर्षाशरत्सु क्षत्रियवैश्योपक्रुष्टाः। यस्मिन्कस्मिश्चिदृतावादधीत। सोमेन यक्ष्यमाणो नर्तुं पृच्छेन्न नक्षत्रम् ॥ - आश्वलायन श्रौत सूत्र २.१.१२

*अथैनां कुशैः प्रक्षाल्य चतस्रः पूर्णाः प्रागुदीच्योर्निनयेदृतुभ्यः स्वाहा दिग्भ्यः स्वाहा सप्तर्षिभ्यः स्वाहेतरजनेभ्यः स्वाहेति। - आ.श्रौ.सू. २.४.१३

*अग्निः प्रथमो वसुभिर्नो अव्यात्सोमो रुद्रैरभिरक्षतु त्मना। इन्द्रो मरुद्भिर्ऋतुथा कृणोत्वादित्यैर्नो वरुणः शर्म यंसत्। - आ.श्रौ.सू. २.११.१२

*ऋतौ भार्यामुपेयात्। - आ.श्रौ.सू. २.१६.२५

*यद्यु वै सर्वपृष्ठान्यग्निर्गायत्रस्त्रिवृद्राथंतरो वासन्तिक इन्द्रस्त्रैष्टुभः पञ्चदशो बार्हतोv ग्रैष्मो विश्वे देवा जागताः सप्तदशा वैरूपा वार्षिका मित्रावरुणावानुष्टुभावेकविंशौ वैराजौ शारदौ बृहस्पतिः पाङ्क्तस्त्रिणवः शाक्वरो हैमन्तिकः सविताऽतिच्छन्दास्त्रयस्त्रिंशो रैवतः शैशिरोऽदितिर्विष्णुपत्न्यनुमतिः। आ.श्रौ.सू. ४.१२.१

*समिद्दिशामाशयानः स्वर्विन्मधुरेतो माधवः पात्वस्मान्। अग्निर्देवो दुष्टरीतुरदाभ्य इदं क्षत्रं रक्षतु पात्वस्मान् ॥ रथंतरं सामभिः पात्वस्मान्गायत्री छन्दसां विश्वरूपा। त्रिवृन्नो विष्टया स्तोमो अह्नां समुद्रो वात इदमोजः पिपर्तु। उग्रा दिशामभिभूतिर्वयोधाः शुचिः शुक्रे अहन्योजसीनाम्। इन्द्राधिपतिः पिपृतादतोv नो महि क्षत्त्रं विश्वतो धारयेदम्। बृहत्साम क्षत्त्रभृद्वृद्धवृष्ण्यं त्रिष्टुभौजः शुभितमुग्रवीरम्। इन्द्रस्तोमेन पञ्चदशेन मध्यमिदं वातेन सगरेण रक्ष। प्राची दिशां सहयशा यशस्वती विश्वे देवाः प्रावृषाऽह्नां स्वर्वती। इदं क्षत्त्रं दुष्टरमस्त्वोजोऽनाधृष्यं सहस्यं सहस्वत्। वैरूपे सामन्निह तच्छकेयं जगत्येनं विक्ष्वावेशयानि। विश्वे देवाः सप्तदशेन वर्च इदं क्षत्त्रं सलिलवातमुग्रम्। धर्त्री दिशां क्षत्त्रमिदं दाधारोपस्थाशानां मित्रवदस्त्वोजः। मित्रावरुणा शरदाह्नां चिकित्वमस्मै राष्ट्राय महि शर्म यच्छतम्। वैराजे सामन्नधि मे मनीषाऽनुष्टुभा संभृतं वीर्यं सहः। इदं क्षत्रं मित्रवदार्द्रदानुं मित्रावरुणा रक्षतमाधिपत्ये। सम्राड्दिशां सहसाम्नी सहस्वत्यृतुर्हेमन्तो विष्टया नः पिपर्तु। अवस्यु वाता बृहती नु शक्वरीमं यज्ञमवतु नो घृताची। स्वर्वती सुदुघा नः पयस्वती दिशां देव्यवतु नो घृताची। त्वं गोपा पुर एतोत पश्चाद्बृहस्पते याभ्यां युङ्धि वाचम्। ऊर्ध्वां दिशां रन्तिराशौषधीनां संवत्सरेण सविता नो अह्नाम्। रैवत्सामातिच्छन्दा उच्छन्दोऽजातशत्रुः स्योनानो अस्तु। स्तोमत्रयस्त्रिंशे भुवनस्य पत्नी विवस्वद्वाते अभि नो गृणीहि। घृतवती सवितराधिपत्ये पयस्वती रन्तिराशा नो अस्तु। - - - - आ.श्रौ.सू. ४.१२.२

*तदेषाऽभि यज्ञगाथा गीयते। ऋतुयाजान्द्विदेवत्यान्यश्च पात्नीवतो ग्रहः। आदित्यग्रहसावित्रौ तान्स्म माऽनुवषट्कृथा इति। - आ.श्रौ.सू. ५.५.२४

*ऋतुयाजैश्चरन्ति। तेषां प्रेषाः। पञ्चमं प्रैषसूक्तम्। तेन तेनैव प्रेषितः प्रेषितः स यथाप्रैषं यजति। - आ.श्रौ.सू. ५.८.१

*अथैतदृतुपात्रमानन्तर्येण वषट्कर्तारो भक्षयन्ति। - आ.श्रौ.सू. ५.८.८

*तृतीय सवने होत्रकाणाम् शस्त्राणि : - - - -ऋतुर्जनित्री - आ.श्रौ.सू. ६.१.२

*षष्ठस्य प्रातःसवने प्रस्थियाज्यानां पुरस्ताद् : पिबा सोममिन्द्र सुवानमद्रिभिरिन्द्राय हि द्यौरसुरो अनम्नतेति षट्। उपरिष्टात्त्वृच ऋतुयाजानाम् - आ.श्रौ.सू. ८.१.५

*अच्छावाकस्य स्तोत्रियानुरूपौ : *मदे मधोर्मदस्य मदिरस्य मदैवो - - - मोथामो दैवोमित्यस्य प्रतिहार ऋतुर्जनित्रीति नित्यान्यैकाहिकानि। - आ.श्रौ.सू. ८.३.३

*वैश्वानरो अजीजनदित्येका सा विश्वं प्रति चाक्लृपदृतूनुत्सृजते वशी। यज्ञस्य वय उत्तिरन्। - - - -इत्याग्निमारुतम् - आ.श्रौ.सू. ८.९.७

*ऋतूनां षळहं प्रतिष्ठाकामः। - आ.श्रौ.सू. १०.३.१

*मांसानशनं ब्रह्मचर्यं प्राङधः शेत ऋतुकाले वा जायामुपेयात्सत्यवदनं चान्तरालव्रतानि। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र ३.१३.३०

*याज्या : शुनासीरावृतुभिः संविदाना इन्द्रवन्ता हविरिदं जुषेथाम्। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र ३.१८.१४

*ऋत्विग्वरणदेवयजनप्रकरणम् : ऋतवो मे दैव्या होत्राशंसिनो यूयं मानुषाः। - शां.श्रौ.सू. ५.१.९

*ज्योतिष्टोमे ऋतुयाजप्रकरणम् : अथर्तुयाजैश्चरन्ति। होता यक्षदिन्द्रं होत्रादित्यृतुप्रैषैरनवानं प्रेष्यति। तथा यजति। - - - - - - - - शां.श्रौ.सू. ७.८.१

*ज्योतिष्टोम उक्थ्यशस्त्रप्रकरणम् : नार्मेधमच्छावाकस्य। - - - ऋतुर्जनित्री। - शां.श्रौ.सू. ९.३.१

*दशरात्रे षष्ठमहः :- तुभ्यं हिन्वान इति सूक्तयोरेकैकोर्ध्वमृतुप्रैषेभ्यः। - शां.श्रौ.सू. १०.७.८

*होत्रकशस्त्रप्रकरणम् : ऋतुर्जनित्री (एवयामरुतोऽनन्तरं शंसेत्) - शां.श्रौ.सू. १२.२६.१२

*हविर्यज्ञसोमप्रकरणम् : विंशतिं वैश्वदेवे ददाति। त्रिंशतं वरुणप्रघासेषु। पञ्चाशतं साकमेधेषु। विशतिं शुनासीरीये ॥ तद्विंशतिशतम्। विंशतिशतं वा ऋतोरहानि। तदृतुमाप्नोvति। ऋतुना संवत्सरम्। - शां.श्रौ.सू. १४.९.९

*ऋतुस्तोमाः। ऋतवो ह स्वर्गकामास्तपस्तप्त्वैतान्यज्ञक्रतूनपश्यन्षट्। तैरिष्ट्वा स्वर्गमापुः। तैः स्वर्गकामो यजेत। - शां.श्रौ.सू. १४.७३.१

*अश्वमेध प्रकरणम् : संवत्सरमृतुपशवः। षलाग्नेया वसन्ते। ऐन्द्रा ग्रीष्मे। मारुताः पार्जन्या वा वर्षासु। मैत्रावरुणाः शरदि। बार्हस्पत्या हेमन्ते। ऐन्द्रावैष्णवाः शिशिरे। - शां.श्रौ.सू. १६.९.२६

*पुरुषमेधप्रकरणम् : द्वादशद्वादशर्तुपशवः। - शां.श्रौ.सू. १६.१४.२०

*सर्वमेधप्रकरणम् : चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिर्ऋतुपशवः। - शां.श्रौ.सू. १६.१५.१६

*अहीनप्रकरणम् : अथ यत्षड्विधं तत्षड्रात्रेण। षड् वा ऋतवः षट्स्तोमास्तद्यत्किं च षड्विधमधिदैवतमध्यात्मं तत्सर्वमेनेनाप्नोvति। - शां.श्रौ.सू. १६.२५.१

*अग्निष्टद्धोता क्रतुविद्विजानन्यजिष्ठो देवाँ ऋतुशो यजाति। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ३.१२.१

*निरूढपशुबन्ध : ऋतुव्यावृत्तौ सूयवस आवृत्तिमुखावृत्तिमुखे वा। - आप.श्रौ.सू. ७.२८.७

*चातुर्मास्य वरुणप्रघास : यो वसन्तो ऽभूत्प्रावृडभूच्छरदभूदिति यजते स ऋतुयाजी। अथ यश्चतुर्षुचतुर्षु मासेषु स चातुर्मास्य याजी। वसन्ते वैश्वदेवेन यजते प्रावृषि वरुणप्रघासैः शरदि साकमेधैरिति विज्ञायते। - आप.श्रौ.सू. ८.४.१३

*चातुर्मास्य साकमेध : अग्निष्वात्ता ऋतुभिः संविदाना इन्द्रवन्तो हविरिदं जुषन्तामिति पितृpभ्यो ऽग्निष्वात्तेभ्यः। - आप.श्रौ.सू. ८.१५.१७

*चातुर्मास्य शुनासीरीय : इन्द्रर्तुभिर्ब्रह्मणा वावृधानः शुनासीरी हविरिदं जुषस्वेति शुनासीरीयस्य याज्यानुवाक्ये। - आप.श्रौ.सू. ८.२०.५

*चातुर्मास्य शुनासीरीय : प्रजामनु प्रजायसे तदु ते मर्त्यामृतम्। येन मासा अर्धमासा ऋतवः परिवत्सराः। येन ते ते प्रजापत ईजानस्य न्यवर्तयन्। तेनाहमस्य ब्रह्मणा निवर्तयामि जीवसे। - आप.श्रौ.सू. ८.२१.१

*चातुर्मास्य शुनासीरीय : त्रीनृतून्संवत्सरानिष्ट्वा मासं न यजते। द्वौ पराविष्ट्वा विरमति। चैत्र्यां तूपक्रम्य द्वाविष्ट्वा मासमनिष्ट्वा त्रीन्परानिष्ट्वा विरमति। - आप.श्रौ.सू. ८.२२.१०

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : दैवं च मानुषं च होतारौ वृत्वाश्रावमाश्रावमृतुप्रैषादिभिः सौमिकानृत्विजो वृणीते। - आप.श्रौ.सू. ११.१९.५

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : ते अपरेण प्राबाहुगृतुपात्रे आश्वत्थे अश्वशफबुध्ने उभयतोमुखे। दक्षिणमध्वर्योः। उत्तरं प्रतिप्रस्थातुः। - आप.श्रौ.सू. १२.१.१३

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : भक्षिताप्यायितमन्तरा नेष्टुराग्नीध्रस्य च चमसौ सादयित्वर्तुग्रहैः प्रचरतः। द्रोणकलशाद्गpह्यन्ते। न साद्यन्ते। - आप.श्रौ.सू. १२.२६.८

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : ऋतुपात्रं धारयमाणः सदोबिले प्रत्यङ्तिष्ठन्प्रतिगृणाति। प्रह्वो वा। - आप.श्रौ.सू. १२.२७.१५

*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : स्तुत ऋतुपात्रवर्जमैन्द्राग्नवच्छस्त्रप्रतिहारो ग्रहनाराशंसाश्च। - आप.श्रौ.सू. १२.२८.९

*अग्निष्टोम माध्यन्दिन सवनम् : मरुत्वन्तमिति स्वेनर्तुपात्रेणाध्वर्युः पूर्वं मरुत्वतीयं गृह्णाति। इन्द्र मरुत्व इति स्वेन प्रतिप्रस्थातोत्तरम्। - आप.श्रौ.सू. १३.२.४

*सोमप्रायश्चित्तम् : यदृतुग्रहैः प्रचरन्तौ मुह्येयातां विसृष्टधेनाः सरितो घृतश्चुतो वसन्तो ग्रीष्मो मधुमन्ति वर्षाः। शरद्धेमन्त ऋतवो मयोभुव उदप्रुतो नभसी संवसन्ताम्। आ नः प्रजां जनयतु प्रजापतिर्धाता ददातु सुमनस्यमानः। संवत्सर ऋतुभिश्चाकुपानो मयि पुष्टिं पुष्टिपतिर्दधातु। आ देवानाम्। - आप.श्रौ.सू. १४.२८.४

*सोमप्रायश्चित्तम् : त इमं यज्ञमवन्तु ते मामवन्त्वनु व आरभे ऽनु मारभध्वं स्वाहेत्यृतुनामस्वनुषजति। - आप.श्रौ.सू. १४.२८.५

*यः कामयेतर्तवो मे कल्पेरन्निति स षड्ढौतारम्। यः कामयेत सोमपः सोमयाजी स्यामा मे सोमपः सोमयाजी जायेतेति स सप्तहोतारम्। आप.श्रौ.सू. १४.१४.१२

*अग्निचयनम् : मधुश्च माधवश्चेति द्वे ऋतव्ये समानतया देवते। सर्वास्वृतव्यास्ववकामनूपदधाति। - आप.श्रौ.सू. १६.२५.१०

*अग्निचयनम् : बृहद्रथंतराभ्यां पक्षौ। ऋतुस्थायज्ञायज्ञियेन पुच्छम्। - आप.श्रौ.सू. १७.१२.१०

*अथान्तरस्यां षड्यज्ञक्रतूंस्त्रीणि चतुर्नामान्युपदधात्यग्निष्टोम उक्थ्यो ऽग्निर्ऋतुरिति। - आप.श्रौ.सू. १९.१२.१४

*अश्वमेधः :- भुवो देवानां कर्मणेत्यृतुदीक्षाभिः कृष्णाजिनमारोहन्तमभिमन्त्रयते। - आप.श्रौ.सू. २०.८.१२

*अश्वमेधः :- भुवो देवानां कर्मणेत्यृतुदीक्षाः। - आप.श्रौ.सू. २०.१२.६

*अश्वमेधः :- वसन्ताय स्वाहा ग्रीष्माय स्वाहेत्यृतुभ्यः षट्। - आप.श्रौ.सू. २०.२०.६

*अश्वमेधः :- पिशङ्गास्त्रयो वासन्ता इत्यृतुपशुभिः संवत्सरं यजते। अथैकेषाम्। आग्नेया वासन्ताः। ऐन्द्रा ग्रैष्माः। मारुताः पार्जन्या वा वार्षिकाः। ऐन्द्रावारुणाः शारदाः। ऐन्द्राबार्हस्पत्या हैमन्तिकाः। ऐन्द्रावैष्णवाः शैशिराः। - आप.श्रौ.सू. २०.२३.१०

*द्वादशाहः :- स्वयमध्वर्युर्ऋतुयाजं यजति। स्वयं गृहपतिः। - आप.श्रौ.सू. २१.७.१५

ऋतु

१. अग्नयो वा ऋतवः । माश ६.२,१,३६ ।

२. अग्निर्वा उत्सीदन् संवत्सरमनूत्सीदति, पञ्च वा ऋतवस्संवत्सरः, पञ्चथाद्वा अध्यृतोष्षष्ठ ऋतुर्बभूव, समानमेतद्यपञ्चथश्चर्तुष्षष्ठश्च । काठ ९, ३ ।।

३ अग्निष्टोम उक्थ्योऽग्निर्ऋतुः प्रजापतिः संवत्सर इति । एतेऽनुवाका यज्ञक्रतूनाञ्च

संवत्सरस्य च नामधेयानि । तै ३,१०, १०, ४ ।

४. अन्नमृतवः । मै १,७, ३ ।।

५. अभक्तुर्वै पुरुषो न हि तद् वेद यमृतुमभिजायते । काठ ७,१५; क ६,५।।

६. असन्ना हीम ऋतवः । मै ४,६,७।।

७. असौ वा आदित्य ऋतुस्तस्मादेष षण्मास उदङ्ङेति षड् दक्षिणा । काठ २८,२; क ४४,२॥

८. असौ वा आदित्यश्शुक्रो रश्मय ऋतवः । काठ २८, १०

९. अहमस्तभ्नां पृथिवीमुत द्यामहमृतूँरजनँ सप्त साकम् । काठ ४०, ९ ।।

१०. इम ऋतवः सर्वेषां भूतानां प्राणैरप प्रसर्पन्ति चोत्सर्पन्ति च । तैआ १,१४, ३ । ११. उभयतोमुखा हीम ऋतवो, न वै तद् विद्म यत ऋतूनां मुखम् । मै ४,६,७ (तु. काठ २८, २; क ४४,२) ।

१२. उभये ह्येते (ऋतवः पशवश्च) सहासृज्यन्त । मै १,८, २ ।।

१३. ऋतव एतं दक्षिणा पर्यहरन् , पितर ऋतवः । काठ २१,१२ ।

१४. ऋतव एव प्रवोवाजाः । १,५,२३ ।।

१५. ऋतवः पितरः । कौ ५,७; गो २,१,२४; ६,१५; माश २,४,२,२४; ६,१,४ }

१६. ऋतवः शिक्यमृतुभिर्हि संवत्सरः शक्नोति स्थातुं यच्छक्नोति तस्माच्छिक्यम् । माश ६,७,१,१८ ।।

१७. ऋतवस्त्वा पचन्तु । तैआ ४,२६,१।।

१८. ऋतवस्संवत्सरः । काठ ९,१६, २२,८; जै ३,१५४; तै ३,३,९, १ ।।

१९. ऋतवः समिद्धाः प्रजाश्च प्रजनयन्त्योषधीश्च पचन्ति । माश १,३,४, ७ ।

२०. ऋतवा आयवानः । संवत्सर एवास्यैतेना ऋतवोऽभीष्टाः प्रीताः भवन्ति । मै ३,४,४ ।।

२१. ऋतवो (°वः खलु वै [तैसं.]) देवाः पितरः । तैसं ५,४,११,४; काठसंक ६९:१ ।। २२. ऋतवो वा एतानि पञ्च हवींषि, पञ्च ह्यृतवः । मै १, १०, ५ ।।

२३. ऋतवो वाव होत्राः । गो २, ६, ६ ।।

२४. ऋतवो वै दिशः प्रजननः । गो २, ६,१२।

२५. ऋतवो वै देवाः ( पंक्ति [जै.J)। जै १, १०२; २६१; ३१७; माश ७,२,४,२६ ।।

२६. ऋतवो वै पृष्ठानि ( मरुतः [मै.])। मै ४, ६,८; काठ ३३,८; जै १,३४८, २,१०७; ३०३; ३१४; ३१८; ३५०; ३,१५४; तै ३, ९, ९,१; माश १३.३,२,१। ।

२७. ऋतवो वै पृष्ठ्यः षडहः । जै ३,३१८ ।।

२८. ऋतवो वै ( हि [माश. J) प्रयाजाः (°याजानुयाजाः (कौ १,४]) । तैसं १,६,११, ५; मै १, ४, १२; ७, ३; कौ १,४; ३,४; माश १, ३, २, ८ ।।

२९. ऋतवो वै वाजिनः ( विश्वे देवाः [माश ७, १, १, ४३])। कौ ५, २; गो २, १, २०; माश २, ४,४, २२; ७,१,१,४३ ।।

३०. ऋतवो वै सोमस्य राज्ञो राजभ्रातरो यथा मनुष्यस्य। ऐ १, १३ ।

३१. ऋतवो ह वै प्रयाजाः । तस्मात्पञ्च भवन्ति पञ्च ह्यृतवः । माश १, ५, ३,१।। ३२. ऋतवो हैते यदेताश्चितयः । माश ६, २, १, ३६।।

३३. ऋतवो होत्राशंसिनः । कौ २९,८ ।

३४. ऋतुभिः प्रभुः ( इन्द्रः) । तैसं ४, ४, ८,१।।

३५. ऋतुमृतुं वर्षति । काठ १९, ५ ।।

३६. ऋतुषु ह खलु वा एष संवत्सरं स्वर्गं लोकमप्येति यश्चातुर्मास्ययाजी । जै २,२३४।।

३७. ऋतून् पृष्टिभिः ( प्रीणामि ) । काठ ५३, ७ ।।

३८. ऋतूनां पञ्चमः । काठ ५३, ८ ।।

३९. ऋषभो वा एष ऋतूनां यत्संवत्सरः । तस्य त्रयोदशो मासो विष्टपम् । तै ३,८, ३,३ ।।

४०. एकादशभिरस्तुवतर्तवोऽसृज्यन्तार्तवोऽधिपतिरासीत् । तैसं ४, ३, १०, १ ( तु. मै २, ८, ६

४१. एतद्वा ऋतूनां मुखम् (यत्फल्गुनीपूर्णमासः) । काठ ८, १।

४२. किं नु ते ऽस्मासु (ऋतुषु) इति । इमानि ज्यायांसि पर्वाणि । जैउ ३,५,५,४ । ४३. को हि तद्वेद यत ऋतूनां मुखम् । तैसं ६,५, ३,२ ।।

४४. क्लृप्ता (तत्तल्लक्षणोपेताः) ऋतवः । तैसं ७,५,२०,१।

४५. चन्द्रमाः षड्ढोता । स ऋतून कल्पयति । तैआ ३,७,३।।

४६. तँ षड्ढोतारमृतुभिः कल्पमानम् •• कवयो निपान्ति । तैआ ३,११, ५।

४७. त एते षड् ऋतवष्षड् दिशः । त एत ऋतवो दिग्भिर्मिथुना वसन्तेनेयं प्राची दिङ् मिथुना, ग्रीष्मेणेयं (दक्षिणा दिक् ), वर्षाभिरियं (प्रतीची दिक् ) , शरदेयं (उदीची दिक् ), हेमन्तेनासौ (ऊर्ध्वा दिक् ), शिशिरेणेयम् (अधरा दिक् )। जै २, ५२ ।

४८. तद्यानि तानि भूतानि ऋतवस्ते । माश ६,१,३,८।

४९. तस्मादेकैकस्मिन्नृतौ सर्वेषामृतूनाँ रूपम् । माश ८, ७,१,४।

५०. तस्माद्यथर्तु वायुः पवते । तां १०,९, २ ।

५१. तस्माद्यथर्त्वादित्यस्तपति । तां १०,७,५।

५२. तस्माद्यथर्त्वोषधयः पच्यन्ते । तां १०,८,१।

५३. तस्य (संवत्सरस्य) ऋतव एव मुखानि । जै १,२४६ ।

५४. तानि वाऽएतानि (भूर्भुवस्स्वरिति ) पञ्चाक्षराणि । तान् पञ्चऽर्तूनकुरुत (प्रजापतिः), त इमे पञ्चर्तवः । माश ११,१,६,५ ।।

५५. तेषां (ऋतूनाम् ) वा एषो (संवत्सरः ) ऽभिषिक्तो राजा । मै ४,३,७ ।

५६. त्रयो वाऽऋतवः संवत्सरस्य । माश ३,४,४,१७; ११,५,४,११।।

५७. त्रयो ह वा ऋतवोऽनृतवोऽन्ये । ग्रीष्मो वर्षा हेमन्त एते ह वा ऋद्धा ऋतव उपश्लेषगा इवान्ये । जै २,३६०। ।

५८. त्रीन् (ऋतून्) सतो (प्रजापतिः) अभ्यतप्यत । तान् द्वेधा व्यौहत् । ते षड् ऋतवोऽभवन् । स ग्रीष्मादेव वसन्त निरमिमीत । वर्षाभ्यश्शरदं हेमन्ताच् छिशिरम् । तस्मादेत ऋतूनामुपश्लेषा इव निर्मिता हि । जै ३,१। ।

५९. द्वंद्वमृतवः । तैसं ५,४, २,१ (तु. तैसं ६,५,३,१) ।।

६०. द्वौ द्वौ हि मासावृतुः । तां १०,१२,८ (तु. माश ७,४,२,२९) ।।

६१. द्वौ द्वौ हीम (ह्य् [काठ., क.J) ऋतवः । मै ४,६,७; काठ २०, ६; २१,३; क ३१, ८; १८ ।

६२. द्वौ वा ऋतू अहश्च रात्रिश्च (रात्री च [काठ.]) । मै ३,७,१०; ४,४, ९; काठ ३७,१६ ।

६३. धाता षडक्षरेण षड् ऋतूनुदजयत् । तैसं १,७, ११, १। ।

६४. पञ्चथाद्वा अध्यृतोः षष्ठ ऋतुर्बभूव । समानमेतत्पञ्चथश्चर्तुः षष्ठश्च । क ८,६ ।

६५. पञ्चर्त्तवः संवत्सरस्य । माश १,५, २, १६; ३,१,४,२० (तु. काठ ९, १६; २२, ८; माश ३, १,४, ५) ।

६६. पञ्चर्तवो हेमन्त शिशिरयोः समासेन । ऐ १,१।।

६७. पञ्च वा (ह्य् ।काठ २५, २०; ३६,१३; तां.J) ऋतवः । तैसं ५,३,१,२; मै ४,१,५; काठ २०, १०; ३१,१५; काठसं ६९:१ क ४७,३; तां १२,४,८; १३,२, ६; माश २,२,३,१४।।

६८. पञ्च व्युष्टीरनु पञ्च दोहा गां पञ्चनाम्नीमृतवोऽनु पञ्च । पञ्च दिशः पञ्चदशेन क्लृप्ताः समानमूर्ध्नीरभि लोकमेकम् । तैसं ४,३,११,४; काठ ३९,१० ।

६९. पञ्चानां त्वर्तूनां यन्त्राय धर्त्राय गृह्णामि । तैसं १,६,१,२।।

७०. पितरो वा ऋतवः । मै १,१०,१७,३,४,४।

७१. पिप्रीहि देवाँ उशतो यविष्ट विद्वाँ ऋतूनृतुपते यजेह । ये दैव्या ऋत्विजस्तेभिरग्ने त्वँ होतॄणामस्यायजिष्ठः । काठ २,१५ ।।

७२. पूषा षडक्षरया षड् ऋतून् उदजयत् । मै १,११,१०; काठ १४,४ ।

७३. प्रजापतिर्वा एतमग्रेऽग्निमचिनुतर्तुभिस्संवत्सरं वसन्तेन पूर्वार्धं, ग्रीष्मेण दक्षिणं पक्षं, वर्षाभिरुत्तरं शरदा पुच्छं हेमन्तेन मध्यम् । काठ २२,४।

७४. फल्गुनीपूर्णमासो वा ऋतूनां मुखम् । मै १,६,९।।

७५. मुखं वा एतदृतूनां यद्वसन्तः । तै १,१,२, ६-७ ।

७६. य एक ऋतुस्त्रय ऋतवश्च ये षट् चतुर्विंशतिर् ऋतवो ये द्वादश सप्तदशान्युत विंशतिश्च तानन्वारोहामि तपसा ब्रह्मणा च । जै २, ५२ ।।

७७. यत्षष्ठेऽहन्प्रवृज्यते ऋतुर्भूत्वा संवत्सरमेति । तैआ ५, १२, २ ।

७८. यद् ऋत्वियादसृजत तद् ऋतूनामृतुत्वम् । जै ३,१।।

७९. यस्मिन्नेव कस्मिंश्चर्ता (अग्निम् ) आदधीत सोमेन यक्ष्यमाणः । काठ ८,१।। ८०. याष्षड् विभूतय ऋतवस्ते । जैउ १,६,२,१।।

८१. येनर्त्तवः पञ्चधोत क्लृप्ता उत वा षड्ढा मनसोत क्लृप्ताः । तै ३, ११,५ । ८२. यो वै म्रियतऽऋतवो ह तस्मै व्युह्यन्ते । माश ८,७,१,११।

८३. यौ ह खलु वै द्वौ मासावृतोत्सार्द्धिः । जै २,३५३ ।

८४. रश्मय ऋतवः । मै ४,८,८; क १५,१ ।

८५. वर्षाहूर्ऋतूनाम् । मै ३,१४, १९ । ।

८६. वसन्तमृतूनां प्रीणामि । काठ ३१, १५ ।

८७. वसन्तो ग्रीष्मो वर्षाः, ते देवा ऋतवः । शरदेमन्तः शिशिरस्ते पितरः । माश २,१,३,१ ।

८८. वसन्तो वै प्रथम ऋतूनां ग्रीष्मो द्वितीय वर्षास्तृतीयाश्शरच्चतुर्थी हेमन्तः पञ्चमश्शिशिरष्षष्ठः । जै २,३५६ ।।

८९. विंशतिशतं वा ऋतोरहानि (ऋतुः = चत्वारो मासाः) । कौ ११,७।।

९०, षडु मृत्योर्मुखानि ऋतव एव । जै १,२४७ । ।

९१. षड्वा ऋतवः (+संवत्सरः [जै १, १०२; १३१]; संवत्सरम् [माश.J)। मै १, १०, १७; ३, ४,४; ४,४,९; ८,४; काठ ११, ५;१०; काठसंक २१:२; गो २,१,१४; जै १,१०२, १३१; २,३६६; माश १,२,५,१२ ( तु. जै १,३१८; २,४२०)।

९२. संवत्सर ऋतवः । मै ४,६,८; जै १, ३४८; २,१०७; ३५०।।

९३. स ( प्रजापतिः) तपोऽतप्यत स आत्मन्न् ऋत्वियमपश्यत् । ततस्त्रीनृतूनसृजतेमानेव

स लोकान्'••••• यत्प्रथममतप्यत ततो ग्रीष्ममसृजत । यद् द्वितीयमतप्यत ततो वर्षा असृजत । यत् तृतीयमतप्यत ततो हेमन्तमसृजत । तस्मात् स शीततम इव । जै ३,१।

९४, सदस्या ऋतवोऽभवन् । तै ३,१२,९,४ ।।

९५. सप्तऽर्तवः संवत्सरः । माश ६,६,१, १४; ७,३,२,९; ९,१,१,२६ ( तु. माश ९,३,१,१९; ५,२,८ )।

९६. समानप्रभृतयो ह्यृतवः । काठ २०,१०

९७. समानाः सन्त ऋतवो न जीर्यन्ति । तैसं ५, ३, १,२ ।

९८. सर्व ऋतवो वृष्टिमन्तः । मै ३, १, ५। ।

९९. सर्वानृतून् वर्षति (वायुरावरीवर्ति [तैसं ५,३,१,३]) । तैसं ५,१,५,२; ३,१, ३ ।

१००. सेयं वागृतुषु प्रतिष्ठिता वदति । माश ७, ४, २, ३७ ॥

प्रजननं वा ऋतवोऽग्निः प्रजनयिता – मै १.७.४, काठ ९.३

ऋतवः अङ्गानि – तैसं ७.५.२५.१

अन्तो वै यज्ञस्य स्वाहाकारोऽन्त ऋतूनां हेमन्तः। - माश १.५.३.१३

ऋतवो वा इदं सर्वमन्नाद्यं पचन्ति – माश ४.३.३.१२

ऋतवो वा उदुब्रह्मीयं (सूक्तम्) । कौ २९.६

ऋतव उद्गीथः – ष ३.१

ऋतव उपसदः – माश १०.२.५.७

क्षत्रं वा इन्द्राग्नी विड् ऋतवः ।काठ २८.२

तदृतुभिरेवैतद्दिशो मिथुनीकरोति – माश २.४.४.२४

ऋतव्या (इष्टका-)

१. इमे वै लोका ऋतव्याः । माश ८,७,१,१२ ।

२. ऋतव एते यदृतव्याः । माश ८,७,१, १ ।।

३. ऋतुभ्यो वा एता (इष्टकाः) देवा निरमिमत, तदृतव्यानामृतव्यात्वम् । काठ २१,३, क ३१, १८ ।

४. ककुदमृतव्ये (इष्टके)। माश ७,५,१,३५ ।

५. क्षत्रं वाऽऋतव्या विश इमा इतरा इष्टकाः । माश ८,७,१,२ ।

६. संवत्सरो वा ऋतव्याः । माश ८,६,१,४, ७,१,१ ।

ऋतु-ग्रह

१. ऋतुग्रहैः प्रातःसवनमृतुमत् । मै ४,६,८।।

२. सोमपा इन्द्रस्य सजाता यद् ऋतुग्रहाः । क ४४,२ ।

ऋतु-पात्र

१. ऋतुपात्रमेवान्वेकशफं प्रजायते । माश ४,५,५,८ ।

२. ऋतुपात्रे (यदृतु° [क.J) प्रयुज्येते अश्वानेव तेन पशूनां दाधार । काठ २८, १०; क ४५,१ ।

३. स्तना ऋतुपात्रे । मै ४,५,९।।

४. स्तनौ त ऋतुपात्रे पाताम् । मै ४,८,७ ॥

अथैतद् ऋतुपात्रं पुनः प्रयुज्यतेऽश्वं वा एतत् प्रति। - मै ४.८.८

ऋतु-प्रैष- वाग्वा ऋतुप्रैषाः । गो २,६,१०।।

ऋतु-याज

१. ऋतवो वा ऋतुयाजाः । गो २, ३,७।।

२. प्राणा वा ऋतुयाजाः । ऐ २,२९; कौ १३,९; गो २,३,७।।

ऋतु-याजिन्-

यो वसन्तोऽभूत् प्रावृडभूञ्शरदभूदिति यजते स ऋतुयाजी । मै १,१०,८ ।

ऋतु-सन्धि-

ऋतुसन्धिषु वै (हि कौ.]) व्याधिर्जायते । कौ ५,१; गो २,१, १९ ।।


ऋत्वि (तु-इ)ज् –

१. आत्मा वै यज्ञस्य यजमानोऽङ्गान्यृत्विजः । माश ९,५,२, १६।

२. ऋतव ऋत्विजः । माश ११,२,७,२।

३. ऋत्विग्भ्यो ददाति, होत्रा एव तया (दक्षिणया) प्रीणाति । मै ४,८,३ । ।

४. ऋत्विजो वै महिषाः । माश १२,८,१,२ ।।

५. ऋत्विजो (+हैव [माश.) देवयजनम् । गो १,२,१४; माश ३,१, १,५।।

६. एतऽएव सरघे मधुकृतो यदृत्विजः । माश ३,४,३,१४ ।

७. एता उ ह वै यजमानस्य विशो यदृत्विजः । जै २,१४८ ।।

८. छन्दांसि वा ऋत्विजः । मै ३,९,८; काठ २६,९।

९. देवदूता वा एते यद् ऋत्विजः । तैसं १,७, ३,२।

१०. प्राच्या दिशा (°च्यां दिशि [तैसं.]) देवी ऋत्विजो मार्जयन्ताम् । तैसं १, ६, ५, १; मै १,४,२; काठ ५,५।। ।

यद् ऋत्वियादजनयत् तस्माद् ऋत्विज इत्याख्यायन्ते । जै ३,१ ।

११. वेदानामेवैतन्मूलं यद् ऋत्विजः प्राश्नन्ति । काठसंक ४: ५।

१२. स (प्रजापतिः) आत्मन्नृत्वमपश्यत्तत ऋत्विजोऽसृजत यदृत्वादसृजत तदृत्विजामृत्विक्त्वम्

(ऋत्वं = ऋतौ !ऋतुकाले] भवं गर्भस्य कारणं बीजमिति) । तां १०, ३,१ ।।

१३. सप्तर्त्विजः सूर्या इत्याचार्याः । तेषामेषा ( ऋक् ) भवति । सप्त दिशो नानासूर्याः सप्त होतार ऋत्विजः । देवा आदित्या ये सप्त तेभिः सोमाभीरक्ष णः । तैआ १,७,४-५ ।।

[°त्विज्- उशिज- ४; ऋतु- ७१ द्र.] ।

आर्त्विज्य-

अमानुष इव वाऽएतद्भवति यदार्त्विज्ये प्रवृत्त: । माश १,९,१,२९ ।


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Puraanic contexts of words like Rituparna, Ritvija/preist, Ribhu, Rishabha, Rishi etc. are given here.

Comments on Ritwija

References on Riddhi

Veda study on Ribhu

Comments on Rishabha

Veda study on Rishi/seer



ऋतुकुल्या वायु ४५.१०६ ( महेन्द्र पर्वत से निर्गत नदियों में से एक )


ऋतुदान लक्ष्मीनारायण १.४८४.३२( सुपर्ण ऋषि की पत्नी पुरुहूता द्वारा पर्वकाल में पति से ऋतुदान की मांग, पर्वकाल में ऋतुदान की मांग पर विप्र व विप्रपत्नी के शाप से चाण्डाली होने का वृत्तान्त )


ऋतुध्वज ब्रह्मवैवर्त्त १.८.२३ ( एकादश रुद्रों में से एक ), द्र. ऋतध्वज


ऋतुपर्ण पद्म ५.३१ ( ऋतुपर्ण द्वारा ऋतम्भर राजा को राम नाम के माहात्म्य का कथन ), ब्रह्माण्ड २.३.६३.१७३ ( अयुतायु - पुत्र, सर्वकाम - पिता, भगीरथ / इक्ष्वाकु वंश, राजा नल को अक्ष विद्या देकर अश्व विद्या सीखना ), भागवत ९.९.१७ (वही), मत्स्य १२.४६ (अयुतायु - पुत्र, कल्माषपाद - पिता, सर्वकर्मा - पितामह, इक्ष्वाकु वंश ), वायु ८८.१७३ ( अयुतायु - पुत्र , सर्वकाम - पिता, भगीरथ / इक्ष्वाकु वंश, राजा नल को अक्ष विद्या देकर अश्वविद्या सीखना ), विष्णु ४.४.३७ ( वही), कथासरित् ९.६.३७७ ९ (नल - दमयन्ती की कथा : ऋतुपर्ण द्वारा नल को अक्ष विद्या सिखाना ) Rituparna


ऋत्विज गर्ग  १०.११ ( उग्रसेन के अश्वमेध यज्ञ के ऋत्विजों के नाम ), देवीभागवत  ३.१०.२१ (देवदत्त द्विज के पुत्रेष्टि यज्ञ में कल्पित ऋत्विजों के नाम ),  ११.२२.३१ ( प्राणाग्नि होत्र में इन्द्रिय रूपी ऋत्विजों का कथन ), पद्म  १.३४.१३ ( ब्रह्मा के यज्ञ में ऋत्विजों के नाम ),  १.३९.७७(पुरुष द्वारा सृष्टि रूपी यज्ञ हेतु ब्रह्मा, उद्गाता, सामग प्रभृति १६ ऋत्विजों की उत्पत्ति), ब्रह्माण्ड  २.३.४७.४७ ( परशुराम के वाजिमेध में ऋत्विजों के नाम ), मत्स्य  १६७.७ ( ऋत्विजों की विष्णु देह से उत्पत्ति का कथन ), महाभारत उद्योग  १४१.३२(महाभारत रूपी यज्ञ में अभिमन्यु के उद्गाता, भीम के प्रस्तोता, युधिष्ठिर के ब्रह्मा तथा नकुल-सहदेव के शामित्र होने का कथन), शान्ति  ७९(ऋत्विज होने के लिए अपेक्षित गुण),  २८०.२७( ), अनुशासन  १५०.२९(प्राची, दक्षिण, प्रतीची व उत्तर दिशाओं में ७-७ ऋत्विज ऋषियों के नाम), आश्वमेधिक २०.२१(घ्राता, भक्षयिता, द्रष्टा, स्प्रष्टा, श्रोता, मन्ता व बोद्धा के सात परम ऋत्विज होने का श्लोक), विष्णुधर्मोत्तर  ३.९७.१ ( देव मूर्ति प्रतिष्ठा में यज्ञ के तुल्य १६ पौराणिक ऋत्विजों का कथन ), स्कन्द  ३.१.२३.२४(माहेश्वर यज्ञ के ऋत्विजों के नाम),  ५.१.२८.७७ ( चन्द्रमा के राजसूय यज्ञ के ऋत्विजों के नाम ),  ५.१.६३.२४० ( बलि राजा के यज्ञ के ऋत्विजों के नाम ),  ५.३.१९४.५४( श्री व विष्णु के विवाह रूपी यज्ञ के ऋत्विजों के नाम ),  ६.५.५ ( त्रिशंकु के यज्ञ के ऋत्विज ),  ६.१८०.३२ ( ब्रह्मा के पुष्कर स्थित यज्ञ में ऋत्विजों के नाम ),  ७.१.२३.९२ (ब्रह्मा के प्रभास क्षेत्र में स्थित यज्ञ के ऋत्विजों के नाम ), हरिवंश  ३.१०.५ ( ऋत्विजों की हरि के शरीर से उत्पत्ति का वर्णन ), लक्ष्मीनारायण  १.४४०.९६ ( धर्मारण्य में धर्म के यज्ञ के ऋत्विजों के नाम ),  १.५०९.२३ ( ब्रह्मा के अग्निष्टोम यज्ञ के ऋत्विजों के नाम )  २.१०६.४७ ( उष्णालय देश के राजा दक्षजवंगर के वैष्णव होम के ऋत्विज ),  २.१२४.८ ( बालकृष्ण के यज्ञ के ऋत्विज ), २.२४६.२९ ( ऋत्विज के देवलोकेश होने का उल्लेख ),  २.२४८.२२ ( सोमयाग में ऋत्विजों के कर्मों का वर्णन ),  ३.३५.११२ ( बृहद्धर्म नृप के चातुर्मास यज्ञ में ऋत्विजों द्वारा प्राप्त दक्षिणाओं का वर्णन ),  ३.१४८.९३( सांवत्सरी दीक्षा में प्रतिमास ऋत्विजों हेतु भोजन द्रव्यों का विधान ), ४.८०.१२ ( राजा नागविक्रम के सर्वमेध यज्ञ के ऋत्विजों के नाम )

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ऋद्धि गरुड १.२१.३( सद्योजात शिव की ८ कलाओं में से एक - ॐ हां सद्योजातायैव कला ह्यष्टौ प्रकीर्त्तिताः ।। सिद्धिर्ऋद्धिर्धृतिर्लक्ष्मीर्मेधा कान्तिः स्वधा स्थितिः ।। ), २.३०.५७/२.४०.५७( मृतक की भुजाओं में ऋद्धि - वृद्धि देने का उल्लेख - ऋद्धिवृद्धी भुजौ द्वौ च चक्षुषोश्च कपर्दकौ । ), ब्रह्माण्ड २.३.८.४६ ( कुबेर - पत्नी, नलकूबर - माता -ऋद्ध्यां कुबेरोऽजनयद्विश्रुतं नलकूबरम् ॥ ), ३.४.३५.९४ ( ब्रह्मा की १० कलाओं में से एक - पुष्टिर्ऋद्धिः स्थितिर्मेधा कान्तिर्लक्ष्मीर्द्युतिर्धृतिः । जरा सिद्धिरिति प्रोक्ताः क्रीडन्ति ब्रह्मणः कलाः ॥ ), वायु ७०.४१ ( कुबेर - पत्नी, नलकूबर – माता - ऋद्ध्यां कुबेरोऽजनयद्विश्रुतं नलकूबरम्। ), विष्णुधर्मोत्तर १.१३५.४६ ( उर्वशी की ऋद्धि  से न्यग्रोध वृक्ष की उत्पत्ति का उल्लेख - रात्रिमेनां विवत्स्यामि न्यग्रोधेऽस्मिन्महाद्रुमे । उर्वश्या ऋद्धिरचिते वरवेश्मनि पार्थिवः ।। ), ३.५३.४ ( ऋद्धि की गणेश के वाम पार्श्व में स्थिति, स्वरूप - वामोत्संगगता कार्या ऋद्धिर्देवी वरप्रदा । देवपृष्ठगतं पाणिं द्विभुजायास्तु दक्षिणम् ।। ), ३.८२.८ ( लक्ष्मी के हाथ में शङ्ख के ऋद्धि का प्रतीक होने का उल्लेख - देव्याश्च मस्तके पद्मं तथा कार्यं मनोहरम् । सौभाग्यं तद्विजानीहि शङ्खमृद्धिं तथा परम्।। ), शिव ७.२.४.४५( यक्ष - पत्नी के रूप में ऋद्धि का उल्लेख - यक्षो यज्ञशिरोहर्ता ऋद्धिर्हिमगिरीन्द्रजा ॥ ), लक्ष्मीनारायण १.३८२.२६( कुबेर के विष्णु व ऋद्धि के लक्ष्मी होने का उल्लेख - ऋद्धिस्त्वं च कुबेरोऽहं गौरी त्वं वरुणोऽस्म्यहम् । ), २.२१०.२७ ( श्री हरि का आलीस्मर राष्ट्र की ऋद्धीशा नगरी में आगमन व प्रजा को आशा त्याग का उपदेश - आलीस्मरं हरिः प्राप विमानं भूतलेऽनयन् । ऋद्धीशाया महोद्याने नृपालयस्य सन्निधौ ।।), ३.१११.२४ ( ऋद्धि दान से प्राकृत स्थल की प्राप्ति - गृहदः सत्यलोकं च ऋद्धिदः प्राकृतं स्थलम् ।)  Riddhi

References on Riddhi


ऋभु अग्नि ३८०.४५ ( ऋभु का ऋतु से साम्य ), गरुड ३.५.३८(ऋभुगण का तीन पितरों से साम्य?), गर्ग ५.२०.३७ ( रोहिताचल पर समाधिस्थ ऋभु द्वारा कृष्ण दर्शन पर प्राण त्याग, कृष्ण चरणों से पुन: प्राकट्य, पूर्व शरीर का नदी रूप में परिणत होना ), नारद १.४९ ( ब्रह्मा - पुत्र, शिष्य निदाघ को भोजन व वाहन के माध्यम से अद्वैत की शिक्षा ), पद्म १.६.२७( प्रत्यूष वसु - पुत्र, देवल - भ्राता ), लिङ्ग १.३८.१४ ( ऋभु व सनत्कुमार का ब्रह्मा से प्राकट्य ), १.७०.१७०(ऋभु का क्रतु से तादात्म्य?, तुलनीय : ब्रह्माण्ड १.१.५.७९), वायु १.९.९८/९.१०६( ऋभु व सनत्कुमार के ऊर्ध्वरेतस व सबके पूर्वज होने का उल्लेख ), २४.७८( ऋभु व सनत्कुमार का ब्रह्मा से प्राकट्य, ऋभु व सनत्कुमार के ऊर्ध्वरेतस होने तथा शेष तीन सनकादि द्वारा प्रथम २ के त्याग का कथन ), २४.८३(सनत्कुमार का ऋभु से तादात्म्य?),१०१.३०/२.३९.३०( ऋभुओं इत्यादि की भुव: लोक में स्थिति का उल्लेख ), विष्णु २.१५.२ ( ब्रह्मा - पुत्र, शिष्य निदाघ को भोजन व वाहन के माध्यम से अद्वैत की शिक्षा ), ६.८.४३ ( ब्रह्मा द्वारा विष्णु पुराण का सर्वप्रथम ऋभु को वर्णन, ऋभु द्वारा प्रियव्रत को वर्णन ), लक्ष्मीनारायण १.१७६.१५( दक्ष यज्ञ में भृगु द्वारा दक्षिणाग्नि में आहुति से ऋभवों की उत्पत्ति, ऋभवों द्वारा रुद्र गणों से युद्ध ) Ribhu

 Veda study on Ribhu


ऋभुगण ब्रह्माण्ड २.३.१.१०७ ( सुधना - पुत्र ), भागवत ४.४.३३ ( दक्ष के यज्ञ की शिव के प्रमथ गणों से रक्षा के लिए भृगु द्वारा अग्नि में आहुति से ऋभवों की सृष्टि ), ६.७.२, ६.१०.१७ ( ऋभुगणों की इन्द्र की सभा में स्थिति , इन्द्र के साथ वृत्र से युद्ध ), ८.१३.४ ( वैवस्वत मन्वन्तर में एक देवगण ), मत्स्य ९.२४ ( चाक्षुष मन्वन्तर में एक देवगण ), वायु ६५.१०२ ( ऋषभ : सुधन्वा - पुत्र, रथकार , देव व ऋषि दोनों वर्गों में व्याप्ति ), १०१.३० ( ऋभुगण का भुव: लोक में वास ), शिव २.२.३०.२४ ( दक्ष के यज्ञ की शिव के प्रमथ गणों से रक्षा के लिए भृगु द्वारा अग्नि में आहुति से ऋभवों की सृष्टि )


ऋषङ्गु वामन ३९.१७ ( ऋषङ्गु ऋषि द्वारा पृथूदक तीर्थ की महिमा का कथन )


 ऋषभ देवीभागवत    ८.१४.१०  ( लोकालोक पर्वत पर ४ दिग्गजों में से एक ),   ब्रह्मवैवर्त्त    १.१७.४०  ( शङ्कर के कृष्ण की कलाओं का ऋषभ होने का उल्लेख ),  ब्रह्माण्ड    १.२.३६.१७  ( अङ्गिरा - पुत्र ऋषभ : स्वारोचिष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक ),  भागवत    १.१४.३१  ( कृष्ण का एक पुत्र ),    २.७.१०  ( नाभि व सुदेवी - पुत्र,   ऋषभ द्वारा जड योगचर्या का आश्रय ),   ५.४+ ( नाभि व मेरुदेवी - पुत्र,  विष्णु के अवतार,   जयन्ती - पति ,   ऋषभ द्वारा अजनाभ खण्ड का शासन,  भरत आदि १०० पुत्रों की प्राप्ति,  पुत्रों को उपदेश,   अवधूत वृत्ति का ग्रहण,  देह त्याग,   चरित्र महिमा ),    ५.५.१९( ऋषभ की निरुक्ति : अधर्म को पृष्ठ करने वाले ),    ५.१६.२६  ( मेरु के मूल में एक पर्वत का नाम ),   ५.१९.१६  ( भारतवर्ष का एक पर्वत ),  ५.२०.२२ ( क्रौंच द्वीप के निवासियों का एक वर्ण ),   ६.८.१८  ( ऋषभ से द्वन्द्व व भय से रक्षा की प्रार्थना ),   ६.१०.१९ ( वृत्रासुर का एक सेनानी,  इन्द्र से युद्ध ),    ६.१८.७  ( इन्द्र व शची के तीन पुत्रों में से एक,  जयन्त - भ्राता ),    ८.१३.२०  ( आयुष्मान् व अम्बुधारा - पुत्र,  भगवान का कलावतार ),    ९.२२.६  ( कुशाग्र - पुत्र,   सत्यहित - पिता,   दिवोदास वंश ),    १०.२२.३१  ( कृष्ण का एक गोप सखा,   कृष्ण द्वारा वृक्ष महिमा का कथन ),   ११.२.१५+ ( ऋषभ राजा के कवि,   हरि आदि ९ योगीश्वर पुत्रों का वृत्तान्त ),  वराह    ८०.९  ( मेरु की पश्चिम दिशा में शङ्खकूट व ऋषभ पर्वतों के बीच स्थित पुरुष स्थली की महिमा ),   वामन    ६.८९  (भरद्वाज - शिष्य,   पाशुपत सम्प्रदाय के प्रचारक ),  वायु    २१.३३  ( १५ वें ऋषभ नामक कल्प में ऋषभ स्वर की उत्पत्ति का कथन ),   २३.१४३  ( नवम द्वापर में शिव का अवतार  ,   पराशर आदि तीन पुत्रों के नाम ),   ३३.५०  ( नाभि व मरुदेवी - पुत्र,   भरत आदि १०० पुत्रों के पिता,  वंश वर्णन ),   ४४.१९ ( ऋषभा : केतुमाल वर्ष की एक नदी ),   ४९.११  ( प्लक्ष द्वीप के ७ पर्वतों में से एक,  सुमना उपनाम,   ऋषभ पर्वत पर वराह द्वारा हिरण्याक्ष का निग्रह ),    ४९.१४( ऋषभ वर्ष के दूसरे नाम क्षेमक का उल्लेख ),   ५९.१०० ( १३ मन्त्रकर्त्ता अङ्गिरस ऋषियों में से एक ),    ६५.१०२  ( सुधन्वा - पुत्र,   रथकार,   देव व ऋषि दोनों वर्गों में व्याप्ति ),  ६८.१५ ( दनु के मनुष्यधर्मा पुत्रों में से एक ),   ८७.३३  ( भद्राश्व वर्ष के निवासियों द्वारा ऋषभ स्वर में गायन  ? ),   ९९.२२३ ( कुशाग्र - पुत्र,  पुष्पवान - पिता,   कुरु वंश ),   विष्णु    २.१.२७  ( नाभि व मरुदेवी - पुत्र ऋषभ के संक्षिप्त चरित्र का वर्णन ),  शिव    ३.४.३५( नवम द्वापर में शिव - अवतार ऋषभ का चरित्र : मृत भद्रायु नृपपुत्र को जीवन दान आदि ),    ५.३४.२२  ( तृतीय उत्तम मन्वन्तर में देवों के गण का नाम  ? ),   स्कन्द    ३.३.१०+ ( पिङ्गला वेश्या व मन्दर ब्राह्मण द्वारा ऋषभ योगी की सेवा से जन्मान्तर में सत्कुल प्राप्ति की कथा ),   ५.१.७०.१  ( ऋषभ पर्वत की स्थिति का कथन : मेरु के दक्षिण में स्थिति आदि ),   ५.२.७३.२८  ( ऋषभ ऋषि द्वारा राजा वीरकेतु को करभ / उष्ट्र के पूर्व जन्म का वृत्तान्त बताना ),  हरिवंश    ३.३५.२०  ( यज्ञवराह द्वारा निर्मित ऋषभ पर्वत के स्वरूप का कथन ),   वा.रामायण    ४.४०.४४  ( सुग्रीव - प्रोक्त ऋषभ पर्वत महिमा : पूर्व दिशा में क्षीरसागर में स्थिति  ,   सुदर्शन सरोवर का स्थान ),    ४.४१.३९  ( सीता अन्वेषण प्रसंग में सुग्रीव द्वारा वानरों को दक्षिण दिशा में स्थित ऋषभ पर्वत की महिमा का वर्णन ),   ४.६५.५(ऋषभ वानर की गमन शक्ति का कथन ),   ६.२४.१५  ( ऋषभ की वानर सेना के दक्षिण पार्श्व में स्थिति ),    ६.४१.४०  ( ऋषभ द्वारा लङ्का के दक्षिण द्वार पर अङ्गद की सहायता ),   ६.७०.५५  ( ऋषभ द्वारा रावण - सेनानी महापार्श्व का वध ),    ६.१२८.५४  ( ऋषभ द्वारा राम अभिषेक हेतु दक्षिण समुद्र से जल लाना ),  लक्ष्मीनारायण    १.३८९  ( नाभि व मरुदेवी की विष्णु भक्ति से ऋषभ अवतार का जन्म,  ऋषभ के चरित्र का वर्णन ),    १.३८९.३८(ऋषभ के संदर्भ में आग्नीध्रीय शब्द का उल्लेख),   २.१४०.६४ ( ऋषभ संज्ञक प्रासाद के लक्षण ),  २.२१०.५० ( ऋषभ भक्त द्वारा बदरीवन में पर्णकुटी बनाने की इच्छा,  तनु ऋषि के उपदेश से आशा का त्याग करके मोक्ष प्राप्ति ),   २.२४०  ( योगी वीतिहोत्र द्वारा गुरु ऋषभ व सहस्र रूपधारी कृष्ण की आराधना का हठ,  कृष्ण द्वारा गुरु ऋषभ व सहस्र रूप धारण करके दर्शन देना ),  कथासरित्    ५.३.६५  ( ऋषभ पर्वत पर चर्तुदशी को शिव पूजा के लिए विद्याधरों के आगमन का कथन ),  ८.७.१६५,    ८.७.२००  ( ऋषभ पर्वत पर सूर्यप्रभ के अभिषेक का वर्णन ),    १५.१.६२  ( ऋषभ नामक देव द्वारा तप से कैलास के दक्षिण व उत्तर पार्श्वों का चक्रवर्तित्व प्राप्त करना ),    १५.२.४३  ( ऋषभ पर्वत पर नरवाहनदत्त राजा के अभिषेक का वर्णन )  Rishabha  Comments on Rishabha


ऋषा ब्रह्माण्ड २.३.७.१७२ ( क्रोधवशा - कन्या, पुलह - पत्नी ), २.३.७.४१३ ( मीना, अमीना आदि ५ कन्याओं की माता, मकर आदि प्रजाओं की उत्पत्ति ), वायु ६९.२९० ( मीना, माता आदि ५ कन्याओं की माता , मकर, ग्राह, शङ्ख आदि प्रजा की उत्पत्ति ) Rishaa


ऋषि कूर्म १.२२.४५ ( ऋषियों के आराध्य देव ब्रह्मा व रुद्र ), गरुड १.५.२५ ( सप्तर्षियों द्वारा दक्ष - पुत्रियों का पत्नी रूप में ग्रहण, पत्नियों के नाम ), १.११६.६ ( एकादशी तिथि को ऋषियों की पूजा ), ३.१०.३०(ऋषि के ८ लक्षण होने का उल्लेख), गर्ग ५.१७.२२ ( कृष्ण विरह पर ऋषि रूपा गोपियों के उद्गार ), नारद १.४३.११४( विद्याभ्यास श्रवण धारण से ऋषियों की तृप्ति का उल्लेख ), १.११४.३४ ( भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी को ऋषि पूजा की विधि ), पद्म १.१५.३१७( पुरोधा के ऋषि लोक का स्वामी होने का उल्लेख ), ३.२०.१३ ( ऋषि तीर्थ का माहात्म्य : तृणबिन्दु ऋषि की शाप से मुक्ति ), ब्रह्मवैवर्त्त १.८.२४ ( पुलस्त्य आदि ऋषियों की ब्रह्मा की देह के अङ्गों से उत्पत्ति ), २.५०.३३ ( सुयज्ञ राजा द्वारा ब्राह्मण अतिथि के तिरस्कार पर ऋषियों द्वारा स्व प्रतिक्रिया व्यक्त करना ), ब्रह्माण्ड १.२.३२.७० ( ऋषियों के पांच प्रकारों का वर्णन ), १.२.३२.८६ ( ऋषि शब्द की निरुक्ति ), १.२.३२.९९ ( तप व सत्य से ऋषिता प्राप्ति करने वाले ऋषियों के नाम ), १.२.३५.८९ ( देवर्षि, ब्रह्मर्षि आदि ऋषियों के लक्षण ), २.३.१ ( ऋषि सर्ग का वर्णन ), भविष्य १.५७.१०( ऋषि के लिए क्षीरौदन बलि का उल्लेख ), १.५७.२०( ऋषियों हेतु ब्रह्मवृक्ष की बलि का उल्लेख ), ३.४.२१.१३ ( कलियुग में कश्यप आदि १६ ऋषियों का कण्व व आर्यावती के पौत्रों के रूप में उत्पन्न होना ), भागवत १२.६.४८ ( वेद संहिता की शाखाओं के प्रवर्तक आचार्यों / ऋषियों के नाम ), मत्स्य ३.५ ( ब्रह्मा के मन से सृष्ट १० ऋषियों मरीचि आदि के नाम ), १४५.८१ ( ऋषि शब्द की निरुक्ति, सत्य, तप आदि से ऋषिता प्राप्त करने वाले ऋषियों के ५ गणों का वर्णन ), १४५.८९( ऋषियों के अव्यक्तात्मा, महात्मा आदि ५ भेद ), १४५.९८ ( मन्त्रकर्त्ता ऋषियों के नाम ), १९३.१३ ( ऋषि तीर्थ का माहात्म्य : शापग्रस्त तृणबिन्दु की मुक्ति ), १९५.६( ब्रह्मा के शुक्र से ऋषियों की पुन: उत्पत्ति का कथन ), मार्कण्डेय ५०.२२ ( भृगु आदि ऋषियों द्वारा दक्ष की ख्याति आदि कन्याओं को पत्नी रूप में ग्रहण करना ), वराह १५२.६२ ( ऋषि तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य ), वामन २.९ ( वसिष्ठ आदि ऋषियों की भार्याओं के नाम ), ७२.१५ ( सात ऋषि - पत्नियों समाना, नलिनी आदि के नाम ), वायु ७.६८( महर्षि शब्द की निरुक्ति ), ९.१०० ( ब्रह्मा की देह के विभिन्न अङ्गों से ऋषियों की सृष्टि का कथन ), २८.१ ( भृगु आदि ऋषियों के वंश का अनुकीर्तन ), ५९.७९ ( निरुक्ति ), ५९.९१ ( ज्ञान व सत्य से ऋषिता प्राप्त करने वाले मन्त्रकर्ता ऋषियों के नाम ), ६१.८१ ( ब्रह्मर्षि, देवर्षि आदि शब्दों का निरूपण ), १०१.३०/२.३९.३०( ऋषि आदि की भुव: लोक में स्थिति का उल्लेख ), विष्णु १.१०.१ ( भृगु आदि ऋषियों की सन्तानों का वर्णन ), विष्णुधर्मोत्तर १.१११+ ( ब्रह्मा के वीर्य के होम से ऋषियों की उत्पत्ति, ऋषियों के गोत्रों व प्रवरों का अनुकीर्तन ), ३.४२.३ ( ऋषियों के रूप के निर्माण के संदर्भ में ऋषियों को कृष्णाजिन आदि से युक्त करने का कथन ), स्कन्द १.२.५.१०९( ऋषिकल्प : ब्राह्मणों के ८ भेदों में से एक, लक्षण ), ३.२.९.२५ ( यम के अनुरोध पर ऋषियों व ब्राह्मणों के २४ गोत्रों का धर्मारण्य में स्थित होना, २४ गोत्रों, उनके प्रवरों व गुणों का वर्णन ), ५.३.८३.१०६ ( गौ के रोम कूपों में ऋषियों की स्थिति का उल्लेख ), ७.१.२५५ ( ऋषि तीर्थ का माहात्म्य : हेमपूर्ण उदुम्बर प्राप्ति व बिस चोरी पर ऋषियों द्वारा प्रतिक्रिया ), ७.१.३१४ ( ऋषि तीर्थ का माहात्म्य : ऋषियों की पाषाण प्रतिमाओं के रूप में स्थिति ), ७.४.१५.१२ ( ऋषि तीर्थ का माहात्म्य ), महाभारत अनुशासन ९३,९४, १४१.९५( उञ्छ वृत्ति से जीवन निर्वाह करने वाले ऋषियों के धर्म का निरूपण ),१५५, लक्ष्मीनारायण १.३८.५ ( ऋषि आदि शब्दों की निरुक्ति, ब्रह्मा के अङ्गों से ऋषियों की सृष्टि का वर्णन ), १.३८२.१६३(ऋषियों के शिष्यों की संख्या), २.२२५.९३( ऋषियों हेतु स्वर्णकलश दान का उल्लेख ), ३.४५.११०( ऋषियों द्वारा सौहार्द से भगवान् को प्राप्त करने का उल्लेख ), ३.५४.५ ( ऋषि धर्म साधु द्वारा लीलावती खश कन्या को मुक्ति के उपाय का कथन ), द्र. सप्तर्षि Rishi

 Veda study on Rishi/seer



ऋद्धिः 

सर्वास् समग्रर्द्धयो हिरण्येऽस्मिन् समाहृताः । - खिल ४.६.२ 

रोहिण्यां वा एतं प्रजापतिराधत्त तया रोहमरोहत् तद्रोहिण्या रोहिणीत्वमेष वै मनुष्यस्य स्वर्गो ल